मनस्तत्व / The 'mind'
विचार, बुद्धि, भावना, मोह, संस्कार और प्रमाद
Thought, intellect, emotion, passion, hidden tendencies and inattention.
--
मन अर्थात् अंतःकरण नामक आधिदैविक सत्ता के ये छह तत्व परस्पर एक-दूसरे में व्याप्त होते हैं और इस तरह से एक ही तथ्य के भिन्न-भिन्न दिखलाई पड़नेवाले प्रकार हैं।
The 'mind' / the inner organ / the cosmic mind consists of these 6 elements which are distributed in each-other homogeneously. They though appear of different shades are one single fact only.
बुद्धि से विचार का और विचार से बुद्धि का आगमन होता है।
Intellect causes thought and thought evokes the Intellect.
मोह से भावना का तथा भावना से मोह का आगमन होता है।
Passion causes the emotion and emotion evokes the Passion.
संस्कार से प्रमाद का तथा प्रमाद से संस्कार का आगमन होता है।
The hidden / latent tendencies cause the inattention and the inattention evokes the hidden / latent tendencies
आगमन अर्थात् उद्भव, प्राकट्य।
'evokes' means brings out...
स्मृति इन सब का संचित परिणाम है।
'memory' is the collective result / effect of all.
राग, द्वेष, काम, क्रोध, भय, लोभ, मत्सर, ईर्ष्या आदि भावना है, जबकि भावना को शाब्दिक आवरण देने से उसे ही विचार या बुद्धि के रूप में देखा जाता है। प्रमाद अर्थात् विवेक का अभाव जब वृत्ति के औचित्य / अनौचित्य की परीक्षा किए बिना ही या तो मन उस वृत्ति से एक हो जाता है या उस वृत्ति से अन्य कोई भिन्न-प्रकार की वृत्ति उसका स्थान लेती है।
attachment, envy, lust, anger, fear, greed, jealousy, animosity are emotion while the same when given a verbal form are 'thought'.
विचार और बुद्धि रजोगुण-प्रधान हैं।
Thought and intellect are of the nature of activity.
भावना और मोह सतोगुण-प्रधान हैं।
Emotion and Passion are of the nature of light (and shadow)
संस्कार और प्रमाद तमोगुण-प्रधान हैं।
Hidden / latent tendencies are of the nature of lethargy / inertia.
ये तीनों गुण त्रिगुणात्मिका प्रकृति के ही तीन अंग हैं, एक ही शक्ति के तीन रूपों में होनेवाले भिन्न भिन्न कार्य।
These 3 attributes (गुण) are the 3 aspects of the three-fold 'Nature' / प्रकृति .
प्रस्तुत पोस्ट का केंद्रीय बिंदु है इस अध्याय 14 का श्लोक क्रमांक 10 .
इस अर्थ में एक ही तथ्य एक ही समय पर 'अंतःकरण' में आपस में क्रीडारत तीन गुणों में से एक शेष दो पर वर्चस्व रखकर चित्त की वृत्ति को तमोगुण, रजोगुण या सत्त्वगुण की प्रधानता से प्रवृत्त करता है। इसलिए मन निरंतर गतिशील रहता है।
सतोगुण की प्रबलता होने पर विधेयात्मक चिंतन (positive thinking) अनायास संभव हो पाता है, रजोगुण की प्रबलता होने पर नकारात्मक या सकारात्मक विक्षेपयुक्त चिंतन हुआ करता है जब मन आशा-निराशा, भय-लोभ, आदि द्वंद्वयुक्त भावनाओं में डोलता रहता है। तमोगुण की प्रबलता की स्थिति में निद्रा या मूढतायुक्त विचार नकारात्मक चिंतन (negative thinking) और उससे जुड़ी भावना चित्त पर हावी हो जाती है।
The core-point of this post is the stanza 10 of Chapter 14 of Srimadbhagvadgita) .
At any time, the same 'fact', - The 'mind', governed by the 'Nature' behaves in the influence of one of the three attributes while the other two are in its control. The one that is at the helm becomes prominent and the other 2 the subservient.
When the 'Light' / सतोगुण is prominent, the mind can see clearly with intelligence and see the prejudice, and the unjust. In other words; 'positive thinking' happens.
When the 'activity' / restlessness (रजोगुण) prevails over the other two attributes, the mind undergoes confusion, doubt, hope, anxiety, and despair at the same time.
When the 'Lethargy' / 'inertia' / तमोगुण prevails over the other two attributes, the mind undergoes sleep and can't see the things correctly and properly. This is when 'Negative Thinking' dominates the mind.
--
भगवद्गीता अध्याय 14 के श्लोक क्रमांक 4 से श्लोक क्रमांक 20 तक इसे ही विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया गया है।
Chapter 14, stanza 4 onwards 20 of Gita are reproduced here for the sake of a better understanding.
Please check the corresponding link for the English version.
--
अध्याय 14, श्लोक 4,
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
--
(सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासाम् ब्रह्म महत् योनिः अहम् बीजप्रदः पिता ॥)
--
भावार्थ :
हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र अर्जुन)! समस्त योनियों में जितनी भी मूर्तियाँ (अनेक रूपाकृतियाँ) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी महत् योनि, सबका आदिकारण प्रकृति अर्थात् महत्-ब्रह्म ही है (जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था), जिसे मैं ही बीज प्रदान करता हूँ और इस प्रकार से मैं ही उनका पिता हूँ ।
--
Chapter 14, śloka 4
sarvayoniṣu kaunteya
mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ |
tāsāṃ brahma mahadyonir-
ahaṃ bījapradaḥ pitā ||
--
(sarvayoniṣu kaunteya
mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ |
tāsām brahma mahat yoniḥ
aham bījapradaḥ pitā ||)
--
Meaning :
This prakṛti / mahat-brahma is the mahat yoni -Great mother, that conceives the seed of All the beings that are born in innumerable different body-forms. And I AM The Father, That provides the seed.
--
अध्याय 14, श्लोक 5,
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥
--
(सत्त्वम् रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् ॥)
--
भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! सत्त्वगुण, रजोगुण, एवं तमोगुण प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण अविनाशी स्वरूप वाले देही (चेतन-तत्त्व) को देह में बाँधते हैं ।
--
Chapter 14, śloka 5,
sattvaṃ rajastama iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahābāho
dehe dehinamavyayam ||
--
(sattvam rajaḥ tamaḥ iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahā bāho
dehe dehinam avyayam ||)
--
Meaning :
sattva, raja and tama, these three attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) bind him to the body, to the one (the consciousness associated with the body), who takes himself as the body.
--
अध्याय 14, श्लोक 6,
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयं ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥
--
(तत्र सत्त्वम् निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन च अनघ ॥)
--
भावार्थ :
हे अनघ (अर्जुन) ! (प्रकृति से उद्भूत तीन गुणों में से) सत्त्व उसमें निहित निर्मलत्व, प्रकाशकत्व, और शुचिता के कारण मनुष्य को सुख की भावना से बाँध देता है, ।
अर्थात् ’मैं सुखी रहूँ, -हो जाऊँ’ इस विचार अथवा कामना के रूप में बंधन बन जाता है ।
--
Chapter 14, śloka 6,
tatra sattvaṃ nirmalatvāt-
prakāśakamanāmayaṃ |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena cānagha ||
--
(tatra sattvam nirmalatvāt
prakāśakam anāmayam |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena ca anagha ||)
--
Meaning :
There, O stainless / sinless (arjuna)! Because of the clarity, intelligence, and purity inherent in 'sattvam', this aspect of 'prakṛti' binds one with the 'sense of happiness'.
--
अध्याय 14, श्लोक 7,
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥
--
(रजः रागात्मकम् विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तत् निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥)
--
भावार्थ :
हे कौन्तेय (अर्जुन)! रागके स्वरूपवाले रजोगुण को कामना (लालसा) तथा आसक्ति (लिप्तता) से उत्पन्न हुआ जानो, जो (रजोगुण) देह के स्वामी (जीव) को कर्म तथा उसके फल की आशा से बाँधता है ।
--
Chapter 14, śloka 7,
rajo rāgātmakaṃ viddhi
tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam |
tannibadhnāti kaunteya
karmasaṅgena dehinam ||
--
(rajaḥ rāgātmakam viddhi
tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam |
tat nibadhnāti kaunteya
karmasaṅgena dehinam ||)
--
Meaning :
Know the rajo-guṇa (passion), that is of the nature of identification, is born of desire and longings for pleasures. And the same (rajo-guṇa) binds the embodied being (soul / jīva) with the action (karma) and the hope of the fruits (karmaphala) of that action (karma)
--
अध्याय 14, श्लोक 8,
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
--
(तमः तु अज्ञानजम् विद्धि मोहनम् सर्वदेहिनाम् ।
प्रमाद आलस्यनिद्राभिः तत् निबध्नाति भारत ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण को, जो समस्त देहधारियों के चित्त को मोहित करता है, उसे तो अज्ञान से उत्पन्न जानो । और वह (तमोगुण) उन्हें प्रमाद, आलस्य एवं निद्रा जैसी वृत्तियों से बाँधता है ।
--
Chapter 14, śloka 8,
tamastvajñānajaṃ viddhi
mohanaṃ sarvadehinām |
pramādālasyanidrābhis-
tannibadhnāti bhārata ||
--
( tamaḥ tu ajñānajam viddhi
mohanam sarvadehinām |
pramāda-ālasya-nidrābhiḥ
tat nibadhnāti bhārata ||)
--
Meaning :
O bhārata (arjuna)! Know well that tamoguṇa, (the attribute of inertia) in all the creatures, is caused by the (inherent) ignorance. And binds the mind through the tendencies (vṛtti-s) of distraction, indolence and drowsiness.
--
अध्याय 14, श्लोक 9,
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
--
(सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत ॥)
--
भावार्थ :
(आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को आवृत्त कर) सत्त्वगुण तो चित्त को सुख में प्रवृत्त करता है, रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है, तथा हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण ज्ञान को ढाँककर चित्त को प्रमाद में प्रवृत्त करता है ।)
टिप्पणी : इस प्रकार तीनों गुण आत्मा के स्वरूप को आवरित रखते हैं ।
--
Chapter 14, śloka 9,
sattvaṃ sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛttya tu tamaḥ
pramāde sañjayatyuta ||
--
(sattvam sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛtya tu tamaḥ
pramāde sañjayati uta ||)
--
Meaning :
bhArata (arjuna)! Driven by the attribute of harmony (sattvaṃ), the mind ( citta ) gets identified with joy and peace, driven by the attribute of passion (rajaḥ / rajas), the mind gets identified with action, and driven by the attribute of inertia (tamaḥ / tamas) the mind gets identified with sloth, idleness.
--
अध्याय 14, श्लोक 10,
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
--
(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
--
भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।
--
Chapter 14, śloka 10,
rajastamaścābhibhūya
sattvaṃ bhavati bhārata |
rajaḥ sattvaṃ tamaścaiva
tamaḥ sattvaṃ rajastathā ||
--
(rajaḥ tamaḥ ca abhibhūya
sattvam bhavati bhārata |
rajaḥ sattvam tamaḥ ca eva
tamaḥ sattvam rajaḥ tathā ||)
--
Meaning : Overpowering rajoguṇa and tamoguṇa, satoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and tamoguṇa, rajoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and rajoguṇa tamoguṇa prevails.
--
अध्याय 14, श्लोक 11,
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥
--
(सर्वद्वारेषु देहे अस्मिन् प्रकाशः उपजायते ।
ज्ञानम् यदा तदा विद्यात् विवृद्धम् सत्त्वम् इति उत ॥)
--
भावार्थ : मन पर तीनों गुणों का प्रभाव निरन्तर पड़ता रहता है । पिछले श्लोक 10 में बतलाया गया कि किस प्रकार एक समय पर एक ही गुण शेष दो गुणों को दबाकर मन पर आधिपत्य कर लेता है । इस क्रम में जिस समय सत्त्वगुण प्रबल होता है देह के सभी द्वारों (मन तथा इन्द्रियों में) चेतनता, निर्मलता तथा नीरोगता (स्वास्थ्य, आरोग्य) का विस्तार होता है, क्योंकि जैसा इसी अध्याय के पूर्व श्लोक क्रमांक 6 में कहा गया, सत्त्वगुण जो कि सुख से बाँधता है, इन्हीं का कारक है । और चूँकि ये तीनों दशाएँ आत्मा की सहज स्वाभाविक अवस्था है, इसलिए मनुष्य को इनमें सुख की प्रतीति तथा फलस्वरूप तज्जनित सुख का आभास भी होता है । यह अवस्था सत्त्व की प्रबलता और प्रचुरता की द्योतक है ।
--
Chapter 14, śloka 11,
sarvadvāreṣu dehe:'smin-
prakāśa upajāyate |
jñānaṃ yadā tadā vidyād-
vivṛddhaṃ sattvamityuta ||
--
(sarvadvāreṣu dehe asmin
prakāśaḥ upajāyate |
jñānam yadā tadā vidyāt
vivṛddham sattvam iti uta ||)
--
Meaning :
Mind functions by the force, and under the influence of the three attributes (guṇa-s) of manifestation (prakṛti). As explained in the śloka 6 of this Chapter, 'sattvaguṇa' has the qualities of consciousness, harmony, joy, intelligence, clarity, purity and cleanliness, and absence of ill, when 'sattvaguṇa' predominates over the other two attributes (namely rajoguṇa and tamoguṇa,) one feels just happy and peaceful, content, which are the revelations of the nature of the essential Reality / Self. This further becomes 'experience' and the 'memory'. Thus 'sattvaguṇa' causes the sense of happiness. And as a consequence binds with 'pleasure'. This is again a bondage only, -not the freedom. When this happens, it is the indication of the preponderance of 'sattvaguṇa'.
--
अध्याय 14, श्लोक 12,
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥
--
(लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा ।
रजसि एतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥)
--
भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! लोभ, प्रवृत्ति (रुचि) कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, और लालसा, रजोगुण के बढ़ जाने पर चित्त में ये सभी जन्म लेते हैं ।
--
Chapter 14, śloka 12,
lobhaḥ pravṛttirārambhaḥ
karmaṇāmaśamaḥ spṛhā |
rajasyetāni jāyante
vivṛddhe bharatarṣabha ||
--
(lobhaḥ pravṛttiḥ ārambhaḥ
karmaṇām aśamaḥ spṛhā |
rajasi etāni jāyante
vivṛddhe bharatarṣabha ||)
--
Meaning :
O bharatarṣabha (arjuna)! When the mode of passion (rajoguṇa) predominates (in the mind, -over satoguṇa and tamoajoguṇa), one is overtaken by greed, activity, urge for the activity, restlessness and cravings for enjoyment.
--
अध्याय 14, श्लोक 13,
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥
--
(अप्रकाशः अप्रवृत्तिः च प्रमादः मोहः एव च ।
तमसि एतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥)
--
भावार्थ :
हे कुरुनन्दन (अर्जुन)! तमोगुण के बढ़ जाने पर अप्रकाश (अन्धकार, जडता), अप्रवृत्ति (उत्साह का न होना), प्रमाद (व्यर्थ चेष्टा), मोह (निद्रा तथा मद का प्रभाव) भी, ये सब उत्पन्न होते हैं ।
--
Chapter 14, śloka 13,
aprakāśo:'pravṛttiśca
pramādo moha eva ca |
tamasyetāni jāyante
vivṛddhe kurunandana ||
--
(aprakāśaḥ apravṛttiḥ ca
pramādaḥ mohaḥ eva ca |
tamasi etāni jāyante
vivṛddhe kurunandana ||)
--
Meaning :
O kurunandana(arjuna)! When the tamoguṇa (inertia) predominates (in the mind, - over satoguṇa and rajoguṇa), one comes under the spell of lack of insight (aprakāśa), laziness, in-attention, delusion, and the indulgence in stupor-like states of the mind.
--
Note :
1.The 3 attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) have a parallel in This day Physics.
satoguṇa is synonymous to light,
rajoguṇa is synonymous to inertia of momentum (as in Dynamics),
tamoguṇa is synonymous to inertia at rest (as in statics).
But we may also note that the light that is seen (in whatever form from a source, or as a reflection) is a physical object and the one 'who' sees this light is again a kind of awareness that is consciousness, or an entity / sentient being endowed with consciousness.
--
अध्याय 14, श्लोक 14,
यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥
--
(यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयम् याति देहभृत् ।
तदा उत्तमविदाम् लोकान् अमलान् प्रतिपद्यते ॥)
--
भावार्थ :
जब मनुष्य के मन में सत्वगुण प्रबल होता है और तब उसकी मृत्यु होती है, तब देह के स्वामी (चेतना, जीव) को उत्तम कर्मोंवाले निर्मल लोकों की प्राप्ति होती है ।
--
Chapter 14, śloka 14,
yadā sattve pravṛddhe tu
pralayaṃ yāti dehabhṛt |
tadottamavidāṃ lokān-
amalānpratipadyate ||
--
(yadā sattve pravṛddhe tu
pralayam yāti dehabhṛt |
tadā uttamavidām lokān
amalān pratipadyate ||)
--
Meaning :
When a soul (consciousness associated with the body) leaves the body, and satvaguṇa (harmony - clarity, light, peace, of mind) prevails at that time, one attains the stainless ethereal places of noble and auspicious deeds.
--
अध्याय 14, श्लोक 15,
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥
--
(रजसि प्रलयम् गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनः तमसि मूढयोनिषु जायते ॥)
--
भावार्थ :
रजोगुण जब चित्त में प्रबल होता है, उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले कर्मों में आसक्ति रखनेवालों में उत्पन्न होते हैं । और तमोगुण जब चित्त में प्रबल होता है, उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले मूढयोनि में उत्पन्न होते हैं ।
--
Chapter 14, śloka 15,
rajasi pralayaṃ gatvā
karmasaṅgiṣu jāyate |
tathā pralīnastamasi
mūḍhayoniṣu jāyate ||
--
(rajasi pralayam gatvā
karmasaṅgiṣu jāyate |
tathā pralīnaḥ tamasi
mūḍhayoniṣu jāyate ||)
--
Meaning :
One, who dies in a state of mind, when the passion (rajoguṇa) is prevailing, he attains the next birth among the people who are obsessed with activity. And one, who dies in a state of mind, when the sloth (tamoguṇa) is prevailing, he attains the next birth in the wombs of impure, dull and animal tendencies
--
अध्याय 14, श्लोक 16,
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
--
(कर्मणः सुकृतस्य आहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् ।
रजसः तु फलम् दुःखम् अज्ञानम् तमसः फलम् ॥)
--
भावार्थ :
श्रेष्ठ (सात्त्विक) कर्म का फल तो सात्त्विक अर्थात् क्लेश-निवारण, निर्मल, ज्ञान तथा वैराग्य प्रदायक कहा गया है, जबकि राजस कर्म का फल दुःख और तामस का फल अज्ञान कहा गया है ।
--
Chapter 14, śloka 16,
karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ
sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam |
rajasastu phalaṃ duḥkham-
ajñānaṃ tamasaḥ phalam ||
--
(karmaṇaḥ sukṛtasya āhuḥ
sāttvikam nirmalam phalam |
rajasaḥ tu phalam duḥkham
ajñānam tamasaḥ phalam ||)
--
Meaning :
Clarity, peace and happiness, is said the fruit of a noble action (sāttvika-karma), while misery and sorrow is said the fruit of the action done in confusion (rajoguṇa), and ignorance and delusion is said the fruit of the action done without care .
--
अध्याय 14, श्लोक 17,
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥
--
(सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम् रजसः लोभः एव च ।
प्रमादमोहौ तमसः भवतः अज्ञानम् एव च ॥)
--
भावार्थ :
सत्त्व (सत्त्वगुण) से ज्ञान का उद्भव होता है, रज (रजोगुण) से लोभ का, और तम (तमोगुण) से प्रमाद एवं मोह तथा अज्ञान का भी उद्भव होता है ।
--
Chapter 14, śloka 17,
sattvātsañjāyate jñānaṃ
rajaso lobha eva ca |
pramādamohau tamaso
bhavato:'jñānameva ca ||
--
(sattvāt sañjāyate jñānam
rajasaḥ lobhaḥ eva ca |
pramādamohau tamasaḥ
bhavataḥ ajñānam eva ca ||)
--
Meaning :
From (sattva-guṇa) / attribute of harmony, comes the knowledge, from (rajoguṇa) / attribute of passion, comes the greed, while from tamoguṇa / the attribute of inertia, come the pramāda, / idleness, and moha / distraction, and ajñāna / ignorance as well.
--
अध्याय 14, श्लोक 18,
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
--
(ऊर्ध्वम् गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्थाः अधः गच्छन्ति तामसाः ॥)
--
भावार्थ :
सत्त्वगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला चेतना की उच्चतर स्थितियों की ओर गतिशील होता है, रजोगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला जहाँ का तहाँ रहता है, और जघन्यगुण (निन्दनीय) वृत्ति में स्थित रहनेवाला अधोगति की ओर गतिशील होता है ।
--
Chapter 14, śloka 18,
ūrdhvaṃ gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthā
adho gacchanti tāmasāḥ ||
--
(ūrdhvam gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthāḥ
adhaḥ gacchanti tāmasāḥ ||)
--
Meaning :
Those who try to stay in the purity of consciousness, (in the state of mind where one is aware of just being only), attain the elevated state, those who remain as they are and are lead by their modes (vṛtti) of mind keep stagnant, while those who indulge in the evil tendencies of delusion and ignorance keep falling.
--
अध्याय 14, श्लोक 19,
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥
--
(न अन्यम् गुणेभ्यः कर्तारम् यदा द्रष्ट अनुपश्यति ।
गुणेभ्यः च परं वेत्ति मद्भावम् सः अधिगच्छति ॥)
--
भावार्थ :
जब मनुष्य समष्टि चेतन में एकीभाव से स्थित हो जाता है, अर्थात् मन, बुद्धि, स्मृति और ’मैं’-भावना से नितांत अछूता होकर देखता है कि गुणों के सिवा दूसरा कुछ नहीं है जिसे ’कर्ता’ कहा जा सके, तब वह उन गुणों से परे अवस्थित मेरे (अपने-आपके) स्वरूप को जान लेता है और उसमें अधिष्ठित हो जाता है ।
--
Chapter 14, śloka 19,
nānyaṃ guṇebhyaḥ kartāraṃ
yadā draṣṭānupaśyati |
guṇebhyaśca paraṃ vetti
madbhāvaṃ so:'dhigacchati ||
--
(na anyam guṇebhyaḥ kartāram
yadā draṣṭa anupaśyati |
guṇebhyaḥ ca paraṃ vetti
madbhāvam saḥ adhigacchati ||)
--
Meaning :
When one is able to see that there are these three guṇa only and nothing else that could be termed the agent (responsible for all actions), and then looks beyond them and finds out and knows the Supreme, he knows Me and attains to Me, My Real Form.
--
अध्याय 14, श्लोक 20,
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥
--
(गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान् ।
जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखैः विमुक्तः अमृतम् अश्नुते ॥)
--
भावार्थ :
(प्रकृति के सत्व, रज तथा तम) इन तीनों गुणों से निर्मित इस देह का स्वामी (शुद्ध चेतनता) इनसे छूटकर, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था (और व्याधि / रोग) जैसे समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर शाश्वत सत्ता को पा लेता है ।
--
टिप्पणी :
वह जीव-चेतना जो शरीर पर अपना स्वामित्व अनुभव करती है, मन-मस्तिष्क पर पड़नेवाला शुद्ध चैतन्यरूपी प्रकाश मात्र होती है, और प्रकृति-प्रदत्त शरीर का उस प्रकाश से संयोग ही बुद्धि में अहं-रूपी विशिष्ट व्यक्ति होने का भ्रम उत्पन्न करता है ।
जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था, जब द्रष्टा (अर्थात् वह चेतना जो व्यक्तित्व तथा परब्रह्म का समान उभयनिष्ठ तत्व है) यह देख लेता है कि उपरोक्त तीन गुणों से भिन्न कोई कर्ता नहीं होता, तब यह यथार्थ स्पष्ट हो जाता है ।
--
Chapter 14, śloka 20,
guṇānetānatītya trīndehī
dehasamudbhavān |
janmamṛtyujarāduḥkhair-
vimukto:'mṛtamaśnute ||
--
(guṇān etān atītya trīn
dehī dehasamudbhavān |
janma-mṛtyu-jarā-duḥkhaiḥ
vimuktaḥ amṛtam aśnute ||)
--
Meaning :
Having transcended these 3 attributes (guṇa-s) of manifestation / phenomenon / prakṛti, that bring about this physical existence in the form of the body and its world, the individual consciousness is freed from the miseries like the birth, death, old-age, and diseases, and gets immense peace and bliss time-less and eternal.
Note:
In the last śloka 19 we saw, knowing the fact that except these 3 attributes (guṇa-s) of manifestation / phenomenon / prakṛti, there is no such an entity that could be termed as the agent (kartā) for happening of a karma / bringing out an action (karma) / result, one stands aloof as the pure consciousness, as the only witness of this phenomena, and at once realizes the witness aspect of this consciousness, that is common to the individual soul and the Consciousness in totality (Brahman).
--
Here I took the pleasure of copying-pasting from my another blogspot-blog on Gita.
This is rather a repetition though. .... So ...that is that.... !
The above references are from
my own blog .
For details please check the blog.
--