Friday, 28 September 2018

शिक्षा : प्रयोजन और प्रासंगिकता

शिक्षा और 'विचार' 
शिक्षा के बारे में कुछ कहे जाने से पहले ’विचार’ के बारे में कुछ तथ्यों पर ध्यान देना उपयोगी होगा ।
विचार जो किसी भी भाषा में भावाभिव्यक्ति का शाब्दिक प्रकार है अपरिहार्यतः किसी न किसी सन्दर्भ और विषय से संबद्ध होता है ।
इसलिए विचार बुद्धि की कोई गतिविधि है ।
इसे दूसरे तरीके से कहा जाए तो विचार के रूप में असंख्य बुद्धियाँ मनुष्य के मन में उठती और विलीन होती रहती हैं । इन सभी बुद्धियों का कोई सन्दर्भ और विषय भी होता है । सन्दर्भ और विषय के अभाव में बुद्धि का कार्य प्रारंभ ही नहीं होता ।
प्रजातंत्र नामक राजनीतिक प्रणाली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नागरिक का मूल अधिकार स्वीकार किया गया है ।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि शुद्धतः भौतिक विषयों / प्रकरणों में तो संविधान-संमत न्याय के अनुसार कोई निर्णय  सुनाया जा सकता है किंतु जब धर्म या धर्म के नाम पर व्यक्ति की आस्था का प्रश्न उठता है जिसमें दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो तो न्याय-प्रणाली की अपनी मर्यादाएँ हो सकती हैं ।
क्या आस्था का प्रश्न वैचारिक तर्क-वितर्क से हल किया जा सकता है?
जब दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो  :
वैचारिक तर्क-वितर्क का एक बौद्धिक धरातल और कसौटी होती है ।
आस्था का आधार कोई विचार नहीं बल्कि परंपरा या अन्तर्दृष्टि होता है ।
परंपरा के अर्थ में जिसे ’धर्म’ अर्थात् रिलीजन कहा जाता है, वास्तव में एक भ्रमोत्पादक शब्द है ।
धर्म का आधार आस्था होता है किंतु आस्थारूपी ऐसा आधार पुनः या तो परंपरा से या फिर अन्तर्दृष्टि से स्वीकार कर लिया जाता है ।
जैसे आतंकवाद अच्छा या बुरा (गुड ऑर बैड) नहीं होता वैसे ही मूलतः तो कोई भी विचार सत्य या असत्य, ठीक या गलत, नहीं होता । वह अपने विशिष्ट विषय के सन्दर्भ में ही उचित या अनुचित हो सकता है । विषय और सन्दर्भ से विच्छिन्न विचार लक्ष्यहीन होने से अराजक होता है । इसी प्रकार विषय और सन्दर्भ से जोड़कर देखने पर वह आवश्यकता के अनुसार अवश्य ही व्याख्येय और विवेच्य भी हो सकता है ।
ईश्वर का विचार ऐसा ही एक विचार है ।
सांख्य-दर्शन भी किसी स्वतंत्र ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहता ।
सांख्य ईश्वर नामक सत्ता की व्याख्या या विवेचना इसलिए भी नहीं करता क्योंकि यदि ईश्वर नामक किसी सत्ता का अस्तित्व है भी तो वह जगत् से अविच्छिन्न होने से ’दूसरा’ नहीं हो सकता । अव्याख्येय और अनिर्देश्य तो वह है ही ।
इसलिए ईश्वर है या नहीं, क्या है? -यह आस्था का विषय है न कि विचार या बुद्धि का ।
इसलिए विचार की शिक्षा और आस्था की शिक्षा परस्पर बहुत भिन्न प्रकार की शिक्षाएँ हैं ।
विचार की शिक्षा भी पुनः दो प्रकार की हो सकती है :
एक तो किसी विचार की सत्यता या असत्यता की विवेचना और परीक्षा द्वारा कोई सर्वसंमत निष्कर्ष प्राप्त करना ।
इसलिए विज्ञान द्वारा प्राप्त सत्यों या निष्कर्षों पर असहमति प्रायः नहीं पाई जाती ।
विचार की शिक्षा का दूसरा प्रकार वह है जिसमें स्वयं ’विचार’ क्या है? अर्थात् विचार विचारमात्र की तरह से क्या है इस प्रश्न को हल करने का प्रयास किया जाता है ।
जैसा कि पहले कहा गया, विचार का कोई संदर्भ और विषय होता है, इसलिए विचार स्वरूपतः मर्यादित सत्य / तथ्य होता है ।
इसलिए दो भिन्न विचार एक ही विषय और संदर्भ से जुड़े होने पर ही ग्राह्य और विवेचनीय तथा उपयोगी या व्यर्थ हो सकते हैं ।
आस्था का विचार भी एक विचार है और जब परंपरा से चली आ रही किसी आस्था पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं तो वैचारिक स्तर पर उसका हल खोजना विचार के अधिकार-क्षेत्र से बाहर का प्रयास होता है ।
जब दूसरे किसी व्यक्ति के अधिकार का हनन होता दिखाई पड़ता हो :
क्या किसी एक समूह की आस्था किसी दूसरे समूह पर बलपूर्वक आरोपित की जा सकती है?
विचार के स्तर पर तो यही कहा जा सकता है कि ऐसा करना अनुचित होगा ।
किंतु जब एक ही समुदाय में दो वर्गों में परस्पर मतभेद हो तो क्या वह प्रश्न उस समुदाय पर ही छोड़ना उचित नहीं होगा?
विशेष रूप से उस स्थिति में जब इससे उस समुदाय के किसी निर्णय से अन्य समुदायों (वर्ग नहीं) पर कोई प्रभाव न पड़ता हो?
मानव-मन मेज़ेनाइन-फ़्लोर / mezzanine-floor  (औसत-बुद्धि / मीडियॉकर-माइंड) पर अवस्थित प्रक्रिया है जिसे वैदिक भाषा में ’आधिदैविक’ कहा जाता है ।
यही आस्था का आधार और अधिष्ठान भी है ।
तात्पर्य यह कि भिन्न-भिन्न आस्थाएँ इसी आधिदैविक भूमि से प्रकट होकर इसी में विलीन हो जाती हैं । वे न तो उत्पन्न, और न नष्ट होती हैं ।
शिक्षा के इन दो पक्षों पर ध्यान देना ही शिक्षा-व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती है ।
"सबका विकास, सबका साथ" की भावना होने पर मीडियॉकर-माइंड (mediocre-mind) से कैसे ऊपर उठा जा सकता है, यह प्रश्न सभी के लिए विचारणीय है ।
'न्यूज़' में सुना कि शिक्षा-नीति पर आज कहीं कोई बड़ा सम्मलेन होनेवाला है ... , तो सोचा इस पर एक 'पोस्ट' लिखी जा सकती है !
'न्यूज़' में ही अय्यप्पा मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के बारे में न्यायालय के फैसले का समाचार भी सुना तो 'आस्था' का विचार भी इस पोस्ट को लिखने के लिए एक बहाना बन गया। 
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 (प्रसंगवश : वर्ष 2002 में श्री जे. कृष्णमूर्ति के 'Talks with Students -Varanasi 1954' का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद "शिक्षा क्या है?" प्रकाशित हुआ था।)


Thursday, 27 September 2018

भीड़ का उन्माद / mob-lynching


युद्धविराम-संधि या अनाक्रमण-संधि?
(Cease-fire or No-attack?)
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युद्धविराम-संधि ज़रूर किसी ऐसे मस्तिष्क का आविष्कार है जो तात्कालिक तौर पर तो युद्ध करने में अपने लाभ की अपेक्षा अपनी हानि अधिक देखता है और इसलिए युद्धविराम के लिए राजी हो जाता है । संभवतः यह उसकी मज़बूरी या कपट भी हो सकता है ताकि इस बीच भविष्य के लिए शक्ति और सामर्थ्य इकट्ठा कर सके । इस शक्ति और सामर्थ्य का प्रयोजन भी पुनः या तो केवल आत्म-रक्षा करने की दृष्टि से हो सकता है, या उचित अवसर पर शत्रु को कमज़ोर पाने पर उस पर अधिक शक्ति से आक्रमण करने की दृष्टि से भी हो सकता है ।
इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार के युद्धविराम हमेशा से होते रहे हैं ।
जब भी ऐसा कोई युद्धविराम स्वीकार किया जाता है, अर्थात् युद्धविराम संधि की जाती है, तब युद्धोन्माद के अंगारे इस संधि-रूपी राख में छिप जाते हैं और अनुकूल समय आने पर पुनः जलने लगते हैं ।
अधिक उचित शायद यह होगा कि विभिन्न पक्ष युद्धविराम जैसी प्रवंचनापरक शब्दावलि को छोड़कर अनाक्रमण-संधि जैसी शब्दावलि का प्रयोग सिद्धान्ततः और व्यावहारिक पारस्परिक सौहार्द्र की अभिव्यक्ति को प्रकट रूप देने के लिए करें !
फिर भी, बहुत संभव है कि यह शब्द भी दिखावटी मुखौटा ही हो।  इस शब्द के प्रयोग के बाद भी वे युद्ध की तैयारियों में लगे रहें यह भी हो सकता है, किंतु उस स्थिति में उनका अपना कपट उनके समक्ष छुपा न रहेगा ।
जब तक परस्पर अविश्वास है तब तक युद्ध की आग कभी पूरी तरह से बुझ सकेगी यह सोचना भी गलत है ।
अनेक स्तर हैं, अनेक विभाजन हैं मनुष्य के मन-मस्तिष्क में और समाज और राष्ट्र उन्हीं का सामूहिक चेहरा हैं ।
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यहाँ होने का मतलब

संबंध, संपर्क और संघात
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ऋग्वेद मंडल 10 का यह सूक्त रोचक है  किंतु काव्यात्मक होने से इसका कोई सर्वसम्मत सुनिश्चित तार्किक अर्थ, व्याख्या या  विवेचना नहीं हो सकती है। अपने लिए, हर कोई अपने संतोष के लिए जैसी चाहे वैसी विवेचना अवश्य कर सकता है।
कोई भी 'अर्थ', व्याख्या या विवेचना किसी 'बुद्धि' पर अवलंबित होती है और बुद्धि स्वयं 'जो है' (what Is) की अभिव्यक्ति (expression), उन्मेष (awakening) है।
जब यह कहा जाता है कि 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब; - न 'सत्' था और न 'असत्' तो 'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब को अनायास स्वीकार कर लिया जाता है। किंतु स्पष्ट है कि  'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब का विचार अभी इसी समय मन / बुद्धि में स्फुरित होने के बाद ही तो ग्राह्य हुआ!
और इस विचार के उद्गम / स्रोत की ओर से ध्यान हटकर विचार-निर्देशित काल्पनिक संभावना :
'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब;
को इस प्रकार एक स्वतंत्र (और अज्ञात) सत्ता को विचार के उद्गम / स्रोत से भिन्न की तरह महत्त्व दिया गया।  इस प्रकार काल्पनिक द्वैत के आगमन के बाद ही यह प्रश्न उठा कि  'प्रारंभ में', अर्थात् 'पहले' / तब; क्या था ?
द्वैत के आगमन के बाद ही एक ही वास्तविकता से दो तत्व अभिव्यक्त होने से द्वैत को सत्य मान लिया गया। द्वैत को स्वीकार किए जाने पर ही उन दोनों के मध्य संपर्क (contact), संघात (interaction) और संबंध (relation) नामक अवधारणाएँ पैदा हुईं।
यहाँ होने का मतलब है :
संपर्क, संघात और संबंध होना।
यह हुआ व्यावहारिक सत्य जिससे न तो कोई बच सकता है, न इस तथ्य की अवहेलना कर सकता है।
'खुद से बातें करना' फिर क्या है?
क्या खुद से बातें करने के लिए भी खुद को दो में तोड़ना ज़रूरी नहीं होता ?
इस प्रकार से खुद को दो में तोड़ने पर ही 'मैं' और 'संसार' की दुविधा बुद्धि में पैदा होती है और फिर ऐसे असंख्य 'मैं' परस्पर संपर्क, संघात और संबंध की व्यवस्था में परस्पर 'संबद्ध' होते हैं। 
'यहाँ' और 'वहाँ' पुनः 'सर्वत्र' के ही दो भिन्न प्रतीत होनेवाले दो नाम हैं। 
'सर्वत्र' जो सदा 'अभी' ही होता है।
'यहाँ' और 'वहाँ' अतीत और भविष्य में होते हैं।
उन दोनों का विस्तार होता है जिसे मन जैसा चाहे उतना दीर्घ या अल्पप्राय भी बना लेता है।   
संपर्क, संघात और संबंध की अपनी वास्तविकता, उपयोग और शायद ज़रूरत भी है ही।
किंतु उनके औचित्य और प्रयोजन को ठीक से न समझने पर वे कभी कभी असंतोष और उद्विग्नता पैदा कर सकते हैं।
यह हुआ  यहाँ होने का मतलब... 
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Monday, 24 September 2018

क्या जीवन एक सातत्य है?

 बहुत समय पहले,
 "क्या जीवन एक अंतहीन बहस है?"
शीर्षक से कुछ लिखा था।
दूसरे तरीके से समझना चाहा, तो प्रश्न ने,
"क्या जीवन एक अनंत यात्रा है?"
का रूप लिया।
दोनों ही रूपों में प्रश्न कुछ अपर्याप्त और अधूरा-अधूरा सा लग रहा था।
इसलिए समझने की कोशिश कर रहा था कि ऐसा क्यों लग रहा है ।
दोनों ही रूपों में इस मूल प्रश्न की ओर ध्यान नहीं दिया गया था कि 'जिसके' जीवन के बारे में प्रश्न है वह क्या / कौन है।
इसे इस ढंग से देखा : 
जीवन संपर्क में होता है ।
अर्थात् व्यक्ति के संदर्भ में कोई 'समाज' और 'समाज' के संदर्भ में कोई 'व्यक्ति' होता है जहाँ भी 'जीवन' नामक प्रसंग अस्तित्व में आता है।
यह 'व्यक्ति' कोई मनुष्य है तो 'समाज' एक से अधिक 'व्यक्तियों' का समूह।
एक के अभाव में दूसरे का जीवन नहीं हो सकता।
हो सकता है स्वेच्छा या अनिच्छा से या परिस्थितियों आदि किसी कारण से कोई मनुष्य नितांत एकांत में रहने लगे, जहाँ उसका संपर्क दूसरे लोगों से पूरी तरह समाप्त हो जाए, तब क्या उसका कोई व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन हो सकता है?
क्या वह अपने-आपसे बातें करने लगता है?
न सिर्फ मनुष्य बल्कि हर प्रकार का अस्तित्व चेतना का ही विविध प्रकार है।
आप कह सकते हैं कि क्या पत्थर भी चेतनायुक्त होता है?
यह प्रश्न किसके 'मन' में उठता है?
पत्थर में कोई 'मन' है या नहीं इसकी जिज्ञासा किसी मनुष्य के 'मन' में ही उठती है।
जैसे मनुष्य के पास इसका प्रमाण नहीं कि पत्थर में 'मन' है, वैसे ही इसका प्रमाण भी मनुष्य के पास नहीं है की पत्थर में 'मन' नहीं है।
संक्षेप में,
'मन' वहाँ होता है जहाँ 'व्यक्तित्व' होता है।
और जहाँ 'व्यक्तित्व' होता है,  वहाँ 'मन' होता है ।
क्या 'समाज'  का कोई 'व्यक्तित्व' या कोई 'मन' होता है?
क्या 'समाज' व्यक्ति का विचार ही नहीं होता ?
अपने संदर्भ में व्यक्ति को अपने जीवन के विषय में संदेह नहीं होता और न हो सकता है, क्योंकि ऐसा संदेह होना भी जीवन के होने से ही संभव है। इस प्रकार जीवन का अस्तित्व तो असंदिग्ध और अकाट्य सत्य है। 
किंतु व्यक्तिगत या / और सामाजिक जीवन? -विशेषरूप से मनुष्य का जीवन जो भाषा नामक माध्यम से परस्पर संवाद करते हैं? भाषा संवेदन (perception) के ग्रहण करने और उससे उत्पन्न प्रतिक्रया को सम्प्रेषित करने का साधन है जो विकसित होकर परमार्जित तथा दुरूह और क्लिष्ट रूप लेता है जिसे 'विचार' कहते हैं।
संवेदन (perception) किसी विषय (object) का होता है और 'जिस' चेतना में यह होता है वह अवश्य ही किसी जीवित  देह-विशेष से सम्बद्ध होती है। 
संपर्क में आए 'विषय' के संवेदनकर्ता को  'विषयी' (subject) कहा जाता है।
इस प्रकार विषय तथा विषयी का परस्पर संपर्क ही चेतना में संवेदन के रूप में ग्रहण किया जाता है।
'विचार', भाषा का एक औपचारिक रूप होता है और विचार के माध्यम से जो कुछ संवेदित किया जाता है उसका प्रत्युत्तर तार्किक अथवा भावनात्मक या मिले-जुले रूप में होता है जब शुद्धतः तार्किक तात्पर्य ग्रहण / संवेदित और संप्रेषित किया जाता है तो व्यवहार का एक पैमाना होता है।  लेकिन जब प्रत्युत्तर भावनात्मक या मिले-जुले रूप में ग्रहण / संवेदित और संप्रेषित किया जाता है तो व्यवहार का एक अलग, दूसरा पैमाना होता है।
तर्क बुद्धि / विचार की प्रधानता का द्योतक है, जबकि भावना भाव की प्रधानता का।  बुद्धि या विचार भी पुनः मशीनी ढंग का तकनीकी रूपा का हो सकता है या उसमें संवेदन का एक ऐसा तत्व हो सकता है जिसे जीवन अर्थात् भावना का स्पर्श कह सकते हैं। इस प्रकार एक ही 'विचार' भिन्न-भिन्न बौद्धिक और भावनात्मक तात्पर्य व्यक्त करता है।  जैसे :
"I love you. "
शाब्दिक दृष्टि से केवल तीन शब्दों का एक वाक्य है जिसे किस प्रकार से कहा / लिखा या व्यक्त किया गया है, ग्रहण और सम्प्रेषित किया गया है उसके अनुसार यह केवल एक तकनीकी (formal), औपचारिकता के अर्थ में या भावुकता / भावनात्मकता के अर्थ वाले वाक्य की तरह समझा जा सकता है।
भावना एक त्वरित स्वाभाविक प्रत्युत्तर है, जबकि भावुकता एक अपरिपक्व मनःस्थिति।  दूसरी और, भावना एक परिपक्व प्रत्युत्तर होते हुए भी या तो emotion हो सकती है या feeling .
feeling होने की स्थिति में भावना किसी पूर्व-अनुभूति के सन्दर्भ में वर्त्तमान स्थिति में दिया गया स्मृति-प्रेरित conditioned response हो सकता है।  emotion होने की स्थिति में यह सहज प्रतिक्रिया का उद्रेक (evoke) होना होता है।
इस प्रकार emotion और feeling के रूप में भावना का सम्प्रेषण भाषा से या भंगिमा से भी किया जा सकता है।
चूँकि हर मनुष्य अपने ढंग से किसी से संपर्क में होने पर प्रत्युत्तर देता है, इस दृष्टि से हर मनुष्य का अपना एक 'मन' होता है जो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व है।
किंतु क्या समाज का ऐसा कोई 'मन' या व्यक्तित्व हो सकता है?
किंतु समाज में ही व्यक्तियों के अनेक समूह / वर्ग होते हैं जिनके 'विचाऱ' परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं या हो सकते हैं।  और जैसे व्यक्ति का जीवन उसके विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, धारणाओं, आग्रहों और मान्यताओं, भय, लोभ, ईर्ष्या, स्पर्धा आदि से बना होता है क्या समाज का जीवन भी ऐसा ही नहीं होता ?
किंतु  व्यक्ति का हो या समाज का, विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, धारणाओं, आग्रहों और मान्यताओं, भय, लोभ, ईर्ष्या, स्पर्धा आदि क्या स्मृति का हिस्सा ही नहीं होते? और क्या स्मृति का सातत्य / निरंतरता ही व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन नामक कृत्रिम सातत्य ही नहीं होते?
स्मृति, विचार, पहचान और अतीत / समय, क्या परस्पर पर्याय ही नहीं हैं?
क्या वस्तुतः इनका सातत्य है?
फिर वास्तविक सातत्य / continuity क्या है?
क्या जीवन एक सातत्य नहीं है?
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Friday, 21 September 2018

'राम-सेतु' कैसे बनाया गया?

श्रीमद्वाल्मिकीय रामायणे युद्धकाण्डे 
द्वाविंश:सर्गे 
(सर्ग २२)
...
अथोवाच रघुश्रेष्ठः सागरं दारुणं वचः ।
अद्य त्वां शोषयिष्यामि सपातालं महार्णवः ॥१
शरनिर्दग्धतोयस्य परिशुष्कस्य सागर ।
मया निहतसत्त्वस्य पांसुरुत्पद्यते महान् ॥२
मत्कार्मुकविसृष्टेन शरवर्षेण सागर ।
परं तीरं गमिष्यन्ति पद्भिरेव प्लवंगमाः ॥३
विचिन्वाभिजानासि पौरुषं नापि विक्रमम् ।
दानवालय संतापं मत्तो नाम गमिष्यसि ॥४
ब्राह्मेणास्त्रेण संयोज्य ब्रह्मदण्डनिभं शर ।
संयोज्य धनुषि श्रेष्ठे विचकर्ष महाबलः ॥५
तस्मिन् विकर्षे सहसा राघवेण शरासने ।
रोदसी सम्पफालेव पर्वताश्च चकम्पिरे ॥६
तमश्च लोकमावव्रे दिशश्च न चकाशिरे ।
प्रतिचक्षुभिरे चाशु सरांसि सरितस्तथा ॥७
तिर्यक् च सह नक्षत्रैः संगतौ चन्द्रभास्करौ ।
भास्करांशुभिरादीप्तं तमसा च समावृतम् ॥८
प्रचकाशे तदाऽऽकाशमुल्काशतविदीपितम् ।
अन्तरिक्षाच्च निर्घाता निर्जग्मुरतुलस्वनाः ॥९
वपुः प्रकर्षेण ववुर्दिव्यमारुत्पङ्क्तयः ।
बभञ्ज च तदा वृक्षाञ्जदानुद्वहुन्मुहुः ॥१०
आरुजंश्चैव शैलाग्राञ्शिखराणि बभञ्ज च ।
दिवि च स्म महामेघाः संहताः समहास्वना ॥११
मुमुचुर्वैद्युतानग्नींस्ते महाशनयस्तदा ।
यानि भूतानि दृश्यानि चुक्रुशुश्चाशनेः समम् ॥१२
अदृश्यानि च भूतानि मुमुचुर्भैरवस्वनम् ।
शिश्यिरे चाभिभूतानि संत्रस्तान्युद्वजन्ति च ॥१३
सम्प्रविव्यथिरे चापि न च पस्पन्दिरे भयात् ।
सह भूतैः सतोयोर्मिः सनागः सहराक्षसः ॥१४
सहसाभूत् ततो वेगाद् भीमवेगो महोदधिः ।
योजनं व्यतिचक्रामम वेलामन्यत्र सम्प्लवात् ॥१५
तं तथा समतिक्रान्तं नातिचक्राम राघवः ।
समुद्धतममित्रघ्नो रामो नदनदीपितम् ॥१६
ततो मध्यात् समुद्रस्य सागरः स्वयमुत्थितः ।
उदयाद्रिमहाशैलान्मेमोरिव दिवाकरः ॥१७
पन्नगैः सह दीप्तास्यैः समुद्रः प्रत्यदृश्यत ।
स्निग्धवैदूर्यसंकाशो जाम्बूनदविभूषणः ॥१८
रक्तमाल्याम्बरधरः पद्मपत्रनिभेक्षणः ।
सर्वपुष्पमयीं दिव्यां शिरसा धारयन् सृजम् ॥१९
(गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित जिस संस्करण से यह श्लोक उद्धृत किया जा रहा है,
उसमें ’पद्यपत्रनिभेक्षणः’ मुद्रित है । कृपया ध्यान दें ।)
जातरूपमयैश्चैव तपनीयविभूषणैः ।
आत्मजानां च रत्नानां भूषितो भूषणोत्तमैः ॥२०
धातुभिर्मण्डितः शैलो विविधैर्हिमवानिव ।
एकावलीमध्यगतं तरलं पाण्डरप्रभम् ॥२१
(पाण्डरप्रभम् या पाण्डुरप्रभम् ?)
विपुलेनोरसाबिभ्रकौस्तुभस्य सहोदरम् ।
आघूर्णिततरङ्गौघःकलिकानिलसंकुलः ॥२२
गङ्गासिन्ध्य्प्रधानाभिरापगाभिः समावृतः ।
उद्वर्तित महाग्राहः सम्भ्रान्तोरगराक्षसः ॥२३
देवतानां सुरूपाभिर्नानारूपाभिरीश्वरः ।
सागरः समुपक्रम्य पूर्वमामन्त्र्य वीर्यवान् ॥२४
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं राघवं शरपाणिनम् ॥२५
(उपरोक्त श्लोक एक ही पंक्ति में है ?।)
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च राघव ।
स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शाश्वतं मार्गमाश्रिताः ॥२६
तत्स्वभावो ममाप्येष यदगाधोऽहमप्लवः ।
विकारस्तु भवेद्गाध एतत् ते प्रवदाम्यहम् ॥२७
न कामान्न च लोभाद् वा न भयात् पार्थिवात्मज ।
ग्राहनक्राकुलजलं स्तम्भयेयं कथंचन ॥२८
विधास्ये येन गन्तासि विषेहिष्येऽप्यहं तथा ।
न ग्राहा विषमिष्यन्ति यावत्सेना तरिष्यति ।
हरीणां तरणे राम करिष्यामि यथास्थलम् ॥२९
(प्रस्तुत स्लोक ३ पङ्क्तियों का है ।)
तमब्रवीत तदा रामः श्रुणु मे वरुणालय ।
अमोघोऽयं महाबाणः कस्मिन्देशे निपात्यताम् ॥३०
रामस्य वचनं श्रुत्वा तं च दृष्ट्वा महाशरम् ।
महोदधिर्महातेजा राघवं वाक्यमब्रवीत् ॥३१
उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित्पुण्यतरो मम ।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ॥३२
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवः ।
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम ॥३३
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः ।
अमोघं क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तममः ॥३४
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागरदर्शनात् ॥३५
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम् ।
निपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः ॥३६
ननाद च तदा तत्र वसुधा शल्यपीडिता ।
तस्माद्व्रणमुखात् तोयमुत्पपात रसातलात् ॥३७
स बभूव तदा कूपो व्रण इत्येव विश्रुतः ।
सततं चोत्थितं तोयं समुद्रस्येव दृश्यते ॥३८
अवदारणशब्दश्च दारुणः समपद्यत ।
तस्मात् तद् बाणपातेन अपः कुक्षिष्वशोषयत् ॥३९
विख्यातं त्रिषु लोकेषु मरुकान्तारमेव च ।
शोषयित्वा तुइ तं कुक्षिं रामो दशरथात्मजझ् ॥४०
वरं तस्मै ददौ विद्वान् मरवेऽमरविक्रमः ॥४१
पशव्यश्चाल्परोगश्च फलमूलरसायुतः ।
बहुस्नेहो बहुक्षीरः सुगन्धिर्विविधौषधिः ॥४२
एवमेतैश्चसंयुक्तो बहुभिः संयुतो मरुः ।
रामस्य वरदानाच्च शिवः पन्था बभूव ह ॥४३
तस्मिन् दग्धे तथा कुक्षौ समुद्रः सरितां पतिः ।
राघवं सर्वशास्त्रज्ञमिदं वचनमब्रवीत ॥४४
अयं सौम्य नलो नाम तनयो विश्वकर्मणः ।
पित्रा दत्तवरः श्रीमान् प्रीतिमान् विश्वकर्मणः ॥४५
एष सेतुं महोत्साहः करोतु मयि वानरः ।
तमहं धारयिष्यामि यथा ह्येष पिता यथा ॥४६
एवमुक्त्वोदधिर्नष्टः समुत्थाय नलस्ततः ।
अब्रवीद् वानरश्रेष्ठो वाक्यं रामं महाबलम् ॥४७
अहं सेतुं करिष्यामि विस्तीर्णे मकरालये ।
पितुः सामर्थ्यमासाद्य तत्त्वमाह महोदधिः ॥४८
दण्ड एव वरो लोके पुरुष्यस्येति मे मतिः ।
धिक् क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा ॥४९
अयं हि सागरो भीमः सेतुकर्मदिदृक्षया ।
ददौ दण्डभयाद् गाधं राघवाय महोदहिः ॥५०
मम मातुर्वरो दत्तो मन्दरे विश्वकर्मणा ।
मया तु सदृशः पुत्रस्तव देवि भविष्यति ॥५१
औरसस्तस्य पुत्रोऽहं सदृशो विश्वकर्मणा ।
स्मारितोऽस्म्यहमेतेन तत्त्वमाह महोदधिः
न चाप्यहमनुक्तो वः प्रब्रूयामात्मनो गुणान् ॥५२
समर्थश्चाप्यहं सेतुं कर्तुं वै वरुणालये ।
तस्मादद्यैव बध्नन्तु सेतुं वानरपुङ्गवाः ॥५३
ततो विसृष्टा रामेण सर्वतो हरिपुङ्गवाः ।
उत्पेततुर्महारण्यं हृष्टा शतसहस्रशः ॥५४
ते नगान् नगसंकाशाः शाखामृगगणर्षभाः ।
बभञ्जुःपादपांस्तत्र प्रचकर्षुश्च सागरम् ॥५५
ते सालैश्चाश्वकर्णैश्च धवैर्वंशैश्च वानराः ।
कुटजैरर्जुनैस्तालैस्तिलकैस्तिनिशैरपि ॥५६
बिल्वकैः सप्तपर्णैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः ।
चूतैश्चाशोकवृक्षैश्च सागरं समपूरयन् ॥५७
स्मूलांश्च विमूलांश्च पादपान् हरिसत्तमाः ।
इन्द्रकेतूनिवोद्यम्य प्रजह्रुर्वानरास्तरून् ॥५८
तालान् दाडिमगुल्मांश्च नारिकेलविभीतकान् ।
करीरान् बकुलान् निम्बान् समाजह्रुरितस्ततः ॥५९
हस्तिमात्रान् महाकायाः पाषाणांश्च महाबलाः ।
पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रैः परिवहन्ति च ॥६०
समुद्रं क्षोभयामासुर्निपतन्तः समन्ततः ।
सूत्राण्यन्ये प्रगृह्णन्ति ह्यायतं शतयोजनम् ॥६२
नलश्चक्रे महासेतुं मध्ये नदनदीपतेः ।
स तदा क्रियते सेतुर्वानरैघोरकर्मभिः ॥६३
दण्डान्यन्ये प्रगृह्णन्ति विचिन्वन्ति तथापरे ।
वानरैः शतशस्तत्र रामस्याज्ञापुरःसरैः ॥६४
मेघाभैः पर्वताभैश्च तृणैः काष्ठैर्बबन्धिरे ।
पुष्पिताग्रैश्च तरुभिः सेतुं बध्नन्ति वानराः ॥६५
पाषाणांश्च गिरिप्रख्यान् गिरीणां शिखराणि च ।
दृश्यन्ते परिधावन्तो गृह्य दानवसंनिभाः ॥६६
शिलानां क्षिप्यमाणानां शैलानां तत्र पात्यताम् ।
बभूव तुमुलः शब्दस्तदा तस्मिन् महोदधौ ॥६७
कृतानि प्रथमेनाह्ना योजनानि चतुर्दश ।
प्रहृष्टैर्गजसंकाशैस्त्वर्माणैः प्लवङ्गमैः ॥६८
द्वितीयेन तथैवाह्ना योजनानि तु विंशतिः ।
कृतानि प्लवगैस्तूर्णं भीमकायैर्महाबलैः ॥६९
अह्ना तृतीयेन तथा योजनानि तु सागरे ।
त्वरमाणैर्महाकायैरेकविंशतिरेव च ॥७०
चतुर्थेन तथा चाह्ना द्वाविंशतिरथापि वा ।
योजनानि महावगैः कृतानि त्वरितैस्ततः ॥७१
पञ्चमेन तथा चाह्ना प्लवगैः क्षिप्रकारिभिः ।
योजनानि त्रयोविंशत् सुवेलमधिकृत्य वै ॥७२
स वानरवरः श्रीमान् विश्वकर्मात्मजो बली ।
बबन्ध सागरे सेतुं तथा चास्य पिता यथा ॥७३
स नलेन कृतः सेतुः सागरे मकरालये ।
शुशुभे सुभगः श्रीमान् स्वातीपथ इवाम्बरे ॥७४
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।
आगम्य गगने तस्थुर्द्रष्टुकामास्तदद्भुतम् ॥७५
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम् ।
ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्कृतम् ॥७६
आप्लवन्तः प्लवन्तश्च गर्जन्तश्च प्लवंगमाः ।
तमचिन्त्यमसह्यं च ह्यद्भुतं लोमहर्षणम् ॥७७
ददृशुः सर्वभूतानि सागरे सेतुबन्धनम् ।
तानि कोटिसहस्राणि वानराणां महौजसाम् ॥७८
बध्नन्तः सागरे सेतुं जग्मुः पारं महोदधेः ।
विशालः सुकृतः श्रीमान् सुभूमिः सुसमाहितः ॥७९
अशोभत महान् सेतुः सीमन्त इव सागरे ।
ततः पारे समुद्रस्य गदापाणिर्विभीषणः ॥८०
परेषामभिघातार्थमतिष्ठत् सचिवैः सह ।
सुग्रीवस्तु ततः प्राह रामं सत्यपराक्रमम् ॥८१
हनूमन्तं त्वमारोह अङ्गदं त्वत्थ लक्ष्मणः ।
अयं हि विपुलो वीर सागरो मकरालयः ॥८२
वैहायसौ युवामेतौ वानरौ धारयिष्यतः ।
अग्रतस्तस्य सैन्यस्य श्रीमान् रामः सलक्ष्मणः ॥८३
जगाम धन्वी धर्मात्मा सुग्रीवेणसमन्वितः ।
अन्ये मध्येन गच्छन्ति पार्श्वतोऽन्ये प्लवंगमाः ॥८४
सलिलं प्रपत्यन्त्यन्ये मार्गमन्ये प्रपेदिरे ।
केचिद् वैहायसगताः सुपर्णा इव पुप्लुवुः ॥८५
घोषेण महता घोषं सागरस्य समुच्छ्रितम् ।
भीममन्तर्दधे भीमा तरन्ती हरिवाहिनी ॥८६
वानराणां हि सा तीर्णा वाहिनी नलसेतुना ।
तीरे निविविशे राज्ञो बहुमूलफलोदके ॥८७
तदद्भुतं राघवकर्मदुष्करं
समीक्ष्य देवाः सह सिद्धचारणैः ।
उपेत्य रामं सहसा महर्षिभि-
स्तमभ्यषिञ्चन् सुशुभैर्जलैः पृथक् ॥८८
जयस्व शत्रून् नरदेव मेदिनीं
ससागरां पालय शाश्वतीः समाः ।
इतीव रामं नरदेवसत्कृतं
शुभैर्वचोभिःर्विविधैरपूजयन् ॥

॥ इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये युद्धकाण्डे द्वाविंशः सर्गः ॥
फलश्रुतिः :
ये पठन्तीदं सर्गं श्रद्धाभक्तिसमाहितः ।
ते तरन्ति भवसागरं गत्वेन नलसेतुना ॥
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वाल्मीकि-रामायण के अंतर्गत युद्धकाण्ड सर्ग 22  में महर्षि वाल्मीकि ने इतने विस्तार और स्पष्टता से,
 'राम-सेतु' कैसे बनाया गया इसका वर्णन किया है।  इसे (और पूरी रामायण को) पढ़कर अनायास स्पष्ट हो जाता है कि वाल्मीकि-रामायण mythology नहीं बल्कि इतिहास है।
आज के युग में भी सेनाएँ आपातकालीन उपयोग हेतु रातों-रात कामचलाऊ सेतु (bridge)  निर्मित करा लेती हैं यह तो हम जानते ही हैं।
'राम-सेतु' जिन पत्थरों और वृक्षों की लकड़ियों से बनाया गया था उनमें से लकड़ियाँ तो वैसे भी पानी पर तैरती ही हैं।  इसलिए पूरे पुल का हलके-फुल्के ढंग से बंधा होने पर भी तैरना समझा जा सकता है।  ज़रूरी नहीं कि जो पत्थर वानरों द्वारा लाये गए थे वे सभी भारी प्रकार के ही रहे हों।  संभव है कि उनमें से बहुत से coral किस्म के रहे हों। Dr. Subrahmanian Swamy के एक वीडिओ में उन्होंने यही कहा था।
इसी से मुझे विचार आया कि इस सर्ग को यहाँ प्रकाशित करूँ।
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फिज़िक्स Physics और साइक् psyche

मनस्तत्व : चित् और चित्त 
(घटना, प्रसंग और कल्पना)
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स्मृति / memory, अतीत / past, विचार / thought, पहचान / recognition,
कल्पना के अन्तर्गत चित्त में घटित होनेवाले चार प्रकार हैं ।
"चित्तं चिद्विजानीयात् तकाररहितं यदा ।
तकार विषयाध्यासो ... ... ... "
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फिज़िक्स Physics और साइक् psyche 
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पुनः एक बार मोनो, बाई, ट्राई, तथा मल्टीव्हील वेहिकल का उदाहरण लें ।
ये चारों अर्थात् स्मृति, अतीत, विचार, पहचान चार पहिए हैं ।
केवल एक का चल पाना कठिन है ।
किन्हीं दो को परस्पर जोड़कर चलाया जाना कुछ आसान है ।
किन्हीं तीनों को संयोजित कर चलाया जाना और अधिक आसान है ।
इससे अधिक पहिए होने की स्थिति में उनके केन्द्रों से बनने वाले तलों की संख्या के और वाहन के गुरुत्व केन्द्र के सामञ्जस्य के अनुसार यह सुनिश्चित होता है ।
इसी प्रकार स्मृति, अतीत, विचार और पहचान मनरूपी वाहन के सही ढंग से संचालित होने को तय करते हैं ।
ये चारों कारक यद्यपि परस्पर भिन्न दिखलाई देते हैं किंतु व्यावहारिक धरातल पर एक ही ’अवस्था’ अर्थात् मन के रूप में ग्रहण किए जाते हैं । विश्लेषणपरक दृष्टि से देखने पर बुद्धि के अन्तर्गत वे अलग-अलग प्रतीत होना बुद्धि का भ्रम है ।
यह ध्यान देने योग्य है कि :
क्या स्मृति के अभाव में अतीत, विचार और पहचान संभव हैं?
क्या अतीत के अभाव में स्मृति, विचार और पहचान संभव हैं?
क्या विचार के अभाव में स्मृति, अतीत, और पहचान संभव हैं?
क्या पहचान के अभाव में स्मृति, अतीत, और विचार संभव हैं?
संक्षेप में ये चारों कारक यद्यपि भिन्न भिन्न नाम से जाने जाते हैं कार्य और प्रभाव के रूप में वे मन में ही निर्मित किसी घटना / प्रसंग की मनोनिर्मित प्रतिमा मात्र होते हैं ।प्रतिमा की तरह वे घटना / प्रसंग की वास्तविकता से अत्यंत दूर और अत्यंत भिन्न होते हैं । वे अधिक से अधिक घटना या प्रसंग की एक व्याख्या भर हो सकते हैं जिसका अक्षरशः सही होना असंभव है, क्योंकि ऐसी असंख्य व्याख्याएँ सदा की जाती हैं और एक ही मनुष्य भी संदर्भ और प्रयोजन / आवश्यकता के अनुसार पूर्वाग्रहपूर्ण किसी व्याख्या से संतुष्ट होकर उसका दुरुपयोग कर सकता है और स्वयं भी भ्रमित हो सकता है ।
मनुष्य, सभ्यताओं, संस्कृतियों, धर्मों, परंपराओं, मूल्यों आदि का आधार ऐसी ही असंख्य व्याख्याएँ हैं जिनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है ।
यह तथ्य न केवल व्यक्ति, बल्कि समाज तथा समूची मनुष्य जाति पर भी लागू होता है ।
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मनस्तत्व : चित् और चित्त
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Wednesday, 19 September 2018

आलोक पथ : सरस्वती

आलोक पथ : सरस्वती
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ऋग्वेद मण्डल १, सूक्त १ तथा २ में क्रमशः अग्नि और वायु (तथा इन्द्र, मित्र, सोम, वरुण भी) के उल्लेख से कण्ठ्य वर्णों ’क्’ तथा ’ख्’ के संबंध के द्योतक प्रथम दो आलेखों के बाद ’खं ब्रह्म’ की विवेचना की गई ।
सूक्त ३ के अन्तर्गत वाक् अर्थात् सरस्वती का उल्लेख है :
अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती ।
पुरुभुजा चनस्यतम् ॥
अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया धिया ।
धिष्ण्या वनतं गिरः ॥
दस्रा युवाकवः सुता नासत्या वृक्तबर्हिषः ।
आ यातं रुद्रवर्तनी ॥
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः ।
अण्वीभिस्तना पूतासः ॥
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः ।
उप ब्रह्माणि वाघतः ॥
इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः ।
सुते दधिष्व नश्चनः ॥
ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वे देवास आ गत ।
दाश्वांसो दाशुषः सुतम् ॥
विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमा गन्त तूर्णयः ।
उस्रा इव स्वसराणि ॥
विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः ।
मेधं जुषन्त वह्नयः ॥
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धियावसुः ॥
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।
यज्ञं दधे सरस्वती ॥
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
धियो विश्वा वि राजति ॥
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चेतन्ती सुमतीनाम् ।
सनातन पथ 

आलोक पथ / ध्वनितार्थ

ध्वनितार्थ / पञ्चमहाभूत
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खं ब्रह्म >
’क्’ से वर्णों की अभिव्यक्ति प्रारंभ होती है ।
’क्’ > कण्ठ्य वर्ण क्रमशः
क्, ख्, ग्, घ्, तथा ङ् हैं ।
कोऽयम् आत्मा ?
कः अयम् आत्मा ।
’क’ यह आत्मतत्व है ।
’ख’ ब्रह्म है ।
’क’ पुंल्लिङ्ग है,
’ख’ नपुंसकलिङ्ग है ।
ब्रह्म पुनः कारण-ब्रह्म और कार्यब्रह्म है ।
ध्वनि ब्रह्माणी अर्थात् सरस्वती, वाक् है ।
पञ्चमहाभूत क्रमशः :
भू, भुवः, स्वः, महः, जनः हैं ।
स्थूल जड पञ्चभूत (इन्द्रियगम्य) पृथ्वी, आप, वायु, आकाश और तेज हैं ।
सूक्ष्म चेतन इन्द्रियात्मक / आधिदैविक
गंध, रस, स्पर्श, शब्द तथा आलोक (द्युति) हैं ।
[इन्हें तन्मात्रा भी कहा जाता है ]
ये ही पाँच देवता तत्व हैं जो चर-अचर सृष्टि का जीवन हैं ।
ये पाँच स्थूल और सूक्ष्म, जड तथा चेतन महाभूत समष्टि जीव, जगत तथा देवता हैं ।
चूँकि बुद्धि में वे परस्पर भिन्न प्रतीत होते हैं और बुद्धि स्वयं भी तेज अर्थात् अग्नि तत्व है इसलिए बुद्धि उनमें श्रेष्ठतम है ।
बुद्धि स्वयं भी पुनः यांत्रिक या कृत्रिम प्रकार की होती है जिसका आदान-प्रदान किया जा सकता है ।
दूसरी ओर बुद्धि स्वयं देवता-रूप में अग्नि (द्युति) की तरह स्वयं को अभिव्यक्त करती है जिसका उद्गम कहाँ से होता है और कहाँ वह लौट जाती है इसका अनुमान इस कृत्रिम या यांत्रिक बुद्धि से किया जाना संभव नहीं, इसलिए उसका अधिष्ठान अंतरिक्ष है जो आकाश से भी सूक्ष्मतर तथा अन्तर्बाह्य दोनों स्तरों पर काल-स्थान से अव्याहत है । वह है परब्रह्म ।
किंतु परात्पर ब्रह्म जो स्वरूपतः द्वैतरहित है ब्रह्म तथा परब्रह्म के भेद से भी रहित है ।
ध्वनित अर्थ का प्रयोजन है भाषारहित संवेदन को भाषा में ध्वनि-रूप में कहना ।
इसलिए इस ध्वनि-रूप भाषा के असंख्य रूप और प्रकार होते हैं ।
माध्यम अर्थात् जिस चेतन-तत्व में सूक्ष्म मनोमय इन्द्रिय से उनका उद्गम और अनुभव पाया जाता है, वह स्वयं उपाधिरहित निरपेक्ष चेतना मात्र है । देह-विशेष में सूक्ष्म मनोमय इन्द्रियों की विद्यमानता होने पर उनके समूह को एकत्व प्रदान करनेवाली औपाधिक सत्ता है इन्द्र ।
पञ्च महाभूतों के चेतन स्वरूप की अभिव्यक्ति :
पृथ्वी > ख़ाक > ख़ाकी खं ब्रह्म की शक्ति है ।
आप > आब > आबी जल तत्व की शक्ति है ।
वायु > वात > बाद > बादी वायु तत्व की शक्ति है ।
आकाश > आ समान > आसमान > आकाश तत्व की शक्ति है ।
अग्नि > तेज > आ तेजस् > आतिश अग्नि तत्व की शक्ति है ।
इन सबकी सम्मिलित और समष्टि पुनः ’ख’ > ’खलीय’ ख़लाई आत्म-शक्ति है ।
इसलिए प्राणिमात्र में ये पाँचों मिलकर ही उसके आत्मस्वरूप को निर्धारित करते हैं ।
पुनः यह पूरी प्रक्रिया मूलतः भाषा से रहित है, किंतु इसे व्यक्त करने के लिए तो शब्द ही प्रथम और अंतिम आधार है ।
यह हुआ शब्द-ब्रह्म ।
शब्द-ब्रह्म इस प्रकार प्रक्रिया, उसकी ध्वनि तथा ध्वनि से संबद्ध तात्पर्य इन सब रूपों में ग्राह्य है ।
दूसरी ओर, शब्द-ब्रह्म ही बीजमन्त्रों और प्रार्थनाओं का आधार है ।
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सनातन पथ / आलोक पथ / ध्वनितार्थ 

Tuesday, 18 September 2018

आलोक पथ - वायु

आलोक पथ - वायु
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वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरङ्कृताः ।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ।
वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितारः ।
सुतसोमा अहर्विदः ।
वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिगाति दाशुषे ।
उरूची सोमपीतये ॥
इन्द्रवायू इमेसुता उप प्रयोभिरा गतम् ।
इन्दवो वामुशन्ति हि ॥
वायविन्द्रश्च चेतथः सुतानां वाजिनीवसू ।
तावा यातमुप द्रवत् ॥
वाय्विन्द्रश्च सुन्वत आ यातमुप निष्कृतम् ।
मक्ष्वि१त्था धिया नरा ॥
मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् ।
धियं घृताची साधन्ता ॥
ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पर्शा ।
क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥
कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया ।
दक्षं दधाते अपसम् ॥
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वायु आ याहि दर्शत इमे सोमाः अरं कृताः ।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ।
वाय उक्थेभिः जरन्ते त्वाम् अच्छा जरितारः ।
सुतसोमाः अहर्विदः ।
वायो तव धेन आ जिगाति दा शुषे ।
(दा > दाने, लवने, अवखंडने > द्यति, शोधने दायति, दानं > शुद्धिः, बन्धने > दामन् > सूत्रं, )
इन्दवः वां उशन्ति हि ॥
वायु-इन्द्रः च चेतथः सुतानां वाजिनी-वसू ।
तौ आ यातम् उप द्रवत् ॥
वाय्-इन्द्रः च सुन्वत आ यातम् उप निष्कृतम् ।
मक्षु-इत्-था धिया नरा ॥
मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम् ।
(रिश् > अद् )
धियं घृताची साधन्ता ॥
ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पर्शा ।
(ऋतेन, ऋतं ...)
क्रतुं बृहन्तं आशाथे ॥
कवी नः मित्रावरुणा तुविजाताः उरुक्षयाः ।
दक्षं दधाते अपसम् ॥
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आलोक पथ - अग्नि

सनातन पथ : आलोक पथ
- अग्नि 
॥ ॐ हरिः ॐ तत्सत् ॥
अग्निमीळे पुरोहितं  ।
होतारं रत्नधातम् ॥
अग्निः पूर्वेभिः ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।
अग्निना रयिमश्नवत्पोषमेव दिवे दिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ॥
अग्ने यं यज्ञध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद्देवेषु गच्छति ॥
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरा गमत् ॥
यदङ्गदाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः ॥
उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो भरन्त एमसि ॥
राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ॥
स नः पितेव सूनूनवेऽग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ॥
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अग्नि न केवल स्वयंभू, विभु, प्रभु, बल्कि परिभू भी है, उसकी मैं आराधना करता हूँ ।
अंधकार में जो रत्न होकर तम को भेदकर उसका नाश करता है ।
अग्नि पूर्व के ऋषियों तथा नवीन से नवीन अधुनातन ऋषियों के लिए पूज्य है ।
वह (अग्नि) देवों का आवाहन करता है :
उनसे कहेगा : यहाँ आओ !
अग्नि के द्वारा रयि को भोजन से दिन-प्रतिदिन पुष्ट किया जाता है ।
यश को, वीरवत्ता को ।
(मैं उस) अग्नि की आराधना करता हूँ जो विश्व में सबके लिए यज्ञ का मार्ग प्रशस्त करता है ।
वह यहाँ से देवताओं में प्रवेश करता है ।
अग्नि होता, कवि, क्रतु, सत्य, चित्र, श्रवस्तम है ।
देवता, जो देवताओं के लिए भीतर बाहर प्रकट है ।
हे अग्नि तुम अपने भीतर प्रसुप्त रहते हुए भी, सबका कल्याण ही करते हो ।
तुमसे ही अङ्गिरा का सत्य वाणी के प्रकट न होते हुए भी  स्थिर है ।
(अङ्गिरा अथर्वा-अङ्गिरसः)
हे अग्नि तुममें ही हमारे नित्यप्रति के दोष अस्त (विलीन) होते रहते हैं ।
तुम्हें नमस्कार है, जो सर्वत्र व्याप्त हो ।
सभी दिशाओं को आलोकित व्यक्त्-अव्यक्त् करते हुए स्वप्रकाशित रहते हो ।
नित्य प्रतिदिन वर्धमान (आयु, विस्तार) रहते हो ।
वही अग्नि हमारे लिए पिता के समान है, ...
वैसे ही जैसा पिता सु-उपाय (भली-भाँति) पुत्रों के हित में संलग्न रहता है ।
वह, वही अग्नि हमारे लिए कल्याणप्रद हो ।
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Monday, 17 September 2018

आलोक-पथ

सनातन पथ 
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आलोक-पथ
जो है, और जो होता है ।
जो होता है, और जो प्रतीत होता है,
जो प्रतीत होता है और जो अनुभव में प्रतीत होता है,
जो अनुभव में प्रतीत होता है और यथावत् सत्य की तरह ग्रहण कर लिया जाता है ।
प्रतीति का संवेदन और संवेदन की प्रतीति ।
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भूलोक
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जो है वह है सत् ।
स्पष्ट है कि अस्तित्व सनातन है ।
सनातन अर्थात् काल के व्यवधान से रहित ।
काल स्वयं भी यदि है, तो होने मात्र से ही सत् में अधिष्ठित और अवस्थित है ।
काल यदि बौद्धिक अनुमान या निष्कर्ष, कल्पना या अवधारणा (concept or hypothesis) भी है तो बुद्धि पर आश्रित है और बुद्धि (intellect) की प्रकृति आने-जाने के स्वभाव की होती हो तो भी उसका एक उससे स्वतंत्र अधिष्ठान तो स्पष्टतः है ही जिसके सन्दर्भ में उसका आगमन और प्रस्थान होता है ।
यह है सत् जो वैसे अति अनिर्देश्य (that, which could not be pointed at) है, किंतु जब इसका वर्णन किया जाता है तो यह लोक तथा लोक की चेतना के रूप में द्वैतयुक्त प्रतीत होता है ।
उस समय इसका वर्णन जिसके सन्दर्भ में है वह चेतना तथा वह लोक भी होने मात्र से सत् की ही दो परस्पर अभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं ।
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सत् ’षद्लृ’ (सद्) धातु से बना पद है जिसका अर्थ है अव्याहत रूप से अवस्थित होना ।
जो अव्याहत रूप से अवस्थित है, अविकारी और अविनाशी तथा इसीलिए अनादि, सतत, अनंत और अजात भी है ही ।
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वही ’सत्’ चेतना और लोक इन दो अभिव्यक्तियों में प्रस्फुटित होकर जीव और उसका जगत् होता है ।
यह है निरपेक्ष सत् का सापेक्ष स्वरूप ग्रहण करना ।
यह ’होना’ स्वरूप से होनेवाला आभासी परिवर्तन (विकार) है ।
प्रथम धातु ’भू’ से समस्त अन्य धातुएँ बाद में प्रकट होती हैं, इसलिए भी धातुपाठ और गणपाठ भ्वादिगण से प्रारंभ होता है ।
क्रियापद धातु से ही बनते हैं जो निरंतर प्रकृति के विभिन्न लकार और अलङ्कार हैं ।
प्रकृति इस प्रकार पुरुष से सतत रास में है ।
रास जो रस से आविर्भूत होता है ।
भू से ही भूलोक आदि सप्तलोक प्रारंभ होते हैं ।
भू अर्थात् पञ्च महाभूत जो जगत् की नींव / बुनियाद (भू-नियातम्) है ।
मनुष्य और सभी जीवों का शरीर इसी भौतिक प्रकार का पाञ्चभौतिक विकार है जो काल में बनता और विनष्ट हो जाता है ।
भू से पुनः विभु, प्रभु और संप्रभु अवतरित होते हैं ।
स्वयंभू पुरुष ही जीव, देवता और ईश्वर के रूप में विभु, प्रभु और संप्रभु भी होता है ।
यह स्वयंभू जीव जब अपने वास्तविक स्वरूप पर मोहित बुद्धि का आवरण पाता है और जब माया की ही विक्षेप-शक्ति उसके प्रति उसे अपने से भिन्न अन्य जगत् की उपस्थिति की तरह स्वयं के उस जगत् से एक भिन्न अस्तित्व होने की प्रतीति पैदा करती है तो वह उस आभासतः भिन्न प्रतीत होनेवाले जगत् में असंख्य विविधताएँ कल्पित कर स्वयं को एक व्यक्ति या जीव-विशेष मान लेता है ।
उसी जीव के द्वारा जब इस जगत् को संचालित करनेवाली शक्तियों को अपने से बड़ी (वरीय) सत्ताओं की तरह कल्पित किया जाता है तो वे सत्ताएँ देवता-तत्व की तरह प्रभुत्वसंपन्न होने से प्रभु होती हैं और उन सबका तथा जीव-सत्ता का नियामक कोई एक ही ही स्वामी है इस कल्पना से जीव ही परमेश्वर को अज्ञात सर्वशक्तिमान सत्ता की तरह मान लेता है । स्पष्ट है कि ये सभी सापेक्ष सत्ताएँ हैं जो जीव-चेतना में ही भासित होती हैं किंतु ’सत्’ इन सबसे अप्रभावित निरपेक्षतः अविकारी एकमेव अधिष्ठान होता है ।
भू से भुवः लोक तक का विकास आधिदैविक का कार्यक्षेत्र है और मनुष्य का मन ही जीव में आधिदैविक सत्य से संपर्क का स्थान है ।
इसलिए मनस्तत्व का एक सिरा जहाँ आधिभौतिक स्वरूप का है, वहीं उसका दूसरा सिरा आधिदैविक स्वरूप का ।
अग्नि जैसे स्थूल रूप से आधिभौतिक का प्रथम साक्षात्कार है, वैसे ही अग्नि ही सूक्ष्म रूप से आधिदैविक का भी प्रथम साक्षात्कार है ।
साक्षात्कार अर्थात् संपर्क-सूत्र ।
"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।"
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Sunday, 16 September 2018

~~ सनातन पथ ~~

~~ सनातन पथ ~~
दस वर्ष पहले कंप्यूटर से अभिभूत था।  जानता था कि इसका मुझे बहुत उपयोग हो सकता है, लेकिन यह नहीं पता था कि इसकी मुझे वाक़ई ज़रूरत थी भी या नहीं ! बहरहाल किसी भी कारण से क्यों न हो, मुझे यह प्राप्त हुआ और मेरी उत्सुकता को शांत होने का मौक़ा मिला।
मैं लिखना चाहता था।  खासकर कुछ अद्भुत् जो मैंने जीवन में पढ़ा था।  चाहे भगवद्गीता हो, श्रीनिसर्गदत्त महाराज, जे. कृष्णमूर्ति, श्रीरमण महर्षि का साहित्य हो, या पतञ्जलि का योगशास्त्र, कपिलमुनि का साङ्ख्य, या अद्वैत-दर्शन।
और जब लिखना ही था तो कंप्यूटर पर लिखकर 'सेव' किया जा सकता है, कम से कम 'हार्ड-कॉपी' में प्रिंट-ऑउट' लेकर सुरक्षित रखा जा सकता है।
यह सब मैं बस उत्सुकतावश ही करना चाहता था।  क्योंकि इस बहाने इन सब पुस्तकों का अपने ढंग से स्वाध्याय किया जा सके।  दुनिया के लिए नहीं।  संसार का कल्याण करना है या इससे पैसा, स्टेटस या शोहरत कमाना है यह विचार तक मुझे कलुषित जान पड़ता था।  किसी को 'इम्प्रेस' करने का भोंडा ख़याल कभी-कभी अवश्य आया करता था और इस ख़याल के आते ही मुझे तुरंत हँसी आने लगती थी।
मनुष्य का मन और इन्द्रियों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वे बहिर्मुख होते हैं।
सद्दर्शनं 24 के अनुसार :
धिये प्रकाशं परमो वितीर्य
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः ।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या ॥
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The Supreme gives the light to thought.
Within it, Himself hidden, He shines.
Hence to turn in the thought to unite within,
That is to see the Lord.
How else to see?
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इस प्रकार ईश्वर या सत्य को 'अपने' से बाहर खोजने का प्रश्न ही निरर्थक हो गया। फिर किसी को शिक्षा या उपदेश देना तो और भी व्यर्थ लगने लगा। इसलिए 'लिखने' का प्रयोजन सिर्फ़ यह रहा कि यह केवल टाइम-पास का रुचिप्रद काम था।
वेब के बारे में भी इसी प्रकार केवल कौतूहल भर था।  उसका भी मुझे कुछ उपयोग तो है लेकिन यह भी आवश्यक तो क़तई नहीं है।  कुछ संपर्क वेब के माध्यम से बने लेकिन पुनः यह लगा कि संसार में कोई किसी से जुड़ता नहीं केवल किसी उस माध्यम से भर जुड़ता है जिसमें उसकी दिलचस्पी होती है।  हाँ, एक सुख भी इसमें अवश्य होता है और हम उस सुख के अभ्यस्त 'एडिक्ट' हो जाते हैं। तब कोई दूसरा बेहतर दिखाई देनेवाला विकल्प मिलते ही पुराना सुख या वह सुख जिससे शेयर किया जाता था, वह अचानक बोझ लगने लगता है।  कभी-कभी हम उसे ढोते रहते हैं किन्तु उस संबंध की उम्र बीत चुकी होती है और फिर भी उसे बाध्यतावश ढोना हो तो हम उसे गौरवान्वित कर, खुद को ही भ्रमित किए रहते हैं।  कभी-कभी हमें अपराध-बोध भी होता है और हमें भीतर ही भीतर उससे घृणा तक होने लगती है।  नैतिक होने का दंभ और 'लोग क्या कहेंगे' इसकी चिंता हममें आत्म-निंदा का भाव पैदा कर देती है।  किंतु तब भी हम अंत तक नाटक करते रहते हैं।  हम खुद को भी यातना देते रहते हैं और दूसरों को भी।  हम खुद को भी भ्रमित किए रहते हैं और दूसरों को भी।  यह भ्रम केवल स्मृति के कारण ही पैदा होता है।  स्मृति अतीत को परिभाषित करती है और अतीत स्मृति को।  और हम यह नहीं देख पाते कि दोनों एक दूसरे के पर्याय मात्र हैं।  उनमें से कोई भी सत्य नहीं हो सकता।  कोई घटना कभी हुई यह ख़याल ही 'समय' का विचार है।  ऐसा कोई 'समय' न था, न है, न होगा।  उस 'समय' में ही हज़ारों चीज़ों के होने और 'बीतने' का विचार पैदा होता है और 'संसार' एक जीता-जागता जादू जान पड़ने लगता है।
लेकिन जब एक बार उस 'संसार' में सत्यता आरोपित हो जाती है तो उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती।  उसका अपमान करने का प्रश्न भी नहीं पैदा होता।  जो जादू अपने सामने प्रकट होता है, वह खुद ही विलुप्त भी होता रहता है।  और फिर वह अपने से जुदा, भिन्न हो यह भी नहीं हो सकता। तब भी उसका औपचारिक अस्तित्व तो मानना ही पड़ेगा - जिस पर चलने के लिए न तो मार्ग है, न मार्ग होना ज़रूरी।
मार्गविहीन एक सनातन-पथ। 
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Saturday, 8 September 2018

मनस्तत्व / The 'Mind'

मनस्तत्व / The 'mind'
विचार, बुद्धि, भावना, मोह, संस्कार और प्रमाद
Thought, intellect, emotion, passion, hidden tendencies and inattention.
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मन अर्थात् अंतःकरण नामक आधिदैविक सत्ता के ये छह तत्व परस्पर एक-दूसरे में व्याप्त होते हैं और इस तरह से एक ही तथ्य के भिन्न-भिन्न दिखलाई पड़नेवाले प्रकार हैं।
The 'mind' / the inner organ / the cosmic mind consists of these 6 elements which are distributed in each-other homogeneously. They though appear of different shades are one single fact only.   
बुद्धि से विचार का और विचार से बुद्धि का आगमन होता है।
Intellect causes thought and thought evokes the Intellect.
मोह से भावना का तथा भावना से मोह का आगमन होता है।
Passion causes the emotion and emotion evokes the Passion.
संस्कार से प्रमाद का तथा प्रमाद से संस्कार का आगमन होता है।
The hidden / latent tendencies cause the inattention and the inattention evokes the hidden / latent tendencies
आगमन अर्थात् उद्भव, प्राकट्य।
'evokes' means brings out...
स्मृति इन सब का संचित परिणाम है।
'memory' is the collective result / effect of all.
राग, द्वेष, काम, क्रोध, भय, लोभ, मत्सर, ईर्ष्या आदि भावना है, जबकि भावना को शाब्दिक आवरण देने से उसे ही विचार या बुद्धि के रूप में देखा जाता है।  प्रमाद अर्थात् विवेक का अभाव जब वृत्ति के औचित्य / अनौचित्य की परीक्षा किए बिना ही या तो मन उस वृत्ति से एक हो जाता है या उस वृत्ति से अन्य कोई भिन्न-प्रकार की वृत्ति उसका स्थान लेती है।
attachment, envy, lust, anger, fear, greed, jealousy, animosity are emotion while the same when given a verbal form are 'thought'. 
विचार और बुद्धि  रजोगुण-प्रधान हैं।
Thought and intellect are of the nature of activity.
भावना और मोह सतोगुण-प्रधान हैं।
Emotion and Passion are of the nature of light (and shadow)
संस्कार और प्रमाद तमोगुण-प्रधान हैं।
Hidden / latent tendencies are of the nature of lethargy / inertia.
ये तीनों गुण त्रिगुणात्मिका प्रकृति के ही तीन अंग हैं, एक ही शक्ति के तीन रूपों में होनेवाले भिन्न भिन्न कार्य।
These 3 attributes (गुण) are the 3 aspects of the three-fold 'Nature' / प्रकृति .
प्रस्तुत पोस्ट का केंद्रीय बिंदु है इस अध्याय 14 का श्लोक क्रमांक 10 . 
इस अर्थ में एक ही तथ्य एक ही समय पर 'अंतःकरण' में आपस में क्रीडारत तीन गुणों में से एक शेष दो पर वर्चस्व रखकर चित्त की वृत्ति को तमोगुण, रजोगुण या सत्त्वगुण की प्रधानता से प्रवृत्त करता है।  इसलिए मन निरंतर गतिशील रहता है।  
सतोगुण की प्रबलता होने पर विधेयात्मक चिंतन (positive thinking)  अनायास संभव हो पाता है, रजोगुण की प्रबलता होने पर नकारात्मक या सकारात्मक विक्षेपयुक्त चिंतन हुआ करता है जब मन आशा-निराशा, भय-लोभ, आदि द्वंद्वयुक्त भावनाओं में डोलता रहता है। तमोगुण की प्रबलता की स्थिति में निद्रा या मूढतायुक्त विचार नकारात्मक चिंतन (negative thinking) और उससे जुड़ी भावना चित्त पर हावी हो जाती है।   
The core-point of this post is the stanza 10 of Chapter 14 of Srimadbhagvadgita) .
At any time, the same 'fact', - The 'mind', governed by the 'Nature' behaves in the influence of one of the three attributes while the other two are in its control. The one that is at the helm becomes prominent and the other 2 the subservient. 
When the 'Light' / सतोगुण is prominent, the mind can see clearly with intelligence and see the prejudice, and the unjust. In other words; 'positive thinking' happens.
When the 'activity' / restlessness (रजोगुण) prevails over the other two attributes, the mind undergoes confusion, doubt, hope, anxiety, and despair at the same time.
When the 'Lethargy' / 'inertia' / तमोगुण prevails over the other two attributes, the mind undergoes sleep and can't see the things correctly and properly. This is when 'Negative Thinking' dominates the mind.
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भगवद्गीता अध्याय 14 के श्लोक क्रमांक 4 से श्लोक क्रमांक 20 तक इसे ही विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया गया है।
Chapter 14, stanza 4 onwards 20 of Gita are reproduced here for the sake of a better understanding.
Please check the corresponding link for the English version.
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अध्याय 14, श्लोक 4,
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
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(सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासाम् ब्रह्म महत् योनिः अहम् बीजप्रदः पिता ॥)
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भावार्थ :
हे कौन्तेय (कुन्तीपुत्र अर्जुन)! समस्त योनियों में जितनी भी मूर्तियाँ (अनेक रूपाकृतियाँ) उत्पन्न होती हैं, उन सबकी महत् योनि, सबका आदिकारण प्रकृति अर्थात् महत्-ब्रह्म ही है (जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था), जिसे मैं ही बीज प्रदान करता हूँ और इस प्रकार से मैं ही उनका पिता हूँ ।
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Chapter 14,  śloka 4

sarvayoniṣu kaunteya
mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ |
tāsāṃ brahma mahadyonir-
ahaṃ bījapradaḥ pitā ||
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(sarvayoniṣu kaunteya
mūrtayaḥ sambhavanti yāḥ |
tāsām brahma mahat yoniḥ
aham bījapradaḥ pitā ||)
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Meaning :
This prakṛti / mahat-brahma is the mahat yoni  -Great mother, that conceives the seed of All the beings that are born in innumerable different body-forms. And I AM The Father, That provides the seed.
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अध्याय 14, श्लोक 5,
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥
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(सत्त्वम् रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनम् अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
हे महाबाहु (अर्जुन)! सत्त्वगुण, रजोगुण, एवं तमोगुण प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण अविनाशी स्वरूप वाले देही (चेतन-तत्त्व) को देह में बाँधते हैं ।
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Chapter 14, śloka 5,

sattvaṃ rajastama iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahābāho
dehe dehinamavyayam ||
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(sattvam rajaḥ tamaḥ iti
guṇāḥ prakṛtisambhavāḥ |
nibadhnanti mahā bāho
dehe dehinam avyayam ||)
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Meaning :
sattva, raja and tama,  these three attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) bind him to the body, to the one (the consciousness associated with the body), who takes himself as the body.
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अध्याय 14, श्लोक 6,

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयं ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥
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(तत्र सत्त्वम् निर्मलत्वात् प्रकाशकम् अनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन च अनघ ॥)
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भावार्थ :
हे अनघ (अर्जुन) ! (प्रकृति से उद्भूत तीन गुणों में से) सत्त्व उसमें निहित निर्मलत्व, प्रकाशकत्व, और शुचिता के कारण मनुष्य को सुख की भावना से बाँध देता है,  ।
अर्थात् ’मैं सुखी रहूँ, -हो जाऊँ’ इस विचार अथवा कामना के रूप में बंधन बन जाता है ।
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Chapter 14, śloka 6,

tatra sattvaṃ nirmalatvāt-
prakāśakamanāmayaṃ |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena cānagha ||
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(tatra sattvam nirmalatvāt
prakāśakam anāmayam |
sukhasaṅgena badhnāti
jñānasaṅgena ca anagha ||)
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Meaning :
There, O stainless / sinless (arjuna)! Because of the clarity, intelligence, and purity inherent in 'sattvam', this aspect of 'prakṛti' binds one with the 'sense of happiness'.
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अध्याय 14, श्लोक 7,

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥
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(रजः रागात्मकम् विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
तत् निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥)
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भावार्थ :
हे कौन्तेय (अर्जुन)! रागके स्वरूपवाले  रजोगुण को कामना (लालसा) तथा आसक्ति (लिप्तता) से उत्पन्न हुआ जानो, जो (रजोगुण) देह के स्वामी (जीव) को कर्म तथा उसके फल की आशा से बाँधता है ।
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Chapter 14, śloka 7,

rajo rāgātmakaṃ viddhi
tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam |
tannibadhnāti kaunteya
karmasaṅgena dehinam ||
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(rajaḥ rāgātmakam viddhi
tṛṣṇāsaṅgasamudbhavam |
tat nibadhnāti kaunteya
karmasaṅgena dehinam ||)
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Meaning :
Know the rajo-guṇa (passion), that is of the nature of identification, is born of desire and longings for pleasures. And the same (rajo-guṇa) binds the embodied being (soul / jīva) with the action (karma) and the hope of the fruits (karmaphala) of that action (karma)
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अध्याय 14, श्लोक 8,

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥
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(तमः तु अज्ञानजम् विद्धि मोहनम् सर्वदेहिनाम् ।
प्रमाद आलस्यनिद्राभिः तत् निबध्नाति भारत ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण को, जो समस्त देहधारियों के चित्त को मोहित करता है, उसे तो अज्ञान से उत्पन्न जानो । और वह (तमोगुण) उन्हें प्रमाद, आलस्य एवं निद्रा जैसी वृत्तियों से बाँधता है ।
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Chapter 14, śloka 8,

tamastvajñānajaṃ viddhi
mohanaṃ sarvadehinām |
pramādālasyanidrābhis-
tannibadhnāti bhārata ||
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( tamaḥ tu ajñānajam viddhi
mohanam sarvadehinām |
pramāda-ālasya-nidrābhiḥ
tat nibadhnāti bhārata ||)
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Meaning :
O bhārata (arjuna)! Know well that tamoguṇa, (the attribute of inertia) in all the creatures, is caused by the (inherent) ignorance. And binds the mind through the tendencies (vṛtti-s) of distraction, indolence and drowsiness.
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अध्याय 14, श्लोक 9,

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्त्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥
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(सत्त्वम् सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयति उत ॥)
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भावार्थ :
(आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप को आवृत्त कर) सत्त्वगुण तो चित्त को सुख में प्रवृत्त करता है, रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है, तथा हे भारत (अर्जुन)! तमोगुण ज्ञान को ढाँककर चित्त को प्रमाद में प्रवृत्त करता है ।)
टिप्पणी : इस प्रकार तीनों गुण आत्मा के स्वरूप को आवरित रखते हैं ।
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Chapter 14, śloka 9,

sattvaṃ sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛttya tu tamaḥ
pramāde sañjayatyuta ||
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(sattvam sukhe sañjayati
rajaḥ karmaṇi bhārata |
jñānamāvṛtya tu tamaḥ
pramāde sañjayati uta ||)
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Meaning :
bhArata (arjuna)! Driven by the attribute of harmony (sattvaṃ), the mind ( citta ) gets identified with joy and peace, driven by the attribute of passion (rajaḥ / rajas), the mind gets identified with  action, and driven by the attribute of inertia (tamaḥ / tamas) the mind gets identified with sloth, idleness.
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अध्याय 14, श्लोक 10,

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥
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(रजः तमः च अभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रजः सत्त्वम् तमः च एव तमः सत्त्वम् रजः तथा ॥)
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भावार्थ :
रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सतोगुण प्रबल हो उठता है, और रजोगुण भी सतोगुण एवं तमोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । इसी तरह से तमोगुण भी सतोगुण एवं रजोगुण को दबाकर प्रबल हो उठता है । संक्षेप में एक समय में इनमें से कोई एक सर्वाधिक प्रबल, शेष दो पर हावी हो जाता है ।
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Chapter 14, śloka 10,

rajastamaścābhibhūya
sattvaṃ bhavati bhārata |
rajaḥ sattvaṃ tamaścaiva
tamaḥ sattvaṃ rajastathā ||
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(rajaḥ tamaḥ ca abhibhūya
sattvam bhavati bhārata |
rajaḥ sattvam tamaḥ ca eva
tamaḥ sattvam rajaḥ tathā ||)
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Meaning : Overpowering rajoguṇa and tamoguṇa, satoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and tamoguṇa, rajoguṇa prevails. Overpowering satoguṇa and rajoguṇa tamoguṇa prevails.
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अध्याय 14, श्लोक 11,

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥
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(सर्वद्वारेषु देहे अस्मिन् प्रकाशः उपजायते ।
ज्ञानम् यदा तदा विद्यात् विवृद्धम् सत्त्वम् इति उत ॥)
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भावार्थ : मन पर तीनों गुणों का प्रभाव निरन्तर पड़ता रहता है । पिछले श्लोक 10 में बतलाया गया कि किस प्रकार एक समय पर एक ही गुण शेष दो गुणों को दबाकर मन पर आधिपत्य कर लेता है । इस क्रम में जिस समय सत्त्वगुण प्रबल होता है देह के सभी द्वारों (मन तथा इन्द्रियों में) चेतनता, निर्मलता तथा नीरोगता (स्वास्थ्य, आरोग्य) का विस्तार होता है, क्योंकि जैसा इसी अध्याय के पूर्व श्लोक क्रमांक 6 में कहा गया, सत्त्वगुण जो कि सुख से बाँधता है, इन्हीं का कारक है । और चूँकि ये तीनों दशाएँ आत्मा की सहज स्वाभाविक अवस्था है, इसलिए मनुष्य को इनमें सुख की प्रतीति तथा फलस्वरूप तज्जनित सुख का आभास भी होता है । यह अवस्था सत्त्व की प्रबलता और प्रचुरता की द्योतक है ।
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Chapter 14, śloka 11,

sarvadvāreṣu dehe:'smin-
prakāśa upajāyate |
jñānaṃ yadā tadā vidyād-
vivṛddhaṃ sattvamityuta ||
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(sarvadvāreṣu dehe asmin
prakāśaḥ upajāyate |
jñānam yadā tadā vidyāt
vivṛddham sattvam iti uta ||)
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Meaning :
Mind functions by the force, and under the influence of the three attributes (guṇa-s) of manifestation (prakṛti). As explained in the śloka 6 of this Chapter, 'sattvaguṇa' has the qualities of  consciousness, harmony, joy, intelligence, clarity, purity and cleanliness, and absence of ill, when 'sattvaguṇa' predominates over the other two attributes (namely rajoguṇa and tamoguṇa,)  one feels just happy and peaceful, content, which are the revelations of the nature of the essential Reality / Self. This further becomes 'experience' and the 'memory'. Thus 'sattvaguṇa' causes the sense of happiness. And as a consequence binds with 'pleasure'. This is again a bondage only, -not the freedom. When this happens, it is the indication of the preponderance of  'sattvaguṇa'.
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अध्याय 14, श्लोक 12,

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥
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(लोभः प्रवृत्तिः आरम्भः कर्मणाम् अशमः स्पृहा ।
रजसि    एतानि    जायन्ते    विवृद्धे    भरतर्षभ ॥)
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भावार्थ :
हे भरतर्षभ (अर्जुन)! लोभ, प्रवृत्ति (रुचि) कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, और लालसा, रजोगुण के बढ़ जाने पर चित्त में ये सभी जन्म लेते हैं ।
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Chapter 14, śloka 12,

lobhaḥ pravṛttirārambhaḥ
karmaṇāmaśamaḥ spṛhā |
rajasyetāni jāyante
vivṛddhe bharatarṣabha ||
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(lobhaḥ pravṛttiḥ ārambhaḥ
karmaṇām aśamaḥ spṛhā |
rajasi    etāni    jāyante   
vivṛddhe    bharatarṣabha ||)
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Meaning :
O bharatarṣabha  (arjuna)! When the mode of passion (rajoguṇa) predominates (in the mind, -over satoguṇa  and tamoajoguṇa), one is overtaken by greed, activity, urge for the activity, restlessness and cravings for enjoyment.
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अध्याय 14, श्लोक 13,

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥
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(अप्रकाशः अप्रवृत्तिः च प्रमादः मोहः एव च ।
तमसि एतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥)
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भावार्थ :
हे कुरुनन्दन (अर्जुन)! तमोगुण के बढ़ जाने पर अप्रकाश (अन्धकार, जडता), अप्रवृत्ति (उत्साह का न होना), प्रमाद (व्यर्थ चेष्टा), मोह (निद्रा तथा मद का प्रभाव) भी, ये सब उत्पन्न होते हैं । 
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Chapter 14, śloka 13,

aprakāśo:'pravṛttiśca
pramādo moha eva ca |
tamasyetāni jāyante
vivṛddhe kurunandana ||
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(aprakāśaḥ apravṛttiḥ ca
pramādaḥ mohaḥ eva ca |
tamasi etāni jāyante
vivṛddhe kurunandana ||)
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Meaning :
O kurunandana(arjuna)! When the tamoguṇa (inertia) predominates (in the mind, - over satoguṇa  and rajoguṇa), one comes under the spell of lack of insight (aprakāśa), laziness, in-attention, delusion, and the indulgence in stupor-like states of the mind.
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Note :
1.The 3 attributes (guṇa) of manifestation (prakṛti) have a parallel in This day Physics.

satoguṇa is synonymous to light,
rajoguṇa is synonymous to inertia of momentum (as in Dynamics),
tamoguṇa  is synonymous to inertia at rest (as in statics).
But we may also note that the light that is seen (in whatever form from a source, or as a reflection) is a physical object and the one 'who' sees this light is again a kind of awareness that is consciousness, or an entity / sentient being endowed with consciousness.
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अध्याय 14, श्लोक 14,

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥
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(यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयम् याति देहभृत् ।
तदा उत्तमविदाम् लोकान् अमलान् प्रतिपद्यते ॥)
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भावार्थ :
जब मनुष्य के मन में सत्वगुण प्रबल होता है और तब उसकी मृत्यु होती है, तब देह के स्वामी (चेतना, जीव) को उत्तम कर्मोंवाले निर्मल लोकों की प्राप्ति होती है ।
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Chapter 14, śloka 14,

yadā sattve pravṛddhe tu
pralayaṃ yāti dehabhṛt |
tadottamavidāṃ lokān-
amalānpratipadyate ||
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(yadā sattve pravṛddhe tu
pralayam yāti dehabhṛt |
tadā uttamavidām lokān
amalān pratipadyate ||)
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Meaning :
When a soul (consciousness associated with the body) leaves the body, and satvaguṇa (harmony - clarity, light, peace, of mind) prevails at that time, one attains the stainless ethereal places of noble and auspicious deeds.
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अध्याय 14, श्लोक 15,

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥
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(रजसि प्रलयम् गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनः तमसि मूढयोनिषु जायते ॥)
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भावार्थ :
रजोगुण जब चित्त में प्रबल होता है, उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले कर्मों में आसक्ति रखनेवालों में उत्पन्न होते हैं । और तमोगुण जब चित्त में प्रबल होता है, उस अवस्था में मृत्यु को प्राप्त होनेवाले मूढयोनि में उत्पन्न होते हैं ।
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Chapter 14, śloka 15,

rajasi pralayaṃ gatvā
karmasaṅgiṣu jāyate |
tathā pralīnastamasi
mūḍhayoniṣu jāyate ||
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(rajasi pralayam gatvā
karmasaṅgiṣu jāyate |
tathā pralīnaḥ tamasi
mūḍhayoniṣu jāyate ||)
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Meaning :
One, who dies in a state of mind, when the passion (rajoguṇa) is prevailing, he attains the next birth among the people who are obsessed with activity. And one, who dies in a state of mind, when the sloth (tamoguṇa) is prevailing, he attains the next birth in the wombs of impure, dull and animal tendencies
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अध्याय 14, श्लोक 16,

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
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(कर्मणः सुकृतस्य आहुः सात्त्विकम् निर्मलम् फलम् ।
रजसः तु फलम् दुःखम् अज्ञानम् तमसः फलम् ॥)
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भावार्थ :
श्रेष्ठ (सात्त्विक) कर्म का फल तो सात्त्विक अर्थात् क्लेश-निवारण, निर्मल, ज्ञान तथा वैराग्य प्रदायक कहा गया है, जबकि राजस कर्म का फल दुःख और तामस का फल अज्ञान कहा गया है ।
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Chapter 14, śloka 16,

karmaṇaḥ sukṛtasyāhuḥ
sāttvikaṃ nirmalaṃ phalam |
rajasastu phalaṃ duḥkham-
ajñānaṃ tamasaḥ phalam ||
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(karmaṇaḥ sukṛtasya āhuḥ
sāttvikam nirmalam phalam |
rajasaḥ tu phalam duḥkham
ajñānam tamasaḥ phalam ||)
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Meaning :
Clarity, peace and happiness, is said the fruit of a noble action (sāttvika-karma), while misery and sorrow is said the fruit of the action done in confusion (rajoguṇa), and ignorance and delusion is said the fruit of the action done without care .
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अध्याय 14, श्लोक 17,

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥
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(सत्त्वात् सञ्जायते ज्ञानम् रजसः लोभः एव च ।
प्रमादमोहौ तमसः भवतः अज्ञानम् एव च ॥)
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भावार्थ :
सत्त्व (सत्त्वगुण) से ज्ञान का उद्भव होता है, रज (रजोगुण) से लोभ का, और तम (तमोगुण) से प्रमाद एवं मोह तथा अज्ञान का भी उद्भव होता है ।
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Chapter 14, śloka 17,

sattvātsañjāyate jñānaṃ
rajaso lobha eva ca |
pramādamohau tamaso
bhavato:'jñānameva ca ||
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(sattvāt sañjāyate jñānam
rajasaḥ lobhaḥ eva ca |
pramādamohau tamasaḥ
bhavataḥ ajñānam eva ca ||)
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Meaning :
From  (sattva-guṇa) / attribute of harmony, comes the knowledge, from  (rajoguṇa) / attribute of passion, comes the greed, while from tamoguṇa / the attribute of inertia,  come the pramāda, / idleness, and moha / distraction, and ajñāna / ignorance as well.
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अध्याय 14, श्लोक 18,

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥
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(ऊर्ध्वम् गच्छन्ति सत्त्वस्थाः मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्थाः अधः गच्छन्ति तामसाः ॥)
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भावार्थ :
सत्त्वगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला चेतना की उच्चतर स्थितियों की ओर गतिशील होता है, रजोगुण (की वृत्ति) में स्थित रहनेवाला जहाँ का तहाँ रहता है, और जघन्यगुण (निन्दनीय) वृत्ति में स्थित रहनेवाला अधोगति की ओर गतिशील होता है ।
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Chapter 14, śloka 18,

ūrdhvaṃ gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthā
adho gacchanti tāmasāḥ ||
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(ūrdhvam gacchanti sattvasthāḥ
madhye tiṣṭhanti rājasāḥ |
jaghanyaguṇavṛttisthāḥ
adhaḥ gacchanti tāmasāḥ ||)
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Meaning :
Those who try to stay in the purity of consciousness, (in the state of mind where one is aware of just being only), attain the elevated state, those who remain as they are and are lead by their modes (vṛtti) of mind keep stagnant, while those who indulge in the evil tendencies of delusion and ignorance keep falling.
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अध्याय 14, श्लोक 19,

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥
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(न अन्यम् गुणेभ्यः कर्तारम् यदा द्रष्ट अनुपश्यति ।
गुणेभ्यः च परं वेत्ति मद्भावम् सः अधिगच्छति ॥)
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भावार्थ :
जब मनुष्य समष्टि चेतन में एकीभाव से स्थित हो जाता है, अर्थात् मन, बुद्धि, स्मृति और ’मैं’-भावना से नितांत अछूता होकर देखता है कि गुणों के सिवा दूसरा कुछ नहीं है जिसे ’कर्ता’ कहा जा सके, तब वह उन गुणों से परे अवस्थित मेरे (अपने-आपके) स्वरूप को जान लेता है और उसमें अधिष्ठित हो जाता है ।
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Chapter 14, śloka 19,

nānyaṃ guṇebhyaḥ kartāraṃ
yadā draṣṭānupaśyati |
guṇebhyaśca paraṃ vetti
madbhāvaṃ so:'dhigacchati ||
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(na anyam guṇebhyaḥ kartāram
yadā draṣṭa anupaśyati |
guṇebhyaḥ ca paraṃ vetti
madbhāvam saḥ adhigacchati ||)
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Meaning :
When one is able to see that there are these three guṇa only and nothing else that could be termed the agent (responsible for all actions), and then looks beyond them and finds out and knows the Supreme, he knows Me and attains to Me, My Real Form.
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अध्याय 14, श्लोक 20,

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥
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(गुणान् एतान् अतीत्य त्रीन् देही देहसमुद्भवान् ।
जन्म-मृत्यु-जरा-दुःखैः विमुक्तः अमृतम् अश्नुते ॥)
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भावार्थ :
(प्रकृति के सत्व, रज तथा तम) इन तीनों गुणों से निर्मित इस देह का स्वामी (शुद्ध चेतनता) इनसे छूटकर, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था (और व्याधि / रोग) जैसे समस्त दुःखों से छुटकारा पाकर शाश्वत सत्ता को पा लेता है ।
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टिप्पणी :
वह जीव-चेतना जो शरीर पर अपना स्वामित्व अनुभव करती है, मन-मस्तिष्क पर पड़नेवाला शुद्ध चैतन्यरूपी प्रकाश मात्र होती है, और प्रकृति-प्रदत्त शरीर का उस प्रकाश से संयोग ही  बुद्धि में अहं-रूपी विशिष्ट व्यक्ति होने का भ्रम उत्पन्न करता है ।
जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया था, जब द्रष्टा (अर्थात् वह चेतना जो व्यक्तित्व तथा परब्रह्म का समान उभयनिष्ठ तत्व है) यह देख लेता है कि उपरोक्त तीन गुणों से भिन्न कोई कर्ता नहीं होता, तब यह यथार्थ स्पष्ट हो जाता है ।     
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Chapter 14, śloka  20,

guṇānetānatītya trīndehī
dehasamudbhavān |
janmamṛtyujarāduḥkhair-
vimukto:'mṛtamaśnute ||
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(guṇān etān atītya trīn
dehī dehasamudbhavān |
janma-mṛtyu-jarā-duḥkhaiḥ
vimuktaḥ amṛtam aśnute ||)
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Meaning :
Having transcended these 3 attributes (guṇa-s) of manifestation / phenomenon / prakṛti, that bring about this physical existence in the form of the body and its world, the individual consciousness is freed from the miseries like the birth, death, old-age, and diseases, and gets immense peace and bliss time-less and eternal.
Note:
In the last śloka 19 we saw, knowing the fact that except these 3 attributes (guṇa-s) of manifestation / phenomenon / prakṛti, there is no such an entity that could be termed as the agent (kartā) for happening of a karma / bringing out an action (karma) / result, one stands aloof as the pure consciousness, as the only witness of this phenomena, and at once realizes the witness aspect of this consciousness, that is common to the individual soul and the Consciousness in totality (Brahman).   
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Here I took the pleasure of copying-pasting from my another blogspot-blog on Gita.
This is rather a repetition though. .... So ...that is that.... ! 
The above references are from my own blog .
For details please check the blog.
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Friday, 7 September 2018

मृत्यु के बाद

संत ज्ञानेश्वर रचित excel-chart देखते हुए अपनी एक  लंबी कविता  नागलोक याद हो आई। जिसे मैंने मेरे हिंदी-का-ब्लॉग में 11 अगस्त 2013 को तथा  बाद में पुनः 27 नवंबर 2015 को पोस्ट किया था।
मृत्यु के बाद का जैसा वर्णन पुराणों और उपनिषदों में किया गया है वह अक्षरशः सत्य है।
यहाँ तक कि वर्तमान जन्म की प्राप्ति होने से पूर्व जीव जिस लोक में रहता है और मृत्यु के पश्चात् जिस लोक में उसकी गति होती है उसका भी समान्तर वर्णन पुराणों और उपनिषदों में तो है ही, प्रस्तुत ब्लॉग में मेरी उपरोक्त दो कविताओं में भी अनायास मैंने व्यक्त किया है, इस ओर बस अभी आधा घंटे पहले मेरा ध्यान गया।
मनुष्य का मन एक-पहिएवाली  साइकिल जैसा होता है, जबकि मन की वृत्ति दो पहियोंवाली साइकिल जैसी  तथा विचार तीन पहियोंवाली साइकिल जैसा, और इसी तरह (इन्द्रियों के) विषय चार पहियोंवाले वाहन जैसे होते हैं।  एक पहिएवाली साइकिल केवल स्टेटिक इक्विलिब्रियम की अवस्था में स्थिर रहती है, दो पहियोंवाली स्टेटिक तथा डायनेमिक इक्विलिब्रियम की स्थिति में कुछ प्रयास से स्थिर रखी जा सकती है, जबकि तीन पहियोंवाली आसानी से स्टेटिक या डायनेमिक दोनों स्थितियों में इक्विलिब्रियम की स्थिति में रखी जा सकती है।  चार पहियोंवाली अपेक्षाकृत और अधिक सरलता से सुस्थिर रखी जा सकती है।
तीन पहिएवाली साइकिल इस दृष्टि से एक, दो या तीन से अधिक पहियोंवाले वाहन से अधिक स्थिर इसलिए भी होती है क्योंकि तीनों आधार-बिंदु एक और केवल एक समतल  (PLANE)  में स्थित होने से सुपरिभाषित होते हैं जबकि एक या दो पहिएवाली साइकिल के आधार-बिंदु ऐसा कोई सुनिश्चित समतल परिभाषित नहीं कर सकते।  दूसरी ओर तीन से अधिक आधार-बिंदु वाले वाहनों के पहिए ऐसे चार या अधिक समतल बनाते हैं जो परस्पर एक-दूसरे को काटते हों इसलिए .... यह स्टेटिक्स, डायनेमिक्स और मेकेनिक्स का विषय हुआ।
मन की स्थिति में इसी प्रकार मन निर्विषय, निर्विचार और वृत्तिशून्य हो तो निद्रारूपी अपेक्षाकृत स्थिरता अर्थात् निष्क्रिय जडता में चला जाता है।  एक वृत्ति होने की स्थिति में स्वप्न जैसी तंद्रालुता में होता है, जबकि वृत्ति के विषय से जुड़कर विचार से युक्त होने पर गतिशील संतुलन की स्थिति में होता है।
इन सभी स्थितियों में यदि जीव-चेतना की तुलना 'चालक' से करें तो यह चेतना निद्रा की स्थिति में जड  निष्क्रिय निश्चलता की अज्ञान-वृत्ति से तादात्म्य में होती है, जबकि स्वप्न तथा जागृति में क्रमशः वृत्ति तथा विचार से तथा किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष बाह्य विषय से इसका (चेतना का) तादात्म्य रहता है।  इस प्रकार तादात्म्य का सतत बने रहना चेतना की दिशा (अवधान अर्थात् ध्यान) को अपने उस स्रोत / उद्गम  की ओर कभी नहीं ले जा पाता जहाँ से उसका आगमन हुआ।
ध्यान की गति ही चित्त है, ध्यान की स्थिरता निद्रा या लय है जिसमें 'विषय' तिरोहित हो जाते हैं जो चित्त के सक्रिय होते ही पुनः चित्त के समक्ष प्रकट हो उठते हैं।  चित्त का तात्पर्य है किसी विशिष्ट नाडी में प्राण की गति।  इस प्रकार प्राण चित्त का अनुगमन करते हैं और इन्द्रियाँ प्राण का।  प्राण एक अथवा अनेक हो सकते हैं किन्तु व्यावहारिक अर्थ में  प्राण जिस नाडी से गुजरते हैं चित्त उसी लोक को अनुभव करता है।
मृत्यु होने के समय भी अंततः प्राण किसी न किसी नाडी के पथ को ग्रहण कर शरीर से बाहर निकल जाते हैं।  यदि मरनेवाले का ध्यान किसी विषय में अटका होता है तो वह उस विषय का चिंतन करते हुए देह को त्यागता है।  इसलिए नाम-स्मरण एक ऐसा सरल साधन है जिससे कोई भी यह प्रयास अवश्य कर सकता है कि मृत्यु के समय उस नाम को स्मरण करता हुआ उस नाम से संबद्ध देवता का चिंतन करते हुए चित्त को उस दिशा में ले जाए। अगर कोई ऐसा करता है तो मृत्यु के उपरांत उसके प्राण उसके चित्त के द्वारा खींचे जाकर उसे उस देवता के लोक में ले जाते हैं, यह है पुराणों और वेद-उपनिषद् की शिक्षा।
 ॐ के उच्चारण से जहाँ मन ब्रह्म-चिंतन में प्रवृत्त होता है, वहीं विशिष्ट देवता के स्मरण से, उस देवता के स्वरूप और चिंतन में।  पिछली पोस्ट्स में इस बारे में विस्तार से लिख चुका हूँ अतः पुनरावृत्ति करना अनावश्यक है।
प्राणों के 'यहीं' अर्थात् हृदय में लीन होने की स्थिति में मरनेवाले के प्राण ब्रह्मलोक में भी नहीं जाते और न ही अन्य किसी नाड़ी से देह से बाहर जाते हैं।
वेद, उपनिषदों में तथा पुराणों में भी मृत्यु के बाद जीव के भिन्न-भिन्न अनुभवों को इसी आधार पर समझा जा सकता है।  इसी प्रकार पुनर्जन्म या मुक्ति को भी।  भ्रू तथा भ्रूमध्य के बारे में भी इसी प्रकार क्रमिक जन्मों के दौरान स्मृति के सातत्य को भी।  
बुद्धिजीवी मनुष्यों के प्राण अंततः उनकी उस आत्यंतिक निष्ठा के मार्ग से प्रेरित होते हैं जिससे उनकी बुद्धि प्रेरित हुई होती है। और तदनुसार वे किसी भावी जीवन और लोक के भागी होते हैं।
नागलोक कविता मूलतः ऐसी असंख्य बुद्धियों की सर्प-रूपी विविधता के प्रतीक को ध्यान में रखकर लिखी गयी थी।
संत ज्ञानेश्वर रचित excel-chart में जिन सर्पों को दर्शाया गया है वे आध्यात्मिक पतन के मार्ग के प्रतीक हैं, जबकि सीढ़ियाँ आध्यात्मिक उन्नति की।
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Thursday, 6 September 2018

पुरुष, धर्म, वर्ण और संन्यास

सन्दर्भ और तात्पर्य
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पुरुष, धर्म, वर्ण और संन्यास ये तीनों शब्द दो प्रकार से प्रयुक्त किए जाते हैं और सन्दर्भ के अनुसार उनका तात्पर्य भिन्न भिन्न होता है।  संदर्भों की भिन्नता पर ध्यान न देने से अनावश्यक भ्रम और विवाद पैदा होता है।
गीता में अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा गया है :
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द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।
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(द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते ॥)
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भावार्थ :
इस संसार में नाशवान तथा अविनाशी ऐसे दो प्रकार के ये दो पुरुष हैं । सम्पूर्ण भूत प्राणियों के (उत्पन्न होनेवाले तथा नष्ट हो जानेवाले भौतिक देह-पिण्ड रूपी) शरीर तो नाशवान हैं, जबकि उनमें अवस्थित कूटस्थ (जीवात्मा) को अविनाशी कहा जाता है ।
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Chapter 15, śloka 16,

dvāvimau puruṣau loke
kṣaraścākṣara eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭastho:'kṣara ucyate |
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(dvau imau puruṣau loke
kṣaraḥ ca akṣaraḥ eva ca |
kṣaraḥ sarvāṇi bhūtāni
kūṭasthaḥ akṣaraḥ ucyate ||)
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Meaning :
My two forms on the earthly level are of two kinds. The Perishable and the imperishable. Though the physical gross body of all beings is perishable, the 'self' or the soul situated at the core of heart (kūṭastha), is the imperishable one.
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इस अध्याय 15 में संसार की तुलना अश्वत्थ से करने के उपरांत पुरुष अर्थात् संसार का अनुभव जिस चेतना / चेतन अस्तित्व के सन्दर्भ से होता है वह चेतना जीव के रूप में असंख्य भौतिक शरीरों के रूप में इन्द्रियगम्य भौतिक जगत में व्यक्त होती है।  इस चेतना को ही पुरुष कहा जाता है।  वह जो पुर्यष्टक अर्थात् पुरी या पुर रूपी आठ स्थानों में वास करता है वह जीव पुरुष है।  ये आठ स्थान ही समष्टितः 'वासव' अर्थात् इंद्र है।  इंद्र ही इन्द्रियों का शासक है और उस रूप में इंद्र आधिदैविक 'पुरुष' है। वह जिस इन्द्रिय से जुड़कर जगत का अनुभव करता है वह इन्द्रिय ही उस काल में उसका रूप ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार आठ 'वसु' समस्त जगत का कार्य-व्यापार संपन्न करते हैं।
पुरी-अष्टक स्थूल शरीर के रूप में भौतिक रूप में जीव का भौतिक अस्तित्व है।
पुरी-अष्टक सूक्ष्म शरीर के रूप में, आधिदैविक 'मन' नामक चेतन तत्व है।
पुरी-अष्टक कारण शरीर के रूप में उपरोक्त स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर का मूल कारण है।
यह जगत भी जिसे जीव के सन्दर्भ में उसका 'लोक' कहा जाता है पाँच तत्वों और तीन गुणों से प्रकृति द्वारा निर्मित एक समष्टि-सत्ता है जो जड की तरह ग्रहण किए जाने पर प्रकृति तथा चेतन की तरह ग्रहण किए जाने पर पुरुष के नाम से जानी जाती है।
इस प्रकार जीव को जगतस्थ पुरुष तथा समष्टि-चेतन को पुरुषोत्तम कहा जाता है।
यहाँ यह ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि प्रकृति में उत्पन्न असंख्य  जीव भी भौतिक शारीरिक दृष्टि से पुरुष-लिंगीय, स्त्री-लिंगीय, नपुंसक अथवा द्विलिंगीय (androgynous) हो सकते हैं।
andro शब्द इंद्र का तथा gynous जन्यस् / जन्यः का cognate है।
इस दृष्टि से जाया स्त्रीलिंग और जनक पुंलिंग है।
प्रकृति जड होने की दृष्टि से कृति है जो प्रसंगवश विकृति या संस्कृति का रूप लेती है।
प्रकृति शक्ति होने की दृष्टि से त्रिगुणात्मिका है।
पुरुष चेतन होने से किसी कर्म का करनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं हो सकता इसलिए प्रकृति और पुरुष के सान्निध्य से ही कर्म होता हुआ प्रतीत भर होता है।
प्रकृति स्वभाव है जो शुभ-अशुभ से परे है किन्तु जीव (शरीर से संबद्ध चेतन) अपने आपको प्रकृतिजनित सुख-दुःख का अनुकूल-प्रतिकूल का भोक्ता मान लेता है।  यही पुरुष संस्कृति अथवा विकृति का आधार है।  दूसरी ओर समष्टि-चेतन भी यद्यपि कर्ता न होकर दृष्टा मात्र है, क्योंकि प्रत्येक जीव की बुद्धि में यह अविच्छिन्न रूप से सदा दृष्टा की तरह जाना भी जाता है और बुद्धि में अपने कर्ता होने का त्रुटिपूर्ण ज्ञान ही उस दृष्टा पर जीव-बुद्धि आरोपित कर देता है।
यह जीव-भाव भी प्रकृति का स्वभाव ही है और यही भ्रमवश संस्कृति या विकृति के अनुसार शुभ अथवा अशुभ कर्मों को करने में स्वयं को स्वतंत्र अनुभव करता है।  'कार्य-कारण' की धारणा बुद्धि पर इस तरह हावी हो जाती है की जीव यह नहीं देख पाता कि किसी भी कार्य के हो पाने के असंख्य कारण होते हैं जिनमें से कुछ से ही वह अवगत होता है।
इस प्रकार उसका स्वभाव प्राकृतिक, आनुवांशिक, वातावरण आदि से पाया होता है।
इसे ही वर्ण कहा गया है। यह वर्ण मोटे तौर पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन चार में वर्गीकृत किया जाता है। भौतिक अर्थात् शरीर और वंश की दृष्टि से मनुष्य (यहां तक कि स्थावर-जंगम प्राणीमात्र ही) इनमें से प्रधानतः किसी एक वर्ण-विशेष से संबद्ध होता है जो जाति से बहुत भिन्न है।  जाति का अर्थ है वंशानुगत और परिस्थितियों के अनुसार प्राप्त वंश-परम्परा।
दूसरी ओर बहुत से जीव अवर्ण या ऐसे वंश में उत्पन्न होते हैं जिनकी कोई सुनिश्चित या ज्ञात वर्ण-परंपरा नहीं होती।  फिर भी गुण तथा कर्म के आधार पर उनका कोई सुनिश्चित वर्ण अवश्य ही होता है। 
गीता अध्याय 4, श्लोक 13 इस बारे में दृष्टव्य है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विध्यकर्तारमव्ययम् ॥
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(चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारं अपि माम् विद्धि अकर्तारम्-अव्ययम् ॥)
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भावार्थ :
गुण तथा कर्म के विभाजन के अनुसार चार प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का समूह (वर्ण्य), जिनसे समस्त भूत अनायास परिचालित होते हैं, मेरे ही द्वारा रचा गया है । उस समूह का रचनाकार (स्वरूपतः) अकर्ता तथा अव्यय मुझको ही जानो ।
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Chapter 4, śloka 13,

cāturvarṇyaṃ mayā sṛṣṭaṃ
guṇakarmavibhāgaśaḥ|
tasya kartāramapi māṃ
vidhyakartāramavyayam ||
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(cāturvarṇyam mayā sṛṣṭam
guṇakarmavibhāgaśaḥ |
tasya kartāraṃ api mām
viddhi akartāram-avyayam ||)
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Meaning :
According to the innate nature and tendencies for action of man, I have created the four-fold order in this world. Even though I AM the Imperishable, and the Creator of them, know for certain I AM as such ever, the non-doer. 
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इससे स्पष्ट है कि वर्ण का आधार गुण तथा कर्म हैं जिनके अनुसार ही मनुष्य-मात्र के संस्कार, वृत्तियाँ और बुद्धि, यहाँ तक की आजीविका / व्यवसाय / परिस्थितियाँ  आदि उसके लिए अनुकूल और प्रतिकूल होते हैं। जातियों का उद्भव मुख्यतः इन्हीं कारणों से हुआ न कि वर्ण-विशेष में जन्म लेने मात्र से।
और स्पष्ट है कि (अनुवांशिक आधार पर) वर्ण का चुनाव कर पाना भले ही मनुष्य के अपने हाथ में न हो, व्यवसाय तथा कर्म को चुनने के लिए वह अपने गुणों तथा स्वभाव के अनुसार किसी हद तक स्वतंत्र है ऐसा कहा जा सकता है। .
इसलिए ब्राह्मणत्व या अन्य वर्ण भी मनुष्य की जाति न होकर उसका अपना चुनाव है।
अब एक प्रश्न संन्यास के और इस बारे में कि क्या स्त्री को संन्यास लेने का अधिकार है?
श्री रमण महर्षि के श्री रमण-गीता में दिए गए वचनों के आधार पर तो यह स्पष्ट ही है कि संन्यास में स्त्री-पुरुष का समान अधिकार है :
अध्याय 13 श्लोक 8 में कहा गया है :
स्वरूपे वर्तमानानां पक्वानाम योषितामपि  |
निवृत्तत्वात् निषेधस्य हंसीत्वं नैव दुष्यति ||
वर्णाश्रम व्यवस्था न केवल धर्म-संगत है, बल्कि स्वाभाविक और प्राकृतिक भी है।
मनुष्य-मात्र को वर्ण एवं आश्रम जन्म से ही प्राप्त होता है और उसके अनुसार आचरण करने पर उसे अधिकतम सुख और न्यूनतम दुःख प्राप्त होते हैं, किंतु विवेक या उचित मार्गदर्शन के अभाव में, वह इस सरल तथ्य से अनभिज्ञ होता है। इसलिए आयु के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वितीय में गृहस्थ, तृतीय में वानप्रस्थ तथा चतुर्थ में संन्यास आश्रम शरीर को तो अनायास और अपरिहार्यतः प्राप्त होता ही है यद्यपि मन-बुद्धि-परिस्थिति, आदि के प्रभाव से मनुष्य इसे नहीं समझता।
इसलिए संन्यास 'लेने' या न-लेने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है ?
हाँ अगर कोई संन्यास का औचित्य जानकर भी अभ्यास की दृष्टि से संन्यास लेता है तो इसके लिए वह स्वतंत्र क्यों न हो?
वैसे संन्यास क्या है इस बारे में गीता अध्याय 6 के प्रथम श्लोक में ही कहा गया है :
अध्याय 6, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
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(अनाश्रितः कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति यः ।
सः सन्न्यासी च योगी च न निरग्निः न च अक्रियः ॥)
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भावार्थ :
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं  - वह नहीं, जो कि  हठपूर्वक अग्नि को नहीं छूता, या दूसरे सारे कर्मों को त्याग देता है, बल्कि वह पुरुष जो कि कर्म के फल पर आश्रित नहीं होता, अर्थात् फल अनुकूल या प्रतिकूल क्या होता है इस विषय में जिसका कोई आग्रह नहीं होता, और जो अपने लिए निर्धारित कर्तव्य को पूर्ण करने के ध्येय से किसी कर्म में संलग्न होता है, वास्तविक अर्थों में संन्यासी (जिसने कर्म को त्याग दिया है) और वही कर्मयोगी अर्थात् कर्म करते हुए भी उसे मोक्ष का साधन बना लेनेवाला कुशल योगी होता है ।
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शंकराचार्य ने भी विवेक-चूड़ामणि तथा अपरोक्षानुभूति में यही कहा है।
'भज गोविन्दं' में :
जटिलो मुण्डी कुञ्चित केशः
काषायाम्बर बहुकृत वेशः ...
से भी यही प्रकट होता है कि संन्यास एक तो साधन-संन्यास के रूप में होता है, जो किसी के लिए स्वाभाविक हो सकता है, दूसरी ओर केवल किसी अन्य कारण से 'लिया' जाता है, 'होता' नहीं है ...
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Wednesday, 5 September 2018

संत ज्ञानेश्वर

सप्तलोकाः / saptalokāḥ
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संत ज्ञानेश्वर कृत इस excel-chart में कॉलम 5 में सात लोकों का स्थान नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः
भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, एवं सत्यम् है।
स्पष्ट है कि यहाँ नभोलोक को तप के स्थान पर रखा गया है।
वास्तव में इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि तप का प्रकार चेतन-सत्ता अर्थात् 'पुरुष-तत्व' या 'प्राकृति-तत्त्व' की प्रधानता या अनुपात के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है।  यद्यपि एक ही चैतन्य सत्ता जड, चेतन एवं चैतन्य के तीन प्रकारों में अव्यक्त-व्यक्त है , इस अनभिव्यक्ति / अभिव्यक्ति का आधार (अधिष्ठान नहीं) 'लोक' ही है, जो सर्वोच्च स्तर पर  क्रम (row) में  सत्यम्  अर्थात् सतोलोक के ठीक ऊपर ब्रह्मलोक, वैकुण्ठलोक तथा शिवलोक के रूप में भी अनुभव किया जाता है और तीनों सतोगुण तथा आनंदलोक के मध्य स्थित हैं।
संत ज्ञानेश्वर की शिक्षा के प्रकाश में ये पाँचों ही मनुष्य की परम सद्गति, पूर्णता के पर्याय हैं।
chart का प्रथम वर्ग inertia / प्रगाढ़ तमोगुण से ढँका है जो नासदीय-सूक्त (ऋग्वेद मंडल 10 , सूक्त 129) का द्योतक है।  chart का द्वितीय वर्ग रजोगुण (स्फुरण) का द्योतक  है।  जीव, ब्रह्म / ब्रह्मा, शिव, विष्णु, इस 'स्फुरण' से ही लोकवत् भासते हैं।  तीनों 'गुण' त्रिगुणात्मिका 'प्रकृति' है। 
इस प्रकार 'पुरुष' और 'प्रकृति' एकमेव सत्ता हैं तथापि अभिव्यक्ति के रूप में विविध और भिन्न भिन्न हैं।
'स्फुरण' पुनः प्रथमतः 'अहं' और बाद में 'इदं' के रूप में स्वयं को विभाजित कर लेता प्रतीत होता है।  
गीता  अध्याय 7 श्लोक 14 में भगवान श्रीकृष्ण इसी सत्य को इंगित करते हुए अर्जुन से कहते हैं :
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते  ॥
भगवान विष्णु का नीलवर्ण नभोलोक का रंग है।
नि + इल से बना नील पृथिवीतत्त्व के अत्यंत अभाव का सूचक है, वहीं न + भ  से बना 'नभ' विष्णु की नाभि है जिससे ब्रह्मा का आविर्भाव (manifestation)  होता है।
पुनः एक बार देखें :