विचार और दृष्टिकोण
अराजकता के मूल तत्व
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विचार एक वक्तव्य हो सकता है और विचार एक दृष्टिकोण भी हो सकता है । जब विचार एक वक्तव्य होता है तब उसका अस्तित्व किसी न किसी भाषा के अवलंबन पर ही निर्भर होता है क्योंकि भाषा ही वह माध्यम है जिससे शब्दों में कोई वक्तव्य प्रकट किया जा सकता है । किंतु विचार जब एक दृष्टिकोण होता है तो यह ऐसे ही किसी अन्य दृष्टिकोण की तरह का या उससे बहुत भिन्न प्रकार का हो सकता है । जैसे किसी समस्या के संबंध में कोई विचार या दृष्टिकोण किसी का हो सकता है । पहला प्रश्न तो यही होता है कि जिसे एक व्यक्ति समस्या समझता है, वह अन्य किसी के लिए कोई विचारणीय विषय तक नहीं होता । इस प्रकार से किसी समस्या को समस्या के रूप में स्वीकार किए जाने के बाद ही या तो समस्या को पूरी तरह समझने का प्रयास हो सकता है या ठीक से और पूरी तरह समझे बिना ही किसी युक्ति से उसे हल करने या उससे छुटकारा पाने का प्रयास किया जा सकता है । ऐसा अनेक कारणों से हो सकता है किंतु सर्वाधिक प्रमुख कारण है हमारी असंवेदनशीलता (insensitivity) है । कहने का आशय यह कि किसी समस्या या प्रश्न के कई आयाम हो सकते हैं और जब उन्हें किसी विशिष्ट चौखट में देखने-समझने का प्रयास किया जाता है तो बहुत संभव है कि कुछ आयाम हमारी पकड़ में ही नहीं आते ।
उदाहरण के लिए गरीबी की समस्या । धर्म की समस्या । सामाजिक सामञ्जस्य की समस्या । मनुष्य के जीवन जीने के मूल अधिकार और निजता के अधिकार की सीमा की समस्या ।
यहाँ एक उदाहरण के रूप में मनुष्य के जीवन जीने के मूल अधिकार और निजता के अधिकार की सीमा की समस्या पर हम दृष्टिपात करें तो संभवतः विचार और दृष्टिकोण में परस्पर क्या अंतर है इसे शायद किसी हद तक बेहतर तरीके से समझ सकेंगे । जब तक हम किसी समस्या कि ज्ञात के सन्दर्भ में तुलना और तर्क-वितर्क से सुलझाने की चेष्टा करते हैं तब तक परस्पर मतभेद होना स्वाभाविक ही है । ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हम समस्या को विशिष्ट सन्दर्भ में सीमित कर देते हैं, जबकि समस्या के और भी अनेक सन्दर्भ होते हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं या उनकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जा पाता । हम कहते हैं यह कि न्याय-पालिका (judiciary), शासन (सरकार) (government), और कार्यपालिका (bureaucracy) का मामला है, या एक दृष्टिकोण यह है कि यह राजनीति का विषय है, विषय नहीं है । प्रश्न यह है कि क्या न्याय-पालिका (judiciary), शासन (सरकार), कार्यपालिका (bureaucracy), और राजनीति (politics) को इस प्रश्न से अछूता रखा जा सकता है? यह भी देखना होगा कि इस प्रकार से हम किसी भी समस्या को किसी क्षेत्र तक सीमित कर देते हैं तो उस समस्या का स्वरूप अन्य क्षेत्रों के सन्दर्भ में क्या है इस ओर हमारा ध्यान अवरुद्ध हो जाता है । इस प्रकार हम जाने-अनजाने ही विशेषज्ञों की प्रणाली से शासित हैं और इसलिए हमारे जीवन जीने का अधिकार हमारा कितना मौलिक अधिकार है और निजता के हमारे अधिकार की क्या परिभाषा और मर्यादा हो यह तय करने का काम (दायित्व) विशेषज्ञों पर छोड़ देते हैं जिनमें से हर कोई हो सकता है कि अपने-अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ भले हो, किंतु दूसरे क्षेत्र के, और उसके अपने ही क्षेत्र के विशेषज्ञों से भी उसका पर्याप्त तालमेल न हो । और यह भी हो सकता है कि तमाम विशेषज्ञ किसी न किसी निर्णय पर पहुँचते दिखाई भी दें किंतु क्या इस प्रकार से समस्या का निराकरण संभव है? किंतु इस प्रकार से समस्या क्या कुछ समय तक के लिए बस आँखों से ओझल भर नहीं हो जाती?
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अराजकता के मूल तत्व
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विचार एक वक्तव्य हो सकता है और विचार एक दृष्टिकोण भी हो सकता है । जब विचार एक वक्तव्य होता है तब उसका अस्तित्व किसी न किसी भाषा के अवलंबन पर ही निर्भर होता है क्योंकि भाषा ही वह माध्यम है जिससे शब्दों में कोई वक्तव्य प्रकट किया जा सकता है । किंतु विचार जब एक दृष्टिकोण होता है तो यह ऐसे ही किसी अन्य दृष्टिकोण की तरह का या उससे बहुत भिन्न प्रकार का हो सकता है । जैसे किसी समस्या के संबंध में कोई विचार या दृष्टिकोण किसी का हो सकता है । पहला प्रश्न तो यही होता है कि जिसे एक व्यक्ति समस्या समझता है, वह अन्य किसी के लिए कोई विचारणीय विषय तक नहीं होता । इस प्रकार से किसी समस्या को समस्या के रूप में स्वीकार किए जाने के बाद ही या तो समस्या को पूरी तरह समझने का प्रयास हो सकता है या ठीक से और पूरी तरह समझे बिना ही किसी युक्ति से उसे हल करने या उससे छुटकारा पाने का प्रयास किया जा सकता है । ऐसा अनेक कारणों से हो सकता है किंतु सर्वाधिक प्रमुख कारण है हमारी असंवेदनशीलता (insensitivity) है । कहने का आशय यह कि किसी समस्या या प्रश्न के कई आयाम हो सकते हैं और जब उन्हें किसी विशिष्ट चौखट में देखने-समझने का प्रयास किया जाता है तो बहुत संभव है कि कुछ आयाम हमारी पकड़ में ही नहीं आते ।
उदाहरण के लिए गरीबी की समस्या । धर्म की समस्या । सामाजिक सामञ्जस्य की समस्या । मनुष्य के जीवन जीने के मूल अधिकार और निजता के अधिकार की सीमा की समस्या ।
यहाँ एक उदाहरण के रूप में मनुष्य के जीवन जीने के मूल अधिकार और निजता के अधिकार की सीमा की समस्या पर हम दृष्टिपात करें तो संभवतः विचार और दृष्टिकोण में परस्पर क्या अंतर है इसे शायद किसी हद तक बेहतर तरीके से समझ सकेंगे । जब तक हम किसी समस्या कि ज्ञात के सन्दर्भ में तुलना और तर्क-वितर्क से सुलझाने की चेष्टा करते हैं तब तक परस्पर मतभेद होना स्वाभाविक ही है । ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हम समस्या को विशिष्ट सन्दर्भ में सीमित कर देते हैं, जबकि समस्या के और भी अनेक सन्दर्भ होते हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं या उनकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जा पाता । हम कहते हैं यह कि न्याय-पालिका (judiciary), शासन (सरकार) (government), और कार्यपालिका (bureaucracy) का मामला है, या एक दृष्टिकोण यह है कि यह राजनीति का विषय है, विषय नहीं है । प्रश्न यह है कि क्या न्याय-पालिका (judiciary), शासन (सरकार), कार्यपालिका (bureaucracy), और राजनीति (politics) को इस प्रश्न से अछूता रखा जा सकता है? यह भी देखना होगा कि इस प्रकार से हम किसी भी समस्या को किसी क्षेत्र तक सीमित कर देते हैं तो उस समस्या का स्वरूप अन्य क्षेत्रों के सन्दर्भ में क्या है इस ओर हमारा ध्यान अवरुद्ध हो जाता है । इस प्रकार हम जाने-अनजाने ही विशेषज्ञों की प्रणाली से शासित हैं और इसलिए हमारे जीवन जीने का अधिकार हमारा कितना मौलिक अधिकार है और निजता के हमारे अधिकार की क्या परिभाषा और मर्यादा हो यह तय करने का काम (दायित्व) विशेषज्ञों पर छोड़ देते हैं जिनमें से हर कोई हो सकता है कि अपने-अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ भले हो, किंतु दूसरे क्षेत्र के, और उसके अपने ही क्षेत्र के विशेषज्ञों से भी उसका पर्याप्त तालमेल न हो । और यह भी हो सकता है कि तमाम विशेषज्ञ किसी न किसी निर्णय पर पहुँचते दिखाई भी दें किंतु क्या इस प्रकार से समस्या का निराकरण संभव है? किंतु इस प्रकार से समस्या क्या कुछ समय तक के लिए बस आँखों से ओझल भर नहीं हो जाती?
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