सत्य और धर्म
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सत्यं वद धर्मं चर ...
तथा
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम् ।
प्रियं च न अनृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः ॥
इन दो शिक्षाओं से स्पष्ट है कि मनुष्य को वाणी से वही कहना चाहिए जो उसे सत्य प्रतीत होता है । क्योंकि तब मनुष्य किसी काल्पनिक या धारणात्मक विचार या स्मृति को सत्य की तरह ग्रहण कर वाणी में प्रयुक्त नहीं करेगा ।
किंतु इस सत्य को वाणी से कहने में भी जिस धर्म का ध्यान रखना आवश्यक है, वह है परिस्थितियाँ जिनसे इसे कहना और किस प्रकार कहना तय किया जाना चाहिए ।
सरल शब्दों में : वाणी से भी वही सत्य कहा जाए जो कि सत्य प्रतीत होता है ।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् :
सत्य का वाणी से व्यवहार करे, और वाणी से उसी सत्य को व्यक्त करे जो सुननेवाले को प्रिय हो ।
न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम् :
किंतु वह सत्य जो सुननेवाले को अप्रिय लग सकता है, उसे वाणी से भी न कहे ।
प्रियं च न अनृतं ब्रूयात् :
इस प्रकार से केवल प्रिय सत्य बोलते हुए भी, जो सत्य नहीं है ऐसा प्रिय वचन न कहे,
एष धर्म सनातन:
यही सनातन धर्म है ।
इन दो सूत्रों से सिद्ध होता है कि व्यवहार के स्तर पर धर्म आचरण है जबकि सत्य प्रतीति है ।
और सनातन धर्म वही है जिसे कहे जानेवाले सत्य की मर्यादा को ध्यान में रखकर व्यवहार में लाया जाता है ।
सनातन का अर्थ समझने के लिए हमें काल के अन्य तीन प्रकारों नित्य, अनित्य, और शाश्वत को भी ध्यान में रखना होगा । इनकी सत्यता इस प्रकार की है :
व्यावहारिक स्तर पर काल जिन चार रूपों में पाया जाता है और जिसे उस प्रकार कहा भी जा सकता है,
वे हैं :
नित्य, अनित्य, शाश्वत तथा सनातन ।
जैसे सुबह-शाम, दिन-रात होना नित्य है, - जो पुनः पुनः और अवश्य होता रहता है ।
जैसे किसी भी वस्तु, विचार, व्यक्ति, स्थान, घटना, ’संबंध’ का अस्तित्व अनित्य है, - जो कभी तो होता है किंतु पुनः कब होगा, या होगा या नहीं इस बारे में हम ठीक से नहीं जानते ।
जैसे वह अपरिवर्तनशील अचल-अटल काल जिसमें असंख्य नित्य और अनित्य परिवर्तन होते रहते हैं और उसे यद्यपि इन्द्रियों, मन, बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, फिर भी वह सभी के लिए इतना प्रत्यक्ष सत्य है कि कोई उसे इनकार नहीं कर सकता । उसे समझने के लिए किसी विशेष बुद्धि या प्रशिक्षण की भी जरूरत नहीं और चूँकि वह अचल-अटल है इसलिए उसे किसी प्रकार से, किसी भी प्रयास से प्रभावित, सृजित या विनष्ट भी करना असंभव है । और, वह अपरिभाषेय तो है ही, वह शाश्वत ।
जैसे इसी शाश्वत काल का एक प्रत्यक्ष रूप पुनरावर्ती काल है जिसका आगमन और प्रस्थान पुनः पुनः होता रहता है और शुद्ध भौतिक अर्थों में जिसे तुलना और प्रमाण से नापा जाना भी संभव है, जो भौतिक-विज्ञानियों का ’समय और स्थान’ हैं । चूँकि कोई भी स्थान अनिवार्य-रूप से किसी न किसी ’समय’ में ही होते हैं, और कोई भी ’समय’ अनिवार्य-रूप से किसी न किसी ’स्थान’ में ही होता है, अतः प्रतीत होनेवाला ’समय और स्थान’, जो अनिवार्य-रूप से एक व्यावहारिक सत्य भी है ही, नित्य-अनित्य होते हुए भी सनातन रूप से सत्य है । वस्तु, विचार, व्यक्ति, स्थान, घटना, ’संबंध’ उसी ’समय और स्थान’ में ’नित्य’ या नित्य’ की तरह प्रतीत होते हैं, न कि वस्तुतः होते हैं ।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वस्तु, विचार, व्यक्ति, स्थान, घटना, ’संबंध’तथा ’समय और स्थान’ केवल 'स्मृति' में होता है, स्मृति पहचान है और पहचान स्मृति । उस सनातन सत्य और शाश्वत सत्य को न तो स्मृति में ग्रहण किया जा सकता है न उसकी कोई सुनिश्चित पहचान ही हो सकती है। इसलिए जानकारी के रूप में सीखा / पाया समस्त ज्ञान, वस्तुतः ज्ञान नहीं ज्ञान का भ्रम है। इस प्रकार के सीखे हुए ज्ञान के माध्यम से न तो न तो सनातन सत्य को, और न ही शाश्वत सत्य को पाया, बनाया, मिटाया या प्रभावित किया जा सकता है किंतु जिस प्रकार से उनके तारतम्य में जीवन को, और न सिर्फ़ जीवन को, बल्कि मृत्यु को भी सर्वाधिक अनुकूल बनाया जा सकता है वह धर्म है ।
यह है सनातन धर्म ।
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क्या इस धर्म का प्रचार किया जाना संभव है?
क्या समस्त प्रचार उपरोक्त वर्णित धर्म से विपरीत और विरुद्ध, अर्थात् अधर्म ही नहीं है?
क्योंकि सत्य का प्रचार नहीं हो सकता । सत्य स्वयं ही काल की तरह सतत प्रचलन में है । हमें जो अधर्म जैसा दिखलाई पड़ता है, वह भी सनातन सत्य की ही गतिविधि है किंतु वह अशुभ है, अर्थात् जीवन के अनुकूल नहीं है, कभी कभी तो प्रतिकूल भी होती है ।
इसलिए धर्म का ’प्रचार’ संभव ही नहीं है ।
हाँ ’धर्म’ क्या है, या क्या हो सकता है, उसके यथार्थ स्वरूप की खोज की जा सकती है, और जिसमें इसके लिए इतनी जिज्ञासा, व्याकुलता है वह स्वयं ही इसे खोज भी लेता है ।
शायद किसी पात्र / अधिकारी को वह इसकी शिक्षा भी दे सकता है, ...
किंतु प्रचार...?
प्रचार तो विचार और व्यापार है, जो मूलतः व्यवसाय है । व्यवसाय तो शक्ति-प्रदर्शन है, -जो राजनीति है, छल-कपट है, लोभ और भय है, असुरक्षा और चिन्ता है, प्रलोभन और आतंक है, जिससे आतंकवादी ही नहीं दूसरे भी आतंकित और त्रस्त होने लगते हैं ।
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सत्यं वद धर्मं चर ...
तथा
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम् ।
प्रियं च न अनृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः ॥
इन दो शिक्षाओं से स्पष्ट है कि मनुष्य को वाणी से वही कहना चाहिए जो उसे सत्य प्रतीत होता है । क्योंकि तब मनुष्य किसी काल्पनिक या धारणात्मक विचार या स्मृति को सत्य की तरह ग्रहण कर वाणी में प्रयुक्त नहीं करेगा ।
किंतु इस सत्य को वाणी से कहने में भी जिस धर्म का ध्यान रखना आवश्यक है, वह है परिस्थितियाँ जिनसे इसे कहना और किस प्रकार कहना तय किया जाना चाहिए ।
सरल शब्दों में : वाणी से भी वही सत्य कहा जाए जो कि सत्य प्रतीत होता है ।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् :
सत्य का वाणी से व्यवहार करे, और वाणी से उसी सत्य को व्यक्त करे जो सुननेवाले को प्रिय हो ।
न ब्रूयात् सत्यं अप्रियम् :
किंतु वह सत्य जो सुननेवाले को अप्रिय लग सकता है, उसे वाणी से भी न कहे ।
प्रियं च न अनृतं ब्रूयात् :
इस प्रकार से केवल प्रिय सत्य बोलते हुए भी, जो सत्य नहीं है ऐसा प्रिय वचन न कहे,
एष धर्म सनातन:
यही सनातन धर्म है ।
इन दो सूत्रों से सिद्ध होता है कि व्यवहार के स्तर पर धर्म आचरण है जबकि सत्य प्रतीति है ।
और सनातन धर्म वही है जिसे कहे जानेवाले सत्य की मर्यादा को ध्यान में रखकर व्यवहार में लाया जाता है ।
सनातन का अर्थ समझने के लिए हमें काल के अन्य तीन प्रकारों नित्य, अनित्य, और शाश्वत को भी ध्यान में रखना होगा । इनकी सत्यता इस प्रकार की है :
व्यावहारिक स्तर पर काल जिन चार रूपों में पाया जाता है और जिसे उस प्रकार कहा भी जा सकता है,
वे हैं :
नित्य, अनित्य, शाश्वत तथा सनातन ।
जैसे सुबह-शाम, दिन-रात होना नित्य है, - जो पुनः पुनः और अवश्य होता रहता है ।
जैसे किसी भी वस्तु, विचार, व्यक्ति, स्थान, घटना, ’संबंध’ का अस्तित्व अनित्य है, - जो कभी तो होता है किंतु पुनः कब होगा, या होगा या नहीं इस बारे में हम ठीक से नहीं जानते ।
जैसे वह अपरिवर्तनशील अचल-अटल काल जिसमें असंख्य नित्य और अनित्य परिवर्तन होते रहते हैं और उसे यद्यपि इन्द्रियों, मन, बुद्धि द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता, फिर भी वह सभी के लिए इतना प्रत्यक्ष सत्य है कि कोई उसे इनकार नहीं कर सकता । उसे समझने के लिए किसी विशेष बुद्धि या प्रशिक्षण की भी जरूरत नहीं और चूँकि वह अचल-अटल है इसलिए उसे किसी प्रकार से, किसी भी प्रयास से प्रभावित, सृजित या विनष्ट भी करना असंभव है । और, वह अपरिभाषेय तो है ही, वह शाश्वत ।
जैसे इसी शाश्वत काल का एक प्रत्यक्ष रूप पुनरावर्ती काल है जिसका आगमन और प्रस्थान पुनः पुनः होता रहता है और शुद्ध भौतिक अर्थों में जिसे तुलना और प्रमाण से नापा जाना भी संभव है, जो भौतिक-विज्ञानियों का ’समय और स्थान’ हैं । चूँकि कोई भी स्थान अनिवार्य-रूप से किसी न किसी ’समय’ में ही होते हैं, और कोई भी ’समय’ अनिवार्य-रूप से किसी न किसी ’स्थान’ में ही होता है, अतः प्रतीत होनेवाला ’समय और स्थान’, जो अनिवार्य-रूप से एक व्यावहारिक सत्य भी है ही, नित्य-अनित्य होते हुए भी सनातन रूप से सत्य है । वस्तु, विचार, व्यक्ति, स्थान, घटना, ’संबंध’ उसी ’समय और स्थान’ में ’नित्य’ या नित्य’ की तरह प्रतीत होते हैं, न कि वस्तुतः होते हैं ।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वस्तु, विचार, व्यक्ति, स्थान, घटना, ’संबंध’तथा ’समय और स्थान’ केवल 'स्मृति' में होता है, स्मृति पहचान है और पहचान स्मृति । उस सनातन सत्य और शाश्वत सत्य को न तो स्मृति में ग्रहण किया जा सकता है न उसकी कोई सुनिश्चित पहचान ही हो सकती है। इसलिए जानकारी के रूप में सीखा / पाया समस्त ज्ञान, वस्तुतः ज्ञान नहीं ज्ञान का भ्रम है। इस प्रकार के सीखे हुए ज्ञान के माध्यम से न तो न तो सनातन सत्य को, और न ही शाश्वत सत्य को पाया, बनाया, मिटाया या प्रभावित किया जा सकता है किंतु जिस प्रकार से उनके तारतम्य में जीवन को, और न सिर्फ़ जीवन को, बल्कि मृत्यु को भी सर्वाधिक अनुकूल बनाया जा सकता है वह धर्म है ।
यह है सनातन धर्म ।
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क्या इस धर्म का प्रचार किया जाना संभव है?
क्या समस्त प्रचार उपरोक्त वर्णित धर्म से विपरीत और विरुद्ध, अर्थात् अधर्म ही नहीं है?
क्योंकि सत्य का प्रचार नहीं हो सकता । सत्य स्वयं ही काल की तरह सतत प्रचलन में है । हमें जो अधर्म जैसा दिखलाई पड़ता है, वह भी सनातन सत्य की ही गतिविधि है किंतु वह अशुभ है, अर्थात् जीवन के अनुकूल नहीं है, कभी कभी तो प्रतिकूल भी होती है ।
इसलिए धर्म का ’प्रचार’ संभव ही नहीं है ।
हाँ ’धर्म’ क्या है, या क्या हो सकता है, उसके यथार्थ स्वरूप की खोज की जा सकती है, और जिसमें इसके लिए इतनी जिज्ञासा, व्याकुलता है वह स्वयं ही इसे खोज भी लेता है ।
शायद किसी पात्र / अधिकारी को वह इसकी शिक्षा भी दे सकता है, ...
किंतु प्रचार...?
प्रचार तो विचार और व्यापार है, जो मूलतः व्यवसाय है । व्यवसाय तो शक्ति-प्रदर्शन है, -जो राजनीति है, छल-कपट है, लोभ और भय है, असुरक्षा और चिन्ता है, प्रलोभन और आतंक है, जिससे आतंकवादी ही नहीं दूसरे भी आतंकित और त्रस्त होने लगते हैं ।
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