क्या स्वयं को जानने के लिए शरीर का होना आवश्यक है?
स्वयं को जानने की आवश्यकता ही क्या है?
क्या कोई ऐसा है जो अपने-आप अर्थात् स्वयं से अनभिज्ञ है?
छोटे से छोटे जीव से लेकर मनुष्य और दूसरे सभी जीव स्वयं से परिचित हैं । यह परिचय ही स्वयं को जानना है । इस जानने के उपरान्त ही कोई ’दूसरी’ किसी चीज़ को जानता है । ’दूसरा’ अर्थात् ’दूसरे’ का ज्ञान गौण है और नित्य परिवर्तित होता रहता है । ’दूसरा’ अर्थात् ’दूसरे’ का ज्ञान जानकारी और अनुभवों का अस्थिर जोड़ / संग्रह है । वह निरंतर ’नया’ और ’पुराना’ होता रहता है, जबकि ’अपने’ / ’स्वयं’ का ज्ञान ’अनुभव’ या स्मृति तक नहीं प्रकृति-प्रदत्त स्थिर संवेदन है जो निद्रा, स्वप्न और जागृति में यथावत् अखंडित रहता है । निद्रा में इसलिए, क्योंकि कोई भी निद्रा के सुख से अनभिज्ञ नहीं है । आप कह सकते हैं कि वह नकारात्मक सुख है किंतु यदि ऐसा होता तो मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए खुशी-खुशी बड़ी से बड़ी क़ीमत भी क्यों देना चाहता है? तात्पर्य यह कि उसे पता है कि वह स्वयं उस सुख का उपभोग करता है । शरीर का अस्तित्व संसार से अभिन्न है यदि शरीर नहीं तो संसार नहीं, और संसार नहीं तो शरीर नहीं । संसार और शरीर उन्हीं एक ही मूल तत्वों से बने हैं जिन्हें पञ्च-तत्व या वैज्ञानिक ’पदार्थ’ और ऊर्जा कहते हैं । किंतु शरीर में बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही स्वयं को शरीर और शरीर जिस परिवेश में है उसे ’संसार’ की तरह दो भिन्न वस्तुएँ समझ लिया जाता है । स्वयं का ज्ञान तो बुद्धि के सक्रिय होने से पहले, साथ तथा बुद्धि के शांत हो जाने की स्थिति में भी रहता है । जैसे हम कोई मधुर संगीत सुनते हुए शरीर और संसार की भी सुध-बुध खो बैठते हैं और फिर जब बुद्धि सक्रिय होती है तो कहते हैं कि यह संगीत अद्भुत् था । ’अद्भुत्’ क्यों? क्योंकि तब हम स्वयं से अनभिज्ञ नहीं थे बल्कि उस सुख से एकाकार थे और हमें पता था कि हमने उस सुख का उपभोग किया ।
वास्तव में शरीर और संसार के अभाव में भी हर कोई स्वयं को जानता है किंतु उस ज्ञान और संसार में अपने व्यक्ति-विशेष होने के भेद को न समझ पाने के कारण स्वयं को कभी शरीर तो कभी मन तो कभी नाम या किसी वस्तु जैसे धन या परिजनों आदि का स्वामी समझ बैठता है । जब तक इस अनित्य ज्ञान और स्वयं के नित्य ज्ञान के फ़र्क़ को नहीं समझ लिया जाता तब तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता है । इसे समझ लेने के बाद उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मृत्यु (नाश) शरीर की, विचार की, बुद्धि की, संबंधों, स्मृति और पहचान की होती है न कि ’स्वयं’ की । और वह(?) ’स्वयं’ ’दूसरों’ से भिन्न, या पृथक् भी नहीं हो सकता ।
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एक जिज्ञासा :
यदि आत्मा स्वयं को जानती है तो वह शरीर क्यों धारण करती है?
आत्मा का स्वयं का ज्ञान निरपेक्ष ज्ञान है, ’जानकारी’ नहीं । मन-मस्तिष्क द्वारा एकत्र किया गया ज्ञान ’सापेक्ष’ ज्ञान है जो शरीर पर आश्रित है । आत्मा न तो शरीर धारण करती है न त्यागती है । यह तो शरीर के अस्तित्व में आने के बाद मन में उत्पन्न यह भ्रम कि मैं शरीर / व्यक्ति विशेष के रूप में कोई विशिष्ट हूँ, -एक विचार ही है ,जो शरीर के साथ उत्पन्न होता है, शरीर का अंत होने तक बना रहता है और उसके बाद समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह मूलतः विचार ही तो होता है । जैसे असंख्य विचार उत्पन्न होते और मिटते रहते हैं वह भी उसी प्रकार आत्मा को प्रभावित न करते हुए विलीन हो जाता है । इसलिए कहा जाता है कि आत्मा जन्म-मृत्यु से रहित है ।
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आधार, निराधार और निजता का प्रश्न
स्वयं को जानने की आवश्यकता ही क्या है?
क्या कोई ऐसा है जो अपने-आप अर्थात् स्वयं से अनभिज्ञ है?
छोटे से छोटे जीव से लेकर मनुष्य और दूसरे सभी जीव स्वयं से परिचित हैं । यह परिचय ही स्वयं को जानना है । इस जानने के उपरान्त ही कोई ’दूसरी’ किसी चीज़ को जानता है । ’दूसरा’ अर्थात् ’दूसरे’ का ज्ञान गौण है और नित्य परिवर्तित होता रहता है । ’दूसरा’ अर्थात् ’दूसरे’ का ज्ञान जानकारी और अनुभवों का अस्थिर जोड़ / संग्रह है । वह निरंतर ’नया’ और ’पुराना’ होता रहता है, जबकि ’अपने’ / ’स्वयं’ का ज्ञान ’अनुभव’ या स्मृति तक नहीं प्रकृति-प्रदत्त स्थिर संवेदन है जो निद्रा, स्वप्न और जागृति में यथावत् अखंडित रहता है । निद्रा में इसलिए, क्योंकि कोई भी निद्रा के सुख से अनभिज्ञ नहीं है । आप कह सकते हैं कि वह नकारात्मक सुख है किंतु यदि ऐसा होता तो मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए खुशी-खुशी बड़ी से बड़ी क़ीमत भी क्यों देना चाहता है? तात्पर्य यह कि उसे पता है कि वह स्वयं उस सुख का उपभोग करता है । शरीर का अस्तित्व संसार से अभिन्न है यदि शरीर नहीं तो संसार नहीं, और संसार नहीं तो शरीर नहीं । संसार और शरीर उन्हीं एक ही मूल तत्वों से बने हैं जिन्हें पञ्च-तत्व या वैज्ञानिक ’पदार्थ’ और ऊर्जा कहते हैं । किंतु शरीर में बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही स्वयं को शरीर और शरीर जिस परिवेश में है उसे ’संसार’ की तरह दो भिन्न वस्तुएँ समझ लिया जाता है । स्वयं का ज्ञान तो बुद्धि के सक्रिय होने से पहले, साथ तथा बुद्धि के शांत हो जाने की स्थिति में भी रहता है । जैसे हम कोई मधुर संगीत सुनते हुए शरीर और संसार की भी सुध-बुध खो बैठते हैं और फिर जब बुद्धि सक्रिय होती है तो कहते हैं कि यह संगीत अद्भुत् था । ’अद्भुत्’ क्यों? क्योंकि तब हम स्वयं से अनभिज्ञ नहीं थे बल्कि उस सुख से एकाकार थे और हमें पता था कि हमने उस सुख का उपभोग किया ।
वास्तव में शरीर और संसार के अभाव में भी हर कोई स्वयं को जानता है किंतु उस ज्ञान और संसार में अपने व्यक्ति-विशेष होने के भेद को न समझ पाने के कारण स्वयं को कभी शरीर तो कभी मन तो कभी नाम या किसी वस्तु जैसे धन या परिजनों आदि का स्वामी समझ बैठता है । जब तक इस अनित्य ज्ञान और स्वयं के नित्य ज्ञान के फ़र्क़ को नहीं समझ लिया जाता तब तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता है । इसे समझ लेने के बाद उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मृत्यु (नाश) शरीर की, विचार की, बुद्धि की, संबंधों, स्मृति और पहचान की होती है न कि ’स्वयं’ की । और वह(?) ’स्वयं’ ’दूसरों’ से भिन्न, या पृथक् भी नहीं हो सकता ।
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एक जिज्ञासा :
यदि आत्मा स्वयं को जानती है तो वह शरीर क्यों धारण करती है?
आत्मा का स्वयं का ज्ञान निरपेक्ष ज्ञान है, ’जानकारी’ नहीं । मन-मस्तिष्क द्वारा एकत्र किया गया ज्ञान ’सापेक्ष’ ज्ञान है जो शरीर पर आश्रित है । आत्मा न तो शरीर धारण करती है न त्यागती है । यह तो शरीर के अस्तित्व में आने के बाद मन में उत्पन्न यह भ्रम कि मैं शरीर / व्यक्ति विशेष के रूप में कोई विशिष्ट हूँ, -एक विचार ही है ,जो शरीर के साथ उत्पन्न होता है, शरीर का अंत होने तक बना रहता है और उसके बाद समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह मूलतः विचार ही तो होता है । जैसे असंख्य विचार उत्पन्न होते और मिटते रहते हैं वह भी उसी प्रकार आत्मा को प्रभावित न करते हुए विलीन हो जाता है । इसलिए कहा जाता है कि आत्मा जन्म-मृत्यु से रहित है ।
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आधार, निराधार और निजता का प्रश्न
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