Wednesday, 5 July 2017

अथ वैन्य आख्यानम्

अथ वैन्य आख्यानम्
सन्दर्भ :
शुकवामदेवयोरपि कृष्णदधीच्योस्तथा च वैन्यस्य ।
भूतात्मयोगजं खल्वार्षे वैश्वात्म्यमाख्यातम् ॥५०
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शुक्र-वामदेवयोः अपि कृष्णदधीच्योः तथा च वैन्यस्य ।
भूतात्म-योगजं खलु आर्षे वैश्वात्म्यं आख्यातम् ॥
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(विरूपाक्षपञ्चाशिका 50)
अर्थ :
शुक, वामदेव, कृष्ण, दधीचि तथा वैन्य के द्वारा जिस भूतात्म-योग का वैश्वात्म्य कहा गया है, उसका ही वर्णन हे इन्द्र! तुम्हारे लिए किया गया ।
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(स्कन्दपुराण प्रभासखण्ड से उद्धृत)
पूर्वकाल में वेन नामक राजा हो गया है । वह मृत्यु (यमराज) की कन्या (दुर्बुद्धि) का पुत्र था । अतः मातामह के दोष से उसमें भी क्रूरतापूर्ण विचार आ गया । उसने अपने धर्म को पीछे छोड़कर पाप में मन लगाया । वेद-शास्त्रों का उल्लंघन करके वह अधर्म में तत्पर हो गया । उसका विनाशकाल उपस्थित था; इसलिए उसकी ऐसी बुद्धि हुई कि ’मैं ही सब यज्ञों और श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा स्तवन और पूजन के योग्य हूँ । इस निश्चय के द्वारा धर्म का उल्लंघन करके वह प्रजाजनों (प्रजापति की संतानों) को पीड़ा देने लगा । उसका यह बर्ताव देख मरीचि आदि महर्षि कुपित होकर बोले - ’वेन ! तुम अधर्म न करो । तुम जो कुछ करते हो वह सनातन धर्म नहीं  । तुमने राजसिंहासन पर बैठते समय पहले यह प्रतिज्ञा की है कि ’मैं प्रजाजनों का पालन करूँगा ।’ परंतु अब इसके विपरीत आचरण करते हो ।’
[वेन > Venn, vane / vein / vain / vine / wine]
महर्षियों के यों कहने पर दुर्बुद्धि वेन हँसकर बोला - ’मेरे सिवा कौन धर्म की सृष्टि करनेवाला है? पराक्रम, शास्त्रज्ञान, तपस्या और सत्य के द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस भूतल पर कौन है? तुम लोग मुझे धर्म की उत्पत्ति का स्थान समझो । मैं चाहूँ तो इस पृथ्वी को जला सकता हूँ, संसार की सृष्टि कर सकता हूँ और सबका संहार भी कर सकता हूँ ।’
गर्व और उद्दण्डता से मोहित हुए वेन को जब वे किसी प्रकार समझाने में सफल न हुए, तब अथर्ववेदीय आभिचारक मन्त्र के प्रयोग से महाबली वेन को मारकर उसकी बायीं भुजा का मंथन किया । उससे एक छोटा सा काले रंग का पुरुष पैदा हुआ । वह भयभीत हो हाथ जोड़कर सामने खड़ा खड़ा हो गया । उसकी ओर देखकर मुनियों ने कहा - ’निषीद (बैठ जाओ) । इससे वह निषाद् कहलाया और निषादवंश का प्रवर्तक हुआ । उससे तुम्बर और खस आदि अन्य जातियाँ उत्पन्न हुईं, उन्होंने विन्ध्यगिरि को अपना निवास स्थान बनाया ; फिर उन महर्षियों ने वेन के दाहिने हाथ को अरणी की भाँति मथा । इससे सूर्य और अग्नि की भांति पृथु पैदा हुए । उनका शरीर बड़ा तेजस्वी था । उन्होंने लोकरक्षा के लिए आजगव नामक धनुष, सर्पों के समान बाण, खड्ग तथा कवच धारण किया । उनके प्रकट होने पर सब प्राणी हर्ष में भर गए । वेन स्वर्गलोक को चला गया । तदनन्तर नदियाँ और समुद्र भाँति भाँति के रत्न लेकर राजा पृथु का अभिषेक करने के लिए उपस्थित हुए । ऋषियों और देवताओं के साथ भगवान् ब्रह्माजी भी आये । आंगिरस देवताओं ने प्रतापी राजा पृथु को राजपद पर अभिषिक्त किया । उनके राज्य में पृथ्वी बिना जोते-बोए ही अन्न पैदा करती थी । चिन्तन करनेमात्र से ही मन्त्र सिद्ध हो जाते थे । सभी गौएँ कामधेनु थीं और वृक्षों के एक-एक पत्ते से मधु की प्राप्ति होती थी । राजा पृथु को देखकर प्रसन्न हुए महर्षियों ने प्रजाजनों से कहा - ’ये वेननन्दन राजा पृथु तुम सब लोगों को (आ)जीविका प्रदान करेंगे ।’ यह सुनकर प्रजाओं ने महाभाग पृथु का स्तवन किया और कहा - ’आप महर्षियों के कथनानुसार हमारे लिए आजीविका की व्यवस्था करें ।’ तब बलवान राजा पृथु ने प्रजा की रक्षा की इच्छा से धनुष-बाण लेकर पृथ्वी पर आक्रमण किया । पृथ्वी उनके भय से थर्रा उठी और गाय का रूप धारण करके भागी । पृथु ने भी उसका पीछा किया । अन्त में वह उन्हीं की शरण में आयी और हाथ जोड़कर बोली - राजन् ! मेरे बिना तुम प्रजा को कैसे धारण करोगे? मेरे ऊपर ही सम्पूर्ण लोक स्थित हैं । मैं ही इस जगत् को धारण करती हूँ । मेरे बिना सारी प्रजा नष्ट हो जायगी । अतः तुम्हें मेरा वध नहीं करना चाहिए । महीपते ! क्रोध छोड़ो । मैं तुम्हारी आज्ञा के अनुकूल चलूँगी । तुम्हें धर्म का त्याग नहीं करना चाहिए ।’
पृथ्वी की यह बात सुनकर धर्मात्मा एवं उदार राजा पृथु ने अपने क्रोध को रोका और इस प्रकार कहा - ’जो अपने या पराये एक के हित के लिए स्वार्थवश बहुत से प्राणियों का वध करता है, उसे पाप लगता है । यदि किसी एक को मार देने से बहुत लोग सुखी हो जाते हों तो उसके मारने पर पातक नहीं लगता । अतः वसुन्धरे! यदि तू मेरी आज्ञा से संसार का हित नहीं करेगी तो मैं प्रजा के हित के लिए तेरा वध कर डालूँगा । मेरी आज्ञा के विपरीत चलनेवाली तुझ वसुधा को बाणों से मारकर मैं स्वयं अपने शरीर को विशाल बनाकर समस्त प्रजा को धारण करूँगा; अतः तू मेरी आज्ञा से समस्त प्रजा को जीविका प्रदान कर; क्योंकि तू ऐसा करने में समर्थ है ।’      
पृथ्वी की यह बात सुनकर धर्मात्मा एवं उदार राजा पृथु ने अपने क्रोध को रोका और इस प्रकार कहा - ’जो अपने या पराये एक के हित के लिए स्वार्थवश बहुत से प्राणियों का वध करता है, उसे पाप लगता है । यदि किसी एक को मार देने से बहुत लोग सुखी हो जाते हों तो उसके मारने पर पातक नहीं लगता । अतः वसुन्धरे! यदि तू मेरी आज्ञा से संसार का हित नहीं करेगी तो मैं प्रजा के हित के लिए तेरा वध कर डालूँगा । मेरी आज्ञा के विपरीत चलनेवाली तुझ वसुधा को बाणों से मारकर मैं स्वयं अपने शरीर को विशाल बनाकर समस्त प्रजा को धारण करूँगा; अतः तू मेरी आज्ञा से समस्त प्रजा को जीविका प्रदान कर; क्योंकि तू ऐसा करने में समर्थ है ।’
राजा पृथु के इस प्रकार कहने पर पृथ्वी ने उत्तर दिया - राजन् ! मैं यह सब करूँगी । तुम मेरे लिए बछड़े की कल्पना करो । जिसके प्रति वत्सल होकर मैं दूध के रूप में अन्न प्रदान करूँ । इसके सिवा मुझे समतल बनाओ, जिससे मैं अपने दूध को सर्वत्र फैला सकूँ ।’
तब राजा पृथु ने धनुष की कोटि से पर्वतों और शिलाखण्डों को उखाड़कर एक जगह किया और चाक्षुष मनु को बछड़ा बनाकर उन्होंने अपने हाथों में अन्नों को दुहा । तदनन्तर चन्द्रमा बछड़ा हुए, बृहस्पति दुहनेवाले (दोग्धा) बने, गायत्री आदि छन्द दुग्धपात्र हुए और तपस्या एवं सनातन ब्रह्म उन्हें दुग्धरूप में प्राप्त हुआ । फिर इन्द्र आदि देवताओं ने सुवर्णमय पात्र लेकर इस पृथ्वी को दुहा । उस समय इन्द्र बछड़ा और सूर्य दुहनेवाले हुए । उनका दूध अमृतमय था । इसी प्रकार पितरों ने भी चाँदी के पात्र में अपनी तृप्ति के लिए सुधारूप दुग्ध का दोहन किया । उनके लिए वैवस्वत मनु बछड़ा और अन्तक (यमराज) दुहनेवाले थे । असुरों ने लोहे के पात्र में मायाशक्ति का दोहन किया । उस समय दूध् दुहनेवाला द्विमूर्धा और बछड़ा विरोचन था । उस मायारूप दूध से ही दैत्य आज भी मायावी हैं । नागों ने तक्षक को बछड़ा बनाकर तूँबे के पात्र में विषरूपी दूध दुहा । उस समय वासुकि दोग्धा थे । इसीलिए सर्प बड़े विषैले होते हैं । यक्षों और पुण्यजनों ने कुबेर को बछड़ा बनाकर कच्चे पात्र में अन्तर्धान-शक्ति का दोहन किया । उनके दोग्धा थे रजतनाग । राक्षसों और पिशाचों ने भी पृथ्वी से कपालरूपी पात्र में रक्तमय दूध का दोहन किया । उनकी ओर से सुमाली बछड़ा था और ब्रह्मोपेत कुबेर दोग्धा । गन्धर्वों और अप्सराओं ने चित्ररथ को बछड़ा बनाकर कमल के पात्र में उत्तम गन्ध का दोहन किया । मुनिपुत्र रुचि उनकी ओर से दोग्धा हुए थे । पर्वतों ने पृथ्वी से मूर्तिमयी ओषधियों तथा भाँति-भाँति के रत्नों को दुहा । उनका बछड़ा हिमालय, दुहनेवाला मेरुगिरि तथा पात्र् हिमालय था । वृक्ष और लता आदि वनस्पतियों ने पलाश का पात्र लेकर पृथ्वी को दुहा । कटने पर पुनः अंकुरित हो जाना, यही उनका दूध था । खिला हुआ शालवृक्ष उनका दोग्धा और पाकड़ का वृक्ष उनका बछड़ा था ।
इस प्रकार समस्त लोकों के हित के लिए राजा पृथु (वैन्य) ने सबका धारण-पोषण करनेली इस पृथ्वी का दोहन किया । उन्होंने धर्म से भूतलवासियों का रंजन किया इसलिए उन्हें ’राजा’ कहा गया । तभी से इस पृथ्वी पर राजा शब्द की प्रसिद्धि हुई ।
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द्वापर-युग में, पृथु के ही वंश में उत्पन्न पृथापुत्र भगवान विष्णु का जब कृष्ण के रूप में अवतार हुआ तो पृथ्वी गौ बनी, अर्जुन बछड़ा तथा महर्षि वेदव्यास पात्र बने कृष्ण स्वयं दोग्धा थे । श्रीमद्भगवद्गीता दूध था जिसे अर्जुन के निमित्त मुमुक्षुओं के लिए दुहा गया ।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थ वत्सो सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्  ॥   
यही वैन्य का भूतात्मयोग है।
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टिप्पणी : विरूपाक्ष ने इन्द्र से कहा :
ख्यातिमपूर्णां पूर्णख्यातिसमावेशदार्ढ्यतः क्षपय ।
सृज भुवनानि यथेच्छं स्थापय हर तिरय भासय च ॥५२
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ख्यातिं अपूर्णां पूर्णख्यातिसमावेशदार्ढ्यतः क्षपय ।
सृज भुवनानि यथेच्छं स्थापय हर तिरय भासय च ॥५२
(विरूपाक्षपञ्चाशिका -52) 
इस वैन्यकृत भूतात्मयोग से तुम पूर्ण ज्ञान की सहायता से अज्ञान को दृढता से नष्ट करो, और यथासंकल्प अभीप्सित भुवनों का सृजन, परिरक्षण-पालन, विलय अथवा तिरोधान करो । 
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