देवी-अथर्वशीर्ष : एक भूमिका
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विभिन्न भाषाओं में जीवनरहित (नॉन-लिविंग / non-living) वस्तुओं का लिंग-निर्धारण किस आधार पर किया जाता है?
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यद्यपि "मूलतः एक ही भाषा अभिव्यक्त होने के बाद ..." -यह विचार - जो मेरा आग्रह नहीं है, कुछ लोगों को अस्वीकार्य हो सकता है, और किसी को इससे राज़ी करने में भी मुझे कोई रुचि नहीं, किंतु एक प्रस्तावना (premise) के रूप में मेरे लिये यह बहुत महत्वपूर्ण है । मूलतः एक ही भाषा अभिव्यक्त होने के पश्चात् वही मुख्यतः दो प्रमुख भाषाओं (परस्पर संवाद के लिए लिखित या वाचिक रूप में ध्वन्यात्मक शब्दों का व्यवहार) के रूप में प्रचलित हुई । वह एक भाषा थी मनुष्य द्वारा बोली जा सकनेवाली ध्वनियों का समूह जिसे ’शब्द’ कह सकते हैं । इसके अन्तर्गत ध्वनियों को भी पुनः स्वर तथा व्यञ्जन इन दो रूपों में देखा जाता है । संस्कृत में ध्वनि के इस रूप को ’वर्ण’ कहा जाता है, इसके ही दो रूप क्रमशः उच्चारित और लिखित प्रकार हैं । उच्चारित प्रकार को कहने, सुनने और में सुनकर पुनः उच्चार करने में त्रुटि होने को समझना और सुधारना सरल है, जबकि लिखित रूप को लिखना, पढ़ना और वाँछित उच्चारण कर पाना कठिन है और फिर भी उसके ठीक उच्चारण होने के विषय में संशय रह सकता है ।
इस प्रकार ’उच्चारित वर्ण’ जिनकी संरचना को पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर भी प्रमाणित स्वरूप में ग्रहण किया जा सकता है, जिसकी ध्वन्यात्मक गुणवत्ता (आवृत्ति / frequency, तरंग-दैर्ध्य / wave-length, तथा विस्तार / amplitude) को गणितीय सटीकता (exactness) से व्यक्त किया जा सकता है, किसी भी भाषा के मूल-तत्व हैं ।
इन ’वर्णों’ के विभिन्न प्रयोज्य रूपों को वेद इसलिए ’देवता’ के रूप में ग्रहण करते हैं क्योंकि किसी भी वर्ण के उच्चारण का आधार और प्रमाण अनिवार्यतः एक प्राणवान चेतन-सत्ता होती है जो या तो उस उच्चारण को करनेवाले या उसे सुननेवाले के रूप में होती है । अर्थात् यह देवता का प्रत्यक्षीकरण है । उसी देवता को वेदों ने ३३ कोटियों में रखा है । किंतु जब से मनुष्य का अस्तित्व समझा जा सकता है तब से मनुष्य ने भाषा या जिन भाषाओं का आविष्कार और प्रयोग करता आ रहा है वह प्रकृति-प्रदत्त वाणी थी । इस प्रकृति-प्रदत्त वाणी के मूल-तत्व क्या हैं, इसका दर्शन जिन्हें हुआ उन्हें ऋषि कहा गया । उन्होंने इन मूल वर्णों और उनके विशिष्ट संयोजन से उनके कौन से एक या अनेक ’अर्थ’ हैं, इसे जाना और उन्हें ज्ञात हुआ कि ये वर्ण (और उनके समूह के अर्थ-विशेष) नित्य और सनातन भी हैं । नित्य का अर्थ है जब उनका प्रयोग किया जाता है तभी उनकी सत्यता की परीक्षा हो जाती है, सनातन का अर्थ है जब ऐसी परीक्षा नहीं की जा रही होती तो वह सत्यता समाप्त नहीं होती बल्कि शाश्वत सत्य के रूप में प्रच्छन्न (latent and potential) भर होती है । हमारे आधुनिकतम विज्ञान के सिद्धान्त ऐसे ही ’नित्य’ सत्य हैं किंतु वे सापेक्ष भी हैं क्योंकि उन्हें जानने और प्रयोग तथा परीक्षा करनेवाली कोई चेतना अवश्य ही अनिवार्यतः उनसे जुड़ी होती है । चाहे वह वैज्ञानिक हो, या गणितज्ञ, या खगोलविद । इस प्रकार एक अन्तर्निहित-चेतना की अखंडित सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जो सदा और सर्वत्र है, और ऋषियों के दर्शन के अनुसार यह जो समस्त दृश्य है वह उसी दृष्टा का विस्तार है किंतु बुद्धि में दृष्टा-दृश्य के कल्पित विभाजन के पश्चात् दृष्टा दृष्टि से ओझल हो जाता है । ऋषि तो यह भी कहते हैं कि दृष्ट और दृष्टा दोनों को एक साथ ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि वे दोनों एकमेव अभिन्न वास्तविकता हैं ।
’वर्ण’-रूपी देवताओं का जब ऋषि-चेतना में आगमन हुआ तो ऋषि-चेतना (अदिति) से उन्होंने उसके स्वरूप की जिज्ञासा की । तब अदिति (ऋषि-चेतना) ने उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन दिया जिसके संस्कार से उन ’वर्णों’ की शुद्धता (संस्कार) हुआ । लौकिक अर्थ में : ऋषि-चेतना में इन वर्णों तथा उनसे बनी भाषाएँ वह थीं जिन्हें ’पशु’ प्रयोग में लाते हैं । अर्थात् उनका कोई सुनिश्चित् युक्तिसंगत प्रयोग संभव न था । ऋषि-चेतना में संस्कारित वर्णों से जिस भाषा / वेद का आविष्कार ऋषियों को हुआ, उसे इसलिए संस्कृत कहा गया ।
वे 'देवता' तब दक्ष के पास गए और उनसे कहा :
'हे प्रजापति! तुम्हारी पुत्री प्रसूता हुई और उसने देवताओं वर्ण-रूपी संतानों जन्म दिया। '
वैदिक-दृष्टि से यह एक नित्य और सनातन सत्य है जिसकी परीक्षा और पुष्टि किसी भी काल में ऋषि के लिए उपलब्ध है । लौकिक दृष्टि से ’किसी’ काल में ’दक्ष’ नामक प्रजापति की पुत्री के रूप में जिस कन्या के समक्ष ऋषिगण उपस्थित हुए और उन्होंने उससे जो जिज्ञासा की उसके प्रत्युत्तर में उसने उन्हें स्वयं के स्वरूप का ज्ञान दिया । तब उन ऋषियों का संस्कार होने से उन्हें नया जन्म प्राप्त हुआ इसलिए उन्हें द्विज कहा गया । किंतु अदिति इस रूप में उनकी माता थी । इसी प्रसंग का वर्णन देवी अथर्वशीर्ष में पाया जा सकता है ।
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विभिन्न भाषाओं में जीवनरहित (नॉन-लिविंग / non-living) वस्तुओं का लिंग-निर्धारण किस आधार पर किया जाता है? इस प्रश्न की विवेचना के लिए :
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विभिन्न भाषाओं में जीवनरहित (नॉन-लिविंग / non-living) वस्तुओं का लिंग-निर्धारण किस आधार पर किया जाता है?
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यद्यपि "मूलतः एक ही भाषा अभिव्यक्त होने के बाद ..." -यह विचार - जो मेरा आग्रह नहीं है, कुछ लोगों को अस्वीकार्य हो सकता है, और किसी को इससे राज़ी करने में भी मुझे कोई रुचि नहीं, किंतु एक प्रस्तावना (premise) के रूप में मेरे लिये यह बहुत महत्वपूर्ण है । मूलतः एक ही भाषा अभिव्यक्त होने के पश्चात् वही मुख्यतः दो प्रमुख भाषाओं (परस्पर संवाद के लिए लिखित या वाचिक रूप में ध्वन्यात्मक शब्दों का व्यवहार) के रूप में प्रचलित हुई । वह एक भाषा थी मनुष्य द्वारा बोली जा सकनेवाली ध्वनियों का समूह जिसे ’शब्द’ कह सकते हैं । इसके अन्तर्गत ध्वनियों को भी पुनः स्वर तथा व्यञ्जन इन दो रूपों में देखा जाता है । संस्कृत में ध्वनि के इस रूप को ’वर्ण’ कहा जाता है, इसके ही दो रूप क्रमशः उच्चारित और लिखित प्रकार हैं । उच्चारित प्रकार को कहने, सुनने और में सुनकर पुनः उच्चार करने में त्रुटि होने को समझना और सुधारना सरल है, जबकि लिखित रूप को लिखना, पढ़ना और वाँछित उच्चारण कर पाना कठिन है और फिर भी उसके ठीक उच्चारण होने के विषय में संशय रह सकता है ।
इस प्रकार ’उच्चारित वर्ण’ जिनकी संरचना को पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर भी प्रमाणित स्वरूप में ग्रहण किया जा सकता है, जिसकी ध्वन्यात्मक गुणवत्ता (आवृत्ति / frequency, तरंग-दैर्ध्य / wave-length, तथा विस्तार / amplitude) को गणितीय सटीकता (exactness) से व्यक्त किया जा सकता है, किसी भी भाषा के मूल-तत्व हैं ।
इन ’वर्णों’ के विभिन्न प्रयोज्य रूपों को वेद इसलिए ’देवता’ के रूप में ग्रहण करते हैं क्योंकि किसी भी वर्ण के उच्चारण का आधार और प्रमाण अनिवार्यतः एक प्राणवान चेतन-सत्ता होती है जो या तो उस उच्चारण को करनेवाले या उसे सुननेवाले के रूप में होती है । अर्थात् यह देवता का प्रत्यक्षीकरण है । उसी देवता को वेदों ने ३३ कोटियों में रखा है । किंतु जब से मनुष्य का अस्तित्व समझा जा सकता है तब से मनुष्य ने भाषा या जिन भाषाओं का आविष्कार और प्रयोग करता आ रहा है वह प्रकृति-प्रदत्त वाणी थी । इस प्रकृति-प्रदत्त वाणी के मूल-तत्व क्या हैं, इसका दर्शन जिन्हें हुआ उन्हें ऋषि कहा गया । उन्होंने इन मूल वर्णों और उनके विशिष्ट संयोजन से उनके कौन से एक या अनेक ’अर्थ’ हैं, इसे जाना और उन्हें ज्ञात हुआ कि ये वर्ण (और उनके समूह के अर्थ-विशेष) नित्य और सनातन भी हैं । नित्य का अर्थ है जब उनका प्रयोग किया जाता है तभी उनकी सत्यता की परीक्षा हो जाती है, सनातन का अर्थ है जब ऐसी परीक्षा नहीं की जा रही होती तो वह सत्यता समाप्त नहीं होती बल्कि शाश्वत सत्य के रूप में प्रच्छन्न (latent and potential) भर होती है । हमारे आधुनिकतम विज्ञान के सिद्धान्त ऐसे ही ’नित्य’ सत्य हैं किंतु वे सापेक्ष भी हैं क्योंकि उन्हें जानने और प्रयोग तथा परीक्षा करनेवाली कोई चेतना अवश्य ही अनिवार्यतः उनसे जुड़ी होती है । चाहे वह वैज्ञानिक हो, या गणितज्ञ, या खगोलविद । इस प्रकार एक अन्तर्निहित-चेतना की अखंडित सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता जो सदा और सर्वत्र है, और ऋषियों के दर्शन के अनुसार यह जो समस्त दृश्य है वह उसी दृष्टा का विस्तार है किंतु बुद्धि में दृष्टा-दृश्य के कल्पित विभाजन के पश्चात् दृष्टा दृष्टि से ओझल हो जाता है । ऋषि तो यह भी कहते हैं कि दृष्ट और दृष्टा दोनों को एक साथ ग्रहण नहीं किया जा सकता क्योंकि वे दोनों एकमेव अभिन्न वास्तविकता हैं ।
’वर्ण’-रूपी देवताओं का जब ऋषि-चेतना में आगमन हुआ तो ऋषि-चेतना (अदिति) से उन्होंने उसके स्वरूप की जिज्ञासा की । तब अदिति (ऋषि-चेतना) ने उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन दिया जिसके संस्कार से उन ’वर्णों’ की शुद्धता (संस्कार) हुआ । लौकिक अर्थ में : ऋषि-चेतना में इन वर्णों तथा उनसे बनी भाषाएँ वह थीं जिन्हें ’पशु’ प्रयोग में लाते हैं । अर्थात् उनका कोई सुनिश्चित् युक्तिसंगत प्रयोग संभव न था । ऋषि-चेतना में संस्कारित वर्णों से जिस भाषा / वेद का आविष्कार ऋषियों को हुआ, उसे इसलिए संस्कृत कहा गया ।
वे 'देवता' तब दक्ष के पास गए और उनसे कहा :
'हे प्रजापति! तुम्हारी पुत्री प्रसूता हुई और उसने देवताओं वर्ण-रूपी संतानों जन्म दिया। '
वैदिक-दृष्टि से यह एक नित्य और सनातन सत्य है जिसकी परीक्षा और पुष्टि किसी भी काल में ऋषि के लिए उपलब्ध है । लौकिक दृष्टि से ’किसी’ काल में ’दक्ष’ नामक प्रजापति की पुत्री के रूप में जिस कन्या के समक्ष ऋषिगण उपस्थित हुए और उन्होंने उससे जो जिज्ञासा की उसके प्रत्युत्तर में उसने उन्हें स्वयं के स्वरूप का ज्ञान दिया । तब उन ऋषियों का संस्कार होने से उन्हें नया जन्म प्राप्त हुआ इसलिए उन्हें द्विज कहा गया । किंतु अदिति इस रूप में उनकी माता थी । इसी प्रसंग का वर्णन देवी अथर्वशीर्ष में पाया जा सकता है ।
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विभिन्न भाषाओं में जीवनरहित (नॉन-लिविंग / non-living) वस्तुओं का लिंग-निर्धारण किस आधार पर किया जाता है? इस प्रश्न की विवेचना के लिए :
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