॥ अथातो काशी-आख्यानम् ॥
दर्शनादभ्रसदशी जननात् कमलालये ।
काश्यांतु मरणं मुक्तिः स्मरणादरुणाचले ॥
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(श्री रमण महर्षि से बातचीत क्रमांक 473)
kāśyāṃtu maraṇaṃ muktiḥ smaraṇādaruṇācale ||
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वाराणसी से मेरा रिश्ता सनातन है ।
वर्ष १९९६ की गर्मियों में पहली बार वहाँ गया था ।
काशी मुमुक्षु भवन में प्रथम तल पर एक बड़े से हॉल जैसे कक्ष में जहाँ एक पलंग था जिस पर मोटी मैट्रेस थी और बहुत ज्यादा धूल थी, दो रात सोया भी था । भोजन के लिए नीचे जाना पड़ता था जहाँ आठ रुपये में शुद्ध घी से बनी सब्ज़ी-रोटी और दाल-चाँवल या भिक्षा में (बिना पैसे के) सूखी रोटियाँ तथा सब्ज़ी या दाल मिलती थी । दो बार मैंने वहाँ पैसे देकर भोजन किया और एक बार भिक्षाना लिया । दिन भर उस स्थान के मंदिरों और गंगातटों पर घूमता रहा । जब भी घूमकर वहाँ लौट आता तो देखता कि वहाँ एक बड़े पेड़ के नीचे लोगों के लिए लगे एक नल पर छोटा सा एक बन्दर का बच्चा पानी पी रहा होता । वह नल ठीक से बन्द न हो पाने कारण उसमें से पानी टपकता रहता था । हर बार जब कोई वहाँ से गुज़रता या पानी भरने के लिए आता तो बन्दर उछलकर पेड़ पर चढ़ जाता था । मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यद्यपि उसके सामने ही पानी भरनेवाले बार बार नल खोलते और बंद करते रहते थे लेकिन उसे यह खयाल क्यों नहीं आया कि वह भी पानी पीने के लिए टोंटी को घुमाकर नल को पूरा खोल ले और एक बार में ही प्यास बुझा ले । ध्यान से देखने पर पता चला कि उसे इसकी ज़रूरत नहीं थी । खाने के लिए उसे पर्याप्त चीज़ें मिल जाती थीं, पीने का पानी वह पास रखी एक नाँद से पी सकता था । लेकिन नल से पानी पीना उसे अच्छा लगता था । ऐसा भी नहीं कि वह किसी से डरता था । जब उसे भूख न लगी होती तो उसे बिस्कुट, रोटी या फल देने पर भी वह पास न आता लेकिन भूख लगी होने पर अपना मुँह खोलकर दाँत दिखाता, और तब यदि उसे खाने की कोई चीज़ दी जाती तो तुरंत झपटकर लगभग छीन लेता, और भाग जाता ।
उस मुमुक्षु भवन के बाहर कुछ दूर ही चाय की छोटी सी एक दुकान थी । मैंने वहाँ एक-दो बार चाय पी थी ।
वर्ष २००० के फ़रवरी माह में जब दूसरी बार वाराणसी जाना हुआ, राजघाट पर कृष्णमूर्ति फ़ाउन्डेशन के परिसर में एक कॉटेज में रुका था ।
उस समय इलाहाबाद (प्रयाग) में महाकुंभ चल रहा था । कृष्णमूर्ति फ़ाउन्डेशन के परिसर से काशी रेल्वे-स्टेशन नज़दीक ही है । पास में मुग़लसराय की ओर जानेवाला दो मंज़िला रेल-पुल है जहाँ एक ही पुल पर रेल-रोड तथा मोटर-रोड ऊपर-नीचे हैं । लेकिन काशी रेल्वे-स्टेशन इस पुल से पहले ही दूसरी ओर है । वहाँ कुछ वृद्धजनों से परिचय न होने पर भी कभी-कभी बातचीत होती थी, या कहें कि मैं बस उनकी परस्पर बातचीत को सुनता था ।
एक वृद्ध ने दूसरे से पूछा :
"क्या तुम्हें लगता है कि आख़िरी समय में यहाँ रहने से, -मरने से मुक्ति होती है?"
"बिलकुल सत्य है ।"
"वो कैसे?"
"क्योंकि यह अविनाशी नगरी है, दूसरी किसी जगह रहोगे-मरोगे जो बनती मिटती रहती है तो जनम-पुनर्जनम होता रहेगा । यहाँ वो सब ख़तम ।"
ऐसे ही, एक बार एक वृद्ध ने दूसरे से पूछा :
"यहाँ रहने से, -मरने से मुक्ति कैसे होगी?"
"मुक्ति एक खयाल है न?"
"हाँ!"
"वो खयाल आने से पहले कहाँ था?"
"तब मुक्ति का खयाल नहीं था ।"
"मतलब मुक्ति का खयाल न होने पर उस समय तुम इस खयाल से भी मुक्त ही थे ।"
"वैसे ही तुम अब, अभी भी तो हो!
"वाराणसी का महाश्मशान तो विख्यात है ही । यद्यपि वहाँ भी भीड़ के कारण बहुत से शवों की अन्येष्टि यथाविधि संपन्न नहीं हो पाती किंतु उससे उन मृतात्माओं की सद्गति नहीं होती ऐसा भी नहीं । जहाँ पार्वतीजी के कान की मणि खो जाने पर भगवान् शिव ढूँढते हुए आ पहुँचे और प्रत्येक जीवित और मृत के कानों में उसे खोजते हुए अब भी भ्रमण करते हैं ।
अज्ञातपथगामिनो कोऽपि!
और भगवान् शिव चूँकि नित्य और निरन्तर राम-राम महामन्त्र का उच्चार करते हैं, इसलिए यहाँ जिसकी भी मृत्यु होती है उसके कानों में वे अनायास महामन्त्र की दीक्षा प्रदान कर देते हैं ।"
"क्या यह कहानी ही नहीं है?"
"देखो भाई! अन्तकाल में क्या होता है इस बारे में जो भी कहा जाए उसकी सत्यता या असत्यता का प्रमाण जीते-जी कैसे मिल सकता है? किंतु मनुष्यों के अपने-अपने विश्वास हैं, कोई मृत्यु के बाद स्वर्ग में जाता है या मुक्ति पाता है या बस समाप्त हो जाता है, या उसका निर्वाण हो जाता है, ...इसे किसने देखा? कोई क़यामत तक अपनी कब्र में सोया या करवटें बदलता रहता है, या चिता में अग्नि उसे आत्मसात् कर ज्योतिर्मय लोक में ले जाते हैं, यह सब मनुष्य का विश्वास ही तो है जो स्वाभाविक और संशयरहित हो तो निष्ठा ही होता है किंतु संशय होने पर स्वयं ही स्वयं का उच्छेद कर देता है । ऐसी खंडित निष्ठा को कोई किसी पर बलपूर्वक आरोपित भी कर दे तो कि मृत्यु के बाद मृतक किस गति को प्राप्त होगा, इसका क्या प्रमाण होगा?"
"गीताजी में कहा है :
अध्याय 9, श्लोक 25,
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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इसलिए जिन परंपराओं में मृत्यु के बाद मृत-शरीर का जैसा संस्कार किया जाता है उसकी वैसी ही गति होती होगी यह सोचना गलत नहीं होगा । जिन्हें दफ़ना दिया जाता है वे या तो क़यामत के दिन तक प्रतीक्षा करते रहेंगे, या जीवात्मा के बारे में जैसा ईश्वरीय या प्रकृति का विधान हो वैसी उनकी गति होगी, शास्त्र की पहुँच की सत्यता या असत्यता तो उस बारे में अनुमान तक ही सीमित होगी ।
मेरे अपने दृष्टिकोण से इसलिए वाराणसी में मृत्यु होना एकमात्र श्रेष्ठतम अवसर है और मैं इतना ही जानता हूँ ।"
"लेकिन अपनी मृत्यु कहाँ कब कैसे होगी किसे पता है?"
"इसीलिए तो एक संभावना के अनुसार यहाँ रहते हुए शिव का भजन करना ही एक सबसे सरल तरीका है ।"
"वे विधवाएँ जिन्हें परिवार और समाज ने त्याग दिया है, वे वृद्ध, अशिक्षित, रुग्ण, जिनका अपना कोई नहीं है, ये सभी ...!"
"क्या यह सब ’धर्म’ के नाम पर विधवाओं, आश्रयविहीन वृद्ध-जनों, गरीबों का भावनात्मक शोषण नहीं है?"
"आप यहाँ कैसे पधारे?"
"हम तो काशी-विश्वनाथ के दर्शन करने और गंगा-स्नान के लिए आए हैं, लेकिन धर्म के नाम पर यह सब देखकर हमें ऐसा लगा ।"
"कर लिए दर्शन?"
"हाँ बहुत कृपा हुई भोले बाबा की ..."
"अब आगे क्या विचार है?"
"कुछ नहीं, अभी अपना व्यवसाय बच्चे देख रहे हैं, बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन निकालकर आए ।"
"आप दर्शन का मतलब समझते हैं?"
"आप ही बताइये ..."
"देखिए काश का मतलब होता है ’आकाश’ वह आकाश तो जड तत्व है किंतु उसे जो चैतन्य शिव तत्व चेतन बनाता है वह है काशी । इसलिये काशी स्थान का नाम भी है और उस चैतन्य सत्ता का नाम भी जो विश्व का नाथ है । यदि आपने इस तत्व को समझ लिया तो उस विश्वनाथ के दर्शन हो गए । और यदि केवल यह सोचकर कि यह एक पुण्य कार्य है जिसका बहुत फल होता है, जिससे आपको धन-दौलत, सफलता, परिवार का सुख मिलेगा तो वह आपकी श्रद्धा है ।"
"हमने मनकर्णिका घाट के बारे में सुना है लेकिन आपके मुख से भी सुनना चाहते हैं ।"
"वैसे तो स्कन्द-पुराण में एक काशी-खंड ही है जिसमें आपको इस श्रीक्षेत्र के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिल जाएगी, लेकिन हम आपको वह जानकारी देंगे जो हमने यहाँ के संतों से सुनी है ।"
जैसे ’काशी’ का तात्पर्य हमने अभी कहा, वैसे ही मनकर्णिका घाट के भी दो अर्थ हैं । एक तो यह कि मन के कानों से जिस घाट पर किसी ने भगवान् शिव के मुख से ’राम-राम’ सुन लिया, आवागमन के चक्र से वह छूट गया । दूसरा अर्थ है जहाँ पार्वतीजी के कान की मणि खो जाने पर भगवान् शिव ढूँढते हुए आ पहुँचे, और प्रत्येक जीवित और मृत के कानों में उसे खोजते हुए अब भी भ्रमण करते हैं । अज्ञातपथगामिनो कोऽपि!
और भगवान् शिव चूँकि नित्य और निरन्तर ’राम-राम’ महामन्त्र का उच्चार करते हैं, इसलिए यहाँ जिसकी भी मृत्यु होती है उसके कानों में वे अनायास महामन्त्र की दीक्षा प्रदान कर देते हैं ।"
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लौटकर आया तो देखा वह बन्दर उछलकर पेड़ पर चढ़ रहा था ।
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दर्शनादभ्रसदशी जननात् कमलालये ।
काश्यांतु मरणं मुक्तिः स्मरणादरुणाचले ॥
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(श्री रमण महर्षि से बातचीत क्रमांक 473)
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darśanādabhrasadaśī jananāt kamalālaye |kāśyāṃtu maraṇaṃ muktiḥ smaraṇādaruṇācale ||
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(Talks with Sri Ramana Maharshi, 473)
काशी मुमुक्षु भवन--
वाराणसी से मेरा रिश्ता सनातन है ।
वर्ष १९९६ की गर्मियों में पहली बार वहाँ गया था ।
काशी मुमुक्षु भवन में प्रथम तल पर एक बड़े से हॉल जैसे कक्ष में जहाँ एक पलंग था जिस पर मोटी मैट्रेस थी और बहुत ज्यादा धूल थी, दो रात सोया भी था । भोजन के लिए नीचे जाना पड़ता था जहाँ आठ रुपये में शुद्ध घी से बनी सब्ज़ी-रोटी और दाल-चाँवल या भिक्षा में (बिना पैसे के) सूखी रोटियाँ तथा सब्ज़ी या दाल मिलती थी । दो बार मैंने वहाँ पैसे देकर भोजन किया और एक बार भिक्षाना लिया । दिन भर उस स्थान के मंदिरों और गंगातटों पर घूमता रहा । जब भी घूमकर वहाँ लौट आता तो देखता कि वहाँ एक बड़े पेड़ के नीचे लोगों के लिए लगे एक नल पर छोटा सा एक बन्दर का बच्चा पानी पी रहा होता । वह नल ठीक से बन्द न हो पाने कारण उसमें से पानी टपकता रहता था । हर बार जब कोई वहाँ से गुज़रता या पानी भरने के लिए आता तो बन्दर उछलकर पेड़ पर चढ़ जाता था । मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यद्यपि उसके सामने ही पानी भरनेवाले बार बार नल खोलते और बंद करते रहते थे लेकिन उसे यह खयाल क्यों नहीं आया कि वह भी पानी पीने के लिए टोंटी को घुमाकर नल को पूरा खोल ले और एक बार में ही प्यास बुझा ले । ध्यान से देखने पर पता चला कि उसे इसकी ज़रूरत नहीं थी । खाने के लिए उसे पर्याप्त चीज़ें मिल जाती थीं, पीने का पानी वह पास रखी एक नाँद से पी सकता था । लेकिन नल से पानी पीना उसे अच्छा लगता था । ऐसा भी नहीं कि वह किसी से डरता था । जब उसे भूख न लगी होती तो उसे बिस्कुट, रोटी या फल देने पर भी वह पास न आता लेकिन भूख लगी होने पर अपना मुँह खोलकर दाँत दिखाता, और तब यदि उसे खाने की कोई चीज़ दी जाती तो तुरंत झपटकर लगभग छीन लेता, और भाग जाता ।
उस मुमुक्षु भवन के बाहर कुछ दूर ही चाय की छोटी सी एक दुकान थी । मैंने वहाँ एक-दो बार चाय पी थी ।
वर्ष २००० के फ़रवरी माह में जब दूसरी बार वाराणसी जाना हुआ, राजघाट पर कृष्णमूर्ति फ़ाउन्डेशन के परिसर में एक कॉटेज में रुका था ।
उस समय इलाहाबाद (प्रयाग) में महाकुंभ चल रहा था । कृष्णमूर्ति फ़ाउन्डेशन के परिसर से काशी रेल्वे-स्टेशन नज़दीक ही है । पास में मुग़लसराय की ओर जानेवाला दो मंज़िला रेल-पुल है जहाँ एक ही पुल पर रेल-रोड तथा मोटर-रोड ऊपर-नीचे हैं । लेकिन काशी रेल्वे-स्टेशन इस पुल से पहले ही दूसरी ओर है । वहाँ कुछ वृद्धजनों से परिचय न होने पर भी कभी-कभी बातचीत होती थी, या कहें कि मैं बस उनकी परस्पर बातचीत को सुनता था ।
एक वृद्ध ने दूसरे से पूछा :
"क्या तुम्हें लगता है कि आख़िरी समय में यहाँ रहने से, -मरने से मुक्ति होती है?"
"बिलकुल सत्य है ।"
"वो कैसे?"
"क्योंकि यह अविनाशी नगरी है, दूसरी किसी जगह रहोगे-मरोगे जो बनती मिटती रहती है तो जनम-पुनर्जनम होता रहेगा । यहाँ वो सब ख़तम ।"
ऐसे ही, एक बार एक वृद्ध ने दूसरे से पूछा :
"यहाँ रहने से, -मरने से मुक्ति कैसे होगी?"
"मुक्ति एक खयाल है न?"
"हाँ!"
"वो खयाल आने से पहले कहाँ था?"
"तब मुक्ति का खयाल नहीं था ।"
"मतलब मुक्ति का खयाल न होने पर उस समय तुम इस खयाल से भी मुक्त ही थे ।"
"वैसे ही तुम अब, अभी भी तो हो!
"वाराणसी का महाश्मशान तो विख्यात है ही । यद्यपि वहाँ भी भीड़ के कारण बहुत से शवों की अन्येष्टि यथाविधि संपन्न नहीं हो पाती किंतु उससे उन मृतात्माओं की सद्गति नहीं होती ऐसा भी नहीं । जहाँ पार्वतीजी के कान की मणि खो जाने पर भगवान् शिव ढूँढते हुए आ पहुँचे और प्रत्येक जीवित और मृत के कानों में उसे खोजते हुए अब भी भ्रमण करते हैं ।
अज्ञातपथगामिनो कोऽपि!
और भगवान् शिव चूँकि नित्य और निरन्तर राम-राम महामन्त्र का उच्चार करते हैं, इसलिए यहाँ जिसकी भी मृत्यु होती है उसके कानों में वे अनायास महामन्त्र की दीक्षा प्रदान कर देते हैं ।"
"क्या यह कहानी ही नहीं है?"
"देखो भाई! अन्तकाल में क्या होता है इस बारे में जो भी कहा जाए उसकी सत्यता या असत्यता का प्रमाण जीते-जी कैसे मिल सकता है? किंतु मनुष्यों के अपने-अपने विश्वास हैं, कोई मृत्यु के बाद स्वर्ग में जाता है या मुक्ति पाता है या बस समाप्त हो जाता है, या उसका निर्वाण हो जाता है, ...इसे किसने देखा? कोई क़यामत तक अपनी कब्र में सोया या करवटें बदलता रहता है, या चिता में अग्नि उसे आत्मसात् कर ज्योतिर्मय लोक में ले जाते हैं, यह सब मनुष्य का विश्वास ही तो है जो स्वाभाविक और संशयरहित हो तो निष्ठा ही होता है किंतु संशय होने पर स्वयं ही स्वयं का उच्छेद कर देता है । ऐसी खंडित निष्ठा को कोई किसी पर बलपूर्वक आरोपित भी कर दे तो कि मृत्यु के बाद मृतक किस गति को प्राप्त होगा, इसका क्या प्रमाण होगा?"
"गीताजी में कहा है :
अध्याय 9, श्लोक 25,
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।
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(यान्ति देवव्रताः देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनः अपि माम् ॥)
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भावार्थ :
देवताओं की उपासना / पूजा करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं ( अर्थात् मृत्यु के बाद उनके लोक में स्थान पाते हैं), पितरों की उपासना / पूजा करनेवाले पितृलोक में, तथा भूतों की उपासना / पूजा करनेवाले भूतलोक अर्थात् मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरा यजन अर्थात् भक्ति / उपासना, पूजन, आदि करनेवाला मुझे / मेरे ही लोक (धाम) को प्राप्त होता है ।
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टिप्पणी :
स्पष्ट है कि मृत्यु के अनन्तर किसी मनुष्य की क्या गति होती है, इस बारे में इस श्लोक के आधार से अनुमान लगाया जा सकता है ।
भगवान् श्रीकृष्ण के धाम का वर्णन संक्षेप में अध्याय 8, श्लोक 21 में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
अध्याय 8, श्लोक 21,
अव्यक्तोऽक्षर इत्याहुस्तमाहुः परमां गतिं ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
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(अव्यक्तः अक्षरः इति उक्तः तम् आहुः परमाम् गतिम् ।
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ॥)
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भावार्थ :
अव्यक्त (अर्थात् जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, स्मृति आदि से किसी व्यक्त विषय की भाँति ग्रहण नहीं किया जा सकता, किन्तु इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, स्मृति आदि जो उसके ही व्यक्त रूप हैं और उसके ही द्वारा प्रेरित किए जाने पर अपना अपना कार्य करते हैं), अक्षर अर्थात् अविनाशी, इस प्रकार से (जिस) उस परम गति का वर्णन किया जाता है, जिसे प्राप्त होने के बाद कोई पुनः संसार रूपी दुःख में नहीं जन्म लेता, वह मेरा परम धाम है ।
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इसलिए जिन परंपराओं में मृत्यु के बाद मृत-शरीर का जैसा संस्कार किया जाता है उसकी वैसी ही गति होती होगी यह सोचना गलत नहीं होगा । जिन्हें दफ़ना दिया जाता है वे या तो क़यामत के दिन तक प्रतीक्षा करते रहेंगे, या जीवात्मा के बारे में जैसा ईश्वरीय या प्रकृति का विधान हो वैसी उनकी गति होगी, शास्त्र की पहुँच की सत्यता या असत्यता तो उस बारे में अनुमान तक ही सीमित होगी ।
मेरे अपने दृष्टिकोण से इसलिए वाराणसी में मृत्यु होना एकमात्र श्रेष्ठतम अवसर है और मैं इतना ही जानता हूँ ।"
"लेकिन अपनी मृत्यु कहाँ कब कैसे होगी किसे पता है?"
"इसीलिए तो एक संभावना के अनुसार यहाँ रहते हुए शिव का भजन करना ही एक सबसे सरल तरीका है ।"
"वे विधवाएँ जिन्हें परिवार और समाज ने त्याग दिया है, वे वृद्ध, अशिक्षित, रुग्ण, जिनका अपना कोई नहीं है, ये सभी ...!"
"क्या यह सब ’धर्म’ के नाम पर विधवाओं, आश्रयविहीन वृद्ध-जनों, गरीबों का भावनात्मक शोषण नहीं है?"
"आप यहाँ कैसे पधारे?"
"हम तो काशी-विश्वनाथ के दर्शन करने और गंगा-स्नान के लिए आए हैं, लेकिन धर्म के नाम पर यह सब देखकर हमें ऐसा लगा ।"
"कर लिए दर्शन?"
"हाँ बहुत कृपा हुई भोले बाबा की ..."
"अब आगे क्या विचार है?"
"कुछ नहीं, अभी अपना व्यवसाय बच्चे देख रहे हैं, बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन निकालकर आए ।"
"आप दर्शन का मतलब समझते हैं?"
"आप ही बताइये ..."
"देखिए काश का मतलब होता है ’आकाश’ वह आकाश तो जड तत्व है किंतु उसे जो चैतन्य शिव तत्व चेतन बनाता है वह है काशी । इसलिये काशी स्थान का नाम भी है और उस चैतन्य सत्ता का नाम भी जो विश्व का नाथ है । यदि आपने इस तत्व को समझ लिया तो उस विश्वनाथ के दर्शन हो गए । और यदि केवल यह सोचकर कि यह एक पुण्य कार्य है जिसका बहुत फल होता है, जिससे आपको धन-दौलत, सफलता, परिवार का सुख मिलेगा तो वह आपकी श्रद्धा है ।"
"हमने मनकर्णिका घाट के बारे में सुना है लेकिन आपके मुख से भी सुनना चाहते हैं ।"
"वैसे तो स्कन्द-पुराण में एक काशी-खंड ही है जिसमें आपको इस श्रीक्षेत्र के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिल जाएगी, लेकिन हम आपको वह जानकारी देंगे जो हमने यहाँ के संतों से सुनी है ।"
जैसे ’काशी’ का तात्पर्य हमने अभी कहा, वैसे ही मनकर्णिका घाट के भी दो अर्थ हैं । एक तो यह कि मन के कानों से जिस घाट पर किसी ने भगवान् शिव के मुख से ’राम-राम’ सुन लिया, आवागमन के चक्र से वह छूट गया । दूसरा अर्थ है जहाँ पार्वतीजी के कान की मणि खो जाने पर भगवान् शिव ढूँढते हुए आ पहुँचे, और प्रत्येक जीवित और मृत के कानों में उसे खोजते हुए अब भी भ्रमण करते हैं । अज्ञातपथगामिनो कोऽपि!
और भगवान् शिव चूँकि नित्य और निरन्तर ’राम-राम’ महामन्त्र का उच्चार करते हैं, इसलिए यहाँ जिसकी भी मृत्यु होती है उसके कानों में वे अनायास महामन्त्र की दीक्षा प्रदान कर देते हैं ।"
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लौटकर आया तो देखा वह बन्दर उछलकर पेड़ पर चढ़ रहा था ।
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