निष्ठा और मार्ग :
कभी इस बारे में इस तरह से सोचा न था । चूँकि ’सोचना’ प्रारब्ध का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है इसलिए भी इससे पहले कभी इस तरह से न सोच सका था । चूँकि मनुष्य यह तय नहीं कर सकता कि वह क्या और किस बारे में सोचेगा इसलिए जब उसे लगता है वह ऐसा कुछ तय कर सकता है, तो उसके इस विचार के भी व्यक्त-रूप ग्रहण करने के बाद ही उसे इसका पता चलता है । यदि वह वस्तुतः विचारमात्र के आगमन और विलुप्त होने की गतिविधि के प्रति सजग है तो उसे तुरंत समझ में आ जाता है कि किस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार ही समय समय पर विचार मन में उठते और विलीन होते हैं । इसलिए विचार पर नियंत्रण किए जाने की संभावना एक भ्रम है । यह इसलिए भी है क्योंकि जो इस प्रकार से सजग नहीं है उसकी स्थिति में विचार और विचारकर्ता एक ही ’स्व’ के दो पक्ष होते हैं । किंतु जो सजग है उसके लिए भी विचार पर नियंत्रण किए जाने का प्रश्न नहीं उठता क्योंकि वहाँ ’विचारकर्ता’ और विचार पर ’नियंत्रण करनेवाला’ ये दोनों ही सजगता में विलीन हो जाते हैं ।
संक्षेप में विचार ’कर्म’ का ही सूक्ष्म-रूप है, जो समष्टि-प्रकृति की गतिविधि के अत्यन्त सूक्ष्म रूप और अंश की तरह मनुष्य की बुद्धि में, समय समय पर व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है ।
गीता अध्याय ३, श्लोक २७ के अनुसार :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश: ।
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
इसलिए ऐसा व्यक्ति, जो विचारमात्र के आगमन और विलुप्त होने की गतिविधि के प्रति सजग है, केवल विचार के उद्भव और विलीन होने को जानता भर है, वस्तुतः ज्ञानी है और प्रकृति से प्राप्त हुए इस ’कर्म’ की गतिविधि को न तो रोकने की चेष्टा करता है न उस गतिविधि से लिप्त होकर ’मेरा यह विचार’ है ऐसा मानकर ’विचारकर्ता’ के रूप में अपने-आपको विचार से भिन्न, पृथक् और स्वतंत्र मानता है ।
गीता अध्याय ३ श्लोक ३३ के अनुसार :
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
तात्पर्य यह है कि न तो ज्ञानवान और न ही अज्ञानी किसी भी कर्म को करने / कर्म के होने देने या न-होने देने के लिए स्वतंत्र नहीं है । अंतर केवल इतना है कि ज्ञानवान संपूर्ण कर्म को प्रकृति की गतिविधि जानकर उससे असंग और अलिप्त रहता है । जबकि जो भूलवश अपने आपको कर्म से भिन्न, पृथक्, और स्वतंत्र समझता है वह स्वयं को भूलवश ही, उसका कर्ता मान बैठता है । जबकि ऐसा स्वतंत्र कर्ता यदि कोई है भी तो वह केवल ईश्वर ही हो सकता है ।
किंतु ज्ञानवान और ज्ञानरहित दोनों की ही स्थिति में प्रश्न ’निष्ठा’ का है जिसे कोई स्वयं ही आत्म-विवेचना से ध्यान से समझ सकता है । क्योंकि ऐसी विवेचना (विवेक) ही एकमात्र ऐसा कर्म है जिसमें मनुष्य स्वेच्छया भी प्रवृत्त हो सकता है । यदि वह इस बारे में भी संशयग्रस्त है तो यही कहा जा सकता है कि यह भी प्रकृति का ही कार्य है कि उसमें ऐसी इच्छा तक नहीं है ।
ज्ञानवान तथा अन्य प्रकार के किसी भी मनुष्य की ’निष्ठा’ भी पुनः दो प्रकार की होती है ।
गीता अध्याय ३ श्लोक ३ के अनुसार :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
इस प्रकार कोई भी अपनी ’निष्ठा’ उक्त दो प्रकारों में से कौन सी है इसे भी विवेचना से अथवा सहज अवलोकन से जानकर साङ्ख्य (ज्ञान) का अथवा (निष्काम) कर्म का, कौन सा उसका स्वाभाविक मार्ग है यह अपने लिए तय कर सकता है ।
दोनों प्रकार की निष्ठाओं के मार्ग आचरण में यद्यपि भिन्न प्रकार के हैं किंतु जिस ध्येय लक्ष्य की ओर ले जाते हैं वह एक ही है और मार्ग की भिन्नता मनुष्य की प्रकृति के आधार पर तय होती है ।
गीता अध्याय ५ श्लोक ४ के अनुसार :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
(यह जानना रोचक है कि इस श्लोक की प्रथम पंक्ति को दूसरी पंक्ति से अलग पढ़ा जाये तो उसके दो विपरीत अर्थ प्राप्त हो सकते हैं, जबकि दूसरी पंक्ति के साथ पढ़ने पर यह संभावना समाप्त हो जाती है ।)
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पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में अध्यात्म में रुचि रखनेवाले अनेक ऐसे लोगों से संपर्क हुआ जिनका ध्यान इस ओर नहीं गया और इसी कारण मुझसे उन्हें असंतोष प्राप्त हुआ । मैंने भी नम्रतावश प्रत्यक्षतः या परोक्षतः इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट हो इस बारे में कभी नहीं सोचा । क्योंकि उनके और मेरे बीच संवाद का ऐसा कोई न तो आधार था और न मुझे इसकी आवश्यकता कभी प्रतीत हुई । दूसरी ओर यह भी सत्य है कि जिनसे संवाद संभव नहीं उन पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करना भी मेरी धृष्टता ही है, ऐसा भी मुझे प्रतीत हुआ ।
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पुनश्च : इसीलिए मैं इसे 'स्वाध्याय' समझकर यहाँ पोस्ट करता हूँ, जिसकी रुचि हो वही पढ़े । न तो मैं किसी की प्रतिक्रिया की आशा या अपेक्षा रखता हूँ, न आलोचना, प्रशंसा या विवाद की !
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कभी इस बारे में इस तरह से सोचा न था । चूँकि ’सोचना’ प्रारब्ध का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है इसलिए भी इससे पहले कभी इस तरह से न सोच सका था । चूँकि मनुष्य यह तय नहीं कर सकता कि वह क्या और किस बारे में सोचेगा इसलिए जब उसे लगता है वह ऐसा कुछ तय कर सकता है, तो उसके इस विचार के भी व्यक्त-रूप ग्रहण करने के बाद ही उसे इसका पता चलता है । यदि वह वस्तुतः विचारमात्र के आगमन और विलुप्त होने की गतिविधि के प्रति सजग है तो उसे तुरंत समझ में आ जाता है कि किस प्रकार प्रारब्ध के अनुसार ही समय समय पर विचार मन में उठते और विलीन होते हैं । इसलिए विचार पर नियंत्रण किए जाने की संभावना एक भ्रम है । यह इसलिए भी है क्योंकि जो इस प्रकार से सजग नहीं है उसकी स्थिति में विचार और विचारकर्ता एक ही ’स्व’ के दो पक्ष होते हैं । किंतु जो सजग है उसके लिए भी विचार पर नियंत्रण किए जाने का प्रश्न नहीं उठता क्योंकि वहाँ ’विचारकर्ता’ और विचार पर ’नियंत्रण करनेवाला’ ये दोनों ही सजगता में विलीन हो जाते हैं ।
संक्षेप में विचार ’कर्म’ का ही सूक्ष्म-रूप है, जो समष्टि-प्रकृति की गतिविधि के अत्यन्त सूक्ष्म रूप और अंश की तरह मनुष्य की बुद्धि में, समय समय पर व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है ।
गीता अध्याय ३, श्लोक २७ के अनुसार :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वश: ।
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
इसलिए ऐसा व्यक्ति, जो विचारमात्र के आगमन और विलुप्त होने की गतिविधि के प्रति सजग है, केवल विचार के उद्भव और विलीन होने को जानता भर है, वस्तुतः ज्ञानी है और प्रकृति से प्राप्त हुए इस ’कर्म’ की गतिविधि को न तो रोकने की चेष्टा करता है न उस गतिविधि से लिप्त होकर ’मेरा यह विचार’ है ऐसा मानकर ’विचारकर्ता’ के रूप में अपने-आपको विचार से भिन्न, पृथक् और स्वतंत्र मानता है ।
गीता अध्याय ३ श्लोक ३३ के अनुसार :
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥
तात्पर्य यह है कि न तो ज्ञानवान और न ही अज्ञानी किसी भी कर्म को करने / कर्म के होने देने या न-होने देने के लिए स्वतंत्र नहीं है । अंतर केवल इतना है कि ज्ञानवान संपूर्ण कर्म को प्रकृति की गतिविधि जानकर उससे असंग और अलिप्त रहता है । जबकि जो भूलवश अपने आपको कर्म से भिन्न, पृथक्, और स्वतंत्र समझता है वह स्वयं को भूलवश ही, उसका कर्ता मान बैठता है । जबकि ऐसा स्वतंत्र कर्ता यदि कोई है भी तो वह केवल ईश्वर ही हो सकता है ।
किंतु ज्ञानवान और ज्ञानरहित दोनों की ही स्थिति में प्रश्न ’निष्ठा’ का है जिसे कोई स्वयं ही आत्म-विवेचना से ध्यान से समझ सकता है । क्योंकि ऐसी विवेचना (विवेक) ही एकमात्र ऐसा कर्म है जिसमें मनुष्य स्वेच्छया भी प्रवृत्त हो सकता है । यदि वह इस बारे में भी संशयग्रस्त है तो यही कहा जा सकता है कि यह भी प्रकृति का ही कार्य है कि उसमें ऐसी इच्छा तक नहीं है ।
ज्ञानवान तथा अन्य प्रकार के किसी भी मनुष्य की ’निष्ठा’ भी पुनः दो प्रकार की होती है ।
गीता अध्याय ३ श्लोक ३ के अनुसार :
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
इस प्रकार कोई भी अपनी ’निष्ठा’ उक्त दो प्रकारों में से कौन सी है इसे भी विवेचना से अथवा सहज अवलोकन से जानकर साङ्ख्य (ज्ञान) का अथवा (निष्काम) कर्म का, कौन सा उसका स्वाभाविक मार्ग है यह अपने लिए तय कर सकता है ।
दोनों प्रकार की निष्ठाओं के मार्ग आचरण में यद्यपि भिन्न प्रकार के हैं किंतु जिस ध्येय लक्ष्य की ओर ले जाते हैं वह एक ही है और मार्ग की भिन्नता मनुष्य की प्रकृति के आधार पर तय होती है ।
गीता अध्याय ५ श्लोक ४ के अनुसार :
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पंडिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
(यह जानना रोचक है कि इस श्लोक की प्रथम पंक्ति को दूसरी पंक्ति से अलग पढ़ा जाये तो उसके दो विपरीत अर्थ प्राप्त हो सकते हैं, जबकि दूसरी पंक्ति के साथ पढ़ने पर यह संभावना समाप्त हो जाती है ।)
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पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में अध्यात्म में रुचि रखनेवाले अनेक ऐसे लोगों से संपर्क हुआ जिनका ध्यान इस ओर नहीं गया और इसी कारण मुझसे उन्हें असंतोष प्राप्त हुआ । मैंने भी नम्रतावश प्रत्यक्षतः या परोक्षतः इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट हो इस बारे में कभी नहीं सोचा । क्योंकि उनके और मेरे बीच संवाद का ऐसा कोई न तो आधार था और न मुझे इसकी आवश्यकता कभी प्रतीत हुई । दूसरी ओर यह भी सत्य है कि जिनसे संवाद संभव नहीं उन पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करना भी मेरी धृष्टता ही है, ऐसा भी मुझे प्रतीत हुआ ।
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पुनश्च : इसीलिए मैं इसे 'स्वाध्याय' समझकर यहाँ पोस्ट करता हूँ, जिसकी रुचि हो वही पढ़े । न तो मैं किसी की प्रतिक्रिया की आशा या अपेक्षा रखता हूँ, न आलोचना, प्रशंसा या विवाद की !
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