Tuesday, 25 July 2017

भोगवाद, कर्मवाद और त्यागवाद

भोगवाद, कर्मवाद और त्यागवाद
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अध्यात्म की दृष्टि से मुख्यतः जो प्रवृत्तियाँ मनुष्यमात्र में पाई जाती हैं उन्हें क्रमशः इन तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है । नास्तिक हो या आस्तिक, संदेहवादी हो या विश्वासवादी, ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी या निरीश्वरवादी हो, प्रकृति से ही मनुष्य में ये तीन जन्मजात प्रवृत्तियाँ होती ही हैं । चूँकि इन तीनों का केन्द्र-बिन्दु अहं या स्व होता है इसलिए ये तीनों अध्यात्म से घनिष्ठता से जुड़ी हैं ऐसा कहा जा सकता है । यहाँ अध्यात्म का प्रचलित अर्थ नहीं बल्कि सरल सामान्य अर्थ लिया जा रहा है । अधि-आत्म का सरल तात्पर्य है अपने बारे में गहराई से संबंधित ।
स्पष्ट है कि प्राणी मात्र को जीने के लिए और सुखी होने के लिए कुछ प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होना आवश्यक है ही । इसमें भोजन, पानी, वायु, आदि सर्वाधिक अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं । अधिक शीत, ऊष्णता, वर्षा, आँधी-तूफान, जंगली तथा विषैले जन्तुओं आदि से सुरक्षा के लिए आश्रय (घर), वस्त्र आदि भी लगभग उतने ही आवश्यक हैं । किंतु दूसरे सभी प्राणियों की तरह मनुष्य भी ’सुख’ के लोभ और संभावित कष्ट की आशंका से ग्रस्त होने पर आवश्यकता से अधिक चाहने लगता है । पशु आदि शायद सोचते भी हों तो भी ’भविष्य-चिंतन’ की उनकी क्षमता मनुष्य की तुलना में अत्यंत कम होती होगी ।
मनुष्य हो या कोई और प्राणी, सभी अपने-अपने तरीके से ’सुख’और अधिक सुख की प्राप्ति के लिए उन्हें जैसा आव्श्यक प्रतीत होता है वैसा कर्म भी करते हैं । इस प्रकार कर्म भी उनकी प्रवृत्ति में अनायास होता ही है । जैसे मनुष्येतर प्राणी भी प्रायः तात्कालिक या सन्निकट भविष्य में प्रतीत होनेवाली उनकी आवश्यकता से प्रेरित होकर ही कर्म करते हैं वैसे ही मनुष्य में भी कर्म की प्रवृत्ति प्रकृतिप्रदत्त ही होती है ।
मुख्यतः इन दो प्रवृत्तियों से प्रेरित जीव पूरी आयु भर सुख-दुःख उठाते हुए जीवन व्यतीत कर देते हैं ।
ये दोनों प्रवृत्तियाँ अर्थात् भोगवाद और कर्मवाद ही मुख्यतः मनुष्य के जीवन को संचालित करनेवाली प्रमुख प्रेरणाएँ होती हैं । और चूँकि ये दोनों ही ’मैं’ अर्थात् स्वयं या अपनी आत्मा को केन्द्रीय महत्व देकर ही कार्य करती हैं इस अर्थ में दोनों ही उतनी आध्यात्मिक भी हैं ।
किंतु पर्याप्त भोग और उपभोग और कर्म करते हुए एक समय आने पर मनुष्य पर भोग-कर्म-भोग या कर्म-भोग-कर्म के चक्र की व्यर्थता स्पष्ट हो जाती है और तब उसका ध्यान भोग और कर्म की सीमित उपयोगिता पर जा पाता है । और तब उसे अनुभव होता है कि एक सीमा तक भोग और कर्म जीवन की आवश्यकताएँ तो हैं किंतु जीवन का अर्थ और प्रयोजन वहीं तक सीमित नहीं है । क्योंकि अपनी और अपनों की मृत्यु की अपरिहार्यता से प्रकृति की ओर से उसे कोई सुनिश्चित बचाव या सुरक्षा नहीं प्राप्त है, यह उसे स्पष्ट हो जाता है । तब भी वह प्राप्त हुए भोगों को ही अधिक से अधिक भोगना और उसके लिए तथा ’अपनों’ के सुख-समृद्धि के लिए आवश्यक प्रतीत होनेवाले कर्म को करते रहने को ही जीवन से अधिकतम संभव लाभ उठाने का एकमात्र उपाय मानकर शक्ति और क्षमता होने तक उसी में संलग्न रहता है ।
इस बीच मृत्यु के यथार्थ से अनभिज्ञता उसे धर्म, विश्वास, आत्मा या ईश्वर के किसी अजर अमर रूप के अस्तित्व के बारे में सोचने के लिए बाध्य करती है, या स्वयं ही उसमें उस बारे में जानने की उत्सुकता और उत्कंठा पैदा होती है । यह उत्सुकता और उत्कंठा भी या तो क्षणिक और वैसी ही होती है, जैसी संसार की दूसरी असंख्य घटनाओं आदि के प्रति हमारी उत्सुकता हुआ करती है, या फिर इतनी गहरी, प्रबल और प्रखर जिज्ञासा भी हो सकती है कि उसे संसार और संसार के समस्त ’संबंधों’, भोगों, और कर्म तथा कर्म करने से प्राप्त होनेवाले भोग के विविध साधनों की अनित्यता और क्षणभंगुरता फाँस की तरह चुभने लगे और जब तक यह फाँस निकल न जाए, उसे राहत मिलती न प्रतीत हो । ’संबंध’ का अर्थ है, -मन के स्तर पर किसी वस्तु, विषय, स्थान, घटना, व्यक्ति, और ’विचार’ से जुड़ाव होना । जो केवल ’स्मृति’ और कल्पना में ही हो सकता है जिसे आप किसी भौतिक वस्तु की तरह इन्द्रियों मन और बुद्धि से ग्रहण तक नहीं कर सकते तो संग्रह और आधिपत्य तो और भी बहुत दूर की बात है ।
जब यह संसार और संसार के समस्त ’संबंधों’, भोगों, और कर्म तथा कर्म करने से प्राप्त होनेवाले भोग के विविध साधनों की स्वप्न जैसी अनित्यता और क्षणभंगुरता मनुष्य को दिखलाई देने लगती है तो उसे उस सबसे छूटने की आवश्यकता भी अनुभव होने लगती है किंतु कैसे छूटा जाए यह भी उसके लिए एक कठिन प्रश्न होता है । लेकिन इतना कहा जा सकता है कि तब उसमें संसार और संसार के समस्त ’संबंधों’, भोगों, और कर्म तथा कर्म करने से प्राप्त होनेवाले भोग के विविध साधनों के प्रति विराग-बुद्धि जागृत हो जाती है । इसका यह अर्थ नहीं कि वह संसार से ’बाहर’ कहीं भाग सकता है । क्योंकि वह मूलतः संसार से अभिन्न ही है । संसार और वह एकमेव तत्व से बने हैं चाहे इसे भौतिक शरीर के रूप में देखा जाए या ’मन’ के रूप में ।
’मन’ की इसी स्थिति में कोई त्यागवादी हो जाता है । यह आवश्यक नहीं कि वह अपनी स्थिति को किसी सिद्धान्त या ’वाद’ की तरह परिभाषित करे ही, या धर्मग्रन्थों से इसकी पुष्टि करे । किंतु इस स्थिति में भी वह ’अपने’, अहं या स्व को केन्द्र में रखकर ही जैसा उसे उचित और संभव जान पड़े वैसा व्यवहार अपने आचरण में करता है ।
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