मंगलेश डबराल और अग्नि शेखर
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अग्नि शेखर के नाम मंगलेश डबराल का एक खुला खत पढ़ा ।
इतना सन्न रह गया कि कोई प्रतिक्रिया तक मन में नहीं उठ रही थी । शायद मन की किसी गहराई पर उठ भी रही हो, तो उस की आहट मन की उस सतह तक नहीं पहुँच पा रही थी, जिस पर हम सामान्यतः एक-दूसरे से बातें करते हैं । मस्तिष्क बस स्तब्ध था इतना सुन्न था मानों उसकी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो चुकी हो ।
किसी भी रूप में राजनीति से जुड़े लोगों से मुझे संसार के कल्याण या उद्धार की कोई आशा नहीं है । राजनीति का अर्थ होता है समुदाय । किसी भी समुदाय से जुड़े समाज की अपनी नस्ल, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज, नैतिक मूल्य होते हैं और किन्हीं भी दो समुदायों के बीच कुछ समानताएँ और कुछ भिन्नताएँ भी होती ही हैं । इसलिए मानव सभ्यता (सभा > सह भान्ति अस्याम्, सभाजन > सभाज् - प्रीति सेवनयोः) के अनुसार किसी प्रकार की समान रुचि और ध्येय आदि के मनुष्यों का एकत्र होना, सभ्यता) यद्यपि काल और युग के सन्दर्भ में एक दिखाई पड़ती है, वस्तुतः समाजों की रचना और उद्देश्यों के अनुसार इसमें अनेक समुदाय होते हैं जिनके बीच टकराहट होना तब तक अवश्यंभावी है जब तक कि मनुष्य अपने-आपको किसी समाज से अपने राजनीतिक हितों के साधन के लिए जुड़ा होता है । तब तक किसी भी छोटे से छोटे या बड़े से बड़े समाज का विखण्डन भी एक अनिवार्य परिणाम है । भाषा, परंपरा, नस्ल जिसे धर्म की तरह स्वीकार कर लिया गया है क्या उसे धर्म कहे जाने के औचित्य-अनौचित्य पर प्रश्न उठाना हमारी पहली आवश्यकता नहीं है? क्योंकि मनुष्यमात्र की साधुता और दुष्टता भी, भाषा, परंपरा, नस्ल, और मूलतः राजनीति ही ’धर्म’ नामक स्थापित आवरण ओढ़कर समाज के स्तर पर जीवित रहते हैं । इसलिए ऐसे किसी भी तथाकथित धर्म में जो समुदाय के राजनीतिक हितों को सर्वाधिक महत्व देता हुआ सामाजिक धर्म / संस्थागत धर्म बना होता है, मनुष्यमात्र की स्वाभाविक साधुता और दुष्टता दोनों ही कम या अधिक होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता ।
राजनीति का अर्थ है किसी भी संभव तरीके से सत्ता और वर्चस्व की प्राप्ति का प्रयास । साधुता का इसीलिए राजनीति से कोई मेल होना कठिन है क्योंकि साधुता किसी थोपी गई नैतिकता के कारण नहीं, बल्कि स्व-विवेक से ही, भय या दुविधा, लोभ या आकाँक्षा से रहित होती है जबकि दुष्टता न स्वयं का हित देख-समझ पाती है, न समुदाय का और न समाज का । किंतु साधुता और दुष्टता मनुष्यमात्र में कम-अधिक अनुपात में होती है इसलिए दुष्टता अपने तात्कालिक रूप से हितप्रद प्रतीत होनेवालों को उनके वास्तविक रूप से भी ऐसा होने / न-होने के प्रश्न को उठने ही नहीं देती ।
क्या साधुता और दुष्टता किसी समुदाय या समाज का एकाधिकार है?
मनुष्य के स्तर पर, कोई अत्यन्त साधु हो सकता है किंतु तब वह वर्चस्व और अधिकार, सत्ता की शक्ति को सबसे बड़ा अनर्थ जानकर उससे स्वाभाविक रूप से दूर रहता है । ऐसा वह किसी नैतिकता या सामाजिक आचरण की बाध्यता के कारण नहीं, बल्कि अपने विवेक के ही कारण करता है ।
दूसरी ओर, जो दुष्ट है उसे सत्ता, अधिकार, धन, संपत्ति, भूमि, ’राज्य’, परिवार, समुदाय, ’राज्य’ के विस्तार के लिए किसी भी प्रकार के शुभ-अशुभ कार्य से परहेज़ नहीं होता ।
साधुता और दुष्टता के बीच फँसा मनुष्य कितना भी प्रतिभावान और ’सफल’ विख्यात और ’महान्’ क्यों न हो, सर्वथा दुष्ट या साधु न भी हो तो भी लोभ, भय, चिन्ता आदि का शिकार हो सकता है और प्रायः होता भी है ही । चाहे वह कवि हो, बुद्धिजीवी हो, साहित्यकार, कलाकर हो । और अगर वह ’नेता’ भी हो तब तो करेला नीम चढ़ा होना उसकी नियति ही है ।
समाज के स्तर पर किसी भी समस्या का क्या कोई राजनीतिक समाधान संभव है? क्या समुदाय-विशेष, वर्ग-विशेष के हितों को सर्वोच्च वरीय रखकर उसके लिए जो संभव हो उसे करना ही राजनीति की मूल प्रेरणा नहीं है?
मनुष्य की इस पूरी गतिविधि में साधुता न तो आत्म-रक्षा कर सकती है और न दुष्टता का प्रतिकार, क्योंकि दुष्टता अधिक मूर्ख, चालाक, कुटिल, दुराग्रही और धृष्ट भी होती है । बुद्धिजीवी, यशस्वी, सफल, समृद्ध या किसी और प्रकार से महान् बन जानेवाले प्रतिभाशाली भले ही होते हों यदि साधुता से रहित और दुष्ट हैं तो अपना और संसार का भी विनाश ही करते हैं ।
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अग्नि शेखर के नाम मंगलेश डबराल का एक खुला खत पढ़ा ।
इतना सन्न रह गया कि कोई प्रतिक्रिया तक मन में नहीं उठ रही थी । शायद मन की किसी गहराई पर उठ भी रही हो, तो उस की आहट मन की उस सतह तक नहीं पहुँच पा रही थी, जिस पर हम सामान्यतः एक-दूसरे से बातें करते हैं । मस्तिष्क बस स्तब्ध था इतना सुन्न था मानों उसकी सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो चुकी हो ।
किसी भी रूप में राजनीति से जुड़े लोगों से मुझे संसार के कल्याण या उद्धार की कोई आशा नहीं है । राजनीति का अर्थ होता है समुदाय । किसी भी समुदाय से जुड़े समाज की अपनी नस्ल, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज, नैतिक मूल्य होते हैं और किन्हीं भी दो समुदायों के बीच कुछ समानताएँ और कुछ भिन्नताएँ भी होती ही हैं । इसलिए मानव सभ्यता (सभा > सह भान्ति अस्याम्, सभाजन > सभाज् - प्रीति सेवनयोः) के अनुसार किसी प्रकार की समान रुचि और ध्येय आदि के मनुष्यों का एकत्र होना, सभ्यता) यद्यपि काल और युग के सन्दर्भ में एक दिखाई पड़ती है, वस्तुतः समाजों की रचना और उद्देश्यों के अनुसार इसमें अनेक समुदाय होते हैं जिनके बीच टकराहट होना तब तक अवश्यंभावी है जब तक कि मनुष्य अपने-आपको किसी समाज से अपने राजनीतिक हितों के साधन के लिए जुड़ा होता है । तब तक किसी भी छोटे से छोटे या बड़े से बड़े समाज का विखण्डन भी एक अनिवार्य परिणाम है । भाषा, परंपरा, नस्ल जिसे धर्म की तरह स्वीकार कर लिया गया है क्या उसे धर्म कहे जाने के औचित्य-अनौचित्य पर प्रश्न उठाना हमारी पहली आवश्यकता नहीं है? क्योंकि मनुष्यमात्र की साधुता और दुष्टता भी, भाषा, परंपरा, नस्ल, और मूलतः राजनीति ही ’धर्म’ नामक स्थापित आवरण ओढ़कर समाज के स्तर पर जीवित रहते हैं । इसलिए ऐसे किसी भी तथाकथित धर्म में जो समुदाय के राजनीतिक हितों को सर्वाधिक महत्व देता हुआ सामाजिक धर्म / संस्थागत धर्म बना होता है, मनुष्यमात्र की स्वाभाविक साधुता और दुष्टता दोनों ही कम या अधिक होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता ।
राजनीति का अर्थ है किसी भी संभव तरीके से सत्ता और वर्चस्व की प्राप्ति का प्रयास । साधुता का इसीलिए राजनीति से कोई मेल होना कठिन है क्योंकि साधुता किसी थोपी गई नैतिकता के कारण नहीं, बल्कि स्व-विवेक से ही, भय या दुविधा, लोभ या आकाँक्षा से रहित होती है जबकि दुष्टता न स्वयं का हित देख-समझ पाती है, न समुदाय का और न समाज का । किंतु साधुता और दुष्टता मनुष्यमात्र में कम-अधिक अनुपात में होती है इसलिए दुष्टता अपने तात्कालिक रूप से हितप्रद प्रतीत होनेवालों को उनके वास्तविक रूप से भी ऐसा होने / न-होने के प्रश्न को उठने ही नहीं देती ।
क्या साधुता और दुष्टता किसी समुदाय या समाज का एकाधिकार है?
मनुष्य के स्तर पर, कोई अत्यन्त साधु हो सकता है किंतु तब वह वर्चस्व और अधिकार, सत्ता की शक्ति को सबसे बड़ा अनर्थ जानकर उससे स्वाभाविक रूप से दूर रहता है । ऐसा वह किसी नैतिकता या सामाजिक आचरण की बाध्यता के कारण नहीं, बल्कि अपने विवेक के ही कारण करता है ।
दूसरी ओर, जो दुष्ट है उसे सत्ता, अधिकार, धन, संपत्ति, भूमि, ’राज्य’, परिवार, समुदाय, ’राज्य’ के विस्तार के लिए किसी भी प्रकार के शुभ-अशुभ कार्य से परहेज़ नहीं होता ।
साधुता और दुष्टता के बीच फँसा मनुष्य कितना भी प्रतिभावान और ’सफल’ विख्यात और ’महान्’ क्यों न हो, सर्वथा दुष्ट या साधु न भी हो तो भी लोभ, भय, चिन्ता आदि का शिकार हो सकता है और प्रायः होता भी है ही । चाहे वह कवि हो, बुद्धिजीवी हो, साहित्यकार, कलाकर हो । और अगर वह ’नेता’ भी हो तब तो करेला नीम चढ़ा होना उसकी नियति ही है ।
समाज के स्तर पर किसी भी समस्या का क्या कोई राजनीतिक समाधान संभव है? क्या समुदाय-विशेष, वर्ग-विशेष के हितों को सर्वोच्च वरीय रखकर उसके लिए जो संभव हो उसे करना ही राजनीति की मूल प्रेरणा नहीं है?
मनुष्य की इस पूरी गतिविधि में साधुता न तो आत्म-रक्षा कर सकती है और न दुष्टता का प्रतिकार, क्योंकि दुष्टता अधिक मूर्ख, चालाक, कुटिल, दुराग्रही और धृष्ट भी होती है । बुद्धिजीवी, यशस्वी, सफल, समृद्ध या किसी और प्रकार से महान् बन जानेवाले प्रतिभाशाली भले ही होते हों यदि साधुता से रहित और दुष्ट हैं तो अपना और संसार का भी विनाश ही करते हैं ।
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