भूलना !
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भूलना मस्तिष्क की एक स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है, फ़िर भी मस्तिष्क (हम नहीं) उतनी ’मेमोरी’ सुरक्षित रखता है जिसकी ज़रूरत उसे (हमें नहीं) भविष्य में पड़ सकती है । ऐसा नहीं है कि मस्तिष्क ’भविष्य’ के अनुमान या किसी योजना के अन्तर्गत ऐसा करता है, बल्कि यह तो उसके ’सीखने’ की निरन्तर प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा होता है, जो ’स्मृति’ को जन्म देता और बनाए रखता है । फ़िर इसके समानांतर ’स्मृति’ में संचित ’पहचान’ पर आधारित ’अपना’ और ’अपने जगत्’ का एक नया रूप बनता है, जिसमें ’डर’, ’भूलना’, ’याद करना’, इच्छा, ’मोह’ अर्थात् ’भ्रान्त धारणाएँ’ आदि इकट्ठे हो जाते हैं, बाकी पूरा ’भवन’ इसी नींव पर खड़ा होता है, ... इसमें किसी ’स्थिरता’/ स्थायी तत्व की तलाश भी इसी ’मोह’ का एक परिणाम मात्र है ....
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(2 जून 2015 को मेरे फेसबुक पेज पर पोस्ट किया मेरा 'स्टेटस अपडेट')
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पुनश्च :
क्या यह रोमांचक और आश्चर्यप्रद भी नहीं है कि ’स्मृति’ जो स्वयं एक अनिश्चित तत्व है कैसे ’मस्तिष्क’ पर आधिपत्य स्थापित कर लेती है, और मस्तिष्क बिना किसी प्रतिरोध या विरोध के कैसे उसकी दासता स्वीकार कर लेता है? इसी ’स्मृति’ के अन्तर्गत एक धारणा होती है ’व्यक्तिगत-रूप’ में अपनी निज सत्ता की सत्यता की । निज सत्ता जो वस्तुतः नितान्त निर्वैयक्तिक है इस प्रकार से मस्तिष्क-केन्द्रित व्यक्ति से स्थानांतरित हो जाती है, और व्यक्ति-सत्ता ’अपना’ जीवन जीते हुए एक अन्तहीन प्रतीत होनेवाली दुविधा से ग्रस्त रहती है !
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भूलना मस्तिष्क की एक स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है, फ़िर भी मस्तिष्क (हम नहीं) उतनी ’मेमोरी’ सुरक्षित रखता है जिसकी ज़रूरत उसे (हमें नहीं) भविष्य में पड़ सकती है । ऐसा नहीं है कि मस्तिष्क ’भविष्य’ के अनुमान या किसी योजना के अन्तर्गत ऐसा करता है, बल्कि यह तो उसके ’सीखने’ की निरन्तर प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा होता है, जो ’स्मृति’ को जन्म देता और बनाए रखता है । फ़िर इसके समानांतर ’स्मृति’ में संचित ’पहचान’ पर आधारित ’अपना’ और ’अपने जगत्’ का एक नया रूप बनता है, जिसमें ’डर’, ’भूलना’, ’याद करना’, इच्छा, ’मोह’ अर्थात् ’भ्रान्त धारणाएँ’ आदि इकट्ठे हो जाते हैं, बाकी पूरा ’भवन’ इसी नींव पर खड़ा होता है, ... इसमें किसी ’स्थिरता’/ स्थायी तत्व की तलाश भी इसी ’मोह’ का एक परिणाम मात्र है ....
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(2 जून 2015 को मेरे फेसबुक पेज पर पोस्ट किया मेरा 'स्टेटस अपडेट')
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पुनश्च :
क्या यह रोमांचक और आश्चर्यप्रद भी नहीं है कि ’स्मृति’ जो स्वयं एक अनिश्चित तत्व है कैसे ’मस्तिष्क’ पर आधिपत्य स्थापित कर लेती है, और मस्तिष्क बिना किसी प्रतिरोध या विरोध के कैसे उसकी दासता स्वीकार कर लेता है? इसी ’स्मृति’ के अन्तर्गत एक धारणा होती है ’व्यक्तिगत-रूप’ में अपनी निज सत्ता की सत्यता की । निज सत्ता जो वस्तुतः नितान्त निर्वैयक्तिक है इस प्रकार से मस्तिष्क-केन्द्रित व्यक्ति से स्थानांतरित हो जाती है, और व्यक्ति-सत्ता ’अपना’ जीवन जीते हुए एक अन्तहीन प्रतीत होनेवाली दुविधा से ग्रस्त रहती है !
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