ताबीज़ और तिलिस्म
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वेताल-कथा.
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
कृष्णपक्ष की रात्रि में जब क्षीणप्राय चन्द्रमा अस्त हो चुका था, दो घड़ी बीतते ही वह श्मशान में जा पहुँचा । चिता पर स्थित अधजले शव को उसने कंधे पर रखा और जंगली भूमि पर जहाँ कहीं रूखी घास, कँटीली झाड़ियाँ और नुकीले कठोर कंकड़ पत्थर थे, चलता हुआ गुरु के स्थान की ओर चल पड़ा । वहाँ से गुरु के स्थान तक जाने में घड़ी भर का समय लगता था ।
अन्धेरे में चलते हुए उसे बहुत सावधान होना पड़ता था क्योंकि जमीन पर अनेक ज़हरीले सर्प, बिच्छू और ऐसे दूसरे जीव थे जो रात्रि में शिकार के लिए निकलते थे, तो आकाश और वायु-मार्ग से जानेवाले अनेक उलूक, चर्मगात्र (चमगादड़), और अदृश्य निशाचर भी थे । उन अदृश्य निशाचरों से या धरती के इन जीवों से उसे कदापि भय न था क्योंकि वह जानता था कि मृत्यु अपने निर्धारित समय से पहले या बाद में नहीं होती । दूसरी ओर उसके पास गुरु का दिया तद्बीज (ताबीज) भी था जिससे उसे इस विषय के बारे में सोचना ही नहीं था ।
कभी-कभी कोई सिद्ध-पुरुष या दिव्य आत्माएँ आकाश-मार्ग से जाते हुए अपने पीछे द्युति की एक किरण-रेखा छोड़ती जाती थीं, तो कभी कुछ तान्त्रिक शक्तियाँ, कुछ अतृप्त आत्माएँ वैसे ही गिरकर भूमि पर लौट जातीं जैसे योगभ्रष्ट योगी । इन दोनों के बीच भी कितने ही प्रकार के देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर आदि थे और चूँकि यह महाश्मशान चिरकाल से भगवान् शिव की रमण-भूमि रहा है इसलिए भी उन सब शिव-भक्तों का यहाँ आवागमन होना स्वाभाविक था ।
"हे राजन्! तुम्हें पता है कि तुम पिछले कई वर्षों से पुनःपुनः गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए एक शव को कभी नदी से, तो कभी पेड़ से, कभी वन से तो कभी नगर के किसी निर्जनप्राय भाग से लाकर गुरु के समक्ष प्रस्तुत कर देते हो । गुरु ही जानते हैं कि किस तिथि में किस स्थान पर किसकी मृत्यु किन कारणों से हुई है जिसके शव पर बैठकर वे उसकी प्रेतात्मा से संपर्क कर सकते हैं और उसकी मुक्ति में सहायता कर सकते हैं । तुम्हारे अतिरिक्त स्यात् ही किसी को इसकी कल्पना भी होगी । सर्वसामान्य मनुष्य तो इस बारे में बिल्कुल ही अनभिज्ञ है कि तुम उनकी सेवा करते हो और किस उद्देश्य से करते हो ।
तुम्हारे गुरु भी जानते हैं कि ऐसी बहुत सी आत्माओं के मुक्त हो जाने के बाद किसी दिन उनका सामना उनसे होगा ही । क्योंकि उनमें से प्रायः सभी पिशाच-योनि में स्थित आत्माएँ होती हैं, जबकि मैं उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली ब्रह्मराक्षस हूँ जो कभी किसी का अहित नहीं करता, किंतु जैसे पिशाच-आत्माएँ अपनी विवशता से किसी शव में प्रविष्ट होती हैं और कभी-कभी किसी जीवित मनुष्य में भी, वैसे ही मैं भी मेरी एकमात्र विवशता से बाध्य होकर किसी ऐसे आत्मा के शव में प्रविष्ट होता हूँ जो जीते जी ही विमुक्त थी, और उसे इससे कोई अंतर नहीं आता कि उसके शव का क्या हुआ ।
कुल्यायामथ नद्यां वा शिवक्षेत्रेऽपि चत्वरे ।
पर्णं पतति चेत्तेन तरोः किं नु शुभाशुभम् ॥*
(*विवेकचूडामणि 559)
ब्रह्मराक्षस होने की विडंबना यही है कि समस्त शास्त्रों का ज्ञान होते हुए भी वह विमुक्त नहीं होता क्योंकि उसने शास्त्र-वासना के कारण मुक्ति के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया होता और न उस हेतु आवश्यक विवेक वैराग्य और मुमुक्षा ही उसमें होती है । किन्तु मृत्यु आने पर उसकी यही एकमात्र वासना उसे एक ओर जहाँ किसी नई देह, नए जन्म को नहीं ग्रहण करने देती वहीं तुम्हारे गुरु जैसे किसी महापुरुष का सामीप्य पाने की प्रतीक्षा में न जाने कितने युग भटकती रहती है । तुम्हें विस्मय तो होगा कि आज तुम्हारे गुरु ने तुम्हें रक्षा-कवच के रूप में ताबीज़ (तद्बीज) या तिलिस्मन् (Talisman) क्यों नहीं दिया । तद्बीज जहाँ बाधाओं और विघ्नों से रक्षा करता है, वहीं तिलिस्मन् उन शक्तियों से तुम्हारी रक्षा करता है तुम्हारे पितृ-पुरुष होने के कारण जिनकी तुममें आसक्ति होती है । तुम्हें पता है कि पितृ-श्राद्ध में इन्हीं तिलों की अञ्जलि उन्हें देकर उस सक्ति / आसक्ति का निवारण क्या जाता है । यह आसक्ति काल-स्थान में वैसे ही व्याप्त है जैसे तिल में तैल !
और इसलिए आज तुम्हें इन दोनों प्रकार की शक्तियों से कोई विघ्न न होगा ।
दूसरी ओर आज मैं तुमसे कुछ पूछूँगा नहीं बल्कि तुम्हें कुछ ऐसा ज्ञान दूँगा जो तुम पर बोझ न बनकर एक बोध भर बना रहेगा और तुम अपने राजधर्म का और अधिक कुशलता से निर्वाह कर सकोगे ।
तुम्हारे लौटने का समय तुम्हारे जागतिक काल-प्रमाण के आधार पर तो एक घटी का है किन्तु मैं उसे अपने काल-प्रमाण से बढ़ाकर इतना विस्तृत कर रहा हूँ कि तुम्हारी एक घटी में मेरी तीन घटियाँ समाहित हो जाएँ ।
तो सुनो!
हर जीव का जागतिक काल-प्रमाण भिन्न-भिन्न विस्तार का होता है । और अपने काल-प्रमाण के विस्तार से ही प्रत्येक जीव अपने विशिष्ट लोक में किसी सुनिश्चित अवधि तक रह सकता है । मृत्यु में वह काल-प्रमाण परिवर्तित हो जाता है और जीव इस लोक को त्यागकर नए लोक में अस्तित्वमान हो जाता है । ये सारे लोक और काल-प्रमाण महाकाल के अनंत विस्तार में एक तरंग-मात्र होते हैं । पुराणों में ऐसे ही अनेक कल्पों युगों और लोकों का वर्णन है जो सभी नित्य हैं किंतु अपने से भिन्न किसी अन्य काल-प्रमाण पर उन्हें नहीं पाया जाता । और अब मैं तुमसे तुम्हारे जागतिक-काल के संदर्भ में जो कभी हुआ / हो रहा है / होगा, तुम्हारे भूत वर्तमान और भविष्य का वर्णन तुमसे करूँगा ताकि तुम मन की असीम शान्ति और स्थिरता को प्राप्त हो सको ।
सत्-युग में (और किसी भी युग में) ऋषियों को परम ज्ञान ऐसे ही प्राप्त रहता है जैसे तुम्हारे नगरवासियों के लिए मोक्षदायिनी शिप्रा सदैव सुलभ्य है ।
ऐसे ही एक कल्प में एक वैदिक कर्मकाण्डी विद्वान पंडित के रूप में मेरा जन्म हुआ था । पिता जानते थे कि अपनी विलक्षण स्मरण-शक्ति के कारण मैं शास्त्र-मर्मज्ञ भी हो जाऊँगा किंतु जगत् की सत्यता का आग्रह और मेरी उसके प्रति मोह-बुद्धि मुझमें वैराग्य, विवेक और मुमुक्षा उत्पन्न होने में बाधा बनेगी । किंतु इसीलिये या इस आशा से पिता ने मेरा नामकरण ’मुक्तिबोध’ किया ताकि कभी संभवतः इस ओर मेरी रुचि और ध्यान जागृत हो । पिता तो दिवंगत हो गए और जन्म-मृत्यु से रहित निज धाम में लौट गए किंतु मैं बस भौतिक नाम, यश, परिवार (स्त्री-पुत्र) आदि की अंतहीन लालसा और आशा से कभी छूट न पाया । ऐसे ही मैंने संसार की अनेक भाषाओं का अध्ययन किया और मुझे पता चला कि किस प्रकार विधाता ने अग्नि के माध्यम से भगवान् बुद्ध को और तीन पाश्चात्य परंपराओं को स्थापित करते हुए उन्हें प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष रूप से यही उपदेश दिया कि वैदिक / सनातन वर्णास्रम धर्म ही मनुष्यमात्र के उद्धार और परम कल्याण का एकमात्र मार्ग है । बुद्ध तो स्वयं विष्णु का अवतार थे और उनके होने का प्रयोजन इतना ही था कि जो वेद-मार्ग विरोधी हैं उन्हें भी परम-ज्ञान प्राप्त हो । किंतु आर्यावर्त के पार्श्व में स्थित जरथुष्ट्र नामक महापुरुष और उसकी परंपरा जो बाद में लुप्तप्राय हो गई इस उपदेश को यथावत् ग्रहण न करते हुए प्रमादवश अपनी व्याख्या की ।
इसी प्रकार ’अब्राह्मण’-धर्म के संस्थापकों मोज़स् ने भी इस तत्व की अपनी व्याख्या की जिससे भ्रान्त धारणाओं का जन्म हुआ ।
वेद में वर्णित ’अह्’ प्रातिपदिक से ’अहं’ तथा ’अः यः" इन दो पदों के रूप में वैदिक धर्म और अग्नि के प्रथम देवता-स्वरूप होने का निर्देश दिया गया । इसी प्रकार परमात्मा के एक नाम ’यह्व’ की यथावत् शिक्षा दी गई । किंतु अब्राह्मण बुद्धि मे उस पूरी शिक्षा को विरूपित कर दिया ।
शलं अः च वा अः च व अथ
बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार ’अहं नामाभवत्’... उस परमात्मा का नाम ’अह्’ / ’अहं’ ’अः’ हुआ ।
(श्री रमण महर्षि से बातचीत क्रमांक 518/27 सितंबर 1938)
इसी प्रकार ’मातृका’ के अनुसार ’अ’ से ’ह’ तक के समस्त वर्ण ’अहं’ पद में प्रत्याहृत होने से वह ’अहं’ हुआ ।
’यह्व’ और ’अहयहयह’ इन दो शब्दों के आधार पर पाश्चात्य अब्राह्मण / अब्राहम धर्म द्वारा का उद्भव और अत्यन्त विरूपित रूप में विस्तार हुआ, और उसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है इसलिये उस पर निरंतर अंतहीन विवाद होता रहेगा ।"
विक्रमार्क न जाने कब तक सुनता रहा । अचानक अपने-आपको उसने शिप्रा तट के त्रिवेणीसंगम पर उस बरगद के समीप पाया जहाँ ब्राह्मण अपना प्रातः स्नान और संध्यावंदन कर रहे थे और उसका अश्व निष्ठापूर्वक उसके आँखे खोलने और अगले आदेश की प्रतीक्षा में बरगद (अश्वत्थ) से बँधा खड़ा था । वह नहीं कह सकता था कि अभी अभी जो उसने देखा था वह स्वप्न था, या अब जो उसे दिखलाई दे रहा है वह एक और नया स्वप्न है !
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वेताल-कथा.
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
कृष्णपक्ष की रात्रि में जब क्षीणप्राय चन्द्रमा अस्त हो चुका था, दो घड़ी बीतते ही वह श्मशान में जा पहुँचा । चिता पर स्थित अधजले शव को उसने कंधे पर रखा और जंगली भूमि पर जहाँ कहीं रूखी घास, कँटीली झाड़ियाँ और नुकीले कठोर कंकड़ पत्थर थे, चलता हुआ गुरु के स्थान की ओर चल पड़ा । वहाँ से गुरु के स्थान तक जाने में घड़ी भर का समय लगता था ।
अन्धेरे में चलते हुए उसे बहुत सावधान होना पड़ता था क्योंकि जमीन पर अनेक ज़हरीले सर्प, बिच्छू और ऐसे दूसरे जीव थे जो रात्रि में शिकार के लिए निकलते थे, तो आकाश और वायु-मार्ग से जानेवाले अनेक उलूक, चर्मगात्र (चमगादड़), और अदृश्य निशाचर भी थे । उन अदृश्य निशाचरों से या धरती के इन जीवों से उसे कदापि भय न था क्योंकि वह जानता था कि मृत्यु अपने निर्धारित समय से पहले या बाद में नहीं होती । दूसरी ओर उसके पास गुरु का दिया तद्बीज (ताबीज) भी था जिससे उसे इस विषय के बारे में सोचना ही नहीं था ।
कभी-कभी कोई सिद्ध-पुरुष या दिव्य आत्माएँ आकाश-मार्ग से जाते हुए अपने पीछे द्युति की एक किरण-रेखा छोड़ती जाती थीं, तो कभी कुछ तान्त्रिक शक्तियाँ, कुछ अतृप्त आत्माएँ वैसे ही गिरकर भूमि पर लौट जातीं जैसे योगभ्रष्ट योगी । इन दोनों के बीच भी कितने ही प्रकार के देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर आदि थे और चूँकि यह महाश्मशान चिरकाल से भगवान् शिव की रमण-भूमि रहा है इसलिए भी उन सब शिव-भक्तों का यहाँ आवागमन होना स्वाभाविक था ।
"हे राजन्! तुम्हें पता है कि तुम पिछले कई वर्षों से पुनःपुनः गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए एक शव को कभी नदी से, तो कभी पेड़ से, कभी वन से तो कभी नगर के किसी निर्जनप्राय भाग से लाकर गुरु के समक्ष प्रस्तुत कर देते हो । गुरु ही जानते हैं कि किस तिथि में किस स्थान पर किसकी मृत्यु किन कारणों से हुई है जिसके शव पर बैठकर वे उसकी प्रेतात्मा से संपर्क कर सकते हैं और उसकी मुक्ति में सहायता कर सकते हैं । तुम्हारे अतिरिक्त स्यात् ही किसी को इसकी कल्पना भी होगी । सर्वसामान्य मनुष्य तो इस बारे में बिल्कुल ही अनभिज्ञ है कि तुम उनकी सेवा करते हो और किस उद्देश्य से करते हो ।
तुम्हारे गुरु भी जानते हैं कि ऐसी बहुत सी आत्माओं के मुक्त हो जाने के बाद किसी दिन उनका सामना उनसे होगा ही । क्योंकि उनमें से प्रायः सभी पिशाच-योनि में स्थित आत्माएँ होती हैं, जबकि मैं उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली ब्रह्मराक्षस हूँ जो कभी किसी का अहित नहीं करता, किंतु जैसे पिशाच-आत्माएँ अपनी विवशता से किसी शव में प्रविष्ट होती हैं और कभी-कभी किसी जीवित मनुष्य में भी, वैसे ही मैं भी मेरी एकमात्र विवशता से बाध्य होकर किसी ऐसे आत्मा के शव में प्रविष्ट होता हूँ जो जीते जी ही विमुक्त थी, और उसे इससे कोई अंतर नहीं आता कि उसके शव का क्या हुआ ।
कुल्यायामथ नद्यां वा शिवक्षेत्रेऽपि चत्वरे ।
पर्णं पतति चेत्तेन तरोः किं नु शुभाशुभम् ॥*
(*विवेकचूडामणि 559)
ब्रह्मराक्षस होने की विडंबना यही है कि समस्त शास्त्रों का ज्ञान होते हुए भी वह विमुक्त नहीं होता क्योंकि उसने शास्त्र-वासना के कारण मुक्ति के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया होता और न उस हेतु आवश्यक विवेक वैराग्य और मुमुक्षा ही उसमें होती है । किन्तु मृत्यु आने पर उसकी यही एकमात्र वासना उसे एक ओर जहाँ किसी नई देह, नए जन्म को नहीं ग्रहण करने देती वहीं तुम्हारे गुरु जैसे किसी महापुरुष का सामीप्य पाने की प्रतीक्षा में न जाने कितने युग भटकती रहती है । तुम्हें विस्मय तो होगा कि आज तुम्हारे गुरु ने तुम्हें रक्षा-कवच के रूप में ताबीज़ (तद्बीज) या तिलिस्मन् (Talisman) क्यों नहीं दिया । तद्बीज जहाँ बाधाओं और विघ्नों से रक्षा करता है, वहीं तिलिस्मन् उन शक्तियों से तुम्हारी रक्षा करता है तुम्हारे पितृ-पुरुष होने के कारण जिनकी तुममें आसक्ति होती है । तुम्हें पता है कि पितृ-श्राद्ध में इन्हीं तिलों की अञ्जलि उन्हें देकर उस सक्ति / आसक्ति का निवारण क्या जाता है । यह आसक्ति काल-स्थान में वैसे ही व्याप्त है जैसे तिल में तैल !
और इसलिए आज तुम्हें इन दोनों प्रकार की शक्तियों से कोई विघ्न न होगा ।
दूसरी ओर आज मैं तुमसे कुछ पूछूँगा नहीं बल्कि तुम्हें कुछ ऐसा ज्ञान दूँगा जो तुम पर बोझ न बनकर एक बोध भर बना रहेगा और तुम अपने राजधर्म का और अधिक कुशलता से निर्वाह कर सकोगे ।
तुम्हारे लौटने का समय तुम्हारे जागतिक काल-प्रमाण के आधार पर तो एक घटी का है किन्तु मैं उसे अपने काल-प्रमाण से बढ़ाकर इतना विस्तृत कर रहा हूँ कि तुम्हारी एक घटी में मेरी तीन घटियाँ समाहित हो जाएँ ।
तो सुनो!
हर जीव का जागतिक काल-प्रमाण भिन्न-भिन्न विस्तार का होता है । और अपने काल-प्रमाण के विस्तार से ही प्रत्येक जीव अपने विशिष्ट लोक में किसी सुनिश्चित अवधि तक रह सकता है । मृत्यु में वह काल-प्रमाण परिवर्तित हो जाता है और जीव इस लोक को त्यागकर नए लोक में अस्तित्वमान हो जाता है । ये सारे लोक और काल-प्रमाण महाकाल के अनंत विस्तार में एक तरंग-मात्र होते हैं । पुराणों में ऐसे ही अनेक कल्पों युगों और लोकों का वर्णन है जो सभी नित्य हैं किंतु अपने से भिन्न किसी अन्य काल-प्रमाण पर उन्हें नहीं पाया जाता । और अब मैं तुमसे तुम्हारे जागतिक-काल के संदर्भ में जो कभी हुआ / हो रहा है / होगा, तुम्हारे भूत वर्तमान और भविष्य का वर्णन तुमसे करूँगा ताकि तुम मन की असीम शान्ति और स्थिरता को प्राप्त हो सको ।
सत्-युग में (और किसी भी युग में) ऋषियों को परम ज्ञान ऐसे ही प्राप्त रहता है जैसे तुम्हारे नगरवासियों के लिए मोक्षदायिनी शिप्रा सदैव सुलभ्य है ।
ऐसे ही एक कल्प में एक वैदिक कर्मकाण्डी विद्वान पंडित के रूप में मेरा जन्म हुआ था । पिता जानते थे कि अपनी विलक्षण स्मरण-शक्ति के कारण मैं शास्त्र-मर्मज्ञ भी हो जाऊँगा किंतु जगत् की सत्यता का आग्रह और मेरी उसके प्रति मोह-बुद्धि मुझमें वैराग्य, विवेक और मुमुक्षा उत्पन्न होने में बाधा बनेगी । किंतु इसीलिये या इस आशा से पिता ने मेरा नामकरण ’मुक्तिबोध’ किया ताकि कभी संभवतः इस ओर मेरी रुचि और ध्यान जागृत हो । पिता तो दिवंगत हो गए और जन्म-मृत्यु से रहित निज धाम में लौट गए किंतु मैं बस भौतिक नाम, यश, परिवार (स्त्री-पुत्र) आदि की अंतहीन लालसा और आशा से कभी छूट न पाया । ऐसे ही मैंने संसार की अनेक भाषाओं का अध्ययन किया और मुझे पता चला कि किस प्रकार विधाता ने अग्नि के माध्यम से भगवान् बुद्ध को और तीन पाश्चात्य परंपराओं को स्थापित करते हुए उन्हें प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष रूप से यही उपदेश दिया कि वैदिक / सनातन वर्णास्रम धर्म ही मनुष्यमात्र के उद्धार और परम कल्याण का एकमात्र मार्ग है । बुद्ध तो स्वयं विष्णु का अवतार थे और उनके होने का प्रयोजन इतना ही था कि जो वेद-मार्ग विरोधी हैं उन्हें भी परम-ज्ञान प्राप्त हो । किंतु आर्यावर्त के पार्श्व में स्थित जरथुष्ट्र नामक महापुरुष और उसकी परंपरा जो बाद में लुप्तप्राय हो गई इस उपदेश को यथावत् ग्रहण न करते हुए प्रमादवश अपनी व्याख्या की ।
इसी प्रकार ’अब्राह्मण’-धर्म के संस्थापकों मोज़स् ने भी इस तत्व की अपनी व्याख्या की जिससे भ्रान्त धारणाओं का जन्म हुआ ।
वेद में वर्णित ’अह्’ प्रातिपदिक से ’अहं’ तथा ’अः यः" इन दो पदों के रूप में वैदिक धर्म और अग्नि के प्रथम देवता-स्वरूप होने का निर्देश दिया गया । इसी प्रकार परमात्मा के एक नाम ’यह्व’ की यथावत् शिक्षा दी गई । किंतु अब्राह्मण बुद्धि मे उस पूरी शिक्षा को विरूपित कर दिया ।
शलं अः च वा अः च व अथ
बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार ’अहं नामाभवत्’... उस परमात्मा का नाम ’अह्’ / ’अहं’ ’अः’ हुआ ।
(श्री रमण महर्षि से बातचीत क्रमांक 518/27 सितंबर 1938)
इसी प्रकार ’मातृका’ के अनुसार ’अ’ से ’ह’ तक के समस्त वर्ण ’अहं’ पद में प्रत्याहृत होने से वह ’अहं’ हुआ ।
’यह्व’ और ’अहयहयह’ इन दो शब्दों के आधार पर पाश्चात्य अब्राह्मण / अब्राहम धर्म द्वारा का उद्भव और अत्यन्त विरूपित रूप में विस्तार हुआ, और उसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है इसलिये उस पर निरंतर अंतहीन विवाद होता रहेगा ।"
विक्रमार्क न जाने कब तक सुनता रहा । अचानक अपने-आपको उसने शिप्रा तट के त्रिवेणीसंगम पर उस बरगद के समीप पाया जहाँ ब्राह्मण अपना प्रातः स्नान और संध्यावंदन कर रहे थे और उसका अश्व निष्ठापूर्वक उसके आँखे खोलने और अगले आदेश की प्रतीक्षा में बरगद (अश्वत्थ) से बँधा खड़ा था । वह नहीं कह सकता था कि अभी अभी जो उसने देखा था वह स्वप्न था, या अब जो उसे दिखलाई दे रहा है वह एक और नया स्वप्न है !
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