नाडी-सूत्र 7.
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अर्थ और प्रयोजन
(Meaning and Purpose)
गुरुकुल में आए उसे लगभग बारह वर्ष होने रहे थे ।
तभी एक दिन प्रातः उस प्रकार शंखनाद हुआ जो आचार्य की अनियमित कक्षा के प्रारंभ होने द्योतक था ।
वह तब गाय को दुह रहा था । वैसे यह कार्य स्त्रियों के लिए निश्चित था, किन्तु कभी-कभी अपरिहार्य स्थितियों में गुरुकुल के छात्र भी इस कार्य को करते थे ।
जब वह अपना कार्य पूर्ण कर चुका तो सत्वर पदों से गोशाला से उस चबूतरे की ओर पहुँचा, जहाँ उसके अतिरिक्त उसके केवल तीन सहपाठी बैठे । आचार्य भी अपने आसन पर शांतभाव से विराजित थे ।
थोड़ी प्रतीक्षा के पश्चात् एक और सहपाठी आ गया ।
तब उसे अतिथिशाला भेजा गया ताकि वह गुरुकुल में आए एक अतिथि को ले आए ।
वे अतिथि कोई वेदपाठी ब्राह्मण थे, जो आचार्य से अपनी किसी शङ्का का समाधान पाने की आशा में वहाँ आए थे ।
"अपना प्रश्न पूछें ।"
आचार्य ने उनसे कहा ।
"वेद का वास्तविक और शुद्ध अर्थ कौन जानता है ?"
अतिथि ने नम्रतापूर्वक अपना प्रश्न प्रस्तुत किया ।
तब आचार्य ने उसे और उसके सहपाठियों की ओर देखते हुए उनसे पूछा :
"क्या तुममें से कोई इसका उत्तर देना चाहेगा?"
उसने अपने चारों सहपाठियों की ओर देखा किन्तु सभी अपना मुख नीचे किए हुए बैठे थे ।
तब आचार्य ने उससे पूछा कि क्या वह इस प्रश्न के उत्तर को देने का प्रयास करेगा ?
तब उसने आचार्य के चरण-स्पर्श कर, कहना प्रारंभ किया ।
"वैखरी वाणी में कहे गए वक्तव्यों के अनेक अर्थ होते हैं । वेदवाणी नित्य होने से उसका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं होता । वह विधि और विधान है, जिसका प्रयोजन तो है किन्तु वह सापेक्ष वक्तव्य नहीं होता । भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिए वेदवाणी से भिन्न भिन्न लक्ष्य सिद्ध होते हैं । इसलिए वेदवाणी को अर्थ तक सीमित नहीं रखा जा सकता ।"
"यदि अर्थ नहीं, तो क्या ग्रन्थ-रूपी वेद का भाष्य (commentary) संभव है?"
"हाँ, जैसा कि सायण-भाष्य है । स्पष्ट है कि वह निरयण न होकर सायण (स-अयन) ही होगा, और उसके द्वारा वेदवाणी का जो तात्पर्य ग्रहण किया जाएगा वह किसी सन्दर्भ में ही पूर्णतः उपयुक्त / सुसंगत होगा । जैसे सायण और निरयण ज्योतिष के भिन्न भिन्न सिद्धान्त हैं, और अयनांश शोधन के आधार पर उनकी सापेक्ष सत्यता किसी स्थान, समय और सन्दर्भ में ही प्रयोजन-सिद्धि में सहायक होती है ।"
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चलते-चलते-
इस गर्मी में पास रखा पेडेस्टल-फैन गर्म हवा फेंक रहा है । उसका अर्थ तो कभी था ही नहीं, जो प्रयोजन था वह भी फ़िलहाल पूरा नहीं हो पा रहा !
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अर्थ और प्रयोजन
(Meaning and Purpose)
गुरुकुल में आए उसे लगभग बारह वर्ष होने रहे थे ।
तभी एक दिन प्रातः उस प्रकार शंखनाद हुआ जो आचार्य की अनियमित कक्षा के प्रारंभ होने द्योतक था ।
वह तब गाय को दुह रहा था । वैसे यह कार्य स्त्रियों के लिए निश्चित था, किन्तु कभी-कभी अपरिहार्य स्थितियों में गुरुकुल के छात्र भी इस कार्य को करते थे ।
जब वह अपना कार्य पूर्ण कर चुका तो सत्वर पदों से गोशाला से उस चबूतरे की ओर पहुँचा, जहाँ उसके अतिरिक्त उसके केवल तीन सहपाठी बैठे । आचार्य भी अपने आसन पर शांतभाव से विराजित थे ।
थोड़ी प्रतीक्षा के पश्चात् एक और सहपाठी आ गया ।
तब उसे अतिथिशाला भेजा गया ताकि वह गुरुकुल में आए एक अतिथि को ले आए ।
वे अतिथि कोई वेदपाठी ब्राह्मण थे, जो आचार्य से अपनी किसी शङ्का का समाधान पाने की आशा में वहाँ आए थे ।
"अपना प्रश्न पूछें ।"
आचार्य ने उनसे कहा ।
"वेद का वास्तविक और शुद्ध अर्थ कौन जानता है ?"
अतिथि ने नम्रतापूर्वक अपना प्रश्न प्रस्तुत किया ।
तब आचार्य ने उसे और उसके सहपाठियों की ओर देखते हुए उनसे पूछा :
"क्या तुममें से कोई इसका उत्तर देना चाहेगा?"
उसने अपने चारों सहपाठियों की ओर देखा किन्तु सभी अपना मुख नीचे किए हुए बैठे थे ।
तब आचार्य ने उससे पूछा कि क्या वह इस प्रश्न के उत्तर को देने का प्रयास करेगा ?
तब उसने आचार्य के चरण-स्पर्श कर, कहना प्रारंभ किया ।
"वैखरी वाणी में कहे गए वक्तव्यों के अनेक अर्थ होते हैं । वेदवाणी नित्य होने से उसका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं होता । वह विधि और विधान है, जिसका प्रयोजन तो है किन्तु वह सापेक्ष वक्तव्य नहीं होता । भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिए वेदवाणी से भिन्न भिन्न लक्ष्य सिद्ध होते हैं । इसलिए वेदवाणी को अर्थ तक सीमित नहीं रखा जा सकता ।"
"यदि अर्थ नहीं, तो क्या ग्रन्थ-रूपी वेद का भाष्य (commentary) संभव है?"
"हाँ, जैसा कि सायण-भाष्य है । स्पष्ट है कि वह निरयण न होकर सायण (स-अयन) ही होगा, और उसके द्वारा वेदवाणी का जो तात्पर्य ग्रहण किया जाएगा वह किसी सन्दर्भ में ही पूर्णतः उपयुक्त / सुसंगत होगा । जैसे सायण और निरयण ज्योतिष के भिन्न भिन्न सिद्धान्त हैं, और अयनांश शोधन के आधार पर उनकी सापेक्ष सत्यता किसी स्थान, समय और सन्दर्भ में ही प्रयोजन-सिद्धि में सहायक होती है ।"
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चलते-चलते-
इस गर्मी में पास रखा पेडेस्टल-फैन गर्म हवा फेंक रहा है । उसका अर्थ तो कभी था ही नहीं, जो प्रयोजन था वह भी फ़िलहाल पूरा नहीं हो पा रहा !
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