अर्थ और प्रयोजन -3.
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भौतिक वस्तुओं का इन्द्रियग्राह्य संवेदन और उस संवेदन का अनुकूल या प्रतिकूल होना स्वयंसिद्ध तथ्य है ।
किंतु यह अनुकूल अथवा प्रतिकूल होना भी काल के छः आयामों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न रूपों में पाया जाता है । ये छः आयाम / पक्ष हैं : ’चित्त’ की जागृत स्वप्न अथवा सुषुप्त अवस्था, और उन अवस्थाओं में भूत, भविष्य और वर्तमान का विचार । यह देखना / समझने का प्रयास संभवतः रोचक होगा कि ’चित्त’ की जागृत अथवा स्वप्न की स्थिति में ’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान का विचार ही उनकी तथ्यात्मकता तय करता है । यदि विचार नहीं तो इन सभी तत्वों (’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान व ’द्रव्य’ / ’ऊर्जा’) के बारे में कहने के लिए कोई पैमाना / criteria क्राइटेरिया ही कहाँ होता है? इस विचार की देह शब्द से बनी होती है और विभिन्न भाषाएँ तथा एक ही भाषा में बने विभिन्न विचारों की देह भी शब्दों / words ही से बनी होती है । इसलिए एक ही भाषा में एक ही विचार को किसी दूसरे विचार के रूप में किसी सीमा तक व्यक्त तो किया जा सकता है किंतु वह उसी अर्थ का संप्रेषण करे जो वक्ता कहना चाहता है, यह कभी संभव होता है, तो कभी-कभी संभव नहीं भी होता ।
भौतिक वस्तुओं के संबंध में यद्यपि विज्ञान तथ्यों को सुपरिभाषित करने का दावा करता है किन्तु उसके द्वारा स्थापित ’नियमों’ की सत्यता ’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान के विचार के अन्तर्गत सीमित होती है । और केवल ’जागृत’ अवस्था में उन्हीं के द्वारा इसकी परीक्षा की जा सकती है जो विज्ञान की मूल परिकल्पनाओं को आधारभूत सत्य स्वीकार करते हैं ।
इन नियमों का उपयोग प्रत्यक्षतः अनुभव किये जाने से हम उन्हें सार्वत्रिक और सार्वकालिक मान बैठते हैं, जबकि इसके लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं । दूसरी ओर उनकी सार्वत्रिकता या सार्वकालिकता का खंडित होना प्रत्येक मनुष्य के अनुभव में अनायास ही स्पष्ट है ।
किन्तु फिर भी जिस जगत में हम रहते हैं उसे औपचारिक रूप में सत्य समझने के विचार से ग्रस्त होने से हमारी बुद्धि यह नहीं समझ या देख पाती है कि ऐसा कोई सर्वसामान्य (common ) जगत कहीं है ही नहीं, जबकि हमारे ’संवेदन’ (consciousness) का तथ्य तो स्वयंसिद्ध निर्विवाद और अकाट्य सत्य है ।
’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ विचार-आश्रित निष्कर्ष हैं और इस रूप में विचार का भिन्न-भिन्न तरीके से प्रयोग (न कि उपयोग) करने से प्राप्त होने वाले विभिन्न विचार मात्र हैं । जो सदैव सीमित, एक सीमा तक परस्पर भिन्न और कभी कभी अत्यंत विपरीत भी हो सकते हैं । इन निष्कर्षों को हम ’विचार’ के आवरण से ढँककर विभिन्न ’वाद’ निर्मित करते हैं और यह भूल जाते हैं कि वे जिन तत्वों (’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ आदि) का आग्रह करते हैं उन्हें हम केवल शब्द-रूप में ही जानते हैं और हमारे लिए वे कोरे शब्द भर होते हैं । परंपरा / रूढियाँ, भय और प्रलोभन हमें कट्टर बनाकर उन वादों का मोहरा बना डालते हैं और हम कठपुतलियों की भाँति न केवल मनुष्य-जाति बल्कि समूचे संसार (common world) को विनष्ट करने को पराक्रम, परम कर्तव्य और पुण्य-कार्य तक मान बैठते हैं । ’हिंसा’ एक स्पष्ट तथ्य है और ’हिंसा’ की बर्बरता को समझाये जाने की आवश्यकता नहीं, किंतु हम ’अहिंसा’ जैसे नकारात्मक शब्द को गरिमामंडित कर उसे ’स्थापित’ करने और उसके आग्रह में अपने (और दूसरों के भी) प्राण तक बलि चढ़ा देते हैं । ’हिंसा’ करो / न करो का कर्म के रूप में अर्थ स्पष्ट है, जबकि ’अहिंसा’ करने / न करने को न तो समझा जा सकता है, न व्यवहार में उसका आचरण किया जाना संभव है ।*see foot-note.
प्रश्न है ’अर्थ’ और ’प्रयोजन’ के भेद को समझने का ।
सम्पूर्ण ’वेद-वाणी’ जो स्वर-रूप अर्थात् ध्वनि-रूप है, आधिदैविक सत्य है, जबकि उसका वैखरी-रूप / लिखित या लिपिबद्ध रूप आधिभौतिक सत्य होने से ’विचार’ मात्र है, और जो इसके आधिदैविक रूप से अनभिज्ञ है, उसके लिए वेद का न कोई अर्थ है न प्रयोजन । वेद इसका आग्रह भी नहीं करता । वेद केवल पात्रता के बारे में आग्रह करता है और अपनी पात्रता की परीक्षा हर मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, न कि कोई और ।
’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ विचार की निष्पत्ति है और ’स्मृति’ ही इस विचार को सातत्य देती है, जबकि स्मृति स्वयं विचारों का एक निरंतर परिवर्तनशील प्रवाह है जो विरूपित होता रहता है । ऐसी स्मृति किसी ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ को स्थिरता कैसे दे सकती है ।
कल्पना करें यदि हमारी स्मृति लुप्त हो जाए तो ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’का हमारे लिए क्या महत्त्व रह जाएगा?
’हिन्दुत्व’ भी इस्लाम, क्रिश्चिनियटी, कैथोलिसिज़्म या यहूदी ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ परंपरा जैसा ही एक विचार मात्र है और इसलिए सदा अपरिभाषित अनिश्चित अनुमान ही है । इसे ’राष्ट्रीयता’ का आधार बनाना इन विभिन्न धर्मों, परंपराओं आदि को सतत जीवित रखने जैसा है । क्योंकि तब इस विचार की उन सारे विचारों से टकराहट होगी ही, जिनका उद्भव और विस्तार भय अथवा प्रलोभन से हुआ है, न कि ’वास्तविकता’ के आग्रह से ।
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भौतिक वस्तुओं का इन्द्रियग्राह्य संवेदन और उस संवेदन का अनुकूल या प्रतिकूल होना स्वयंसिद्ध तथ्य है ।
किंतु यह अनुकूल अथवा प्रतिकूल होना भी काल के छः आयामों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न रूपों में पाया जाता है । ये छः आयाम / पक्ष हैं : ’चित्त’ की जागृत स्वप्न अथवा सुषुप्त अवस्था, और उन अवस्थाओं में भूत, भविष्य और वर्तमान का विचार । यह देखना / समझने का प्रयास संभवतः रोचक होगा कि ’चित्त’ की जागृत अथवा स्वप्न की स्थिति में ’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान का विचार ही उनकी तथ्यात्मकता तय करता है । यदि विचार नहीं तो इन सभी तत्वों (’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान व ’द्रव्य’ / ’ऊर्जा’) के बारे में कहने के लिए कोई पैमाना / criteria क्राइटेरिया ही कहाँ होता है? इस विचार की देह शब्द से बनी होती है और विभिन्न भाषाएँ तथा एक ही भाषा में बने विभिन्न विचारों की देह भी शब्दों / words ही से बनी होती है । इसलिए एक ही भाषा में एक ही विचार को किसी दूसरे विचार के रूप में किसी सीमा तक व्यक्त तो किया जा सकता है किंतु वह उसी अर्थ का संप्रेषण करे जो वक्ता कहना चाहता है, यह कभी संभव होता है, तो कभी-कभी संभव नहीं भी होता ।
भौतिक वस्तुओं के संबंध में यद्यपि विज्ञान तथ्यों को सुपरिभाषित करने का दावा करता है किन्तु उसके द्वारा स्थापित ’नियमों’ की सत्यता ’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान के विचार के अन्तर्गत सीमित होती है । और केवल ’जागृत’ अवस्था में उन्हीं के द्वारा इसकी परीक्षा की जा सकती है जो विज्ञान की मूल परिकल्पनाओं को आधारभूत सत्य स्वीकार करते हैं ।
इन नियमों का उपयोग प्रत्यक्षतः अनुभव किये जाने से हम उन्हें सार्वत्रिक और सार्वकालिक मान बैठते हैं, जबकि इसके लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं । दूसरी ओर उनकी सार्वत्रिकता या सार्वकालिकता का खंडित होना प्रत्येक मनुष्य के अनुभव में अनायास ही स्पष्ट है ।
किन्तु फिर भी जिस जगत में हम रहते हैं उसे औपचारिक रूप में सत्य समझने के विचार से ग्रस्त होने से हमारी बुद्धि यह नहीं समझ या देख पाती है कि ऐसा कोई सर्वसामान्य (common ) जगत कहीं है ही नहीं, जबकि हमारे ’संवेदन’ (consciousness) का तथ्य तो स्वयंसिद्ध निर्विवाद और अकाट्य सत्य है ।
’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ विचार-आश्रित निष्कर्ष हैं और इस रूप में विचार का भिन्न-भिन्न तरीके से प्रयोग (न कि उपयोग) करने से प्राप्त होने वाले विभिन्न विचार मात्र हैं । जो सदैव सीमित, एक सीमा तक परस्पर भिन्न और कभी कभी अत्यंत विपरीत भी हो सकते हैं । इन निष्कर्षों को हम ’विचार’ के आवरण से ढँककर विभिन्न ’वाद’ निर्मित करते हैं और यह भूल जाते हैं कि वे जिन तत्वों (’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ आदि) का आग्रह करते हैं उन्हें हम केवल शब्द-रूप में ही जानते हैं और हमारे लिए वे कोरे शब्द भर होते हैं । परंपरा / रूढियाँ, भय और प्रलोभन हमें कट्टर बनाकर उन वादों का मोहरा बना डालते हैं और हम कठपुतलियों की भाँति न केवल मनुष्य-जाति बल्कि समूचे संसार (common world) को विनष्ट करने को पराक्रम, परम कर्तव्य और पुण्य-कार्य तक मान बैठते हैं । ’हिंसा’ एक स्पष्ट तथ्य है और ’हिंसा’ की बर्बरता को समझाये जाने की आवश्यकता नहीं, किंतु हम ’अहिंसा’ जैसे नकारात्मक शब्द को गरिमामंडित कर उसे ’स्थापित’ करने और उसके आग्रह में अपने (और दूसरों के भी) प्राण तक बलि चढ़ा देते हैं । ’हिंसा’ करो / न करो का कर्म के रूप में अर्थ स्पष्ट है, जबकि ’अहिंसा’ करने / न करने को न तो समझा जा सकता है, न व्यवहार में उसका आचरण किया जाना संभव है ।*see foot-note.
प्रश्न है ’अर्थ’ और ’प्रयोजन’ के भेद को समझने का ।
सम्पूर्ण ’वेद-वाणी’ जो स्वर-रूप अर्थात् ध्वनि-रूप है, आधिदैविक सत्य है, जबकि उसका वैखरी-रूप / लिखित या लिपिबद्ध रूप आधिभौतिक सत्य होने से ’विचार’ मात्र है, और जो इसके आधिदैविक रूप से अनभिज्ञ है, उसके लिए वेद का न कोई अर्थ है न प्रयोजन । वेद इसका आग्रह भी नहीं करता । वेद केवल पात्रता के बारे में आग्रह करता है और अपनी पात्रता की परीक्षा हर मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, न कि कोई और ।
’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ विचार की निष्पत्ति है और ’स्मृति’ ही इस विचार को सातत्य देती है, जबकि स्मृति स्वयं विचारों का एक निरंतर परिवर्तनशील प्रवाह है जो विरूपित होता रहता है । ऐसी स्मृति किसी ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ को स्थिरता कैसे दे सकती है ।
कल्पना करें यदि हमारी स्मृति लुप्त हो जाए तो ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’का हमारे लिए क्या महत्त्व रह जाएगा?
’हिन्दुत्व’ भी इस्लाम, क्रिश्चिनियटी, कैथोलिसिज़्म या यहूदी ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ परंपरा जैसा ही एक विचार मात्र है और इसलिए सदा अपरिभाषित अनिश्चित अनुमान ही है । इसे ’राष्ट्रीयता’ का आधार बनाना इन विभिन्न धर्मों, परंपराओं आदि को सतत जीवित रखने जैसा है । क्योंकि तब इस विचार की उन सारे विचारों से टकराहट होगी ही, जिनका उद्भव और विस्तार भय अथवा प्रलोभन से हुआ है, न कि ’वास्तविकता’ के आग्रह से ।
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*La no-violencia se ha pregonado una y otra vez en política, en religión y por diferentes líderes. La no-violencia no es un hecho, tan sólo es una idea, una teoría, un montón de palabras; el hecho real es que somos violentos, es un hecho, es ‘lo que es’. Pero no somos capaces de comprender ‘lo que es’ y por eso, inventamos esa tontería que llamamos la no-violencia, lo cual genera un conflicto entre ‘lo que es’ y ‘lo que debería ser’. Mientras persigamos la no-violencia estaremos sembrando la semilla de la violencia; es algo tan obvio. Así pues, ¿podemos mirar juntos ‘lo que es’ sin evadirnos, sin ningún ideal, sin reprimirlo o escapar de ‘lo que es’?
Jiddu Krishnamurti "La llama de la atención"
Non-violence has been preached over and over again in politics, in religion and different leaders. Non-violence is not a fact, it's just an idea, a theory, a lot of words; the reality is that we are violent, it is a fact, it is ' what it is '. But we are not able to understand ' what is ' and that's why we invented this nonsense that we call the non-violence, which creates a conflict between ' what is ' and ' what should be '. While we pursue non-violence, we'll be sowing the seeds of violence; it is something so obvious. So, we can look together ' which is ' no escape, no ideal, no suppress or escape of ' what it is '?
Jiddu Krishnamurti "the flame of attention"
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Jiddu Krishnamurti "La llama de la atención"
Non-violence has been preached over and over again in politics, in religion and different leaders. Non-violence is not a fact, it's just an idea, a theory, a lot of words; the reality is that we are violent, it is a fact, it is ' what it is '. But we are not able to understand ' what is ' and that's why we invented this nonsense that we call the non-violence, which creates a conflict between ' what is ' and ' what should be '. While we pursue non-violence, we'll be sowing the seeds of violence; it is something so obvious. So, we can look together ' which is ' no escape, no ideal, no suppress or escape of ' what it is '?
Jiddu Krishnamurti "the flame of attention"
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