हिन्दुत्व : अर्थ और प्रयोजन
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’संगठित धर्म’ .... उन्होंने एक जुमला उछाला ।
’साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’ इस कला के प्रयोग में कुशल, दक्ष, निष्णात, पारंगत बुद्धिजीवी थे वे ।
ऐसा लगता था कि उनका हमला ’संगठित धर्म’ पर था न कि किसी ख़ास ’धर्म’ पर । और मैं मानता हूँ कि वे न सिर्फ़ चतुर बल्कि एक राजनीतिज्ञ भी थे ही ।
अगर आप किसी मुसलमान, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, या यहूदी से पूछें कि उनका ’धर्म’ / ’संप्रदाय’ कितना सुपरिभाषित है तो वे गर्व से, यहाँ तक कि आक्रामकता से कहेंगे :
"जी मेरा ’धर्म’ इतनी अच्छी तरह से हर चीज़ को स्पष्ट करता है कि कोई अन्य इसका मुक़ाबला तक नहीं कर सकता ।"
यहाँ तक कि नास्तिक-धर्म के पक्षधर भी यही कहेंगे, ग़ो कि उनका ’धर्म’ के उस स्वरूप (के अर्थ) से कोई प्रयोजन नहीं है जैसा कि उपरोक्त कहे गए ’धर्मों’ के पक्षधर अपने ’धर्म’ के बारे में दावा करते हैं ।
इसलिए ’हिन्दुत्व’ के अर्थ और प्रयोजन पर सतर्कता और सावधानी से ध्यान देना बहुत ज़रूरी है । क्योंकि भिन्न-भिन्न लोग ’हिन्दुत्व’ इस शब्द को जो अर्थ समझते हैं वह अलग अलग है । इस्लाम, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, या यहूदी ’धर्म’ या समुदाय / संप्रदाय / वर्ग के इस प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थ शायद ही कोई लगाता हो । और यदि कुछ मतभेद हों भी तो वे इतने सतही / औपचारिक होते हैं कि उन्हें वे समुदाय / संप्रदाय / वर्ग मिल-बैठकर सुलझा सकते हैं और सुलझा ही लेते हैं जब उन्हें ’हिन्दुत्व’ पर आक्रमण करना होता है ।
’हिन्दुत्व’ वह ’सिटिंग डक’ है, जिस पर वे फ़ायरिंग का अभ्यास कर सकते हैं ।
और उनकी दलील में दम है इससे आप (?) इनक़ार नहीं कर सकते । भले ही उनके आपसी मतभेद हों, तथ्य यह है कि उनमें से हर एक की एक ’क़िताब’ है, एक पैग़म्बर / मसीहा / उद्धारकर्ता है और एक ’ईश्वर’ भी है । वह पैग़म्बर / मसीहा / उद्धारकर्ता परस्पर एक हैं या भिन्न-भिन्न इस बारे में उनके अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं किंतु उसे भी वे अपने मठाधीशों के निर्देश के अनुसार अपनी बुद्धि में बिठाकर संतुष्ट हो जाते हैं ।
क्या हिंदुत्व की ऐसी कोई आसान सी परिभाषा है जिसे ’हिन्दुत्व’ के सभी अनुयायी स्वीकार कर सकें?
तथ्य यह है कि चूँकि ’हिन्दुत्व’ परिभाषित तक नहीं है तो "हिन्दुत्व क्या है?" यह भी अस्पष्ट है ।
इसलिए हर किसी के, चाहे वह स्वयं को हिन्दू मानता हो या न मानता हो, ’हिन्दुत्व’ शब्द के अपने-अपने अर्थ, और उस शब्द के प्रयोग के अपने-अपने प्रयोजन होते हैं । मज़े की बात है कि इस प्रकार हारता हिन्दुत्व ही है, और निरन्तर हारता जा रहा है, यह किसी को नज़र नहीं आता । जिन्हें नज़र आता है वे परम प्रसन्न हैं क्योंकि हिन्दुत्व शब्द के उनके अपने अर्थ और इसे प्रयोग में लाने के उनके अपने-अपने प्रयोजन उन लोगों से बिल्कुल भिन्न और विपरीत हैं, जो अपने-आपको गर्व से या सहजता से हिन्दू कहते हैं ।
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’संगठित धर्म’ .... उन्होंने एक जुमला उछाला ।
’साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’ इस कला के प्रयोग में कुशल, दक्ष, निष्णात, पारंगत बुद्धिजीवी थे वे ।
ऐसा लगता था कि उनका हमला ’संगठित धर्म’ पर था न कि किसी ख़ास ’धर्म’ पर । और मैं मानता हूँ कि वे न सिर्फ़ चतुर बल्कि एक राजनीतिज्ञ भी थे ही ।
अगर आप किसी मुसलमान, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, या यहूदी से पूछें कि उनका ’धर्म’ / ’संप्रदाय’ कितना सुपरिभाषित है तो वे गर्व से, यहाँ तक कि आक्रामकता से कहेंगे :
"जी मेरा ’धर्म’ इतनी अच्छी तरह से हर चीज़ को स्पष्ट करता है कि कोई अन्य इसका मुक़ाबला तक नहीं कर सकता ।"
यहाँ तक कि नास्तिक-धर्म के पक्षधर भी यही कहेंगे, ग़ो कि उनका ’धर्म’ के उस स्वरूप (के अर्थ) से कोई प्रयोजन नहीं है जैसा कि उपरोक्त कहे गए ’धर्मों’ के पक्षधर अपने ’धर्म’ के बारे में दावा करते हैं ।
इसलिए ’हिन्दुत्व’ के अर्थ और प्रयोजन पर सतर्कता और सावधानी से ध्यान देना बहुत ज़रूरी है । क्योंकि भिन्न-भिन्न लोग ’हिन्दुत्व’ इस शब्द को जो अर्थ समझते हैं वह अलग अलग है । इस्लाम, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, या यहूदी ’धर्म’ या समुदाय / संप्रदाय / वर्ग के इस प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थ शायद ही कोई लगाता हो । और यदि कुछ मतभेद हों भी तो वे इतने सतही / औपचारिक होते हैं कि उन्हें वे समुदाय / संप्रदाय / वर्ग मिल-बैठकर सुलझा सकते हैं और सुलझा ही लेते हैं जब उन्हें ’हिन्दुत्व’ पर आक्रमण करना होता है ।
’हिन्दुत्व’ वह ’सिटिंग डक’ है, जिस पर वे फ़ायरिंग का अभ्यास कर सकते हैं ।
और उनकी दलील में दम है इससे आप (?) इनक़ार नहीं कर सकते । भले ही उनके आपसी मतभेद हों, तथ्य यह है कि उनमें से हर एक की एक ’क़िताब’ है, एक पैग़म्बर / मसीहा / उद्धारकर्ता है और एक ’ईश्वर’ भी है । वह पैग़म्बर / मसीहा / उद्धारकर्ता परस्पर एक हैं या भिन्न-भिन्न इस बारे में उनके अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं किंतु उसे भी वे अपने मठाधीशों के निर्देश के अनुसार अपनी बुद्धि में बिठाकर संतुष्ट हो जाते हैं ।
क्या हिंदुत्व की ऐसी कोई आसान सी परिभाषा है जिसे ’हिन्दुत्व’ के सभी अनुयायी स्वीकार कर सकें?
तथ्य यह है कि चूँकि ’हिन्दुत्व’ परिभाषित तक नहीं है तो "हिन्दुत्व क्या है?" यह भी अस्पष्ट है ।
इसलिए हर किसी के, चाहे वह स्वयं को हिन्दू मानता हो या न मानता हो, ’हिन्दुत्व’ शब्द के अपने-अपने अर्थ, और उस शब्द के प्रयोग के अपने-अपने प्रयोजन होते हैं । मज़े की बात है कि इस प्रकार हारता हिन्दुत्व ही है, और निरन्तर हारता जा रहा है, यह किसी को नज़र नहीं आता । जिन्हें नज़र आता है वे परम प्रसन्न हैं क्योंकि हिन्दुत्व शब्द के उनके अपने अर्थ और इसे प्रयोग में लाने के उनके अपने-अपने प्रयोजन उन लोगों से बिल्कुल भिन्न और विपरीत हैं, जो अपने-आपको गर्व से या सहजता से हिन्दू कहते हैं ।
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