अर्थ और प्रयोजन - 5
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सनातन धर्म की अब तक की सर्वाधिक मान्य प्रामाणिक परिभाषाएँ हम केवल धम्मपदं और मनुस्मृतिः में पाते हैं । धम्मपदं के संबंध में पाश्चात्य इतिहासकारों ने हमारी स्मृति में एक भ्रम यह प्रश्न उठाकर उत्पन्न कर दिया है कि धम्मपदं पहले पालि में लिखा गया या संस्कृत में । दोनों भाषाओं की यत्किञ्चित् अच्छी पकड़ जिसे हो वह आसानी से देख सकता है कि विभिन्न बौद्ध (और / या पालि) विद्वानों ने (पालि भाषा में लिखित) धम्मपदं के जो भिन्न-भिन्न रूप रचे, वे सभी मूल संस्कृत ग्रन्थ के ही पालि संस्करण मात्र थे । पालि का व्याकरण जहाँ अन्य सभी भाषाओं के व्याकरण की भाँति ’भाषा के प्रचलन और व्यवहार पर स्थापित नियमों’ का संग्रह है, वहीं वेद का व्याकरण मूलतः वेदाङ्ग है जो भाषा की उत्पत्ति में ’क्यों’ पर अधिक ध्यान देता है । और इसका मूल एवं सार-रूप दिशा-निर्देश हमें तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षा-वल्ली में ही प्राप्त हो जाता है ।
शीक्षा वल्ली
(द्वितीय अनुवाक)
शीक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः स्वरः मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्त शीक्षाध्यायः ।
(शिक्षा शिक्ष्यतेऽनयेति वर्णाद्युच्चारणलक्षणम् । ... -शांकर-भाष्य)
जैसा कि स्कन्द-पुराण में और अन्यत्र भी स्पष्ट किया गया है कि ’देवता’ का स्वरूप ’ध्वन्यात्मक’ होता है, अर्थात् ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन और उच्चारण से उस वर्ण-समूह के अधिष्ठाता ’देवता’ का आवाहन किया जा सकता है, मूल वैदिक देवताओं से संबंधित समस्त वेद-मंत्रों का आविष्कार ऋषियों ने किया । चूँकि वेद नित्य-वाणी है अतः काल-स्थान के परिवर्तन से यह वाणी-स्वरूप वेद अप्रभावित रहता है । जैसे विज्ञान के नियम काल-स्थान से प्रभावित नहीं होते वैसे ही वेद (और वेद-वाणी) काल-स्थान से निरपेक्ष सत्य है । किन्तु जहाँ एक ओर तथाकथित विज्ञान हमारी ’जागृत-अवस्था’ में ही आविष्कृत और अनुभव किया जाता है और हमारी दूसरी अवस्थाओं (जैसे स्वप्न या सुषुप्ति) में उन वैज्ञानिक मान्यताओं की प्रामाणिकता पर प्रश्नवाचक चिह्न लग जाता है, वहीं वेदरूपी सत्य त्रिकालनिरपेक्ष होने से काल-स्थान से बाधित नहीं होता । पुनः, वैज्ञानिक सत्य भी तभी कार्योपयोगी होता है जब उसका विचार किया जाता है । ऐसे असंख्य वैज्ञानिक सत्य हैं जो प्रसंग के सन्दर्भ में विचार किए जाने पर ही व्यावहारिक होते हैं । जबकि वैदिक / सनातन-धर्म का सत्य काल-स्थान (और व्यक्ति-विशेष) की अपेक्षा से स्वतन्त्र अधिष्ठान है ।
इस प्रकार हम सरलता से समझ सकते हैं कि भगवान् बुद्ध ने अपनी शिक्षाएँ किसी भी भाषा में दी हों, इन्हें सर्वप्रथम संस्कृत धम्मपदम् के रूप में ही लिखा गया । पालि में या सिंहली, बर्मी और तिब्बती भाषाओं में इनके अनुवाद बाद में लिखे गए । यह इसलिए भी स्पष्ट है कि पालि या सिंहली, बर्मी और तिब्बती के संस्कृतनिष्ठ शब्द सीधे संस्कृत धम्मपदम् से उठा लिए गए हैं और ’प्रचलन’ के अनुसार उनके अपभ्रंश रूप हमें उन विभिन्न भाषाओं में मिलते हैं । माइक्रोसॉफ़्ट द्वारा प्रदत्त संस्कृत धम्मपदं की प्रस्तावना में भी दबे स्वरों में यह प्रश्न उठाया गया है, यहाँ तक कि इस ओर संकेत भी किया गया है कि धम्मपदं सर्वप्रथम संस्कृत में ही लिखा / लिपिबद्ध किया गया ।
वेद के विधान को ही सरल भाषा में 'पुराण' के रूप में व्यक्त किया गया । 'पुराण' लौकिक व्यवहार के लिए दी गयी शिक्षा है ।
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सनातन धर्म की अब तक की सर्वाधिक मान्य प्रामाणिक परिभाषाएँ हम केवल धम्मपदं और मनुस्मृतिः में पाते हैं । धम्मपदं के संबंध में पाश्चात्य इतिहासकारों ने हमारी स्मृति में एक भ्रम यह प्रश्न उठाकर उत्पन्न कर दिया है कि धम्मपदं पहले पालि में लिखा गया या संस्कृत में । दोनों भाषाओं की यत्किञ्चित् अच्छी पकड़ जिसे हो वह आसानी से देख सकता है कि विभिन्न बौद्ध (और / या पालि) विद्वानों ने (पालि भाषा में लिखित) धम्मपदं के जो भिन्न-भिन्न रूप रचे, वे सभी मूल संस्कृत ग्रन्थ के ही पालि संस्करण मात्र थे । पालि का व्याकरण जहाँ अन्य सभी भाषाओं के व्याकरण की भाँति ’भाषा के प्रचलन और व्यवहार पर स्थापित नियमों’ का संग्रह है, वहीं वेद का व्याकरण मूलतः वेदाङ्ग है जो भाषा की उत्पत्ति में ’क्यों’ पर अधिक ध्यान देता है । और इसका मूल एवं सार-रूप दिशा-निर्देश हमें तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षा-वल्ली में ही प्राप्त हो जाता है ।
शीक्षा वल्ली
(द्वितीय अनुवाक)
शीक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः स्वरः मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्त शीक्षाध्यायः ।
(शिक्षा शिक्ष्यतेऽनयेति वर्णाद्युच्चारणलक्षणम् । ... -शांकर-भाष्य)
जैसा कि स्कन्द-पुराण में और अन्यत्र भी स्पष्ट किया गया है कि ’देवता’ का स्वरूप ’ध्वन्यात्मक’ होता है, अर्थात् ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन और उच्चारण से उस वर्ण-समूह के अधिष्ठाता ’देवता’ का आवाहन किया जा सकता है, मूल वैदिक देवताओं से संबंधित समस्त वेद-मंत्रों का आविष्कार ऋषियों ने किया । चूँकि वेद नित्य-वाणी है अतः काल-स्थान के परिवर्तन से यह वाणी-स्वरूप वेद अप्रभावित रहता है । जैसे विज्ञान के नियम काल-स्थान से प्रभावित नहीं होते वैसे ही वेद (और वेद-वाणी) काल-स्थान से निरपेक्ष सत्य है । किन्तु जहाँ एक ओर तथाकथित विज्ञान हमारी ’जागृत-अवस्था’ में ही आविष्कृत और अनुभव किया जाता है और हमारी दूसरी अवस्थाओं (जैसे स्वप्न या सुषुप्ति) में उन वैज्ञानिक मान्यताओं की प्रामाणिकता पर प्रश्नवाचक चिह्न लग जाता है, वहीं वेदरूपी सत्य त्रिकालनिरपेक्ष होने से काल-स्थान से बाधित नहीं होता । पुनः, वैज्ञानिक सत्य भी तभी कार्योपयोगी होता है जब उसका विचार किया जाता है । ऐसे असंख्य वैज्ञानिक सत्य हैं जो प्रसंग के सन्दर्भ में विचार किए जाने पर ही व्यावहारिक होते हैं । जबकि वैदिक / सनातन-धर्म का सत्य काल-स्थान (और व्यक्ति-विशेष) की अपेक्षा से स्वतन्त्र अधिष्ठान है ।
इस प्रकार हम सरलता से समझ सकते हैं कि भगवान् बुद्ध ने अपनी शिक्षाएँ किसी भी भाषा में दी हों, इन्हें सर्वप्रथम संस्कृत धम्मपदम् के रूप में ही लिखा गया । पालि में या सिंहली, बर्मी और तिब्बती भाषाओं में इनके अनुवाद बाद में लिखे गए । यह इसलिए भी स्पष्ट है कि पालि या सिंहली, बर्मी और तिब्बती के संस्कृतनिष्ठ शब्द सीधे संस्कृत धम्मपदम् से उठा लिए गए हैं और ’प्रचलन’ के अनुसार उनके अपभ्रंश रूप हमें उन विभिन्न भाषाओं में मिलते हैं । माइक्रोसॉफ़्ट द्वारा प्रदत्त संस्कृत धम्मपदं की प्रस्तावना में भी दबे स्वरों में यह प्रश्न उठाया गया है, यहाँ तक कि इस ओर संकेत भी किया गया है कि धम्मपदं सर्वप्रथम संस्कृत में ही लिखा / लिपिबद्ध किया गया ।
वेद के विधान को ही सरल भाषा में 'पुराण' के रूप में व्यक्त किया गया । 'पुराण' लौकिक व्यवहार के लिए दी गयी शिक्षा है ।
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