Sunday, 29 May 2016

वेताल-कथा-1.

नई वेताल-कथाएँ
वेताल-कथा-1.
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
कृष्णपक्ष की रात्रि में जब क्षीणप्राय चन्द्रमा अस्त हो चुका था, दो घड़ी बीतते ही वह श्मशान में जा पहुँचा । चिता पर स्थित अधजले शव को उसने कंधे पर रखा और जंगली भूमि पर से, जहाँ कहीं रूखी घास, कँटीली झाड़ियाँ और नुकीले कठोर कंकड़ पत्थर थे, चलता हुआ गुरु के स्थान की ओर चल पड़ा । वहाँ से गुरु के स्थान तक जाने में घड़ी भर का समय लगता था ।
अन्धेरे में चलते हुए उसे बहुत सावधान होना पड़ता था क्योंकि जमीन पर अनेक ज़हरीले सर्प, बिच्छू और ऐसे दूसरे जीव थे जो रात्रि में शिकार के लिए निकलते थे, तो आकाश और वायु-मार्ग से जानेवाले अनेक उलूक, चर्मगात्र (चमगादड़), और अदृश्य निशाचर भी थे । उन अदृश्य निशाचरों से, या धरती के इन जीवों से उसे कदापि भय न था क्योंकि वह जानता था कि मृत्यु अपने निर्धारित समय से पहले या बाद में नहीं होती । दूसरी ओर उसके पास गुरु का दिया तद्बीज (ताबीज) भी था जिससे उसे इस विषय के बारे में सोचना ही नहीं था ।
कभी-कभी कोई सिद्ध-पुरुष या दिव्य आत्माएँ आकाश-मार्ग से जाते हुए अपने पीछे द्युति की एक किरण-रेखा छोड़ती जाती थीं, तो कभी कुछ तान्त्रिक शक्तियाँ, कुछ अतृप्त आत्माएँ वैसे ही गिरकर भूमि पर लौट जातीं जैसे योगभ्रष्ट योगी । इन दोनों के बीच भी कितने ही प्रकार के देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर आदि थे और चूँकि यह महाश्मशान चिरकाल से भगवान् शिव की रमण-भूमि रहा है इसलिए भी उन सब शिव-भक्तों का यहाँ आवागमन होना स्वाभाविक था ।
"राजन्! तुम संकल्प के धनी हो, किन्तु संकल्प ही सिद्धि का एकमात्र साधन नहीं होता । कुछ दूसरी ऐसी बाधाएँ होती हैं जिनसे संकल्प टूट जाता है । तुम्हारे श्रम के विस्मरण और मनोरंजन के लिए मैं तुम्हें यह कथा सुनाता हूँ । ध्यान देकर सुनना ..."
एक बार भगवान् शिव अपने आसन पर विराजमान थे, माता पार्वती, भगवान् गणेश और भगवान् स्कन्द भी उनके समीप ही थे । मयूर, सर्प, मूषक, वृषभ और सिंह परस्पर निर्भय होकर आनन्दपूर्वक बैठे हुए थे ।
तभी देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे ।
भगवान् की वन्दना करने के उपरान्त जब भगवान् ने उनकी कुशल-क्षेम पूछी तो वे बोले :
"भगवन् ! मेरे मन में एक जिज्ञासा है जिसे आप ही शान्त कर सकते हैं । ऐसा कहा जाता है कि अपनी स्तुति देवताओं को भी प्रिय होती है ! भगवान् नारायण, माता लक्ष्मी, स्वयं भगवान् ब्रह्मा भी स्तुति से संतुष्ट होकर वरदान देते हैं । आप तो औढर-दानी ही हैं ।
किन्तु इस सत्य को जाननेवाले कुछ लोग इसका दुरुपयोग अपने कुत्सित और कुटिल प्रयोजनों की प्राप्ति के लिए भी करते हैं, जिनसे संसार का प्रायः अहित ही होता है और संसार पर घोर संकट भी आ खड़े होते हैं । भस्मासुर का उदाहरण तो आपके सामने ही है । यह जानते हुए भी देवता अपनी आराधना करनेवालों को वरदान क्यों दे देते हैं?"
"हे राजन् ! यदि तुम जानते हो तो मेरे इस प्रश्न का सही-सही उत्तर दो । यदि जानते हुए भी तुम इसका उत्तर न दोगे तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा ।"
तब राजा विक्रम ने कहा :
"यह सच है कि अपनी स्तुति से देवता भी प्रसन्न होते हैं फिर हम मनुष्यों की क्या बिसात! यह भी सच है कि स्तुति या प्रशंसा सत्य या असत्य भी हो सकती है और अपने शुभ-अशुभ प्रयोजन की सिद्धि के लिए कुछ लोग इसका दुरुपयोग भी करते हैं । देवता और ज्ञानीजन, ऋषि-महर्षि भी इस तथ्य से अवगत होते हैं, किन्तु जहाँ देवता भक्ति के प्रभाव में वरदान देने के लिए विवश होते हैं वहीं ऋषि-महर्षि स्तुति-निन्दा से अलिप्त होने के कारण, और कर्तृत्व-भाव तथा संकल्प आदि से रहित होने से अपनी स्तुति, प्रशंसा या निन्दा से अप्रभावित रहते हैं । भगवान् शिव और नारायण, लक्ष्मी और अन्य देवता सृष्टि के विधान का पालन करते हुए वरदान दे देते हैं । किन्तु सामान्य मनुष्य प्रायः मोह-बुद्धि के कारण अपनी स्तुति, सच्ची-झूठी प्रशंसा से धोका खा जाता है और स्वयं अपने लिए भी विपत्ति खड़ी कर लेता है । श्रेष्ठ साधक इस विषय में सतर्क रहता है । जहाँ भगवान् शिव का कोई शत्रु नहीं है, वहीं भगवान् नारायण का भी कोई शत्रु नहीं है किन्तु कुछ लोग उनकी भक्ति शत्रु-भाव से करते हैं, और इस प्रकार जाने-अनजाने ही उनका स्मरण करते हैं ।"
राजा का मौन भंग होते ही उसके इस उत्तर को सुनकर शव में स्थित वेताल शव को छोड़कर पुनः अपने उस वृक्ष पर लौट आया, जहाँ से वह उस मृत शव में प्रविष्ट हुआ था ।
(कल्पित)
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