बेताल-पच्चीसी और अपरोक्षानुभूतिः
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बेताल-पच्चीसी या सिंहासन-बत्तीसी शायद पंचतन्त्र से अधिक रोचक और गूढ हैं ।
बचपन में जब इन्हें पढ़ा करता था तो मेरी रुचि और उत्सुकता सिर्फ़ बेताल या पुत्तलिका के प्रश्न और राजा (विक्रम या भोज) के द्वारा दिए जानेवाले उसके उत्तर को सुनने-पढ़ने तक सीमित रहा करती थी । जब मैं कुछ बड़ा हुआ अर्थात् कॉलेज में पढ़ने लगा तो मुझे ’यक्ष-प्रश्न’ अधिक गंभीर और विचारणीय लगने लगा था ।
कॉलेज की शिक्षा पूर्ण होते-होते ’विचार’ के वर्तुल से मेरा मोहभंग हुआ और ’विचार’ तथा ’विचार’ का महत्व और उनका परस्पर भेद स्पष्ट हुआ ।
मुझे लगता है कि भगवान् श्री रमण की शिक्षाओं से इसका प्रारंभ हुआ । उनके ’आत्म-विचार’ के उपदेश को समझने में मुझे कुछ समय लगा और सर्वाधिक आश्चर्यजनक और हास्यास्पद बात यह भी थी कि इस बीच ’विचार’ (वृत्ति) और ’विचार’ (अनुसंधान) इन दोनों गतिविधियों के लिए इस एक ही शब्द के प्रयोग से जो भ्रम उत्पन्न होता है, उस भ्रम तक से मैं अनभिज्ञ था ।
संक्षेप में,
विचार अर्थात् ’विचरण’ का एक अर्थ होता है चलना, घूमना, भटकना जो सही / गलत दिशा में हो सकता है । ’वृत्ति’ इस प्रकार के विचार का दूसरा नाम है । पातञ्जलि ने योग-दर्शन में इसी वृत्ति के निरोध को ’योग’ कहा है । तात्पर्य है चित्त का वृत्ति-मात्र से रहित होना । किन्तु इसका अर्थ निद्रा / स्मृति नहीं है, यह भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया है । किन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थ को इसी प्रयोजन (वृत्ति-निरोध) तक सीमित रखा है । संभवतः इसलिए कि अपरिपक्व साधक इस ध्येय तक पहुँचने के बाद इतना परिपक्व हो सके कि ’किसकी वृत्ति?’ यह प्रश्न उसकी बुद्धि में उत्पन्न हो । पर्यायतः ’मैं कौन?’ यह जिज्ञासा उसमें जागृत हो उठे ।
यह ’मैं कौन?’ का प्रश्न वृत्ति / वैचारिक प्रक्रिया से भिन्न एक ऐसा मोड़ है जो ’स्वरूप’ / ’आत्मा’ के तत्व को जानने की अभीप्सा का व्यक्त रूप है । तमिल भाषा में ’नान् यार्’ / मराठी भाषा में ’मी कोण?’, संस्कृत में ’कोऽहम्?’, गुजराती में ’हुँ कोण?’ इन प्रश्नवाचक वाक्यों में ’हूँ’ का पुट नहीं होता । इसे ही हिंदी में ’मैं कौन?’ के रूप में व्यक्त किया जाना अधिक उपयुक्त होगा । यह आत्म-जिज्ञासा है न कि वैचारिक कोलाहल । जब हमें किसी ऐसी वस्तु / व्यक्ति के स्वरूप के बारे में जानना होता है जिससे हम अनभिज्ञ हैं, तो हम ’क्या’ / ’कौन’ शब्द का प्रयोग करते हैं । इस ’अनुसंधान’ को भी वेदान्त में ’विचार’ कहा जाता है । आदि शङ्कराचार्य के
शब्दों में ’विचारो सोऽयमीदृशः’ (अपरोक्षानुभूतिः श्लोक 10 से 16) ।
रोचक बात यह है कि ’विचार’ शब्द का प्रयोग मराठी भाषा में भी प्रायः इस अर्थ में भी किया जाता है ।
<मला / त्याला / तिला / तुला / त्यांना विचार! > इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद होगा :
<मुझसे / उससे (पुँ) / उससे (स्त्री.) / तुमसे (स्वयं से) / उनसे पूछो!>
इसी प्रकार मलयालम भाषा में ’पूछने’ के लिए ’चोदिक्कणम्’ या ’शोधिक्कणम्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । जिसकी व्युत्पत्ति संभवतः संस्कृत धातु ’चुद्’ > चोदयति > प्रेरणा देना या ’शुध्’ > शुध्यति / शोधयति में देखी जा सकती है । गायत्री-मंत्र में यही धातु ’प्रचोदयात्’ के रूप में देखी जा सकती है ।
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अब हम लौटें बेताल-पच्चीसी की ओर !
’राजा’ विक्रमार्क हमारी आत्मारूपी हमारा वास्तविक तत्व है, ’देह’ वह शव है जिसे हम ’अज्ञानवश’ ढोते रहते हैं, ’मन’ ’शव’ में स्थित बेताल है जो हमें मिथ्या प्रश्नों में भ्रमित करता रहता है । ’गुरु’ वह शिक्षक है जिसकी शरण में हम अपनी ’सिद्धि’/ मुक्ति के लिए जाते हैं । यदि हम जानते हुए भी मन के वास्तविक प्रश्नों का ठीक उत्तर नहीं देते तो हमारे सिर (बुद्धि) के टुकड़े-टुकड़े हो सकते / हो जाते हैं । और वास्तविक प्रश्न का संतोषजनक उत्तर दिए जाते ही 'शव' / देह में स्थित 'बेताल' / मन शव को छोड़कर चला जाता है ।
संक्षेप में, अनेक बार इस बेताल-कथा की यह व्याख्या मुझे संतोषजनक लगी ।
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बेताल-पच्चीसी या सिंहासन-बत्तीसी शायद पंचतन्त्र से अधिक रोचक और गूढ हैं ।
बचपन में जब इन्हें पढ़ा करता था तो मेरी रुचि और उत्सुकता सिर्फ़ बेताल या पुत्तलिका के प्रश्न और राजा (विक्रम या भोज) के द्वारा दिए जानेवाले उसके उत्तर को सुनने-पढ़ने तक सीमित रहा करती थी । जब मैं कुछ बड़ा हुआ अर्थात् कॉलेज में पढ़ने लगा तो मुझे ’यक्ष-प्रश्न’ अधिक गंभीर और विचारणीय लगने लगा था ।
कॉलेज की शिक्षा पूर्ण होते-होते ’विचार’ के वर्तुल से मेरा मोहभंग हुआ और ’विचार’ तथा ’विचार’ का महत्व और उनका परस्पर भेद स्पष्ट हुआ ।
मुझे लगता है कि भगवान् श्री रमण की शिक्षाओं से इसका प्रारंभ हुआ । उनके ’आत्म-विचार’ के उपदेश को समझने में मुझे कुछ समय लगा और सर्वाधिक आश्चर्यजनक और हास्यास्पद बात यह भी थी कि इस बीच ’विचार’ (वृत्ति) और ’विचार’ (अनुसंधान) इन दोनों गतिविधियों के लिए इस एक ही शब्द के प्रयोग से जो भ्रम उत्पन्न होता है, उस भ्रम तक से मैं अनभिज्ञ था ।
संक्षेप में,
विचार अर्थात् ’विचरण’ का एक अर्थ होता है चलना, घूमना, भटकना जो सही / गलत दिशा में हो सकता है । ’वृत्ति’ इस प्रकार के विचार का दूसरा नाम है । पातञ्जलि ने योग-दर्शन में इसी वृत्ति के निरोध को ’योग’ कहा है । तात्पर्य है चित्त का वृत्ति-मात्र से रहित होना । किन्तु इसका अर्थ निद्रा / स्मृति नहीं है, यह भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया है । किन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थ को इसी प्रयोजन (वृत्ति-निरोध) तक सीमित रखा है । संभवतः इसलिए कि अपरिपक्व साधक इस ध्येय तक पहुँचने के बाद इतना परिपक्व हो सके कि ’किसकी वृत्ति?’ यह प्रश्न उसकी बुद्धि में उत्पन्न हो । पर्यायतः ’मैं कौन?’ यह जिज्ञासा उसमें जागृत हो उठे ।
यह ’मैं कौन?’ का प्रश्न वृत्ति / वैचारिक प्रक्रिया से भिन्न एक ऐसा मोड़ है जो ’स्वरूप’ / ’आत्मा’ के तत्व को जानने की अभीप्सा का व्यक्त रूप है । तमिल भाषा में ’नान् यार्’ / मराठी भाषा में ’मी कोण?’, संस्कृत में ’कोऽहम्?’, गुजराती में ’हुँ कोण?’ इन प्रश्नवाचक वाक्यों में ’हूँ’ का पुट नहीं होता । इसे ही हिंदी में ’मैं कौन?’ के रूप में व्यक्त किया जाना अधिक उपयुक्त होगा । यह आत्म-जिज्ञासा है न कि वैचारिक कोलाहल । जब हमें किसी ऐसी वस्तु / व्यक्ति के स्वरूप के बारे में जानना होता है जिससे हम अनभिज्ञ हैं, तो हम ’क्या’ / ’कौन’ शब्द का प्रयोग करते हैं । इस ’अनुसंधान’ को भी वेदान्त में ’विचार’ कहा जाता है । आदि शङ्कराचार्य के
शब्दों में ’विचारो सोऽयमीदृशः’ (अपरोक्षानुभूतिः श्लोक 10 से 16) ।
रोचक बात यह है कि ’विचार’ शब्द का प्रयोग मराठी भाषा में भी प्रायः इस अर्थ में भी किया जाता है ।
<मला / त्याला / तिला / तुला / त्यांना विचार! > इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद होगा :
<मुझसे / उससे (पुँ) / उससे (स्त्री.) / तुमसे (स्वयं से) / उनसे पूछो!>
इसी प्रकार मलयालम भाषा में ’पूछने’ के लिए ’चोदिक्कणम्’ या ’शोधिक्कणम्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । जिसकी व्युत्पत्ति संभवतः संस्कृत धातु ’चुद्’ > चोदयति > प्रेरणा देना या ’शुध्’ > शुध्यति / शोधयति में देखी जा सकती है । गायत्री-मंत्र में यही धातु ’प्रचोदयात्’ के रूप में देखी जा सकती है ।
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अब हम लौटें बेताल-पच्चीसी की ओर !
’राजा’ विक्रमार्क हमारी आत्मारूपी हमारा वास्तविक तत्व है, ’देह’ वह शव है जिसे हम ’अज्ञानवश’ ढोते रहते हैं, ’मन’ ’शव’ में स्थित बेताल है जो हमें मिथ्या प्रश्नों में भ्रमित करता रहता है । ’गुरु’ वह शिक्षक है जिसकी शरण में हम अपनी ’सिद्धि’/ मुक्ति के लिए जाते हैं । यदि हम जानते हुए भी मन के वास्तविक प्रश्नों का ठीक उत्तर नहीं देते तो हमारे सिर (बुद्धि) के टुकड़े-टुकड़े हो सकते / हो जाते हैं । और वास्तविक प्रश्न का संतोषजनक उत्तर दिए जाते ही 'शव' / देह में स्थित 'बेताल' / मन शव को छोड़कर चला जाता है ।
संक्षेप में, अनेक बार इस बेताल-कथा की यह व्याख्या मुझे संतोषजनक लगी ।
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