Monday, 9 May 2016

सोचने के लिए

सोचने के लिए
क्या मनुष्य सोचने या न सोचने के लिए स्वतन्त्र है? इसके लिए क्या वह विवश, बाध्य, सक्षम, अक्षम नहीं है ? सोचना या न सोचना, क्या इच्छा या जरूरत से ही प्रेरित नहीं होता? और अनेक बार, क्या कोई अपेक्षतया प्रबल इच्छा अनजाने और अनायास, अकस्मात् और एकाएक ही किसी दूसरी इच्छा या जरूरत को ठेलकर परे नहीं हटा देती? और स्वयं उससे अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाती है? तब हमारे तथाकथित ध्येयों, आदर्शों, नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों, कर्तव्यों और दायित्वों की परिणति किस रूप में फलित होती है? यह ’इच्छा’ या ’जरूरत’ हममें कोरी भावुकता या गहरी संवेदनशीलता (या उसके अभाव) के कारण, या किसी विचार, स्मृति या भावना के निरंतर पोषण के फलस्वरूप भी तो जागृत हो जाया करती है ।
क्या मनुष्य ’कर्म’ करने या न करने के लिए स्वतन्त्र है? इसके लिए क्या वह विवश, बाध्य, सक्षम, अक्षम नहीं है ? ’कर्म’ करना या न करना, क्या इच्छा या जरूरत से ही प्रेरित नहीं होता? और अनेक बार, क्या कोई अपेक्षतया प्रबल इच्छा अनजाने और अनायास, अकस्मात् और एकाएक ही किसी दूसरी इच्छा या जरूरत को ठेलकर परे नहीं हटा देती? और स्वयं उससे अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाती है? तब हमारे तथाकथित ध्येयों, आदर्शों, नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों, कर्तव्यों और दायित्वों की परिणति किस रूप में फलित होती है? यह ’इच्छा’ या ’जरूरत’ हममें कोरी भावुकता या गहरी संवेदनशीलता (या उसके अभाव) के कारण, या किसी विचार, स्मृति या भावना के निरंतर पोषण के फलस्वरूप भी तो जागृत हो जाया करती है ।
जब हममें किसी ’कर्म’ का महत्व / औचित्य प्रतीत होता है तब भी परिस्थितियाँ ही तय करती हैं कि वह ’कर्म’ हमारे माध्यम से घटित होगा कि नहीं । घटना के रूप में किसी पूर्ण हो चुके कर्म के संबंध में हम शायद यह दावा कर सकते हैं कि उसे मैंने किया या नहीं किया, किंतु किसी भावी कर्म के संबंध में इसका केवल अनुमान भर कर सकते हैं । सबसे बड़ी भूल हमसे यह होती है कि यद्यपि हममें तमाम इच्छाएँ, विचार, संकल्प उठते रहते हैं और यह भी स्पष्ट है कि वे ’हममें’ उठते (दृश्य होते हुए) और पुनः विलीन (अदृश्य होते हुए) प्रतीत होते हैं, पुनः यह भी इतना ही स्पष्ट है कि जिसे हम ’मैं’ की तरह स्वीकार करते हैं वह तत्व इस पूरे घटनाक्रम में सुस्थिर और अपरिवर्तित रहता है, यदि ऐसा न होता तो विचारों, इच्छाओं, संकल्पों की भिन्नता, अन्तर्द्वन्द्व / विरोधाभासों का हमें पता ही न चलता । हम उन विचारों, इच्छाओं, संकल्पों पर ’अपने होने’ की मुहर केवल इसीलिए लगाते हैं क्योंकि जिस सुस्थिर और अपरिवर्तित तत्व की पृष्ठभूमि में ये आते-जाते रहते हैं उस सुस्थिर और अपरिवर्तित तत्व को जाननेवाला उससे अलग कोई / कुछ कहीं नहीं है, न हो सकता है । किन्तु व्यावहारिक धरातल पर स्मृति जो पहचान है, और पहचान जो स्मृति है, ’व्यक्ति’ रूप में हमारी एक कृत्रिम कामचलाऊ प्रतिमा गढ़ती है और शरीर, मन द्वारा किए जानेवाले सारे कर्मों के लिए उस प्रतिमा को कर्ता के रूप में प्रस्तुत करती है । यह सम्पूर्ण नाटक मस्तिष्क में घटित होता है और उस कर्ता (की प्रतिमा) को ’मैं’ समझ लिया जाता है । इस प्रकार के ’मैं’ की औपचारिक सत्ता व्यावहारिक रूप में भी अपना महत्व रखती है, किन्तु वह सत्य नहीं है ।
वस्तुतः ’कर्म’ का विचार ही मौलिक भ्रम है । जैसे हम भौतिक जगत् को जानते हैं उस प्रकार से हम भविष्य / अतीत को नहीं जानते । ’कर्म’, भविष्य / अतीत, ’मैं’ आदि का विचार भर हममें पैदा होता है और हम उसे किसे ठोस वस्तु की तरह ग्रहण कर बैठते हैं । ’मैं’ जो विचार-रूप में हममें निरंतर उठता और विलीन होता है, हमारी वास्तविकता नहीं है । हमारी वास्तविकता तो सुस्थिर और अपरिवर्तित तत्व की वह पृष्ठभूमि है जिसे ’जानना’ तो दूर की बात, कोई विचार छू तक नहीं सकता ।
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इस खोज को दो दिशाओं में आगे ले जाया जा सकता है । पहली वैयक्तिक, -व्यक्ति-केन्द्रित, उस 'व्यक्ति' के रूप में स्वयं को बुद्धि के माध्यम से स्वतंत्र सत्ता मान्य करते हुए, जो संसार में, संसार से बँधा फिर भी अपने आपके एक सीमा तक स्वतंत्र होने के भ्रम का शिकार है । अपनी 'बुद्धि' पर उसकी निर्भरता इतनी दृढ है कि वह इस सरल से तथ्य को नहीं देख पाता कि उसकी बुद्धि उसे लगातार भिन्न भिन्न दिशाओं में धकेलती रहती है और केवल तभी निर्दोष / त्रुटिरहित होती है जब उसे लगता है कि वह भ्रमित / confused है ।  ऐसे ही किसी क्षण उसे इस सत्य का आभास सकता है कि भ्रम का शिकार बुद्धि ही होती है, न कि 'वह' स्वयं ! इस 'स्वयं' को बुद्धि के माध्यम से नहीं जाना जा सकता जबकि 'स्वयं' बुद्धि को बिना किसी माध्यम के अनायास जानता है, जैसे कोई  कहता है : 'मैं भ्रमित हूँ ।' और जब कोई कहता है 'मेरी बुद्धि भ्रमित हो गई थी ।' इन दोनों स्थितियों में इतना ही अंतर है कि पहली स्थिति में बुद्धि को स्वामी और 'स्वयं' को दास मान लिया जाता है, जबकि दूसरी स्थिति में 'स्वयं' को स्वामी और बुद्धि को दास ।
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उपनिषद में इसे बहुत अच्छी तरह से कहा है :
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ४
यन्मनसा न मनुते  येनाहुर्मनो मतम्  ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६
यच्छ्रोत्रेण  न श्रुणोति  येन श्रोत्रमिदम्  श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७
यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः  प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥  ८
(केनोपनिषद्  खण्ड १, ...) 
अर्थ : 
जिसे वाणी से कहा जाता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा से वाणी कहती है । ४
जिसका चिंतन मन द्वारा किया जा सकता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से मन चिंतन कर पाता है । ५
जिसे नेत्रों से देखा जाता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से नेत्र देख पाते हैं । ६
जिसे कानों से सुना जाता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से कान सुन पाते हैं । ७
जिसे प्राण संचालित करते हैं उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से प्राणों का संचालन होता है । ८
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आधिभौतिक अर्थात् शुद्ध भौतिक (स्ट्रिक्टली मटेरियल) और आध्यात्मिक (स्ट्रिक्टली स्पिरिचुअल) के मध्य एक तल होता है आधिदैविक (स्ट्रिक्टली स्पिरिचुअलिस्टिक )। 'मन' उसी तल का व्यक्त रूप है । प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि अलग समय पर अलग अलग प्रकार की होती है, जो एक ओर उसके संस्कारों का उस समय कुल प्रभाव होती है तो दूसरी ओर उसके 'मन' के उस तत्व / देवता से प्रेरित होती है जो उसका अधिष्ठाता देवता होता है । स्कन्दपुराण में वर्णित ३३ प्रधान देवता ही मनुष्य की बुद्धि को प्रेरित और संचालित करते हैं । इन ३३ देवताओं का स्वरूप मंत्रमय, आधिभौतिक (मिट्टी, धातु पत्थर आदि की प्रतिमा, नदी, पर्वत, वृक्ष गृह-नक्षत्र), आधिदैविक (मनोमय) और आध्यात्मिक इन चार रूपों में चार तलों पर अनुभव किया जा सकता है । इनमें   प्रत्येक का बीजमंत्र जिन वर्णों के विशिष्ट योग से बना होता है वह उस देवता का मंत्रमय स्वरूप होता है और मनुष्य उस विशिष्ट मंत्र के माध्यम से उस देवता से सम्बद्ध  सकता है । इस मंत्र के द्रष्टा को ऋषि कहा जाता है ।
गणेश मंत्र ॐ गं गणपतये नमः
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
या देवी के मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी  प्रचोदयात् ॥
जैसे असंख्य मंत्र हैं जो मनुष्य को अनायास ही प्राप्त होते हैं, और उसके लिए अध्यात्म की सीढ़ी बन जाते हैं ।संक्षेप में यह कि जैसे ये देवता 'मन' को प्रेरित और संचालित करते हैं, वैसे ही इस आधिदैविक (spiritualism) तल पर ऐसी शक्तियाँ भी होती हैं जो मनुष्य के लोभ, भय को जगाकर उसे अनिष्ट मार्ग पर खींच ले जाती हैं । और 'अपनी बुद्धि' के मद और आग्रह से ग्रस्त मनुष्य प्रायः इसके शिकार हो जाते हैं । यह तो मनुष्य के विवेक पर ही निर्भर करता है कि वह किस मार्ग पर जाता है ।
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इस प्रस्तावना के साथ अगली पोस्ट्स में वैदिक / सनातन धर्म के कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों के सन्दर्भ में लिखने का विचार है ।
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