सोचने के लिए -2
प्रेतवाद और अध्यात्म
Spiritualism and Spirituality
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सनातन धर्म में 'ईश्वर' को अपरिभाषित की श्रेणी में रखा गया है । अस्तित्व के तीन क्रमशः व्यक्त तलों अर्थात् आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक के बारे में विस्तार से विचार और विवेचना की गई है और इसलिए 'मृत्यु' के बाद मनुष्य को कौन सी गति प्राप्त होती है इसे भी क्रमशः आधिदैविक और आध्यात्मिक सन्दर्भ में स्पष्ट किया गया है । 'ईश्वर' का वर्णन जहाँ एक ओर 'ईशिता' अर्थात् उस आदि कारण और शक्ति के रूप में भी किया गया है, वहीं उसके 'एक' (1) अथवा 'अनेक' (एक से अधिक) होने की संभावना पर कोई निष्कर्ष न निकालते हुए उसके स्वरूप को 'एक' (1) अथवा 'अनेक' (एक से अधिक) से विलक्षण (unique) कहा गया है । इसका एक स्पष्ट कारण भी है, कि वह 'ईश्वर'-तत्व व्यक्त और अव्यक्त दोनों स्तरों पर अस्तित्व का विधाता है । वह 'संज्ञा' भी है, 'क्रिया' भी है और क्रिया-विशेषण भी । वह व्यक्त रूप में वह काल और स्थान भी है, तथा अव्यक्त रूप में उनका भी कारण है ।
उसके स्वरूप का वर्णन शिवाथर्वण में इस प्रकार है :
"... अक्षरात् सञ्जायते कालः कालात् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः । उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपो अप्सु अङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोः ॐ कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति । ..... ॥६
'सृष्टि' प्रक्रिया का इतना स्पष्ट वर्णन !
'अक्षर' / 'अच्युत' / अविनाशी परमात्मा से 'काल' उद्भव होता है, उससे 'काल' का उद्भव होने से से उसे व्यापक कहा जाता है अर्थात् 'काल' से 'स्थान' अस्तित्व में व्यक्त होता है । वही परमात्मा जब भोग में संलग्न होता है, तब व्यक्त / व्यापक होता है। और वही जब सुषुप्त अर्थात् 'अव्यक्त' स्थिति में लौट जाता है तो व्यक्त जगत को अपने भीतर समेट लेता है । चूँकि वह 'अक्षर' / 'अच्युत' / अविनाशी है, इसलिए सृष्टि-रचना और सृष्टि के लय से उसमें कोई विकार नहीं आता । इसलिए वह मृत्यु भी है और काल भी, ब्रह्मा,विष्णु, स्कन्द, इंद्र, अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, अष्टग्रह (8 planets) अष्ट-प्रतिग्रह (8 complementary planets / counter-parts), भू, भुवः, स्वः, महः, पृथिवी (लोक), अंतरिक्ष (लोक), द्यु (लोक), आपः (तत्व / महाभूत), तेजः (तत्व / महाभूत), काल, यम, मृत्यु, अमृत, आकाश (तत्व / महाभूत), विश्व (अखिल व्यक्त जगत), स्थूल, सूक्ष्म, शुक्ल, कृष्ण, कृत्स्न (निखिल), सत्य (लोक) सर्व (समष्टि) भी वही है ।
यह हुआ परमात्मा का आदिपुरुष के रूप में father-principle के रूप में वर्णन ।
दूसरी ओर 'देव्यथर्वण' में 'मातृतत्व' के रूप में देवी का वर्णन इस प्रकार है :
"... एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। .. . "
स्पष्ट कि वह परमात्मा तत्व एक भी है और एक नहीं भी है । उसे 'एक' कहना तर्क की दृष्टि से भी असंगत है क्योंकि तब जो उसे एक कह रहा है उसकी सत्ता की उस परमात्मा तत्व से पृथक् स्वतंत्र सत्यता स्वीकार कर ली जाती है । अतः सनातन धर्म 'एकेश्वरवाद' इस रूप में अंतिम सत्य नहीं मानता ।
किन्तु जब अनेक उपाधि-सत्ताओं (33 कोटि / प्रकार) के औपचारिक 'देवता' तत्व के रूप में उसी परमात्मा के कार्य देखा जाता है तो प्रत्येक ही उसका विशिष्ट रूप मानकर उनके माध्यम से परमात्मा ही स्तुति / उपासना है । ये 'देवता' जो अदिति की संतान हैं, और उन्होंने ही अदिति को जन्म दिया, इसमें विसंगति नहीं बल्कि उनकी परस्पर अनन्यता का वर्णन है ।
प्रथम अर्थ में देवी ने देवताओं के तेज से व्यक्त (दुर्गा) रूप ग्रहण किया ।
"देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपा पशवो वदन्ति ..(10)"
इससे स्पष्ट जाता है कि देवताओं का रूप वर्ण-ध्वन्यात्मक (phonetic) है और उससे उस भाषा का उद्भव हुआ जिसे पशु (बद्ध जीव) प्रयोग करते हैं ।
दूसरे अर्थ में
"अदितिः (कर्ता) हि अजनिष्ट दक्ष (सम्बोधन) या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वजायन्त (अनु अजायन्त) भद्रा अमृत बन्धवः ॥ "
(13)
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यह 'देववाद' भी आधिदैविक का एक रूप है, तो प्रेतवाद भी आधिदैविक का एक अन्य रूप ।
'देवता तत्व' नित्यसत्य है जैसे विज्ञान के नियम, जबकि प्रेत-तत्व (spirit) काल-स्थान के अंतर्गत व्यक्त और अव्यक्त होते रहनेवाला, अनित्य सत्य ।
बेबीलोन (Babylon) > भव्यलोकं, और माया (Maya), अष्टक (Aztec) प्रेतवाद और मृत्यु के बाद 'आत्मा' को उसी भौतिक रूप में स्वीकार करते हैं, जैसा की वह देहरूप में मृत्युपूर्व था । Masonic (श्मशानिक) भी इसी का एक और प्रकार है ।
संक्षेप में :
ऋषि कश्यप की दो पत्नियों अदिति और दिति से क्रमशः 12 आदित्य और दैत्यों का जन्म हुआ । यह संयोग नहीं है कि अंग्रेज़ी भाषा में 'Deity' का अर्थ 'उपास्य' होता है । संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करते समय विदेशियों तथा भारतीय विद्वानों ने भी 'अधिष्ठाता देवता' का अनुवाद 'presiding-deity' किया है, जो अत्यन्त भ्रामक प्रयोग है । सनातन धर्म के देवता, पौराणिक ग्रंथों के अवतार, अदिति की संतानें हैं, जबकि मानव 'मनु' की, दानव 'दनु' की और दैत्य दिति की ।
इस प्रकार तथाकथित 'एकेश्वरवाद' उसी नींव पर स्थापित है जिससे प्रेरित होकर हिरण्यकशिपु अपने-आपको 'एकमात्र ईश्वर' कहता था ।
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~~~~~~~~~ क्रमशः ~~~~~~~~~
प्रेतवाद और अध्यात्म
Spiritualism and Spirituality
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सनातन धर्म में 'ईश्वर' को अपरिभाषित की श्रेणी में रखा गया है । अस्तित्व के तीन क्रमशः व्यक्त तलों अर्थात् आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक के बारे में विस्तार से विचार और विवेचना की गई है और इसलिए 'मृत्यु' के बाद मनुष्य को कौन सी गति प्राप्त होती है इसे भी क्रमशः आधिदैविक और आध्यात्मिक सन्दर्भ में स्पष्ट किया गया है । 'ईश्वर' का वर्णन जहाँ एक ओर 'ईशिता' अर्थात् उस आदि कारण और शक्ति के रूप में भी किया गया है, वहीं उसके 'एक' (1) अथवा 'अनेक' (एक से अधिक) होने की संभावना पर कोई निष्कर्ष न निकालते हुए उसके स्वरूप को 'एक' (1) अथवा 'अनेक' (एक से अधिक) से विलक्षण (unique) कहा गया है । इसका एक स्पष्ट कारण भी है, कि वह 'ईश्वर'-तत्व व्यक्त और अव्यक्त दोनों स्तरों पर अस्तित्व का विधाता है । वह 'संज्ञा' भी है, 'क्रिया' भी है और क्रिया-विशेषण भी । वह व्यक्त रूप में वह काल और स्थान भी है, तथा अव्यक्त रूप में उनका भी कारण है ।
उसके स्वरूप का वर्णन शिवाथर्वण में इस प्रकार है :
"... अक्षरात् सञ्जायते कालः कालात् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः । उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपो अप्सु अङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोः ॐ कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति । ..... ॥६
'सृष्टि' प्रक्रिया का इतना स्पष्ट वर्णन !
'अक्षर' / 'अच्युत' / अविनाशी परमात्मा से 'काल' उद्भव होता है, उससे 'काल' का उद्भव होने से से उसे व्यापक कहा जाता है अर्थात् 'काल' से 'स्थान' अस्तित्व में व्यक्त होता है । वही परमात्मा जब भोग में संलग्न होता है, तब व्यक्त / व्यापक होता है। और वही जब सुषुप्त अर्थात् 'अव्यक्त' स्थिति में लौट जाता है तो व्यक्त जगत को अपने भीतर समेट लेता है । चूँकि वह 'अक्षर' / 'अच्युत' / अविनाशी है, इसलिए सृष्टि-रचना और सृष्टि के लय से उसमें कोई विकार नहीं आता । इसलिए वह मृत्यु भी है और काल भी, ब्रह्मा,विष्णु, स्कन्द, इंद्र, अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, अष्टग्रह (8 planets) अष्ट-प्रतिग्रह (8 complementary planets / counter-parts), भू, भुवः, स्वः, महः, पृथिवी (लोक), अंतरिक्ष (लोक), द्यु (लोक), आपः (तत्व / महाभूत), तेजः (तत्व / महाभूत), काल, यम, मृत्यु, अमृत, आकाश (तत्व / महाभूत), विश्व (अखिल व्यक्त जगत), स्थूल, सूक्ष्म, शुक्ल, कृष्ण, कृत्स्न (निखिल), सत्य (लोक) सर्व (समष्टि) भी वही है ।
यह हुआ परमात्मा का आदिपुरुष के रूप में father-principle के रूप में वर्णन ।
दूसरी ओर 'देव्यथर्वण' में 'मातृतत्व' के रूप में देवी का वर्णन इस प्रकार है :
"... एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। .. . "
स्पष्ट कि वह परमात्मा तत्व एक भी है और एक नहीं भी है । उसे 'एक' कहना तर्क की दृष्टि से भी असंगत है क्योंकि तब जो उसे एक कह रहा है उसकी सत्ता की उस परमात्मा तत्व से पृथक् स्वतंत्र सत्यता स्वीकार कर ली जाती है । अतः सनातन धर्म 'एकेश्वरवाद' इस रूप में अंतिम सत्य नहीं मानता ।
किन्तु जब अनेक उपाधि-सत्ताओं (33 कोटि / प्रकार) के औपचारिक 'देवता' तत्व के रूप में उसी परमात्मा के कार्य देखा जाता है तो प्रत्येक ही उसका विशिष्ट रूप मानकर उनके माध्यम से परमात्मा ही स्तुति / उपासना है । ये 'देवता' जो अदिति की संतान हैं, और उन्होंने ही अदिति को जन्म दिया, इसमें विसंगति नहीं बल्कि उनकी परस्पर अनन्यता का वर्णन है ।
प्रथम अर्थ में देवी ने देवताओं के तेज से व्यक्त (दुर्गा) रूप ग्रहण किया ।
"देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपा पशवो वदन्ति ..(10)"
इससे स्पष्ट जाता है कि देवताओं का रूप वर्ण-ध्वन्यात्मक (phonetic) है और उससे उस भाषा का उद्भव हुआ जिसे पशु (बद्ध जीव) प्रयोग करते हैं ।
दूसरे अर्थ में
"अदितिः (कर्ता) हि अजनिष्ट दक्ष (सम्बोधन) या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वजायन्त (अनु अजायन्त) भद्रा अमृत बन्धवः ॥ "
(13)
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यह 'देववाद' भी आधिदैविक का एक रूप है, तो प्रेतवाद भी आधिदैविक का एक अन्य रूप ।
'देवता तत्व' नित्यसत्य है जैसे विज्ञान के नियम, जबकि प्रेत-तत्व (spirit) काल-स्थान के अंतर्गत व्यक्त और अव्यक्त होते रहनेवाला, अनित्य सत्य ।
बेबीलोन (Babylon) > भव्यलोकं, और माया (Maya), अष्टक (Aztec) प्रेतवाद और मृत्यु के बाद 'आत्मा' को उसी भौतिक रूप में स्वीकार करते हैं, जैसा की वह देहरूप में मृत्युपूर्व था । Masonic (श्मशानिक) भी इसी का एक और प्रकार है ।
संक्षेप में :
ऋषि कश्यप की दो पत्नियों अदिति और दिति से क्रमशः 12 आदित्य और दैत्यों का जन्म हुआ । यह संयोग नहीं है कि अंग्रेज़ी भाषा में 'Deity' का अर्थ 'उपास्य' होता है । संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करते समय विदेशियों तथा भारतीय विद्वानों ने भी 'अधिष्ठाता देवता' का अनुवाद 'presiding-deity' किया है, जो अत्यन्त भ्रामक प्रयोग है । सनातन धर्म के देवता, पौराणिक ग्रंथों के अवतार, अदिति की संतानें हैं, जबकि मानव 'मनु' की, दानव 'दनु' की और दैत्य दिति की ।
इस प्रकार तथाकथित 'एकेश्वरवाद' उसी नींव पर स्थापित है जिससे प्रेरित होकर हिरण्यकशिपु अपने-आपको 'एकमात्र ईश्वर' कहता था ।
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