Friday, 8 April 2016

अधिदैवत, अधिभूत और अध्यात्म

अधिदैवत, अधिभूत और अध्यात्म
--
अधिदैवमध्यात्ममधिभूतमिति त्रिधा ।
एकं ब्रह्म विभागेन भ्रमाद्भाति न तत्वतः ॥
(श्लोक 12, श्रीसुरेश्वराचार्यकृत-पञ्चीकरणवार्तिकम्)
अस्तित्व को उसकी समग्रता में समझने के लिए वेद ने उसके क्रमशः जो औपचारिक तीन विभाग आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक किए हैं वे जीव के चित्त / मन में उत्पन्न भ्रम से ही उसे प्रतीत होते हैं जिसमें वह अपने-आपको तथा जिस संसार (लोक) में वह अपने शरीर को लोक से पृथक् की तरह देखता है उन्हें भूलवश वह उस परब्रह्म से भिन्न की भाँति ग्रहण करता है ।
गीता अध्याय 8 के प्रथम श्लोक में इस बारे में संक्षेप में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा
अगले श्लोकों में इसकी विवेचना भगवान श्रीकृष्ण द्वारा की गयी। 
वैदिक परम्परा में 'धर्म' शब्द का प्रयोग 'अध्यात्म' से भिन्न अर्थ में किया जाता है । अधिदैवत, अधिभूत और अध्यात्म ये तीनों परस्पर कितनी घनिष्ठता से परस्पर सम्बद्ध हैं इसका विस्तृत वर्णन श्रीसुरेश्वराचार्यकृत-पञ्चीकरणवार्तिकाओं में देखा जा सकता है । 
भारत का दुर्भाग्य और भारत के तथाकथित 'महान' और 'लोकप्रिय' समझे जानेवाले नीति-नियंताओं का घोर प्रमाद कि 'धर्म' और 'अध्यात्म' बारे में हमारे अज्ञान से लाभ उठा कर अंग्रेज़ी शासन ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को हवा दी। जबकि 'हिन्दू' न तो 'धर्म' है, न 'अध्यात्म' । बाद में इस्लाम, क्रिश्चिनियटी को भी 'धर्म' कहकर हमारी बुद्धि को इस प्रकार भ्रमित कर दिया गया कि 'सर्वधर्म-समानता' की धारणा ने जन्म लिया । फिर सहिष्णुतावादियों ने यह सिद्ध करने की भरसक कोशिश की कि 'सारे धर्म समान हैं'।  इस मूलतः विसंगत / असत्य विचार को सत्य तरह स्वीकार लिया गया । विडम्बना यह हुई कि 'हिन्दू' जो 'संस्कृति' / परम्परा मात्र है, जिसका उद्गम 'सिंधु' से देखा गया है, पुनः एक भ्रामक कल्पना है, न कि 'धर्म' । उसे इस प्रकार  इस्लाम, क्रिश्चिनियटी के साथ एक धरातल पर स्थापित दिया गया । इस बारे में पिछली अनेक पोस्ट्स में अनेक बार लिखा जा चुका है कि किस प्रकार सम्पूर्ण हिन्द महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र जिसकी सीमा पश्चिम में अफ़गानिस्तान से लेकर सुदूर पूर्व में मलयेशिया  इंडोनेशिया तथा भी आगे तक है, उत्तर में तिब्बत और उसके आगे तक है तथा दक्षिण में श्रीलंका तक है, भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत रहा है, और यद्यपि राज्य की दृष्टि से यह क्षेत्र अनेक हिस्सों में भिन्न-भिन्न शासकों (राजाओं) द्वारा शासित रहा उनकी भाषा और उससे भी अधिक उनकी लिपि संस्कृत (ब्राह्मी) से व्युत्पन्न है । 'तिब्बत' जहाँ इस दृष्टि से भारत का एक अंग है क्योंकि तिब्बती लिपि वहाँ सदियों से, तब से प्रयोग  जाती रही है जब वहाँ मनुष्य ने लिखना सीखा ही था, वहीं इंडोनेशिया के नाम से ही यह मानना गलत न  होगा कि यह सम्पूर्ण क्षेत्र 'ऐंदव' (इंदु > चन्द्र) संस्कृति के अंतर्गत था । यह संस्कृति, राजनीतिक विस्तारवाद और औपनिशकतावाद द्वारा थोपी गयी न होकर हर स्थान पर अपने 'लोकदेवता' की प्रेरणा से अस्तित्व में आई और फली फूली । और यह लोकदेवता कोई धारणा नहीं, 'आधिदैविक' का ही आधिभौतिक पक्ष है जिसे हम उस देवता के पौराणिक स्वरूप को समझकर  अच्छी तरह जान सकते हैं  इसलिए वेद और पुराण एक ही ज्ञान के दो रूप हैं ।
यह बात हृदय में शूल की तरह चुभती है कि 'हिंदुत्व' शब्द ने भारत के घाव गहरे और इतने कष्टप्रद कर दिए हैं कि अब उनकी चिकित्सा लगभग असंभव है । और 'हिंदुत्व' के पक्षधर और 'विरोधी', वे किसी भी 'धर्म' / संस्कृति / परम्परा को माननेवाले हों, इस बात से दुराग्रहवश आँखें मूँदे रहना चाहते हैं कि वैदिक / सनातन धर्म की कसौटी पर 'हिंदुत्व' न तो 'धर्म' है न अध्यात्म । और दूसरे सभी तथाकथित 'धर्म' तो वैदिक / सनातन धर्म की कसौटी पर धर्म न होकर अधर्म ही अधिक हैं । किन्तु राजनीतिक महत्वाकांक्षा के प्रभाव से हम भारतीय आज इस प्रश्न की उपेक्षा करते हैं । इसलिए 'हिंदुत्व' के रोग का निदान (diagnosis) समय की अधिक तात्कालिक त्वरित urgent आवश्यकता है, न कि चिकित्सा (treatment) क्योंकि अगर निदान (diagnosis) ही गलत हो तो सही चिकित्सा (treatment) हो पाना तो असम्भव  ही होगा ।
--                        

No comments:

Post a Comment