अविद्या, काम और कर्म
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मनुष्य एक जैव-प्रणाली (ऑर्गेनिज़्म) है और अन्य जीवों की तरह भूख-प्यास, शीत-ऊष्ण, रोग-व्याधि, तथा जरा-मरण इस प्रणाली में अन्तरर्ग्रथित ( इन-बिल्ट / एम्बेडेड) हैं । इस पूर्व-नियोजित (प्रिप्रोग्राम्ड) प्रकृति द्वारा तय प्रोग्राम का सर्वाधिक विस्मयकारी हिस्सा है ’काम-प्रवृत्ति’ ।
मनुष्येतर जीवों में जहाँ प्रकृति ही तय करती है कि यह प्रवृत्ति किस रूप में अभिव्यक्त होकर अपना कार्य करेगी, वहीं मनुष्य में इसकी अभिव्यक्ति उसकी सामाजिक नैतिकता तथा समाज में उसके स्थान और स्थिति से भी प्रभावित होती है । समाज के स्तर पर ’विवाह’ का प्रावधान सर्वप्रथ वैदिक / सनातन धर्म से ही प्राप्त हुआ क्योंकि वैदिक / सनातन धर्म की दृष्टि यह है कि प्रत्येक मनुष्य पुरुष हो या स्त्री, जो किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो, अपने वर्णाश्रम-धर्म का पालन करता हुआ परम श्रेयस्कर को प्राप्त कर सकता है । सनातन-धर्म के मतानुसार किसी भी मनुष्य का ’जन्म’ उसके पूर्वकृत कर्मों (से बने उसके संस्कारों) के आधार पर उसे उसके उस विशिष्ट वर्ण में प्राप्त होता है । और यद्यपि वह किसी भी वर्ण के माता-पिता की संतान हो, उसकी मूल-प्रवृत्तियाँ माता-पिता की प्रवृत्तियों जैसी ही होती हैं । और विवाह उस प्रकृति-प्रदत्त व्यवस्था को सुचारु और सुव्यवस्थित बनाए रखने के लिए सामाजिक स्तर पर एक सरल तरीका है । किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि पिछले दो-तीन हजार या अधिक वर्षों में यह व्यवस्था कितनी परिवर्तित हो चुकी होगी । फिर भी गीता के अनुसार विधाता ने मनुष्य की रचना का वर्गीकरण उसके गुण-कर्म-विभाग से ही किया है न कि ’जाति’ या आजीविका के लिए उसके द्वारा किए जानेवाले व्यवसाय से । इसलिए ’जाति’-व्यवस्था के संबंध में सनातन-धर्म / वैदिक धर्म कुछ नहीं कहता ।
’काम-वृत्ति’ को इस दृष्टि से देखा जाए कि वह संतान तथा वर्ण को शुद्ध बनाए रखने का एक सशक्त साधन है, न कि ’भोग’ का, और काम-भोग का सुख एक गौण तत्व है, तो यद्यपि मनुष्य इस सुख का उपभोग भी कर सकता है, किन्तु इस वृत्ति का ’दास’ बनकर नहीं, बल्कि इसे सर्वाधिक श्रेष्ठ तरीके से व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाते हुए ।
’काम’ के महत्व को निम्न दृष्टियों से समझा जा सकता है :
1. प्रकृति का कार्य, जो भूख-प्यास, निद्रा आदि जैसी शारीरिक और मानसिक वृत्ति है किन्तु भूख-प्यास तथा निद्रा जहाँ पूरी आयु भर आवश्यकता के रूप में आते और तुष्टि होने पर चले भी जाते हैं, वहीं ’काम-वृत्ति’ एक विशेष आयु होने पर ही शरीर में सक्रिय होती है और एक समय आने पर समाप्त भी हो जाती है । इन वृत्तियों का शरीर के साथ-साथ मन से भी संबंध है किन्तु आवश्यकता की तरह से उनका कार्य-क्षेत्र शुद्धतः शरीर तक ही सीमित होता है । मनुष्य जैसे भूख-प्यास की सरल वृत्ति को अधिक ’सुख’ पाने की कल्पना से दूषित कर मानसिक रूप से जटिल बना देता है, उससे कहीं अधिक जटिल वह ’काम-वृत्ति’ को बना देता है । और ऐसा समाज की आवश्यकता, सामाजिक वातावरण और अन्तर्द्वन्द्व के ही कारण है ।
’काम-वृत्ति’ की निंदा या उसमें ’सुख’ की कल्पना, और उस ’सुख’ को अधिक सशक्त बनाने का विचार कल्पना ही है । उस वृत्ति के सक्रिय होने और उसके पूर्ण होने पर एक सुख प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं किन्तु उस सुख की सीमा होती है । शरीर उस सीमा में रहकर ही उस सुख का साधन-मात्र होता है जबकि मन बारंबार उस सुख को पाना चाहता है जो कल्पना मात्र है । किन्हीं शक्तिवर्धक औषधियों के माध्यम से शरीर की क्षमता की उस सीमा को संभवतः बढ़ाया भी जा सकता है, किंतु उत्तेजक और मादक-द्रव्यों के प्रयोग के साथ ’काम-शक्ति’ / सामर्थ्य अपनी वह स्वाभाविक क्षमता भी प्रायः खो बैठता है । प्रकृति ने ’सुख’ की जो भावना ’काम’ से संलग्न कर रखी है वह केवल एक पारितोषिक है ताकि जीव वंश-वृद्धि में संलग्न रहें और इस क्रिया के प्रयोजन को न जानते हुए भी इससे विरत न हों, बल्कि इससे आकर्षित रहें । यदि यह ’सुख’ की भावना ’काम-व्यवहार’ से न जुड़ी होती तो प्रकृति का कार्य ही रुक जाता ।
2. ’कामसुख’ के कारण जहाँ पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम पनपता है, वहीं केवल उस तुष्टि के लिए होनेवाला प्रेम अस्थायी होता है, उस कारण से किया जानेवाला ’विवाह’ भी धीरे-धीरे नीरस संबंध या काम-संबंध मात्र बनकर रह जाता है जिसे स्त्री या पुरुष शरीर की प्रकृति से बाध्य होकर यन्त्रवत निभाते रहते हैं या सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विवाह-विच्छेद, बहुपति / बहुपत्नी व्यवस्था या बिना विवाह किए साथ रहने के संबंध के माध्यम से जिससे छुटकारा पा लेते हैं । वैसे तो आधुनिक-युग में इसके और भी अनेक बहु-आयामी प्रकार हैं, और समाज उन उपायों को भी ’व्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के अधिकार से जोड़कर देखता है । किन्तु एक सरल तथ्य यह है कि जो अपने मन (और उसकी विकृत मानसिकता) का दास है, उसकी स्वतन्त्रता का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है । दूसरे शब्दों में वह काम-पाश में बद्ध पशु-मात्र है किन्तु आकृति भर से मनुष्य से मिलता-जुलता है । अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व परस्पर आश्रित होते हैं । किसी भी ’अधिकार’ का उपभोग करनेवाले के कुछ कर्तव्य भी होते हैं और उत्तरदायित्व भी । यदि आपके पास ड्राइविंग-लाइसेन्स है तो आपको गाड़ी चलाने का अधिकार तो है किन्तु कुछ अनिवार्य शर्तों का पालन भी आपको करना होगा । अगर आप उन शर्तों को तोड़ते हैं तो आपका लाइसेन्स अवैध हो जाता है । चूँकि ’काम-सुख’ का संबंध सन्तान से भी है और उनके भविष्य से भी इसलिए यदि कोई ’विवाह’ की व्यवस्था के अन्तर्गत या उस व्यवस्था को स्वीकार न करते हुए ’काम-सुख’ का भोग करना चाहता है तो उसकी होनेवाली संतानों के प्रति अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रश्न से वह भागता है ।
3. 'काम' अर्थात् यौनेच्छा का उद्भव चित्त में मुख्यतः दो प्रकार से होता है । पहला प्रकृति से प्रेरित स्वाभाविक शारीरिक वृत्ति के रूप में, दूसरा स्मृति में संचित संस्कारों के जाग्रत हो उठने पर । पहला न तो निंदनीय है, न उपहास या घृणा का विषय है। सामाजिक नैतिकता की दृष्टि से और व्यावहारिक स्तर पर भी उससे कैसे सामञ्जस्य रखा जाए यह जानना उस आयु में ही संभव है जब हम किशोर आयु में प्रवेश करते हैं। किन्तु बिरले ही माता-पिता या अभिभावक / शिक्षक तथा शिक्षाशास्त्री इस तथ्य से परिचित होते हैं। यह तो समाज के स्तर पर ही निर्भर करता है।
दूसरा 'मानसिक' स्तर पर जिसे हम गीता से सीख सकते हैं :
अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
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(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
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भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
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इस प्रकार जिस आयु में 'कामवृत्ति' शरीर में जाग्रत होने लगती है, उसी आयु में यदि प्रकृति द्वारा निर्धारित इसका प्रयोजन बच्चों को धैर्यपूर्वक स्पष्ट कर दिया जाए तो स्वयं ही इस वृत्ति से कैसे व्यवहार किया जाए इसे समझ सकते हैं। उस स्थिति में यह वृत्ति मानसिक ग्रंथि का रूप ले इसकी संभावना कम हो सकती है। इसलिए इसे 'ब्रह्मचर्याश्रम' में ही सीखा जाना उपयोगी है । और इसे न तो दबाव या डर से बच्चों को सिखाया सकता है, और न नैतिकता के थोपे गए अनुशासन से। उस स्थिति में अधिक संभावना यही है कि बच्चे पाखंडी या अंतर्द्वंद्व से ग्रसित जाएँ।
विवेक-चूडामणि का श्लोक क्रमांक 325 इसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है :
जैसे हाथ से छूटी गेंद यदि सीढ़ियों पर गिर जाती है तो उसे पुनः पकड़ पाना असंभव सा है। तब वह गिरती ही चली जाती है ।
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इसलिए यौन संबंधित 'विषय' के ध्यान / स्मरण के द्वारा जब यह वृत्ति कृत्रिम रूप से उत्पन्न की जाती / हो जाती है तो संयम की सारी शिक्षाएँ इसे अपने कार्य से रोक नहीं पाती और पाखंड तथा आडम्बर वहीं से प्रारंभ हो जाता है। दोहरे सामाजिक मापदंडों / नैतिक मूल्यों के अन्तर्द्वन्द्व में फँसा मन इससे उबार नहीं पाता।
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मनुष्य एक जैव-प्रणाली (ऑर्गेनिज़्म) है और अन्य जीवों की तरह भूख-प्यास, शीत-ऊष्ण, रोग-व्याधि, तथा जरा-मरण इस प्रणाली में अन्तरर्ग्रथित ( इन-बिल्ट / एम्बेडेड) हैं । इस पूर्व-नियोजित (प्रिप्रोग्राम्ड) प्रकृति द्वारा तय प्रोग्राम का सर्वाधिक विस्मयकारी हिस्सा है ’काम-प्रवृत्ति’ ।
मनुष्येतर जीवों में जहाँ प्रकृति ही तय करती है कि यह प्रवृत्ति किस रूप में अभिव्यक्त होकर अपना कार्य करेगी, वहीं मनुष्य में इसकी अभिव्यक्ति उसकी सामाजिक नैतिकता तथा समाज में उसके स्थान और स्थिति से भी प्रभावित होती है । समाज के स्तर पर ’विवाह’ का प्रावधान सर्वप्रथ वैदिक / सनातन धर्म से ही प्राप्त हुआ क्योंकि वैदिक / सनातन धर्म की दृष्टि यह है कि प्रत्येक मनुष्य पुरुष हो या स्त्री, जो किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो, अपने वर्णाश्रम-धर्म का पालन करता हुआ परम श्रेयस्कर को प्राप्त कर सकता है । सनातन-धर्म के मतानुसार किसी भी मनुष्य का ’जन्म’ उसके पूर्वकृत कर्मों (से बने उसके संस्कारों) के आधार पर उसे उसके उस विशिष्ट वर्ण में प्राप्त होता है । और यद्यपि वह किसी भी वर्ण के माता-पिता की संतान हो, उसकी मूल-प्रवृत्तियाँ माता-पिता की प्रवृत्तियों जैसी ही होती हैं । और विवाह उस प्रकृति-प्रदत्त व्यवस्था को सुचारु और सुव्यवस्थित बनाए रखने के लिए सामाजिक स्तर पर एक सरल तरीका है । किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि पिछले दो-तीन हजार या अधिक वर्षों में यह व्यवस्था कितनी परिवर्तित हो चुकी होगी । फिर भी गीता के अनुसार विधाता ने मनुष्य की रचना का वर्गीकरण उसके गुण-कर्म-विभाग से ही किया है न कि ’जाति’ या आजीविका के लिए उसके द्वारा किए जानेवाले व्यवसाय से । इसलिए ’जाति’-व्यवस्था के संबंध में सनातन-धर्म / वैदिक धर्म कुछ नहीं कहता ।
’काम-वृत्ति’ को इस दृष्टि से देखा जाए कि वह संतान तथा वर्ण को शुद्ध बनाए रखने का एक सशक्त साधन है, न कि ’भोग’ का, और काम-भोग का सुख एक गौण तत्व है, तो यद्यपि मनुष्य इस सुख का उपभोग भी कर सकता है, किन्तु इस वृत्ति का ’दास’ बनकर नहीं, बल्कि इसे सर्वाधिक श्रेष्ठ तरीके से व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाते हुए ।
’काम’ के महत्व को निम्न दृष्टियों से समझा जा सकता है :
1. प्रकृति का कार्य, जो भूख-प्यास, निद्रा आदि जैसी शारीरिक और मानसिक वृत्ति है किन्तु भूख-प्यास तथा निद्रा जहाँ पूरी आयु भर आवश्यकता के रूप में आते और तुष्टि होने पर चले भी जाते हैं, वहीं ’काम-वृत्ति’ एक विशेष आयु होने पर ही शरीर में सक्रिय होती है और एक समय आने पर समाप्त भी हो जाती है । इन वृत्तियों का शरीर के साथ-साथ मन से भी संबंध है किन्तु आवश्यकता की तरह से उनका कार्य-क्षेत्र शुद्धतः शरीर तक ही सीमित होता है । मनुष्य जैसे भूख-प्यास की सरल वृत्ति को अधिक ’सुख’ पाने की कल्पना से दूषित कर मानसिक रूप से जटिल बना देता है, उससे कहीं अधिक जटिल वह ’काम-वृत्ति’ को बना देता है । और ऐसा समाज की आवश्यकता, सामाजिक वातावरण और अन्तर्द्वन्द्व के ही कारण है ।
’काम-वृत्ति’ की निंदा या उसमें ’सुख’ की कल्पना, और उस ’सुख’ को अधिक सशक्त बनाने का विचार कल्पना ही है । उस वृत्ति के सक्रिय होने और उसके पूर्ण होने पर एक सुख प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं किन्तु उस सुख की सीमा होती है । शरीर उस सीमा में रहकर ही उस सुख का साधन-मात्र होता है जबकि मन बारंबार उस सुख को पाना चाहता है जो कल्पना मात्र है । किन्हीं शक्तिवर्धक औषधियों के माध्यम से शरीर की क्षमता की उस सीमा को संभवतः बढ़ाया भी जा सकता है, किंतु उत्तेजक और मादक-द्रव्यों के प्रयोग के साथ ’काम-शक्ति’ / सामर्थ्य अपनी वह स्वाभाविक क्षमता भी प्रायः खो बैठता है । प्रकृति ने ’सुख’ की जो भावना ’काम’ से संलग्न कर रखी है वह केवल एक पारितोषिक है ताकि जीव वंश-वृद्धि में संलग्न रहें और इस क्रिया के प्रयोजन को न जानते हुए भी इससे विरत न हों, बल्कि इससे आकर्षित रहें । यदि यह ’सुख’ की भावना ’काम-व्यवहार’ से न जुड़ी होती तो प्रकृति का कार्य ही रुक जाता ।
2. ’कामसुख’ के कारण जहाँ पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम पनपता है, वहीं केवल उस तुष्टि के लिए होनेवाला प्रेम अस्थायी होता है, उस कारण से किया जानेवाला ’विवाह’ भी धीरे-धीरे नीरस संबंध या काम-संबंध मात्र बनकर रह जाता है जिसे स्त्री या पुरुष शरीर की प्रकृति से बाध्य होकर यन्त्रवत निभाते रहते हैं या सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विवाह-विच्छेद, बहुपति / बहुपत्नी व्यवस्था या बिना विवाह किए साथ रहने के संबंध के माध्यम से जिससे छुटकारा पा लेते हैं । वैसे तो आधुनिक-युग में इसके और भी अनेक बहु-आयामी प्रकार हैं, और समाज उन उपायों को भी ’व्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के अधिकार से जोड़कर देखता है । किन्तु एक सरल तथ्य यह है कि जो अपने मन (और उसकी विकृत मानसिकता) का दास है, उसकी स्वतन्त्रता का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है । दूसरे शब्दों में वह काम-पाश में बद्ध पशु-मात्र है किन्तु आकृति भर से मनुष्य से मिलता-जुलता है । अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व परस्पर आश्रित होते हैं । किसी भी ’अधिकार’ का उपभोग करनेवाले के कुछ कर्तव्य भी होते हैं और उत्तरदायित्व भी । यदि आपके पास ड्राइविंग-लाइसेन्स है तो आपको गाड़ी चलाने का अधिकार तो है किन्तु कुछ अनिवार्य शर्तों का पालन भी आपको करना होगा । अगर आप उन शर्तों को तोड़ते हैं तो आपका लाइसेन्स अवैध हो जाता है । चूँकि ’काम-सुख’ का संबंध सन्तान से भी है और उनके भविष्य से भी इसलिए यदि कोई ’विवाह’ की व्यवस्था के अन्तर्गत या उस व्यवस्था को स्वीकार न करते हुए ’काम-सुख’ का भोग करना चाहता है तो उसकी होनेवाली संतानों के प्रति अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रश्न से वह भागता है ।
3. 'काम' अर्थात् यौनेच्छा का उद्भव चित्त में मुख्यतः दो प्रकार से होता है । पहला प्रकृति से प्रेरित स्वाभाविक शारीरिक वृत्ति के रूप में, दूसरा स्मृति में संचित संस्कारों के जाग्रत हो उठने पर । पहला न तो निंदनीय है, न उपहास या घृणा का विषय है। सामाजिक नैतिकता की दृष्टि से और व्यावहारिक स्तर पर भी उससे कैसे सामञ्जस्य रखा जाए यह जानना उस आयु में ही संभव है जब हम किशोर आयु में प्रवेश करते हैं। किन्तु बिरले ही माता-पिता या अभिभावक / शिक्षक तथा शिक्षाशास्त्री इस तथ्य से परिचित होते हैं। यह तो समाज के स्तर पर ही निर्भर करता है।
दूसरा 'मानसिक' स्तर पर जिसे हम गीता से सीख सकते हैं :
अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
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(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
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भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
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इस प्रकार जिस आयु में 'कामवृत्ति' शरीर में जाग्रत होने लगती है, उसी आयु में यदि प्रकृति द्वारा निर्धारित इसका प्रयोजन बच्चों को धैर्यपूर्वक स्पष्ट कर दिया जाए तो स्वयं ही इस वृत्ति से कैसे व्यवहार किया जाए इसे समझ सकते हैं। उस स्थिति में यह वृत्ति मानसिक ग्रंथि का रूप ले इसकी संभावना कम हो सकती है। इसलिए इसे 'ब्रह्मचर्याश्रम' में ही सीखा जाना उपयोगी है । और इसे न तो दबाव या डर से बच्चों को सिखाया सकता है, और न नैतिकता के थोपे गए अनुशासन से। उस स्थिति में अधिक संभावना यही है कि बच्चे पाखंडी या अंतर्द्वंद्व से ग्रसित जाएँ।
विवेक-चूडामणि का श्लोक क्रमांक 325 इसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है :
जैसे हाथ से छूटी गेंद यदि सीढ़ियों पर गिर जाती है तो उसे पुनः पकड़ पाना असंभव सा है। तब वह गिरती ही चली जाती है ।
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इसलिए यौन संबंधित 'विषय' के ध्यान / स्मरण के द्वारा जब यह वृत्ति कृत्रिम रूप से उत्पन्न की जाती / हो जाती है तो संयम की सारी शिक्षाएँ इसे अपने कार्य से रोक नहीं पाती और पाखंड तथा आडम्बर वहीं से प्रारंभ हो जाता है। दोहरे सामाजिक मापदंडों / नैतिक मूल्यों के अन्तर्द्वन्द्व में फँसा मन इससे उबार नहीं पाता।
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