Saturday, 2 April 2016

आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.

आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.
अविद्या काम कर्म 
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श्रीमद्भग्वद्गीता / śrīmadbhagvadgītā
अध्याय 7, श्लोक 27,

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
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(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम्  सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
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भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
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Chapter 7, śloka 27,

icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammohaṃ
sarge yānti parantapa ||
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(icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammoham
sarge yānti parantapa ||)
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O  bhārata (arjuna) !, from the very birth all beings are subject to delusion caused by the dualities like desire and envy, pleasure and pain.
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आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.
अविद्या काम कर्म
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’जन्म’ जिसका हुआ है वह एक ओर तो शरीर है, दूसरी ओर शरीर से संबद्ध ’चेतना’ है जिसके अन्तर्गत स्मृति, भावनाएँ, विचार, निश्चय-अनिश्चय, इच्छाएँ, भय और द्वन्द्व, अचेतन और चेतन दोनों स्तरों पर कार्य करते हैं । ’स्मृति’ पहचान है और ’पहचान’ स्मृति इसलिए एक के न होने पर दूसरा भी नहीं होता । इस पहचान / स्मृति के आधार पर ’अपनी’ / ’मैं’ और संसार की ’पहचान’/ ’स्मृति’ बनती-बिगड़ती रहती है जबकि उनका आधारभूत अधिष्ठान (चेतना) अखंडित तथा अविच्छिन्न रहते हुए व्यक्ति और संसार के जीवन को संभव और सुचारु बनाए रखता है । यह अधिष्ठान (चेतना) वैयक्तिक न होते हुए भी ’व्यक्ति’ के मन में संसार में ’अपने’ एक स्वतंत्र-सत्ता होने की भावना को जन्म देती है । जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है यह भावना अपनी निरंतर उपस्थिति से सुदृढ़ विश्वास बन जाती है । यह भावना निरंतर ’संसार’ में अपने को अकेले समझने और उस अकेलेपन को समाप्त करने या उससे दूर भागने की चेष्टा पैदा करती है । इस प्रकार जो नहीं है उस व्यक्ति की सत्ता को मन स्वीकार कर बैठता है । दूसरे शब्दों में यही ’अविद्या’ है - जो विद्यमान नहीं है उसे सत्य समझ बैठना । जैसे भावनाएँ चित्त / हृदय में उठती हैं वैसे ही बुद्धि / विचार मस्तिष्क में । किन्तु इन मानसिक कल्पनाओं की प्रतिक्रियास्वरूप ’मैं’ को इनका स्वामी समझ लिया जाता है । प्रायः हर कोई कहता है :
"मैं सोचता हूँ / मैं नहीं सोचता..."
इसी प्रकार यह भी :
"मैं प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा करता हूँ ... या, "मैं प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा नहीं करता... "
किन्तु थोड़ा ध्यान से देखें तो ’सोचना’/ ’न सोचना’ अपने-आप परिस्थितियों और स्मृति के मिले-जुले प्रभाव से घटित होता है और यह ’मस्तिष्क’ में होता है । जिसकी स्मृति नहीं उस बारे में ’सोचना’ नहीं हो सकता । वैसे ही कभी कभी "मैं सोच नहीं पा रहा..." हमें यह भी अनुभव होता है और हम ऐसा कहते भी हैं तात्पर्य यह कि ’मैं’ नामक ऐसे किसी ’विचारकर्ता’का अस्तित्व ही नहीं है जिसे ’मन’ ’विचार’ के स्वामी की तरह मान्य कर लेता है ।
इसी तरह भावनाएँ  प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा / भय आदि भी अपने-आप परिस्थितियों और स्मृति के मिले-जुले प्रभाव से घटित होते हैं और हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ’मैं’ / हम उनके उठने या समाप्त होने को नियंत्रित करते हैं । इस प्रकार विचार तथा भावनाओं से अपने को मिला लेना (इन्डल्जेन्स) ही अविद्या है ।
मुझे  प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा / भय आदि वैसे ही ’होते’ हैं, जैसे मुझे भूख, प्यास, नींद आदि ’होते’ हैं ।
किन्तु पहले तो भूलवश अपने-आपको उनसे जोड़कर मैं कहता हूँ ’मैं प्रेम करता हूँ’ और फिर यह भी कहता हूँ , :’मुझे प्रेम है’ ।
इस सब के दौरान निर्वैयक्तिक चेतना जिसके प्रकाश में यह सब घटता है यथावत् सुस्थिर आधार की तरह अप्रभावित और अपरिवर्तित रहते हुए इनसे असंलग्न रहती है ।
किन्तु ’जीव-भाव’ के जन्म के बाद ’व्यक्ति’ और ’व्यक्तित्व’ इतने दृढ़ हो जाते हैं कि मनुष्य यह भी कह बैठता है कि मैं मुक्त होना चाहता हूँ । जो ’नहीं है’, वह ’मुक्त’ कैसे होगा? वह बंधन में था ही कहाँ ?
जब यह स्पष्ट हो जाता है कि ’जन्म’ / ’जीव-भाव’ वस्तुतः इस बारे में विचार (थॉट) होने से ही सत्य लगने लगता है,तो ’मुक्ति’ / ’बंधन’ का प्रश्न ही नहीं पैदा होता ।
आधिदैविक इस प्रकार एक पड़ाव / कड़ी है, आधिभौतिक और आध्यात्मिक के मध्य क्योंकि ’अविद्या’ ’काम’ और ’कर्म’ इस प्रश्न को उठने ही नहीं देते कि ’अविद्या’ ’किसे’ है । जब तक मनुष्य ’काम’ को उपभोग की दृष्टि से देखता है या उसका उपहास करता है, ’काम’ कुपित होकर और विकृत रूप लेकर मनुष्य के मन पर हावी रहता है । और ’कामवृत्ति’ सर्वाधिक प्रबल वृत्ति की तरह उसे ’कर्म’ में संलग्न रखती है । यह ’काम’ केवल शारीरिक वासना हो यह आवश्यक नहीं, यह ’कामना’ बनकर एक कल्पित ’भविष्य’ को प्रक्षेपित करता है, किन्तु विवेक न होने से मनुष्य यह नहीं समझता कि सभी वृत्तियाँ पुनरावर्ती होती हैं और उनके साथ लिप्त होना आत्मवंचना ही है । ’काम’ और ’अविद्या’ से प्रेरित कर्म ’संस्कार’ / अभ्यास बन जाता है और उससे छूटना क्रमशः और कठिन होने लगता है । कभी-कभी मनुष्य इस यातना से घबराकर आत्महत्या तक कर लेता है या इसका प्रयास करता है । मृत्यु भी आधिदैविक सत्ता है जिसे ’यम’ कहा जाता है । यमराज को ही धर्मराज भी कहा जाता है, क्योंकि उनका विधान अटल होता है । इस प्रकार ’धर्म’ मनुष्य को कभी त्यागता नहीं । जब ’धर्म’ को विधान की तरह देखकर उसका अनुष्ठान (आचरण) किया जाता है तो मनुष्य के क्लेश न्यूनतम और सुख अधिकतं होता है और मृत्यु भी उसे भयभीत नहीं करती ।
अविद्या है तमोगुण जबकि कर्म है रजोगुण धर्म सतोगुण के रूप में मनुष्य को उन दोनों में संतुलन बनाने में सहायक होता है । है तो यह भी गुण ही किन्तु इसकी वृद्धि होने पर मनुष्य में अनायास दृष्टि की स्पष्टता आती है ।
अविद्या काम और कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने पर इस प्रश्न का पटाक्षेप हो जाता है कि ’जन्म’ किसका हुआ? इसे मोक्ष का नाम दिया गया है किन्तु केवल औपचारिक रूप से क्योंकि ....।    
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