अविद्या काम कर्म और अतीन्द्रिय चेतना
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मनुष्य या जितने भी जीव हैं ,किसी न किसी 'उद्देश्य' या ध्येय से प्रेरित कर्म करते हैं ।
मंदबुद्धि भी किसी न किसी प्रयोजन से कर्म करता है।
कुछ कर्म तो प्रकृति द्वारा प्रेरित होने से हमारे शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं के रूप में हममें 'होते' हैं, जबकि कुछ कर्म किसी 'प्रेरणा' से हम करते हैं । स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न मनुष्य भिन्न भिन्न प्रकार कर्मों को करने में रुचि रखते हैं । कर्म ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से संपन्न होते हैं किन्तु उनके लिए हमें प्रेरणा अपने अंतर्मन में स्थित संस्कारों तथा बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना से प्राप्त होती है। अर्थात् कोई ऐसी अतीन्द्रिय चेतना (transcendental consciousness) हमारी बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना को सक्रिय करती है जिसके बाद ही हमारा मन, बुद्धि आदि अपनी क्षमता प्राप्त करते हैं। उस चेतना को समष्टि-रूप में 'प्रकृति' कहा जाता है, और वह एक चेतन तत्व है जो इंद्रियों से पूर्व है । वह 'प्रकृति' होने से सर्वत्र व्याप्त स्वरूप का है किन्तु उसकी 'अभिव्यक्ति' का स्वरूप भिन्न-भिन्न जीवों में भिन्न भिन्न प्रकार का है। चूँकि उसका स्थान इंद्रियों से पूर्व है इसलिए उन्हें अधिष्ठाता 'देवता' कहा जाता है। जैसे हम इंद्रियों के माध्यम से जगत और शरीर को जानते हैं किन्तु उस शक्ति / चेतना से अनभिज्ञ हैं जो हमारी बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना की क्षमता को प्रेरित करती है, वैसे ही वैदिक देवता भी यद्यपि हमें जानते हैं किन्तु हम उन्हें तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि वे ही हमारे सामने स्वयं को नहीं प्रकट कर देते। स्पष्ट है कि हमारे शरीर में जितनी कठिन / जटिल क्रियाएँ 'होती' हैं जिन्हें वैज्ञानिक तक कठिनाई से समझ पाते हैं उनके बीच एक तारतम्य, गहरा सामंजस्य होता है । निश्चित ही जो 'प्रकृति' इसे संभव बनाती है वह अद्भुत प्रतिभा (talent) और प्रज्ञा (intelligence) से युक्त है। हम अपने अज्ञान / अविद्या कारण ही उसे 'प्रकृति' कहकर उससे एक जड-वस्तु जैसा व्यवहार करते हैं । जो देवता इंद्र, रुद्र, अग्नि, वायु, सोम, वरुण, आदित्य, आप (जल), यम, बृहस्पति, प्राण, काम, आदि हमारे शरीर की विविध क्षमताओं को कार्यशील बनाते हैं उनसे ही हमारा शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली, अस्वस्थ या रुग्ण आदि होता है। इसका पूरा तर्कसंगत और विवेचना आधारित विज्ञान है, किन्तु यदि हम अपने दुराग्रह के कारण इसकी खोजबीन से इंकार कर दें और इसे अंधविश्वास कहें तो प्रकृति / देवताओं की हममें रुचि क्यों होगी?
न्यूरोलॉजी और शरीर-रचना-विज्ञान, शरीर-क्रियाविज्ञान शरीर भीतर होनेवाली जिन क्रियाओं 'अध्ययन' करते हैं वे इसी बिंदु पर चूक जाते हैं । उपनिषदों में मनुष्य के शरीर में देवताओं के स्थान का विस्तृत वर्णन है, और यदि हम उस सन्दर्भ से अपने विज्ञान को जोड़कर देखें तो हमें निराशा नहीं होगी।
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मनुष्य या जितने भी जीव हैं ,किसी न किसी 'उद्देश्य' या ध्येय से प्रेरित कर्म करते हैं ।
मंदबुद्धि भी किसी न किसी प्रयोजन से कर्म करता है।
कुछ कर्म तो प्रकृति द्वारा प्रेरित होने से हमारे शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं के रूप में हममें 'होते' हैं, जबकि कुछ कर्म किसी 'प्रेरणा' से हम करते हैं । स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न मनुष्य भिन्न भिन्न प्रकार कर्मों को करने में रुचि रखते हैं । कर्म ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से संपन्न होते हैं किन्तु उनके लिए हमें प्रेरणा अपने अंतर्मन में स्थित संस्कारों तथा बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना से प्राप्त होती है। अर्थात् कोई ऐसी अतीन्द्रिय चेतना (transcendental consciousness) हमारी बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना को सक्रिय करती है जिसके बाद ही हमारा मन, बुद्धि आदि अपनी क्षमता प्राप्त करते हैं। उस चेतना को समष्टि-रूप में 'प्रकृति' कहा जाता है, और वह एक चेतन तत्व है जो इंद्रियों से पूर्व है । वह 'प्रकृति' होने से सर्वत्र व्याप्त स्वरूप का है किन्तु उसकी 'अभिव्यक्ति' का स्वरूप भिन्न-भिन्न जीवों में भिन्न भिन्न प्रकार का है। चूँकि उसका स्थान इंद्रियों से पूर्व है इसलिए उन्हें अधिष्ठाता 'देवता' कहा जाता है। जैसे हम इंद्रियों के माध्यम से जगत और शरीर को जानते हैं किन्तु उस शक्ति / चेतना से अनभिज्ञ हैं जो हमारी बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना की क्षमता को प्रेरित करती है, वैसे ही वैदिक देवता भी यद्यपि हमें जानते हैं किन्तु हम उन्हें तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि वे ही हमारे सामने स्वयं को नहीं प्रकट कर देते। स्पष्ट है कि हमारे शरीर में जितनी कठिन / जटिल क्रियाएँ 'होती' हैं जिन्हें वैज्ञानिक तक कठिनाई से समझ पाते हैं उनके बीच एक तारतम्य, गहरा सामंजस्य होता है । निश्चित ही जो 'प्रकृति' इसे संभव बनाती है वह अद्भुत प्रतिभा (talent) और प्रज्ञा (intelligence) से युक्त है। हम अपने अज्ञान / अविद्या कारण ही उसे 'प्रकृति' कहकर उससे एक जड-वस्तु जैसा व्यवहार करते हैं । जो देवता इंद्र, रुद्र, अग्नि, वायु, सोम, वरुण, आदित्य, आप (जल), यम, बृहस्पति, प्राण, काम, आदि हमारे शरीर की विविध क्षमताओं को कार्यशील बनाते हैं उनसे ही हमारा शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली, अस्वस्थ या रुग्ण आदि होता है। इसका पूरा तर्कसंगत और विवेचना आधारित विज्ञान है, किन्तु यदि हम अपने दुराग्रह के कारण इसकी खोजबीन से इंकार कर दें और इसे अंधविश्वास कहें तो प्रकृति / देवताओं की हममें रुचि क्यों होगी?
न्यूरोलॉजी और शरीर-रचना-विज्ञान, शरीर-क्रियाविज्ञान शरीर भीतर होनेवाली जिन क्रियाओं 'अध्ययन' करते हैं वे इसी बिंदु पर चूक जाते हैं । उपनिषदों में मनुष्य के शरीर में देवताओं के स्थान का विस्तृत वर्णन है, और यदि हम उस सन्दर्भ से अपने विज्ञान को जोड़कर देखें तो हमें निराशा नहीं होगी।
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