हिंदुत्व का मिथ
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केवल भारत ही नहीं, पूरी धरती के सभी स्थानों पर इतिहास और युद्धों का चोली-दामन का साथ रहा है । कलिंग-युद्ध में हुए नर-संहार के बाद सम्राट अशोक ’महान्’ को घोर पश्चात्ताप हुआ / ग्लानि हुई और उसने भगवान् बुद्ध के मार्ग को अपनाया । अर्थात् ’बौद्ध-धर्म’ को । प्रायः यह प्रश्न मुझे सोचने को विवश करता है कि यदि अशोक उस युद्ध में विजयी न होता तो क्या उस स्थिति में भी बौद्ध-धर्म का वैसा प्रसार विश्व भर में हो सकता था?
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर समसामयिक रहे होंगे । और दोनों के ही अनुयायियों में ’क्षत्रिय’ प्रमुख थे । इसका एक कारण संभवतः यह रहा होगा कि बुद्ध और महावीर दोनों ’क्षत्रिय’ थे । दोनों की शिक्षाओं में अहिंसा पर बल दिया गया है । सनातन / वैदिक धर्म मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म होने से यद्यपि अहिंसा को सर्वोच्च स्थान पर नहीं रखता क्योंकि सामाजिक-धर्म के स्तर पर सम्यक् आचरण की दृष्टि से उसमें वर्ण-व्यवस्था को आधारभूत आवश्यकता स्वीकार किया गया है । यदि कृषि और पशु-पालन किया जाना है, यदि समाज के प्रति अपराध करनेवालों से समाज को सुरक्षा प्रदान करना है तो हिंसा को किसी न किसी रूप में स्वीकार करना होगा । यदि दस्युओं से राज्य की रक्षा करना है, हिंस्र पशुओं से मनुष्य को बचाना है तो भी हिंसा का औचित्य स्वीकार करना होगा ।
क्या बुद्ध और महावीर का मार्ग सामाजिक धर्म बन सकता है / था?
जब हमारे राष्ट्र के संविधान-निर्माताओं में प्रमुख स्वर्गीय बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने दीक्षा-भूमि या चैत्य-भूमि पर बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण की तो उन्होंने बौद्ध त्रिशरण-मन्त्र और बौद्ध-धर्म के पाँच मूल सिद्धान्तों (पंच-स्कंध) को अपनाते हुए 22 मूल निर्देश-सूत्र स्थापित किए जिसे ’नव-बौद्ध’ का आधार कहा गया । इन 30 का पालन प्रत्येक नव-बौद्ध से अपेक्षित है । इनमें विवाहेतर शारीरिक संबंध का त्याग तथा मांअस-मदिरा के सेवन का त्याग भी सम्मिलित है । पुनः उन्होंने इसे अ-राजनीतिक (नॉन-पॉलिटिकल) संगठन कहा ।
उन्होंने कहा कि वे ’हिन्दुओं’ के इस विचार से बिलकुल असहमत हैं कि बुद्ध विष्णु का अवतार थे / हैं ।
उन्होंने ’ब्रह्म’, ’शिव’, ’गौरी’ सहित ’राम’, ’कृष्ण’ आदि को भी निषिद्ध घोषित किया और ’पुनर्जन्म’ की धारणा को स्वीकार करते हुए आशा की कि वे किसी अगले जन्म में ’निर्वाण’ प्राप्त कर सकेंगे ।
उनके विचारों में विरोधाभास था या नहीं यह तो उन्हें ही बेहतर पता होगा किंतु यदि उन्होंने ’हिन्दुत्व’ को एक ’धर्म’ की तरह स्वीकार किया तो यही एक बड़ी भूल थी क्योंकि तब उन्होंने त्रिशरण-मन्त्र के ही एक अंश को समझने में भूल की । ’धम्मं सरणम् गच्छामि’ के अनुसार हिन्दुत्व धम्म / धर्म हो भी नहीं सकता । इसलिए शायद उन्होंने व्यावहारिक प्रयोग के चलते ’हिन्दुत्व’ के लिए ’धम्म’ / ’धर्म’ शब्द का प्रयोग किया हो ऐसा संभव है ।
तात्पर्य यह कि वे जिस ’महार’ जाति को मूलतः बौद्ध-मत का अनुयायी समझते थे उसका वैदिक / सनातन धर्म से कोई संबंध ही नहीं था क्योंकि वेद-पुराण वर्ण की परिभाषा ’गुण-कर्म-विभाग’ से करते हैं, न कि ’जन्म’/ जाति से, यद्यपि वह एक गौण कारक हो सकता है । इस प्रकार वेद-पुराण ’अवर्ण’ के लिए कोई दिशा-निर्देश देते ही नहीं । बौद्ध-धर्म की दीक्षा में भी इसी प्रकार समाज और अन्य ’धर्म’ मतावलंबियों के लिए कोई निर्देश नहीं हैं । इसलिए बौद्ध-धर्म में उन चार ’आश्रमों’ का कोई उल्लेख नहीं है जिसके बारे में वैदिक विचार कहता है कि ये चार ’आश्रम’ मनुष्यमात्र को प्रकृति से ही प्राप्त हुए हैं और यदि मनुष्य अपने ’आश्रम-धर्म’ का ठीक से पालन करे तो जीवन में अधिकतम संभव सुख-शांति और संभवतः अंत में ’मोक्ष’ भी पा सकता है । चूँकि बौद्ध-धर्म सीधे ही ’निर्वाण’ पर जोर देता है इसलिए उस परंपरा में सामाजिक-जीवन, आश्रम-धर्म पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया ।
बौद्ध-धर्म के सर्वाधिक स्वीकार्य मूल-ग्रंथ ’धम्मपदं’ में अनेक ऐसे शब्द हैं जो सीधे वैदिक शब्दावलि से लिए गए प्रतीत होते हैं । और ’ब्राह्मण’, ’आर्य’, ’विष्णु’ तथा दूसरे कुछ शब्दों को भी ’धम्मपदं’ में देखा जा सकता है । वेद-पुराण और उससे संबद्ध अन्य मतों के अनुयायियों का बौद्ध-धर्म के माननेवालों से कोई विरोध नहीं है । और यदि है भी तो वेद-पुराण दूसरों पर अपना मत लादने की अनुमति कदापि नहीं देता । वेद-पुराण की दृष्टि यह है कि अपात्र / अनधिकारी को न तो कुछ प्राप्त हो सकता है, न दिया जाना चाहिए । और जो पात्र / अधिकारी है उसे वाँछित वस्तु समय आने पर अवश्य ही प्राप्त हो जाती है ।
इसलिए बौद्ध-मत और हिन्दू-मत में परस्पर कोई असहमति नहीं है और यदि है भी तो वैचारिक स्तर पर ही है, न कि अपना मत दूसरे पर लादने का आग्रह । स्वर्गीय बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने इस प्रकार बौद्ध-धर्म / मत अपनाकर और अपने लाखों अनुयायियों को उस मत से जोड़कर भारत पर अवश्य ही एक उपकार किया । जरा कल्पना करें कि यदि वे अपने अनुयायियों के साथ इस्लाम या क्रिश्चियनिटि को अपना लेते तो भारत का क्या हाल होता?
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वास्तव में ’धर्म’ के नाम पर ’हिन्दुत्व’ भी इसलाम, क्रिश्चियनिटि, ज्यू तथा कैथोलिक मतों की तरह एक ’राजनीतिक विचारधारा’ के रूप में सिर्फ़ एक ’मिथ’ है यह समझने के बाद इस मिथ से मुक्ति ही भारत और विश्व के सुखी भविष्य के लिए एकमात्र आशा हो सकती है ।
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केवल भारत ही नहीं, पूरी धरती के सभी स्थानों पर इतिहास और युद्धों का चोली-दामन का साथ रहा है । कलिंग-युद्ध में हुए नर-संहार के बाद सम्राट अशोक ’महान्’ को घोर पश्चात्ताप हुआ / ग्लानि हुई और उसने भगवान् बुद्ध के मार्ग को अपनाया । अर्थात् ’बौद्ध-धर्म’ को । प्रायः यह प्रश्न मुझे सोचने को विवश करता है कि यदि अशोक उस युद्ध में विजयी न होता तो क्या उस स्थिति में भी बौद्ध-धर्म का वैसा प्रसार विश्व भर में हो सकता था?
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर समसामयिक रहे होंगे । और दोनों के ही अनुयायियों में ’क्षत्रिय’ प्रमुख थे । इसका एक कारण संभवतः यह रहा होगा कि बुद्ध और महावीर दोनों ’क्षत्रिय’ थे । दोनों की शिक्षाओं में अहिंसा पर बल दिया गया है । सनातन / वैदिक धर्म मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म होने से यद्यपि अहिंसा को सर्वोच्च स्थान पर नहीं रखता क्योंकि सामाजिक-धर्म के स्तर पर सम्यक् आचरण की दृष्टि से उसमें वर्ण-व्यवस्था को आधारभूत आवश्यकता स्वीकार किया गया है । यदि कृषि और पशु-पालन किया जाना है, यदि समाज के प्रति अपराध करनेवालों से समाज को सुरक्षा प्रदान करना है तो हिंसा को किसी न किसी रूप में स्वीकार करना होगा । यदि दस्युओं से राज्य की रक्षा करना है, हिंस्र पशुओं से मनुष्य को बचाना है तो भी हिंसा का औचित्य स्वीकार करना होगा ।
क्या बुद्ध और महावीर का मार्ग सामाजिक धर्म बन सकता है / था?
जब हमारे राष्ट्र के संविधान-निर्माताओं में प्रमुख स्वर्गीय बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने दीक्षा-भूमि या चैत्य-भूमि पर बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण की तो उन्होंने बौद्ध त्रिशरण-मन्त्र और बौद्ध-धर्म के पाँच मूल सिद्धान्तों (पंच-स्कंध) को अपनाते हुए 22 मूल निर्देश-सूत्र स्थापित किए जिसे ’नव-बौद्ध’ का आधार कहा गया । इन 30 का पालन प्रत्येक नव-बौद्ध से अपेक्षित है । इनमें विवाहेतर शारीरिक संबंध का त्याग तथा मांअस-मदिरा के सेवन का त्याग भी सम्मिलित है । पुनः उन्होंने इसे अ-राजनीतिक (नॉन-पॉलिटिकल) संगठन कहा ।
उन्होंने कहा कि वे ’हिन्दुओं’ के इस विचार से बिलकुल असहमत हैं कि बुद्ध विष्णु का अवतार थे / हैं ।
उन्होंने ’ब्रह्म’, ’शिव’, ’गौरी’ सहित ’राम’, ’कृष्ण’ आदि को भी निषिद्ध घोषित किया और ’पुनर्जन्म’ की धारणा को स्वीकार करते हुए आशा की कि वे किसी अगले जन्म में ’निर्वाण’ प्राप्त कर सकेंगे ।
उनके विचारों में विरोधाभास था या नहीं यह तो उन्हें ही बेहतर पता होगा किंतु यदि उन्होंने ’हिन्दुत्व’ को एक ’धर्म’ की तरह स्वीकार किया तो यही एक बड़ी भूल थी क्योंकि तब उन्होंने त्रिशरण-मन्त्र के ही एक अंश को समझने में भूल की । ’धम्मं सरणम् गच्छामि’ के अनुसार हिन्दुत्व धम्म / धर्म हो भी नहीं सकता । इसलिए शायद उन्होंने व्यावहारिक प्रयोग के चलते ’हिन्दुत्व’ के लिए ’धम्म’ / ’धर्म’ शब्द का प्रयोग किया हो ऐसा संभव है ।
तात्पर्य यह कि वे जिस ’महार’ जाति को मूलतः बौद्ध-मत का अनुयायी समझते थे उसका वैदिक / सनातन धर्म से कोई संबंध ही नहीं था क्योंकि वेद-पुराण वर्ण की परिभाषा ’गुण-कर्म-विभाग’ से करते हैं, न कि ’जन्म’/ जाति से, यद्यपि वह एक गौण कारक हो सकता है । इस प्रकार वेद-पुराण ’अवर्ण’ के लिए कोई दिशा-निर्देश देते ही नहीं । बौद्ध-धर्म की दीक्षा में भी इसी प्रकार समाज और अन्य ’धर्म’ मतावलंबियों के लिए कोई निर्देश नहीं हैं । इसलिए बौद्ध-धर्म में उन चार ’आश्रमों’ का कोई उल्लेख नहीं है जिसके बारे में वैदिक विचार कहता है कि ये चार ’आश्रम’ मनुष्यमात्र को प्रकृति से ही प्राप्त हुए हैं और यदि मनुष्य अपने ’आश्रम-धर्म’ का ठीक से पालन करे तो जीवन में अधिकतम संभव सुख-शांति और संभवतः अंत में ’मोक्ष’ भी पा सकता है । चूँकि बौद्ध-धर्म सीधे ही ’निर्वाण’ पर जोर देता है इसलिए उस परंपरा में सामाजिक-जीवन, आश्रम-धर्म पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया ।
बौद्ध-धर्म के सर्वाधिक स्वीकार्य मूल-ग्रंथ ’धम्मपदं’ में अनेक ऐसे शब्द हैं जो सीधे वैदिक शब्दावलि से लिए गए प्रतीत होते हैं । और ’ब्राह्मण’, ’आर्य’, ’विष्णु’ तथा दूसरे कुछ शब्दों को भी ’धम्मपदं’ में देखा जा सकता है । वेद-पुराण और उससे संबद्ध अन्य मतों के अनुयायियों का बौद्ध-धर्म के माननेवालों से कोई विरोध नहीं है । और यदि है भी तो वेद-पुराण दूसरों पर अपना मत लादने की अनुमति कदापि नहीं देता । वेद-पुराण की दृष्टि यह है कि अपात्र / अनधिकारी को न तो कुछ प्राप्त हो सकता है, न दिया जाना चाहिए । और जो पात्र / अधिकारी है उसे वाँछित वस्तु समय आने पर अवश्य ही प्राप्त हो जाती है ।
इसलिए बौद्ध-मत और हिन्दू-मत में परस्पर कोई असहमति नहीं है और यदि है भी तो वैचारिक स्तर पर ही है, न कि अपना मत दूसरे पर लादने का आग्रह । स्वर्गीय बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने इस प्रकार बौद्ध-धर्म / मत अपनाकर और अपने लाखों अनुयायियों को उस मत से जोड़कर भारत पर अवश्य ही एक उपकार किया । जरा कल्पना करें कि यदि वे अपने अनुयायियों के साथ इस्लाम या क्रिश्चियनिटि को अपना लेते तो भारत का क्या हाल होता?
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वास्तव में ’धर्म’ के नाम पर ’हिन्दुत्व’ भी इसलाम, क्रिश्चियनिटि, ज्यू तथा कैथोलिक मतों की तरह एक ’राजनीतिक विचारधारा’ के रूप में सिर्फ़ एक ’मिथ’ है यह समझने के बाद इस मिथ से मुक्ति ही भारत और विश्व के सुखी भविष्य के लिए एकमात्र आशा हो सकती है ।
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