Thursday, 7 April 2016

आधिदैविक अस्तित्व के आयाम के प्रवेश-द्वार

आधिदैविक अस्तित्व के आयाम के प्रवेश-द्वार
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गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु
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विचार आधिभौतिक, ऐहिक (mundane, secular, physical-world), की सीमा-रेखा होता है, ’व्यक्ति’ का चित्त जाने-अनजाने, प्रारब्धवश, या किन्हीं अज्ञात कारणों से विचार (के आयाम) का अतिक्रमण तो कर जाता है, किन्तु उस स्थिति में भी अपनी और अपने जगत की कोई ’पहचान’ बनी रहती है । और यद्यपि इस भौतिक जगत से उसका संपर्क न के बराबर रह जाता है, यह ’घटना’ स्मृति में अंकित अवश्य हो जाती है, -जिसका वर्णन करना विचार के सामर्थ्य से बाहर होता है ।
मनुष्यमात्र वैसे तो विचार करने या न-करने हेतु बाध्य होता है क्योंकि विचार मूलतः स्थितियों और स्मृति का परिणाम है, जो ’मस्तिष्क’ में ’घटित’ होता है किन्तु मनुष्य का ध्यान इस तथ्य की ओर प्रायः जाता ही नहीं और वह ’अपने-आप’ को विचार से स्वतंत्र एक विचारकर्ता समझ बैठता है । यहाँ तक कि इस त्रुटियुक्त अभ्यास के कारण उसमें स्वयं को विचार का ’स्वामी’ समझने की भावना इतनी गहरे पैठ चुकी होती है कि वह दावे से कहता भी है :
"यह मेरा विचार है ।" या, मैं अपने विचार सुधारना / बदलना चाहता हूँ ।"
इसमें संशय नहीं कि यह भूल मनुष्य में उन सामाजिक परिस्थितियों से पैदा होती है जिनमें उसका जन्म और पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि हुए होते हैं । प्रत्येक बच्चे / शिशु का चित्त प्रारंभ में एक शुद्ध संवेदनशील दर्पण भर होता है जिस पर प्रतिबिंबित जगत और एकत्र धूल उसकी मानसिक बनावट तय करते हैं । किन्तु गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु के तथ्य के विवेचना से यह समझना सरल है कि विचार के जगत से परे भी ’व्यक्ति’ के ’मन’ के ऐसे आयाम अवश्य हैं जहाँ विचार अनुपस्थित, स्तब्ध या निलंबित होता है ।
जब हम आश्चर्य, भय, लज्जा, हर्ष, उत्तेजना या दुःख के आघात से मोहित-बुद्धि हो जाते हैं और विचार क्षण भर के लिए ठिठक जाता है । तब भी स्मृति यद्यपि उस अनुभव को संजोकर सहेज तो लेती है, किन्तु विचार उसका ठीक ठीक वर्णन करने में असमर्थ होता है ।
उपरोक्त तथ्य से शायद ही कोई असहमत हो । जब ’क्षण’ अपेक्षतया अत्यन्त विस्तीर्ण सा हो जाता है तब चित्त / मन उस आयाम में अनायास ही चला जाता है, जिसकी तुलना  गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु जैसी स्थितियों में होनेवाली मनोदशा से की जा सकती है ।
जैसे एक भौतिक जगत की काल-सूचक ’घड़ी’ होती है, वैसे ही उन दशाओं की अपनी-अपनी ’घड़ियाँ’ होती हैं जिनके ’क्षणों’ की तुलना करना मूलतः असंगत है । वे सारी घड़ियाँ Salvador Dali सेल्वेडोर डाली की घड़ियों की तरह पिघलती बहती हैं । इसलिए हमारे भौतिक समय के सन्दर्भ में उनकी लंबाई या विस्तार को छोटा या बड़ा कहना भी मूलतः त्रुटिपूर्ण है ।
गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु के अतिरिक्त दो और महत्वपूर्ण बिन्दु मनुष्य के जीवन में आधिदैविक के प्रवेश-द्वार हो सकते हैं । योग तथा अन्य ग्रन्थों उपनिषदों, वेदों आदि में इसका वर्णन पाया जाता है ।
वे दो द्वार हैं व्यक्ति के चित्त / मन का ’जाग्रत-दशा’को लाँघकर स्वप्नावस्था में प्रवेश करना, और स्वप्नावस्था को लाँघकर गहरी स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था में प्रवेश करना । यही घटना प्रतिक्रम से भी होती है, किन्तु ’अवधान’ की दृष्टि से इसे तभी समझा जा सकता है जब पहली दो स्थितियों में चित्त / मन ’मैं’ के तथ्य की स्मृति को दृष्टि से न ओझल होने दे । यदि वह ऐसा कर पाता है, तो बाद की दो स्थितियाँ उसे पुरस्कार-स्वरूप प्राप्त होती ही हैं ।
इस प्रकार ’अपने’ अवचेतन के मार्ग से आधिदैविक के यथार्थ से परिचित होना है और तभी मनुष्य वैदिक और पौराणिक देवताओं के यथार्थ तत्व से अवगत हो पाता है । सीधे ही गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु के समय की मनःस्थिति को उदाहरण की तरह तो समझा जा सकता है किन्तु वह हमें विचार के आयाम से परे जाने में पर्याप्त सहायक नहीं होता ।
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