सृष्टि और सूर्य-वंश
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भगवान् सूर्य के उद्भव के साथ-साथ ही / पश्चात् सूर्यमण्डल का विस्तार होता है / हुआ ।
सूर्य आत्मा के स्वरूप हैं स्वयं परब्रह्म परमात्मा द्वारा यह ज्ञान उन्हें दिया गया ।
अध्याय 4, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
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(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
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भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
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सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण तीनों उनके प्रकाश के अंश हैं ।
प्रकाश के विभाजन से प्राप्त तीन मूल वर्ण पीत, अरुण, तथा नील क्रमशः सत तथा रज, तम तथा रज, और रज तथा तम, के परस्पर संयोग से उत्पन्न होते हैं । शुद्ध सतोगुण या सत्व इन तीनों में प्रच्छन्न तथा इनके पुनः परस्पर विलीन होने से प्रकट रूप लेता है ।
संज्ञा शुद्ध सतोगुणी प्रकृति जिसमें रजोगुण भी मिला है । छाया शुद्ध तमोगुणी प्रकृति है जिसमें रजोगुण भी मिला हुआ है ।
इसी का विस्तार यम (सृष्टि का विधान), यमी / यमुना (उसका सूचक व्यावहारिक पक्ष), एवं अश्विनौ (दोनों अश्विनीकुमार) सोम तथा वरुण हैं ।
इसी तरह छाया की संतानों का क्रम क्रमशः शनैश्चर (Saturn), सावर्णि मनु (Clone of Manu / Emmanuel, Noah) तथा तापी नदी के रूप में हुआ ।
चूँकि छाया की ये संतानें उसे भगवान् सूर्य से प्राप्त हुईं इसलिए वे भी यम, यमी तथा अश्विनीकुमारों की तरह ’देवता-तत्व’ होने से वेद में आराध्य मानी गई हैं ।
भगवान् सूर्य का व्यक्त रूप जहाँ आधिभौतिक रूप की तरह इन्द्रियगम्य है, किन्तु जैसे हम सूर्य की किरण का ही अध्ययन भौतिक-विज्ञान की दृष्टि से कर सकते हैं न कि समूचे सूर्य का, वैसे ही आधिभौतिक रूप में शुक्र, बृहस्पति और मंगल, सौरमंडल के इन तीन ग्रहों का हमारा अध्ययन भौतिक-विज्ञान की क्षमताओं से सीमित रह जाता है ।
इन तीनों का आधिदैविक स्वरूप कैसा है, इस विषय में तो हम कल्पना तक नहीं कर सकते ।
भगवान् ब्रह्मदेव ने जब सृष्टि का कल्पन करते हैं तो कल्प की अभिव्यक्ति होती है । कल्प भौतिक काल की वह सीमा है जिसके अन्तर्गत भौतिक घटनाएँ घटती हैं । ’कल्’ > कलने, क्लृप् > कल्पने घट् > घट्यते, अवकलने से स्पष्ट है कि कल्प भी विचारमात्र है । वहीं घटना भी विचारमात्र है । वस्तुतः न कुछ रचा गया न रचा जाता है, क्योंकि जो होता है वह भी नहीं सा हो जाता है, अर्थात् वह पहले, जब नहीं हुआ था वैसा ही हो जाता है । इसलिए घट का अर्थ मिट्टी का घड़ा तथा घटाने की गणितीय क्रिया की सिद्धि दोनों प्रयोजनों के लिए किया जाता है ।
कल्प में सूर्य, शनि, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, चंद्र, तथा बुध का भी अपना स्थान और आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक भूमिका है । और बृहस्पति ब्रह्मणःपति होने से देवताओं के गुरु (वरीय, श्रेष्ठ) हैं जबकि शुक्र (भृगु) होने से दैत्यों असुरों के गुरु । यह मोटा विभाजन है । वरुण के पुत्र होने से शुक्र भौतिक कला, विज्ञान, गणित (तर्क-शास्त्र) तथा भोग, सौन्दर्य तथा आमोद-प्रमोद, विषाद, अवसाद आदि के भी अधिदेवता हैं ।
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भगवान् सूर्य के उद्भव के साथ-साथ ही / पश्चात् सूर्यमण्डल का विस्तार होता है / हुआ ।
सूर्य आत्मा के स्वरूप हैं स्वयं परब्रह्म परमात्मा द्वारा यह ज्ञान उन्हें दिया गया ।
अध्याय 4, श्लोक 1,
श्रीभगवानुवाच :
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
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(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
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भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
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सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण तीनों उनके प्रकाश के अंश हैं ।
प्रकाश के विभाजन से प्राप्त तीन मूल वर्ण पीत, अरुण, तथा नील क्रमशः सत तथा रज, तम तथा रज, और रज तथा तम, के परस्पर संयोग से उत्पन्न होते हैं । शुद्ध सतोगुण या सत्व इन तीनों में प्रच्छन्न तथा इनके पुनः परस्पर विलीन होने से प्रकट रूप लेता है ।
संज्ञा शुद्ध सतोगुणी प्रकृति जिसमें रजोगुण भी मिला है । छाया शुद्ध तमोगुणी प्रकृति है जिसमें रजोगुण भी मिला हुआ है ।
इसी का विस्तार यम (सृष्टि का विधान), यमी / यमुना (उसका सूचक व्यावहारिक पक्ष), एवं अश्विनौ (दोनों अश्विनीकुमार) सोम तथा वरुण हैं ।
इसी तरह छाया की संतानों का क्रम क्रमशः शनैश्चर (Saturn), सावर्णि मनु (Clone of Manu / Emmanuel, Noah) तथा तापी नदी के रूप में हुआ ।
चूँकि छाया की ये संतानें उसे भगवान् सूर्य से प्राप्त हुईं इसलिए वे भी यम, यमी तथा अश्विनीकुमारों की तरह ’देवता-तत्व’ होने से वेद में आराध्य मानी गई हैं ।
भगवान् सूर्य का व्यक्त रूप जहाँ आधिभौतिक रूप की तरह इन्द्रियगम्य है, किन्तु जैसे हम सूर्य की किरण का ही अध्ययन भौतिक-विज्ञान की दृष्टि से कर सकते हैं न कि समूचे सूर्य का, वैसे ही आधिभौतिक रूप में शुक्र, बृहस्पति और मंगल, सौरमंडल के इन तीन ग्रहों का हमारा अध्ययन भौतिक-विज्ञान की क्षमताओं से सीमित रह जाता है ।
इन तीनों का आधिदैविक स्वरूप कैसा है, इस विषय में तो हम कल्पना तक नहीं कर सकते ।
भगवान् ब्रह्मदेव ने जब सृष्टि का कल्पन करते हैं तो कल्प की अभिव्यक्ति होती है । कल्प भौतिक काल की वह सीमा है जिसके अन्तर्गत भौतिक घटनाएँ घटती हैं । ’कल्’ > कलने, क्लृप् > कल्पने घट् > घट्यते, अवकलने से स्पष्ट है कि कल्प भी विचारमात्र है । वहीं घटना भी विचारमात्र है । वस्तुतः न कुछ रचा गया न रचा जाता है, क्योंकि जो होता है वह भी नहीं सा हो जाता है, अर्थात् वह पहले, जब नहीं हुआ था वैसा ही हो जाता है । इसलिए घट का अर्थ मिट्टी का घड़ा तथा घटाने की गणितीय क्रिया की सिद्धि दोनों प्रयोजनों के लिए किया जाता है ।
कल्प में सूर्य, शनि, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, चंद्र, तथा बुध का भी अपना स्थान और आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक भूमिका है । और बृहस्पति ब्रह्मणःपति होने से देवताओं के गुरु (वरीय, श्रेष्ठ) हैं जबकि शुक्र (भृगु) होने से दैत्यों असुरों के गुरु । यह मोटा विभाजन है । वरुण के पुत्र होने से शुक्र भौतिक कला, विज्ञान, गणित (तर्क-शास्त्र) तथा भोग, सौन्दर्य तथा आमोद-प्रमोद, विषाद, अवसाद आदि के भी अधिदेवता हैं ।
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