Saturday, 30 April 2016

Solution to n-dimensional Ruby-cube.

Solution to n-dimensional Ruby-cube.
--
Not sure how much perfect / imperfect is this evaluation.
Let us have an n-dimensional Ruby-cube with all six faces having well-arranged so that any of the two squares on a face are of the same color.
Now let us rotate one or more faces m times in whatever random way but note-down the direction (clock-wise or anti-clockwise) of every movement correctly.
Thus we get a particular though jumbled-up set-up of the squares on each of the six faces.
Now if we rotate these faces in the reverse direction and exactly opposite to the one we had rotated before having got this set up, we shall come upon the initial position.
Now, as in this way we can reach all possible jumbled-up set-up.
(Hint : though a very large number indeed, but is finite and could be worked out by calculating all possible 'permutations and combinations' using factorials).
We see that each of them has a unique solution.
As we can mathematically find out this number how-so-ever big, each has this unique solution with minimum number of moves which takes us to the initial position.
--
A friend suggested there may be several solutions with lesser number of moves.
Of course!
Here I wanted to point out there is at least one possible solution for each and every jumbled-up set of squares. Though the one with minimum number of moves may be yet another, unique....
Hope Manjul Bhargava likes this.
--

Tuesday, 26 April 2016

HanumAna / हनुमान

HanumAna / हनुमान -1
--
बाल समय रवि भक्ष लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो...
--
baala-samay ravi bhakSha liyo taba teenahun loka bhayo andhiyAro ... Meaning : When the Consciousness / PrANa stirs (the primal / infant-consciousness) that is HanumAna The Monkey-God, it covers-up the the Sun / 'Self', and when it releases the same, whole existence comes to peace / relief. This explains the Truth of HanumAna at three levels > Spiritual, Cosmic and individual. The Spiritual is AdhyAtmika, The Cosmic / Celestial is of the Kingdom of 'DevatA' and the Individual is the person. HanumAna is thus a perfect way to Lord Shri Rama, Who is not different from Lord Shiva or 'Self', The Supreme Being.
This is the 'consciousness' of man. Average man is but monkey-mind with a body of human kind. HanumAna is JnAnI and When He was just a child of a day, He took The rising sun for some sweet fruit, and jumped to grab and gobble it. And the whole existence was lost into darkness. Then Celestial beings prayed Him to release the sun, and again the peace prevailed everywhere.
_/\_
MandUkya Upanishad categorically narrates this process / explains this.
The three loka ( spheres of existence) are JAgrit (waking states when senses recognize a material world) , swapna (When senses recognize a subtle psychic world), suShupti Deepa dreamless sleep, when senses recognize the pure sense of contentedness, peace.
The primal consciousness that stirs when one is born keeps going through these 3 states / spheres.
Again, There is yet another set of 3 spheres namely, 'the individual', the collective mind / Cosmic / Celestial of Gods and demons  'spirits' and The Spiritual / Pure Being / Consciousness only.
The primal consciousness thus identifies with 3 states of individual existence but that is only formal truth. When Primal Consciousness returns to the source from where it originally emerged, it ultimately reaches the Supreme / Spiritual.
_/\_
mAnDUkya-upaniShad माण्डूक्य उपनिषद्  suggests that attention should be withdrawn from the material world and should go through psychic world to Spiritual. 'अ' waking state should merge into dream state 'उ' and dream state into deep sleep state 'म'  while 'self-remembrance' continues. Beyond these 3 states is तुरीय / Transcendental.
Sri Nisargadatta Maharaj also pointed out the same.
Let the conscious level  of mind should merge into sub-conscious, and the sub-conscious into unconscious. When self-remembrance continues, it crosses the field of un-conscious and eventually touches / attains the state of pure being.
I AM THAT :
Q. :How to go beyond unconscious?)
--
The same process is taught in Gita also.
-- 

Sunday, 24 April 2016

India / Bharat / Indus / Sindhu

सन्दर्भ :
--
The petition also cites Article 1 of the Constitution, which says: "India, that is Bharat, shall be a Union of States."... 
I just now knew this fact about our Constitution. And I am strongly in favor of accepting this view. To me 'India' derives its name from Indu / Indus (in Sanskrit that would be better as IndU / InduH / Indoo. All indicate our past history from periods of Mahabharat and Ramayana. Our Vedika Panchang starts with the jyautish / Astronomy (not to be confused with Astrology) and Sun and Moon form the axis of this framework. This 'Hindutva' is on the other hand is a fake fabricated word. Valmiki Ramayana tells us How Lava and Kusha were appointed as the Kings of Lahore and Afghanistan. The River Sindhu has another way of being called Hindu... And Hindukush is in fact Sindhukush, owing to Sindhu River and Prince Kush, Son of Rama. This word Hindu / Hindutva has been very effectively and successfully exploited by the British to divert our attention from our Reality as an Indian / Bharatiya Identity.
वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग 101 के अन्तर्गत देखा जा सकता है कि किस प्रकार भगवान् श्रीराम ने ’गन्धर्वों’ के प्रदेश को जीतकर अपने दोनों पुत्रों लव तथा कुश को वहाँ का शासन सौंपा । सिन्धु नदी के इस पार पूर्व की ओर लव तथा उस पार पश्चिम की ओर कुश के राज्य थे । सिन्धु नदी उनकी सीमारेखा थी और सिन्धु के उस ओर बनी पर्वश्रेणी सिन्धुकुश कहलाई । हमारा ध्यान इस तथ्य से हटाने के लिए हिन्दूकुश शब्द, हिन्दू तथा कुश के योग से बना है ऐसा बताया जाता है और उसकी व्याख्या के लिए कहा जाता है कि वहाँ विदेशी आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं का इतना नरसंहार किया कि उस क्षेत्र का नाम हिन्दूकुश हो गया ।
इन्दु > इन्दुः > इन्दू > इन्दुस् > इंडस > इन्डिया भी वैसे ही इन्दु (चन्द्र) से बना शब्द है क्योंकि भारतीय / वैदिक पंचांग की तिथियाँ चन्द्र से ही निश्चित की जाती हैं । यहाँ से इन्डोनेशिया तक वैदिक संस्कृति के विस्तार का यह एक कारण है । कोलंबस ने अमरीका का पता 1492 ई. में लगाया और भूल से उसे ’इंडिया’ समझ लिया । क्या यह घटना ’इंडिया’ अंग्रेज़ों के भारत में आने से बहुत पहले नहीं हो चुकी थी? अंग्रेज़ों  ने भारत पर वर्ष 1600 के बाद से 1947 तक शासन किया ।
--

     

Friday, 22 April 2016

कुम्भ पर्व / Kumbha-parva / Simhastha

प्रश्न : आत्मा अमर है, फिर किस के अमरत्व के लिए होता है कुम्भ पर्व?
Question : 'Self' is deathless, why then this kumbha-parva is celebrated?
उत्तर / Answer :
सत्प्रत्ययाः किं नु विहाय सन्तं ?
हृद्येष चिन्तारहितो हृदाख्यः ।
कथं स्मरामस्तममेयमेकं ?
तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा ॥
मृत्युञ्जयं मृत्युभयाश्रितानाम्‌,
अहं-मतिर्मृत्युमुपैति पूर्वम्‌ ।
अथस्वभावादमृतेषु तेषु,
कथं पुनर्मृत्युधियोऽवकाशः ? ॥
--
कृपया हिंदी में बताएँ !
Those who have overcome the fear of death by surrendering their ego to Lord celebrate this parva, and those who bath in shipra / ganga / yamuna / godavari surrender their ego / to Lord and get rid of fear of death, become immortal and one with the Lord.
जिन्होंने अपना अहंकार प्रभु को अर्पित कर  दिया है, वे तो मृत्यु-भय से मुक्त होने के कारण इस पर्व को मनाते हैं, और दूसरे इसलिए ताकि गंगा / यमुना / शिप्रा / गोदावरी में स्नान कर अपना  अहंकार प्रभु को अर्पित कर आत्मा के अमर होने के सत्य को प्रत्यक्ष जान सकें ।
-- 

Saturday, 16 April 2016

हिंदुत्व का मिथ

हिंदुत्व का मिथ
--
केवल भारत ही नहीं, पूरी धरती के सभी स्थानों पर इतिहास और युद्धों का चोली-दामन का साथ रहा है । कलिंग-युद्ध में हुए नर-संहार के बाद सम्राट अशोक ’महान्’ को घोर पश्चात्ताप हुआ / ग्लानि हुई और उसने भगवान् बुद्ध के मार्ग को अपनाया । अर्थात् ’बौद्ध-धर्म’ को । प्रायः यह प्रश्न मुझे सोचने को विवश करता है कि यदि अशोक उस युद्ध में विजयी न होता तो क्या उस स्थिति में भी बौद्ध-धर्म का वैसा प्रसार विश्व भर में हो सकता था?
भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर समसामयिक रहे होंगे । और दोनों के ही अनुयायियों में ’क्षत्रिय’ प्रमुख थे । इसका एक कारण संभवतः यह रहा होगा कि बुद्ध और महावीर दोनों ’क्षत्रिय’ थे । दोनों की शिक्षाओं में अहिंसा पर बल दिया गया है । सनातन / वैदिक धर्म मुख्यतः ब्राह्मण-धर्म होने से यद्यपि अहिंसा को सर्वोच्च स्थान पर नहीं रखता क्योंकि सामाजिक-धर्म के स्तर पर सम्यक् आचरण की दृष्टि से उसमें वर्ण-व्यवस्था को आधारभूत आवश्यकता स्वीकार किया गया है । यदि कृषि और पशु-पालन किया जाना है, यदि समाज के प्रति अपराध करनेवालों से समाज को सुरक्षा प्रदान करना है तो हिंसा को किसी न किसी रूप में स्वीकार करना होगा । यदि दस्युओं से राज्य की रक्षा करना है, हिंस्र पशुओं से मनुष्य को बचाना है तो भी हिंसा का औचित्य स्वीकार करना होगा ।
क्या बुद्ध और महावीर का मार्ग सामाजिक धर्म बन सकता है / था?
जब हमारे राष्ट्र के संविधान-निर्माताओं में प्रमुख स्वर्गीय बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने दीक्षा-भूमि या चैत्य-भूमि पर बौद्ध-धर्म की दीक्षा ग्रहण की तो उन्होंने बौद्ध त्रिशरण-मन्त्र और बौद्ध-धर्म के पाँच मूल सिद्धान्तों (पंच-स्कंध) को अपनाते हुए 22 मूल निर्देश-सूत्र स्थापित किए जिसे ’नव-बौद्ध’ का आधार कहा गया । इन 30 का पालन प्रत्येक नव-बौद्ध से अपेक्षित है । इनमें विवाहेतर शारीरिक संबंध का त्याग तथा मांअस-मदिरा के सेवन का त्याग भी सम्मिलित है । पुनः उन्होंने इसे अ-राजनीतिक (नॉन-पॉलिटिकल) संगठन कहा ।
उन्होंने कहा कि वे ’हिन्दुओं’ के इस विचार से बिलकुल असहमत हैं कि बुद्ध विष्णु का अवतार थे / हैं ।
उन्होंने ’ब्रह्म’, ’शिव’, ’गौरी’ सहित ’राम’, ’कृष्ण’ आदि को भी निषिद्ध घोषित किया और ’पुनर्जन्म’ की धारणा को स्वीकार करते हुए आशा की कि वे किसी अगले जन्म में ’निर्वाण’ प्राप्त कर सकेंगे ।
उनके विचारों में विरोधाभास था या नहीं यह तो उन्हें ही बेहतर पता होगा किंतु यदि उन्होंने ’हिन्दुत्व’ को एक ’धर्म’ की तरह स्वीकार किया तो यही एक बड़ी भूल थी क्योंकि तब उन्होंने त्रिशरण-मन्त्र के ही एक अंश को समझने में भूल की । ’धम्मं सरणम् गच्छामि’ के अनुसार हिन्दुत्व धम्म / धर्म हो भी नहीं सकता । इसलिए शायद उन्होंने व्यावहारिक प्रयोग के चलते ’हिन्दुत्व’ के लिए ’धम्म’ / ’धर्म’ शब्द का प्रयोग किया हो ऐसा संभव है ।
तात्पर्य यह कि वे जिस ’महार’ जाति को मूलतः बौद्ध-मत का अनुयायी समझते थे उसका वैदिक / सनातन धर्म से कोई संबंध ही नहीं था क्योंकि वेद-पुराण वर्ण की परिभाषा ’गुण-कर्म-विभाग’ से करते हैं, न कि ’जन्म’/ जाति से, यद्यपि वह एक गौण कारक हो सकता है । इस प्रकार वेद-पुराण ’अवर्ण’ के लिए कोई दिशा-निर्देश देते ही नहीं । बौद्ध-धर्म की दीक्षा में भी इसी प्रकार समाज और अन्य ’धर्म’ मतावलंबियों के लिए कोई निर्देश नहीं हैं । इसलिए बौद्ध-धर्म में उन चार ’आश्रमों’ का कोई उल्लेख नहीं है जिसके बारे में वैदिक विचार कहता है कि ये चार ’आश्रम’ मनुष्यमात्र को प्रकृति से ही प्राप्त हुए हैं और यदि मनुष्य अपने ’आश्रम-धर्म’ का ठीक से पालन करे तो जीवन में अधिकतम संभव सुख-शांति और संभवतः अंत में ’मोक्ष’ भी पा सकता है । चूँकि बौद्ध-धर्म सीधे ही ’निर्वाण’ पर जोर देता है इसलिए उस परंपरा में सामाजिक-जीवन, आश्रम-धर्म पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया ।
बौद्ध-धर्म के सर्वाधिक स्वीकार्य मूल-ग्रंथ ’धम्मपदं’ में अनेक ऐसे शब्द हैं जो सीधे वैदिक शब्दावलि से लिए गए प्रतीत होते हैं । और ’ब्राह्मण’, ’आर्य’, ’विष्णु’ तथा दूसरे कुछ शब्दों को भी ’धम्मपदं’ में देखा जा सकता है । वेद-पुराण और उससे संबद्ध अन्य मतों के अनुयायियों का बौद्ध-धर्म के माननेवालों से कोई विरोध नहीं है । और यदि है भी तो वेद-पुराण दूसरों पर अपना मत लादने की अनुमति कदापि नहीं देता । वेद-पुराण की दृष्टि यह है कि अपात्र / अनधिकारी को न तो कुछ प्राप्त हो सकता है, न दिया जाना चाहिए । और जो पात्र / अधिकारी है उसे वाँछित वस्तु समय आने पर अवश्य ही प्राप्त हो जाती है ।
इसलिए बौद्ध-मत और हिन्दू-मत में परस्पर कोई असहमति नहीं है और यदि है भी तो वैचारिक स्तर पर ही है, न कि अपना मत दूसरे पर लादने का आग्रह । स्वर्गीय बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर ने इस प्रकार बौद्ध-धर्म / मत अपनाकर और अपने लाखों अनुयायियों को उस मत से जोड़कर भारत पर अवश्य ही एक उपकार किया । जरा कल्पना करें कि यदि वे अपने अनुयायियों के साथ इस्लाम या क्रिश्चियनिटि को अपना लेते तो भारत का क्या हाल होता?
--
वास्तव में ’धर्म’ के नाम पर ’हिन्दुत्व’ भी इसलाम, क्रिश्चियनिटि, ज्यू तथा कैथोलिक मतों की तरह एक ’राजनीतिक विचारधारा’ के रूप में सिर्फ़ एक ’मिथ’ है यह समझने के बाद इस मिथ से मुक्ति ही भारत और विश्व के सुखी भविष्य के लिए एकमात्र आशा हो सकती है ।
--  
               

Friday, 15 April 2016

Science.

Q: Science can never be challenged. It extends only...
A: What is Science? A model of learning based upon the principles of logic. What is logic? A discussion / dialogue between opposing concepts. What is concept? A thought, - A formula in words ? What is word? The direct expression of the consciousness associated with a body / organism. Science is supported by logic / Mathematics. But Mathematics is supported by concepts. Again 0 and 1 too are but true as concept only. Because 'number' is itself an idea. The underlying consciousness-principle / devatA / Ganesha is the self-evident Reality which no one could ever deny / refute. Where stands than the 'science'? At what foot-hold upon?
Therefore Vedanta or Sanatana-dharma texts don't even insist that The Supreme-Being is one or many. Though they admit The Supreme-Being is unique / विलक्षण in the sense that it is indescribable. And though It could be attained and Realized too in a way, one can never claim he has known the Supreme Being.
sAMkhya (sankhyA) starts with 1.
And asserts that 1, the 'purush' is the only Reality.
Vedanta however insists that 1 itself is a formal notion only.
Because the Reality is indivisible, The one who says '1' has no his own independent existence from the Supreme Being.
--

Thursday, 14 April 2016

श्रीदासबोधः

श्रीदासबोधः
--
॥श्रीराम ॥
समासो प्रथमः
ग्रंथारंभः
॥ श्रीराम ॥
पृच्छन्ति श्रोताः क ग्रंथो (अयम्) । किं निगदितमत्र । किं च फलप्राप्तिः । श्रवणेनास्य ॥1
ग्रंथनाम दासबोधः । गुरुशिष्ययोर्संवादो । निगदितो विशदैः । भक्तिमार्गः ।2
नवविधाभक्तिज्ञानौ । उक्तं च वैराग्यलक्षणम् । बहुधा आत्मनिरूपणं । प्रदिष्टवान् ॥3
भक्त्युपायेन देवो । प्राप्नोति जनः न संशयो । तथैव त्वभिप्रायो । ग्रंथे अस्मिन् ॥4
प्रधानभक्तेर्निश्चयो । शुद्धज्ञाननिश्चयो । आत्मस्थितेर्निश्चयो । उक्तवानत्र ॥5
--
॥ श्रीरामनवमी की शुभकामनाएँ ॥
--
श्रीदासबोध
--
॥ श्रीराम ॥ 
पूछते हैं श्रोता, कौन सा ग्रन्थ है यह?
इसमें क्या बतलाया गया है ?
और क्या है फलप्राप्ति ?
इसके श्रवण की ॥1
ग्रंथ का नाम है 'दासबोध' ।
गुरुशिष्यों का संवाद ।
विशदता से वर्णित ।
भक्तिमार्ग ॥2
नवविधा भक्ति और ज्ञान ।
वैराग्यलक्षण का वर्णन ।
बहुधा आत्मनिरूपण ।
निर्दिष्ट यहाँ ॥3
भक्ति से ही भगवान ।
मिलता है निःसन्देह ।
यही है अभिप्राय ।
इस ग्रंथ का ॥4
प्रधानभक्ति का निश्चय ।
शुद्धज्ञान का निश्चय ।
आत्मस्थिति का निश्चय ।
कहा गया है यहाँ ॥5
--



  
    

Wednesday, 13 April 2016

सृष्टि और सूर्य-वंश-1

सृष्टि और सूर्य-वंश
--
भगवान् सूर्य के उद्भव के साथ-साथ ही / पश्चात् सूर्यमण्डल का विस्तार होता है / हुआ ।
सूर्य आत्मा के स्वरूप हैं स्वयं परब्रह्म परमात्मा द्वारा यह ज्ञान उन्हें दिया गया । 
अध्याय 4, श्लोक 1,

श्रीभगवानुवाच :

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
--
(इमम् विवस्वते योगम् प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम् ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत ॥)
--
भावार्थ :
अव्यय आत्म-स्वरूप  मैंने (अर्थात् परमात्मा ने) इस योग के तत्व को विवस्वान के प्रति (के लिए) कहा, विवस्वान् ने इसे ही मनु के प्रति (के लिए) कहा, और मनु ने इसे ही इक्ष्वाकु के प्रति (के लिए) कहा ।
--
सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण तीनों उनके प्रकाश के अंश हैं ।
प्रकाश के विभाजन से प्राप्त तीन मूल वर्ण पीत, अरुण, तथा नील क्रमशः सत तथा रज, तम तथा रज, और रज तथा तम, के परस्पर संयोग से उत्पन्न होते हैं । शुद्ध सतोगुण या सत्व इन तीनों में प्रच्छन्न तथा इनके पुनः परस्पर विलीन होने से प्रकट रूप लेता है ।
संज्ञा शुद्ध सतोगुणी प्रकृति जिसमें रजोगुण भी मिला है । छाया शुद्ध तमोगुणी प्रकृति है जिसमें रजोगुण भी मिला हुआ है ।
इसी का विस्तार यम (सृष्टि का विधान), यमी / यमुना (उसका सूचक व्यावहारिक पक्ष), एवं अश्विनौ (दोनों अश्विनीकुमार) सोम तथा वरुण हैं ।
इसी तरह छाया की संतानों का क्रम क्रमशः शनैश्चर (Saturn), सावर्णि मनु (Clone of Manu / Emmanuel, Noah) तथा तापी नदी के रूप में हुआ ।
चूँकि छाया की ये संतानें उसे भगवान् सूर्य से प्राप्त हुईं  इसलिए वे भी यम, यमी तथा अश्विनीकुमारों की तरह ’देवता-तत्व’ होने से वेद में आराध्य मानी गई हैं ।
भगवान् सूर्य का व्यक्त रूप जहाँ आधिभौतिक रूप की तरह इन्द्रियगम्य है, किन्तु जैसे हम सूर्य की किरण का ही अध्ययन भौतिक-विज्ञान की दृष्टि से कर सकते हैं न कि समूचे सूर्य का, वैसे ही आधिभौतिक रूप में शुक्र, बृहस्पति और मंगल, सौरमंडल के इन तीन ग्रहों का हमारा अध्ययन भौतिक-विज्ञान की क्षमताओं से सीमित रह जाता है ।
इन तीनों का आधिदैविक स्वरूप कैसा है, इस विषय में तो हम कल्पना तक नहीं कर सकते ।
भगवान् ब्रह्मदेव ने जब सृष्टि का कल्पन करते हैं तो कल्प की अभिव्यक्ति होती है । कल्प भौतिक काल की वह सीमा है जिसके अन्तर्गत भौतिक घटनाएँ घटती हैं । ’कल्’ > कलने, क्लृप् > कल्पने घट् > घट्यते, अवकलने से स्पष्ट है कि कल्प भी विचारमात्र है । वहीं घटना भी विचारमात्र है । वस्तुतः न कुछ रचा गया न रचा जाता है, क्योंकि जो होता है वह भी नहीं सा हो जाता है, अर्थात् वह पहले, जब नहीं हुआ था वैसा ही हो जाता है । इसलिए घट का अर्थ मिट्टी का घड़ा तथा घटाने की गणितीय क्रिया की सिद्धि दोनों प्रयोजनों के लिए किया जाता है ।
कल्प में सूर्य, शनि, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, चंद्र, तथा बुध का भी अपना स्थान और आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक भूमिका है । और बृहस्पति ब्रह्मणःपति होने से देवताओं के गुरु (वरीय, श्रेष्ठ) हैं जबकि शुक्र (भृगु) होने से दैत्यों असुरों के गुरु । यह मोटा विभाजन है । वरुण के पुत्र होने से शुक्र भौतिक कला, विज्ञान, गणित (तर्क-शास्त्र) तथा भोग, सौन्दर्य तथा आमोद-प्रमोद, विषाद, अवसाद आदि के भी अधिदेवता हैं ।
--

प्रदक्षिणा

आज की कविता
--
प्रदक्षिणा
--
(सन्दर्भ :
तव तत्वं न जानामि
कीदृशोऽसि महेश्वर ।
यादृशोऽसि महादेव
तादृशाय नमोनमः)
--
उत्स से उत्साह उत्थित,
प्राण-मन को व्याप लेता ।
तोड़कर सीमान्त सारे,
व्योम-दिग् सब नाप लेता ।
जब न पाता और कुछ भी
जिसको कि वह छू भी सके ।
करके नमन तब उत्स को वह,
उत्स ही में लौट जाता ॥
--

Monday, 11 April 2016

॥ छाया-मार्तण्ड सम्भूतं शनैश्चरं तं नमाम्यहं ॥

॥ छाया-मार्तण्डसम्भूतं शनैश्चरं तं नमाम्यहं ॥
--
स्कन्दपुराण में रेवाखण्ड के अंतर्गत वर्णन है कि किस प्रकार भगवान सूर्य की पत्नी 'संज्ञा' के पुत्र यम और पुत्री यमी (यमुना नदी) दो संतानें थीं । बाद में संज्ञा को जब भगवान सूर्य का तेज असह्य होने लगा तो उसने अपनी छाया-आकृति रची और उससे कहा कि मैं सूर्यदेव का तेज नहीं सह पा रही, इसलिए तुम मेरे स्थान पर, मेरे रूप में, मेरे पति की सेवा और बच्चों की देखभाल करो । किन्तु उन्हें यह मत बताना कि तुम संज्ञा नहीं हो।" इस पर छाया बोली, "जब तक मेरे प्राणों पर ही न आ बने तब तक तो मैं  रहस्य गुप्त रखूँगी, किन्तु जब प्राणों पर बन आएगी तो इसे कह दूँगी ?"
"ठीक है, ऐसा  करना ।"
संज्ञा तब इतना कहकर पिता के घर चली आई । पिता ने पूछा, "तुम अकेली कैसे आई? सूर्यदेव कहाँ हैं ? तब संज्ञा ने दिया, "पिताजी मैं उनका तेज नहीं सह पा रही इसलिए यहाँ अकेली चली आई ।" तब उसके पिता ने कहा, "बेटी, स्त्री को तो पति के ही घर में रहना होता है । तुम विवाहिता हो इसलिए पति को छोड़कर पिता में घर में रहो यह उचित नहीं । जाओ, वहीं जाकर रहो ।"
तब संज्ञा वहां से लौट गयी किन्तु पति के पास न आकर घोर वन में चली गयी और वहाँ घोड़ी का रूप लेकर विचरण करने लगी । कुछ काल बीत जाने पर भगवान सूर्य के छाया से तीन संतानें हुईं : भगवान शनैश्चर, सावर्णि मनु, तथा तापी नदी ।
छाया अपने बच्चों  को तो लाड़ प्यार से रखती, उन्हें अच्छी सुस्वादु वस्तुएं खाने देती, और यम तथा यमी (यमुना नदी) की  उपेक्षा करती । एक दिन यम ने जब छाया से इस प्रकार के भेदभाव का कारण पूछा तो छाया ने क्रोध करते हुए शाप दिया, "जा, तुझसे हर कोई डरेगा और कोई तेरा आदर नहीं करेगा ।"
इस पर यम ने छाया पर पदाघात किया और पिता सूर्यदेव पास जाकर कहा, "लगता है यह हमारी माता नहीं, कोई और स्त्री है। माता तो संतान को कभी शाप नहीं देती !"
तब भगवान सूर्य ने छाया से पूछा,
"सच-सच बता तू संज्ञा है या कोई और ?"
प्राणों पर संकट आया जान छाया ने अपना रहस्य उनके सामने खोल दिया । और विलुप्त हो गई ।
जब भगवान सूर्य संज्ञा को वापस लाने के लिए उसके पिता के यहाँ पहुँचे तो उन्हें पता चला कि वह वहाँ से बहुत काल पूर्व लौट गई थी । भगवान सूर्य उसे ढूँढते हुए उस घोर वन में जा पहुँचे जहाँ वह घोड़ी के रूप में चर रही थी । तब सूर्यदेव ने अश्व का रूप लिया और उनके परस्पर मिलने से अश्विनीकुमार (Equinox) का जन्म हुआ ।
--
यह आख्यान सृष्टि के रहस्य को अनेक स्तरों पर स्पष्ट करता है ।
वैदिक ज्योतिष स्तर पर तो इसे खगोलीय घटना के रूप में इसे समझा जा सकता है । किन्तु  वैदिक दृष्टि से 'काल' तथा 'स्थान' के अनेक आयाम हैं जिनमें से भौतिक-काल तथा भौतिक-स्थान केवल आधिभौतिक के अंतर्गत होता है । इसे हम खगोलीय-इतिहास और भविष्य  सकते हैं ।
आधिदैविक आधार पर इसे 'देवता-तत्व' (devatA -principle) के द्वारा देखने पर सूर्य, संज्ञा, छाया, यम, यमुना, अश्विनीकुमार, शनि, सावर्णि मनु, तथा तापी नदी की अपनी अपनी आधिभौतिक तथा आधिदैविक सत्ता है । इसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से एक ही परमात्मा इन सारे रूपों में विलास रहा है । सूर्य उसी परमात्मा का प्रकट रूप  है, 'संज्ञा' मनुष्य की सहज चेतना (ज्ञान) है, छाया मनुष्य की आभासी चेतना (अज्ञान) है, यम सृष्टि का अटल अदृश्य विधान है, यमुना उस विधान का दृश्य-रूप है । सूर्य, शनि, आकाशीय गृह हैं किन्तु वे केवल जड-पिंड न होकर उनकी अपनी अस्मिता है । सावर्णि मनु (Emmanuel) / Noah है, शनि, शुक्र तथा सूर्य पश्चिम दिशा तथा पृथ्वी के उस क्षेत्र की संस्कृति के अधिदेवता guiding-principle हैं जबकि बृहस्पति, सूर्य तथा चन्द्र तथा मंगल पूर्व दिशा तथा पृथ्वी के उस क्षेत्र की संस्कृति के अधिदेवता guiding-principle हैं ।
चलते चलते :
शुक्रवार 09 अप्रैल 2016 को तृप्ति देसाई ने अपनी ब्रिगेड के साथ शिंगणापुर के शनि मंदिर में प्रवेश किया, जहाँ 400 या अधिक वर्षों से स्त्रियों का प्रवेश शास्त्र के निर्देशानुसार निषिद्ध है । अगले ही दिन शनिवार रात्रि तथा रविवार की सुबह बीच कोल्लम अग्निकांड हुआ । क्या यह कोई ईश्वरीय संकेत था ? इससे पूर्व केंद्रीय पूर्व-मंत्री  शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर ने भी  मंदिर में प्रवेश और पूजा करने का दुस्साहस किया था  उनके साथ जो हुआ वह प्रत्यक्ष  है । क्या यह भी कोई ईश्वरीय संकेत था ?
क्या हम परंपराओं का मूल्यांकन कोरे बुद्धिजीवी के स्तर के विचार विमर्श से कर सकते हैं ?
--                        
  

            

Friday, 8 April 2016

अधिदैवत, अधिभूत और अध्यात्म

अधिदैवत, अधिभूत और अध्यात्म
--
अधिदैवमध्यात्ममधिभूतमिति त्रिधा ।
एकं ब्रह्म विभागेन भ्रमाद्भाति न तत्वतः ॥
(श्लोक 12, श्रीसुरेश्वराचार्यकृत-पञ्चीकरणवार्तिकम्)
अस्तित्व को उसकी समग्रता में समझने के लिए वेद ने उसके क्रमशः जो औपचारिक तीन विभाग आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक किए हैं वे जीव के चित्त / मन में उत्पन्न भ्रम से ही उसे प्रतीत होते हैं जिसमें वह अपने-आपको तथा जिस संसार (लोक) में वह अपने शरीर को लोक से पृथक् की तरह देखता है उन्हें भूलवश वह उस परब्रह्म से भिन्न की भाँति ग्रहण करता है ।
गीता अध्याय 8 के प्रथम श्लोक में इस बारे में संक्षेप में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा
अगले श्लोकों में इसकी विवेचना भगवान श्रीकृष्ण द्वारा की गयी। 
वैदिक परम्परा में 'धर्म' शब्द का प्रयोग 'अध्यात्म' से भिन्न अर्थ में किया जाता है । अधिदैवत, अधिभूत और अध्यात्म ये तीनों परस्पर कितनी घनिष्ठता से परस्पर सम्बद्ध हैं इसका विस्तृत वर्णन श्रीसुरेश्वराचार्यकृत-पञ्चीकरणवार्तिकाओं में देखा जा सकता है । 
भारत का दुर्भाग्य और भारत के तथाकथित 'महान' और 'लोकप्रिय' समझे जानेवाले नीति-नियंताओं का घोर प्रमाद कि 'धर्म' और 'अध्यात्म' बारे में हमारे अज्ञान से लाभ उठा कर अंग्रेज़ी शासन ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को हवा दी। जबकि 'हिन्दू' न तो 'धर्म' है, न 'अध्यात्म' । बाद में इस्लाम, क्रिश्चिनियटी को भी 'धर्म' कहकर हमारी बुद्धि को इस प्रकार भ्रमित कर दिया गया कि 'सर्वधर्म-समानता' की धारणा ने जन्म लिया । फिर सहिष्णुतावादियों ने यह सिद्ध करने की भरसक कोशिश की कि 'सारे धर्म समान हैं'।  इस मूलतः विसंगत / असत्य विचार को सत्य तरह स्वीकार लिया गया । विडम्बना यह हुई कि 'हिन्दू' जो 'संस्कृति' / परम्परा मात्र है, जिसका उद्गम 'सिंधु' से देखा गया है, पुनः एक भ्रामक कल्पना है, न कि 'धर्म' । उसे इस प्रकार  इस्लाम, क्रिश्चिनियटी के साथ एक धरातल पर स्थापित दिया गया । इस बारे में पिछली अनेक पोस्ट्स में अनेक बार लिखा जा चुका है कि किस प्रकार सम्पूर्ण हिन्द महासागरीय भौगोलिक क्षेत्र जिसकी सीमा पश्चिम में अफ़गानिस्तान से लेकर सुदूर पूर्व में मलयेशिया  इंडोनेशिया तथा भी आगे तक है, उत्तर में तिब्बत और उसके आगे तक है तथा दक्षिण में श्रीलंका तक है, भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत रहा है, और यद्यपि राज्य की दृष्टि से यह क्षेत्र अनेक हिस्सों में भिन्न-भिन्न शासकों (राजाओं) द्वारा शासित रहा उनकी भाषा और उससे भी अधिक उनकी लिपि संस्कृत (ब्राह्मी) से व्युत्पन्न है । 'तिब्बत' जहाँ इस दृष्टि से भारत का एक अंग है क्योंकि तिब्बती लिपि वहाँ सदियों से, तब से प्रयोग  जाती रही है जब वहाँ मनुष्य ने लिखना सीखा ही था, वहीं इंडोनेशिया के नाम से ही यह मानना गलत न  होगा कि यह सम्पूर्ण क्षेत्र 'ऐंदव' (इंदु > चन्द्र) संस्कृति के अंतर्गत था । यह संस्कृति, राजनीतिक विस्तारवाद और औपनिशकतावाद द्वारा थोपी गयी न होकर हर स्थान पर अपने 'लोकदेवता' की प्रेरणा से अस्तित्व में आई और फली फूली । और यह लोकदेवता कोई धारणा नहीं, 'आधिदैविक' का ही आधिभौतिक पक्ष है जिसे हम उस देवता के पौराणिक स्वरूप को समझकर  अच्छी तरह जान सकते हैं  इसलिए वेद और पुराण एक ही ज्ञान के दो रूप हैं ।
यह बात हृदय में शूल की तरह चुभती है कि 'हिंदुत्व' शब्द ने भारत के घाव गहरे और इतने कष्टप्रद कर दिए हैं कि अब उनकी चिकित्सा लगभग असंभव है । और 'हिंदुत्व' के पक्षधर और 'विरोधी', वे किसी भी 'धर्म' / संस्कृति / परम्परा को माननेवाले हों, इस बात से दुराग्रहवश आँखें मूँदे रहना चाहते हैं कि वैदिक / सनातन धर्म की कसौटी पर 'हिंदुत्व' न तो 'धर्म' है न अध्यात्म । और दूसरे सभी तथाकथित 'धर्म' तो वैदिक / सनातन धर्म की कसौटी पर धर्म न होकर अधर्म ही अधिक हैं । किन्तु राजनीतिक महत्वाकांक्षा के प्रभाव से हम भारतीय आज इस प्रश्न की उपेक्षा करते हैं । इसलिए 'हिंदुत्व' के रोग का निदान (diagnosis) समय की अधिक तात्कालिक त्वरित urgent आवश्यकता है, न कि चिकित्सा (treatment) क्योंकि अगर निदान (diagnosis) ही गलत हो तो सही चिकित्सा (treatment) हो पाना तो असम्भव  ही होगा ।
--                        

Thursday, 7 April 2016

आधिदैविक अस्तित्व के आयाम के प्रवेश-द्वार

आधिदैविक अस्तित्व के आयाम के प्रवेश-द्वार
--
गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु
--
विचार आधिभौतिक, ऐहिक (mundane, secular, physical-world), की सीमा-रेखा होता है, ’व्यक्ति’ का चित्त जाने-अनजाने, प्रारब्धवश, या किन्हीं अज्ञात कारणों से विचार (के आयाम) का अतिक्रमण तो कर जाता है, किन्तु उस स्थिति में भी अपनी और अपने जगत की कोई ’पहचान’ बनी रहती है । और यद्यपि इस भौतिक जगत से उसका संपर्क न के बराबर रह जाता है, यह ’घटना’ स्मृति में अंकित अवश्य हो जाती है, -जिसका वर्णन करना विचार के सामर्थ्य से बाहर होता है ।
मनुष्यमात्र वैसे तो विचार करने या न-करने हेतु बाध्य होता है क्योंकि विचार मूलतः स्थितियों और स्मृति का परिणाम है, जो ’मस्तिष्क’ में ’घटित’ होता है किन्तु मनुष्य का ध्यान इस तथ्य की ओर प्रायः जाता ही नहीं और वह ’अपने-आप’ को विचार से स्वतंत्र एक विचारकर्ता समझ बैठता है । यहाँ तक कि इस त्रुटियुक्त अभ्यास के कारण उसमें स्वयं को विचार का ’स्वामी’ समझने की भावना इतनी गहरे पैठ चुकी होती है कि वह दावे से कहता भी है :
"यह मेरा विचार है ।" या, मैं अपने विचार सुधारना / बदलना चाहता हूँ ।"
इसमें संशय नहीं कि यह भूल मनुष्य में उन सामाजिक परिस्थितियों से पैदा होती है जिनमें उसका जन्म और पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा आदि हुए होते हैं । प्रत्येक बच्चे / शिशु का चित्त प्रारंभ में एक शुद्ध संवेदनशील दर्पण भर होता है जिस पर प्रतिबिंबित जगत और एकत्र धूल उसकी मानसिक बनावट तय करते हैं । किन्तु गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु के तथ्य के विवेचना से यह समझना सरल है कि विचार के जगत से परे भी ’व्यक्ति’ के ’मन’ के ऐसे आयाम अवश्य हैं जहाँ विचार अनुपस्थित, स्तब्ध या निलंबित होता है ।
जब हम आश्चर्य, भय, लज्जा, हर्ष, उत्तेजना या दुःख के आघात से मोहित-बुद्धि हो जाते हैं और विचार क्षण भर के लिए ठिठक जाता है । तब भी स्मृति यद्यपि उस अनुभव को संजोकर सहेज तो लेती है, किन्तु विचार उसका ठीक ठीक वर्णन करने में असमर्थ होता है ।
उपरोक्त तथ्य से शायद ही कोई असहमत हो । जब ’क्षण’ अपेक्षतया अत्यन्त विस्तीर्ण सा हो जाता है तब चित्त / मन उस आयाम में अनायास ही चला जाता है, जिसकी तुलना  गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु जैसी स्थितियों में होनेवाली मनोदशा से की जा सकती है ।
जैसे एक भौतिक जगत की काल-सूचक ’घड़ी’ होती है, वैसे ही उन दशाओं की अपनी-अपनी ’घड़ियाँ’ होती हैं जिनके ’क्षणों’ की तुलना करना मूलतः असंगत है । वे सारी घड़ियाँ Salvador Dali सेल्वेडोर डाली की घड़ियों की तरह पिघलती बहती हैं । इसलिए हमारे भौतिक समय के सन्दर्भ में उनकी लंबाई या विस्तार को छोटा या बड़ा कहना भी मूलतः त्रुटिपूर्ण है ।
गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु के अतिरिक्त दो और महत्वपूर्ण बिन्दु मनुष्य के जीवन में आधिदैविक के प्रवेश-द्वार हो सकते हैं । योग तथा अन्य ग्रन्थों उपनिषदों, वेदों आदि में इसका वर्णन पाया जाता है ।
वे दो द्वार हैं व्यक्ति के चित्त / मन का ’जाग्रत-दशा’को लाँघकर स्वप्नावस्था में प्रवेश करना, और स्वप्नावस्था को लाँघकर गहरी स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था में प्रवेश करना । यही घटना प्रतिक्रम से भी होती है, किन्तु ’अवधान’ की दृष्टि से इसे तभी समझा जा सकता है जब पहली दो स्थितियों में चित्त / मन ’मैं’ के तथ्य की स्मृति को दृष्टि से न ओझल होने दे । यदि वह ऐसा कर पाता है, तो बाद की दो स्थितियाँ उसे पुरस्कार-स्वरूप प्राप्त होती ही हैं ।
इस प्रकार ’अपने’ अवचेतन के मार्ग से आधिदैविक के यथार्थ से परिचित होना है और तभी मनुष्य वैदिक और पौराणिक देवताओं के यथार्थ तत्व से अवगत हो पाता है । सीधे ही गर्भ, जन्म, सुषुप्ति, काम, समाधि, अचेतावस्था (जैसी अवस्था) और मृत्यु के समय की मनःस्थिति को उदाहरण की तरह तो समझा जा सकता है किन्तु वह हमें विचार के आयाम से परे जाने में पर्याप्त सहायक नहीं होता ।
--

Monday, 4 April 2016

अविद्या काम कर्म और अतीन्द्रिय चेतना

अविद्या काम कर्म और अतीन्द्रिय चेतना
--
मनुष्य या जितने भी जीव हैं ,किसी न किसी 'उद्देश्य' या ध्येय से प्रेरित कर्म करते हैं ।
मंदबुद्धि भी किसी न किसी प्रयोजन से कर्म करता है।
कुछ कर्म तो प्रकृति द्वारा प्रेरित होने से हमारे शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं के रूप में हममें 'होते' हैं, जबकि कुछ कर्म किसी 'प्रेरणा' से हम करते हैं ।  स्पष्ट है कि भिन्न भिन्न मनुष्य भिन्न भिन्न प्रकार कर्मों को करने में रुचि रखते हैं । कर्म ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से संपन्न होते हैं किन्तु उनके लिए हमें प्रेरणा अपने अंतर्मन में स्थित संस्कारों तथा बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना से प्राप्त होती है। अर्थात् कोई ऐसी अतीन्द्रिय चेतना (transcendental consciousness) हमारी बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना को सक्रिय करती है जिसके बाद ही हमारा मन, बुद्धि आदि अपनी क्षमता प्राप्त करते हैं।  उस चेतना को समष्टि-रूप में 'प्रकृति' कहा जाता है, और वह एक चेतन तत्व है जो इंद्रियों से पूर्व है । वह 'प्रकृति' होने से सर्वत्र व्याप्त स्वरूप का है किन्तु उसकी 'अभिव्यक्ति' का स्वरूप भिन्न-भिन्न जीवों में भिन्न भिन्न प्रकार का है।  चूँकि उसका स्थान इंद्रियों से पूर्व है इसलिए उन्हें अधिष्ठाता 'देवता' कहा जाता है।  जैसे हम इंद्रियों के माध्यम से जगत और शरीर को जानते हैं किन्तु उस शक्ति / चेतना से अनभिज्ञ हैं  जो हमारी बुद्धि और ज्ञान, स्मृति और विवेचना की क्षमता को प्रेरित करती है, वैसे ही वैदिक देवता भी यद्यपि हमें जानते हैं किन्तु हम उन्हें तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि वे ही हमारे सामने स्वयं को नहीं  प्रकट कर देते।  स्पष्ट है कि हमारे शरीर में जितनी कठिन / जटिल क्रियाएँ 'होती' हैं जिन्हें वैज्ञानिक तक कठिनाई से समझ पाते हैं उनके बीच एक तारतम्य, गहरा सामंजस्य होता है । निश्चित ही जो 'प्रकृति' इसे संभव बनाती है वह अद्भुत प्रतिभा (talent) और प्रज्ञा (intelligence)  से युक्त है।  हम अपने अज्ञान / अविद्या  कारण ही उसे 'प्रकृति' कहकर उससे एक जड-वस्तु जैसा व्यवहार करते हैं । जो देवता इंद्र, रुद्र, अग्नि, वायु, सोम, वरुण, आदित्य, आप (जल), यम, बृहस्पति, प्राण, काम,  आदि हमारे शरीर की विविध क्षमताओं को कार्यशील बनाते हैं उनसे ही हमारा शरीर स्वस्थ और शक्तिशाली, अस्वस्थ या रुग्ण आदि होता है। इसका पूरा तर्कसंगत और विवेचना आधारित विज्ञान है, किन्तु यदि हम अपने दुराग्रह के कारण इसकी खोजबीन से  इंकार कर दें और इसे अंधविश्वास कहें तो प्रकृति / देवताओं की हममें रुचि क्यों होगी?
न्यूरोलॉजी और शरीर-रचना-विज्ञान, शरीर-क्रियाविज्ञान शरीर भीतर होनेवाली जिन क्रियाओं 'अध्ययन' करते हैं वे इसी बिंदु पर चूक जाते हैं । उपनिषदों में मनुष्य के शरीर में देवताओं के स्थान का विस्तृत वर्णन है, और यदि हम उस सन्दर्भ से अपने विज्ञान को जोड़कर देखें तो हमें निराशा नहीं होगी।
--                             

Sunday, 3 April 2016

अविद्या, काम और कर्म

अविद्या, काम और कर्म
--
मनुष्य एक जैव-प्रणाली (ऑर्गेनिज़्म) है और अन्य जीवों की तरह भूख-प्यास, शीत-ऊष्ण, रोग-व्याधि, तथा जरा-मरण इस प्रणाली में अन्तरर्ग्रथित ( इन-बिल्ट / एम्बेडेड) हैं । इस पूर्व-नियोजित (प्रिप्रोग्राम्ड) प्रकृति द्वारा तय प्रोग्राम का सर्वाधिक विस्मयकारी हिस्सा है ’काम-प्रवृत्ति’ ।
मनुष्येतर जीवों में जहाँ प्रकृति ही तय करती है कि यह प्रवृत्ति किस रूप में अभिव्यक्त होकर अपना कार्य करेगी, वहीं मनुष्य में इसकी अभिव्यक्ति उसकी सामाजिक नैतिकता तथा समाज में उसके स्थान और स्थिति से भी प्रभावित होती है । समाज के स्तर पर ’विवाह’ का प्रावधान सर्वप्रथ वैदिक / सनातन धर्म से ही प्राप्त हुआ क्योंकि वैदिक / सनातन धर्म की दृष्टि यह है कि प्रत्येक मनुष्य पुरुष हो या स्त्री, जो किसी भी वर्ण में पैदा हुआ हो, अपने वर्णाश्रम-धर्म का पालन करता हुआ परम श्रेयस्कर को प्राप्त कर सकता है । सनातन-धर्म के मतानुसार किसी भी मनुष्य का ’जन्म’ उसके पूर्वकृत कर्मों (से बने उसके संस्कारों) के आधार पर उसे उसके उस विशिष्ट वर्ण में प्राप्त होता है । और यद्यपि वह किसी भी वर्ण के माता-पिता की संतान हो, उसकी मूल-प्रवृत्तियाँ माता-पिता की प्रवृत्तियों जैसी ही होती हैं । और विवाह उस प्रकृति-प्रदत्त व्यवस्था को सुचारु और सुव्यवस्थित बनाए रखने के लिए सामाजिक स्तर  पर एक सरल तरीका है । किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि पिछले दो-तीन हजार या अधिक वर्षों में यह व्यवस्था कितनी परिवर्तित हो चुकी होगी । फिर भी गीता के अनुसार विधाता ने मनुष्य की रचना का वर्गीकरण उसके गुण-कर्म-विभाग से ही किया है न कि ’जाति’ या आजीविका के लिए उसके द्वारा किए जानेवाले व्यवसाय से । इसलिए ’जाति’-व्यवस्था के संबंध में सनातन-धर्म / वैदिक धर्म कुछ नहीं कहता ।
’काम-वृत्ति’ को इस दृष्टि से देखा जाए कि वह संतान तथा वर्ण को शुद्ध बनाए रखने का एक सशक्त साधन है, न कि ’भोग’ का, और काम-भोग का सुख एक गौण तत्व है, तो यद्यपि मनुष्य इस सुख का उपभोग भी कर सकता है, किन्तु इस वृत्ति का ’दास’ बनकर नहीं, बल्कि इसे सर्वाधिक श्रेष्ठ तरीके से व्यावहारिक रूप से प्रयोग में लाते हुए ।
’काम’ के महत्व को निम्न दृष्टियों से समझा जा सकता है :
1. प्रकृति का कार्य, जो भूख-प्यास, निद्रा आदि जैसी शारीरिक और मानसिक वृत्ति है किन्तु भूख-प्यास तथा निद्रा जहाँ पूरी आयु भर आवश्यकता के रूप में आते और तुष्टि होने पर चले भी जाते हैं, वहीं ’काम-वृत्ति’ एक विशेष आयु होने पर ही शरीर में सक्रिय होती है और एक समय आने पर समाप्त भी हो जाती है । इन वृत्तियों का शरीर के साथ-साथ मन से भी संबंध है किन्तु आवश्यकता की तरह से उनका कार्य-क्षेत्र शुद्धतः शरीर तक ही सीमित होता है । मनुष्य जैसे भूख-प्यास की सरल वृत्ति को अधिक ’सुख’ पाने की कल्पना से दूषित कर मानसिक रूप से जटिल बना देता है, उससे कहीं अधिक जटिल वह ’काम-वृत्ति’ को बना देता है । और ऐसा समाज की आवश्यकता, सामाजिक वातावरण और अन्तर्द्वन्द्व के ही कारण है ।
’काम-वृत्ति’ की निंदा या उसमें ’सुख’ की कल्पना, और उस ’सुख’ को अधिक सशक्त बनाने का विचार कल्पना ही है । उस वृत्ति के सक्रिय होने और उसके पूर्ण होने पर एक सुख प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं किन्तु उस सुख की सीमा होती है । शरीर उस सीमा में रहकर ही उस सुख का साधन-मात्र होता है जबकि मन बारंबार उस सुख को पाना चाहता है जो कल्पना मात्र है । किन्हीं शक्तिवर्धक औषधियों के माध्यम से शरीर की क्षमता की उस सीमा को संभवतः बढ़ाया भी जा सकता है, किंतु उत्तेजक और मादक-द्रव्यों के प्रयोग के साथ ’काम-शक्ति’ / सामर्थ्य अपनी वह स्वाभाविक क्षमता भी प्रायः खो बैठता है । प्रकृति ने ’सुख’ की जो भावना ’काम’ से संलग्न कर रखी है वह केवल एक पारितोषिक है ताकि जीव वंश-वृद्धि में संलग्न रहें और इस क्रिया के प्रयोजन को न जानते हुए भी इससे विरत न हों, बल्कि इससे आकर्षित रहें । यदि यह ’सुख’ की भावना ’काम-व्यवहार’ से न जुड़ी होती तो प्रकृति का कार्य ही रुक जाता ।
2. ’कामसुख’ के कारण जहाँ पुरुष और स्त्री के बीच प्रेम पनपता है, वहीं केवल उस तुष्टि के लिए होनेवाला प्रेम अस्थायी होता है, उस कारण से किया जानेवाला ’विवाह’ भी धीरे-धीरे नीरस संबंध या काम-संबंध मात्र बनकर रह जाता है जिसे स्त्री या पुरुष शरीर की प्रकृति से बाध्य होकर यन्त्रवत निभाते रहते हैं या सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विवाह-विच्छेद, बहुपति / बहुपत्नी व्यवस्था या बिना विवाह किए साथ रहने के संबंध के माध्यम से जिससे छुटकारा पा लेते हैं । वैसे तो आधुनिक-युग में इसके और भी अनेक बहु-आयामी प्रकार हैं, और समाज उन उपायों को भी ’व्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के अधिकार से जोड़कर देखता है । किन्तु एक सरल तथ्य यह है कि जो अपने मन (और उसकी विकृत मानसिकता) का दास है, उसकी स्वतन्त्रता का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है । दूसरे शब्दों में वह काम-पाश में बद्ध पशु-मात्र है किन्तु आकृति भर से मनुष्य से मिलता-जुलता है । अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व परस्पर आश्रित होते हैं । किसी भी ’अधिकार’ का उपभोग करनेवाले के कुछ कर्तव्य भी होते हैं और उत्तरदायित्व भी । यदि आपके पास ड्राइविंग-लाइसेन्स है तो आपको गाड़ी चलाने का अधिकार तो है किन्तु कुछ अनिवार्य शर्तों का पालन भी आपको करना होगा । अगर आप उन शर्तों को तोड़ते हैं तो आपका लाइसेन्स अवैध हो जाता है । चूँकि ’काम-सुख’ का संबंध सन्तान से भी है और उनके भविष्य से भी इसलिए यदि कोई ’विवाह’ की व्यवस्था के अन्तर्गत या उस व्यवस्था को स्वीकार न करते हुए ’काम-सुख’ का भोग करना चाहता है तो उसकी होनेवाली संतानों के प्रति अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रश्न से वह भागता है ।
3. 'काम' अर्थात् यौनेच्छा का उद्भव चित्त में मुख्यतः दो प्रकार से होता है । पहला प्रकृति से प्रेरित स्वाभाविक शारीरिक वृत्ति के रूप में, दूसरा स्मृति में संचित संस्कारों के जाग्रत हो उठने पर । पहला न तो निंदनीय है, न उपहास या घृणा का विषय है।  सामाजिक नैतिकता की दृष्टि से और व्यावहारिक स्तर पर भी उससे कैसे सामञ्जस्य रखा जाए यह जानना उस आयु में ही संभव है जब हम किशोर आयु में प्रवेश करते हैं। किन्तु बिरले ही माता-पिता या अभिभावक / शिक्षक तथा शिक्षाशास्त्री इस तथ्य से परिचित होते हैं। यह तो समाज के स्तर पर ही निर्भर करता है।  
दूसरा  'मानसिक' स्तर पर जिसे हम गीता से सीख सकते हैं :
अध्याय 2, श्लोक 62,

ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
--
(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
--
भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
--
इस प्रकार जिस आयु में 'कामवृत्ति' शरीर में जाग्रत होने लगती है, उसी आयु में यदि प्रकृति द्वारा निर्धारित इसका प्रयोजन बच्चों को धैर्यपूर्वक स्पष्ट कर दिया जाए तो  स्वयं ही इस वृत्ति से कैसे व्यवहार किया जाए इसे समझ सकते हैं। उस स्थिति में यह वृत्ति मानसिक ग्रंथि का रूप ले इसकी संभावना कम हो सकती है।  इसलिए इसे 'ब्रह्मचर्याश्रम' में ही सीखा जाना उपयोगी है । और इसे न तो दबाव या डर से बच्चों को सिखाया  सकता है, और न नैतिकता के थोपे गए अनुशासन से।  उस स्थिति में अधिक संभावना यही है कि  बच्चे पाखंडी या अंतर्द्वंद्व से ग्रसित  जाएँ।
विवेक-चूडामणि का श्लोक क्रमांक 325 इसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है :
जैसे हाथ से छूटी गेंद यदि सीढ़ियों पर गिर जाती है तो उसे पुनः पकड़ पाना असंभव सा है।  तब वह गिरती ही चली जाती है ।
--

इसलिए यौन संबंधित 'विषय' के ध्यान / स्मरण के द्वारा जब यह वृत्ति कृत्रिम रूप से उत्पन्न की जाती / हो जाती है तो संयम की सारी शिक्षाएँ इसे अपने कार्य से रोक नहीं पाती और पाखंड तथा आडम्बर वहीं से प्रारंभ  हो जाता है।  दोहरे सामाजिक मापदंडों / नैतिक मूल्यों के अन्तर्द्वन्द्व में फँसा मन इससे उबार नहीं पाता।
--
                            

Saturday, 2 April 2016

आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.

आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.
अविद्या काम कर्म 
--
श्रीमद्भग्वद्गीता / śrīmadbhagvadgītā
अध्याय 7, श्लोक 27,

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥
--
(इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहम्  सर्गे यान्ति परन्तप ॥)
--
भावार्थ :
हे भारत (अर्जुन) ! संसार में अपने जन्म ही से, संसार में सम्पूर्ण प्राणी, इच्छा तथा द्वेष से उत्पन्न हो रहे सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से विभ्रम को प्राप्त हो रहे हैं ।
--
Chapter 7, śloka 27,

icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammohaṃ
sarge yānti parantapa ||
--
(icchādveṣasamutthena
dvandvamohena bhārata |
sarvabhūtāni sammoham
sarge yānti parantapa ||)
--
O  bhārata (arjuna) !, from the very birth all beings are subject to delusion caused by the dualities like desire and envy, pleasure and pain.
--
आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -2.
अविद्या काम कर्म
--
’जन्म’ जिसका हुआ है वह एक ओर तो शरीर है, दूसरी ओर शरीर से संबद्ध ’चेतना’ है जिसके अन्तर्गत स्मृति, भावनाएँ, विचार, निश्चय-अनिश्चय, इच्छाएँ, भय और द्वन्द्व, अचेतन और चेतन दोनों स्तरों पर कार्य करते हैं । ’स्मृति’ पहचान है और ’पहचान’ स्मृति इसलिए एक के न होने पर दूसरा भी नहीं होता । इस पहचान / स्मृति के आधार पर ’अपनी’ / ’मैं’ और संसार की ’पहचान’/ ’स्मृति’ बनती-बिगड़ती रहती है जबकि उनका आधारभूत अधिष्ठान (चेतना) अखंडित तथा अविच्छिन्न रहते हुए व्यक्ति और संसार के जीवन को संभव और सुचारु बनाए रखता है । यह अधिष्ठान (चेतना) वैयक्तिक न होते हुए भी ’व्यक्ति’ के मन में संसार में ’अपने’ एक स्वतंत्र-सत्ता होने की भावना को जन्म देती है । जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है यह भावना अपनी निरंतर उपस्थिति से सुदृढ़ विश्वास बन जाती है । यह भावना निरंतर ’संसार’ में अपने को अकेले समझने और उस अकेलेपन को समाप्त करने या उससे दूर भागने की चेष्टा पैदा करती है । इस प्रकार जो नहीं है उस व्यक्ति की सत्ता को मन स्वीकार कर बैठता है । दूसरे शब्दों में यही ’अविद्या’ है - जो विद्यमान नहीं है उसे सत्य समझ बैठना । जैसे भावनाएँ चित्त / हृदय में उठती हैं वैसे ही बुद्धि / विचार मस्तिष्क में । किन्तु इन मानसिक कल्पनाओं की प्रतिक्रियास्वरूप ’मैं’ को इनका स्वामी समझ लिया जाता है । प्रायः हर कोई कहता है :
"मैं सोचता हूँ / मैं नहीं सोचता..."
इसी प्रकार यह भी :
"मैं प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा करता हूँ ... या, "मैं प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा नहीं करता... "
किन्तु थोड़ा ध्यान से देखें तो ’सोचना’/ ’न सोचना’ अपने-आप परिस्थितियों और स्मृति के मिले-जुले प्रभाव से घटित होता है और यह ’मस्तिष्क’ में होता है । जिसकी स्मृति नहीं उस बारे में ’सोचना’ नहीं हो सकता । वैसे ही कभी कभी "मैं सोच नहीं पा रहा..." हमें यह भी अनुभव होता है और हम ऐसा कहते भी हैं तात्पर्य यह कि ’मैं’ नामक ऐसे किसी ’विचारकर्ता’का अस्तित्व ही नहीं है जिसे ’मन’ ’विचार’ के स्वामी की तरह मान्य कर लेता है ।
इसी तरह भावनाएँ  प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा / भय आदि भी अपने-आप परिस्थितियों और स्मृति के मिले-जुले प्रभाव से घटित होते हैं और हमें ऐसा प्रतीत होता है कि ’मैं’ / हम उनके उठने या समाप्त होने को नियंत्रित करते हैं । इस प्रकार विचार तथा भावनाओं से अपने को मिला लेना (इन्डल्जेन्स) ही अविद्या है ।
मुझे  प्रेम / घृणा / क्रोध / ईर्ष्या / इच्छा / भय आदि वैसे ही ’होते’ हैं, जैसे मुझे भूख, प्यास, नींद आदि ’होते’ हैं ।
किन्तु पहले तो भूलवश अपने-आपको उनसे जोड़कर मैं कहता हूँ ’मैं प्रेम करता हूँ’ और फिर यह भी कहता हूँ , :’मुझे प्रेम है’ ।
इस सब के दौरान निर्वैयक्तिक चेतना जिसके प्रकाश में यह सब घटता है यथावत् सुस्थिर आधार की तरह अप्रभावित और अपरिवर्तित रहते हुए इनसे असंलग्न रहती है ।
किन्तु ’जीव-भाव’ के जन्म के बाद ’व्यक्ति’ और ’व्यक्तित्व’ इतने दृढ़ हो जाते हैं कि मनुष्य यह भी कह बैठता है कि मैं मुक्त होना चाहता हूँ । जो ’नहीं है’, वह ’मुक्त’ कैसे होगा? वह बंधन में था ही कहाँ ?
जब यह स्पष्ट हो जाता है कि ’जन्म’ / ’जीव-भाव’ वस्तुतः इस बारे में विचार (थॉट) होने से ही सत्य लगने लगता है,तो ’मुक्ति’ / ’बंधन’ का प्रश्न ही नहीं पैदा होता ।
आधिदैविक इस प्रकार एक पड़ाव / कड़ी है, आधिभौतिक और आध्यात्मिक के मध्य क्योंकि ’अविद्या’ ’काम’ और ’कर्म’ इस प्रश्न को उठने ही नहीं देते कि ’अविद्या’ ’किसे’ है । जब तक मनुष्य ’काम’ को उपभोग की दृष्टि से देखता है या उसका उपहास करता है, ’काम’ कुपित होकर और विकृत रूप लेकर मनुष्य के मन पर हावी रहता है । और ’कामवृत्ति’ सर्वाधिक प्रबल वृत्ति की तरह उसे ’कर्म’ में संलग्न रखती है । यह ’काम’ केवल शारीरिक वासना हो यह आवश्यक नहीं, यह ’कामना’ बनकर एक कल्पित ’भविष्य’ को प्रक्षेपित करता है, किन्तु विवेक न होने से मनुष्य यह नहीं समझता कि सभी वृत्तियाँ पुनरावर्ती होती हैं और उनके साथ लिप्त होना आत्मवंचना ही है । ’काम’ और ’अविद्या’ से प्रेरित कर्म ’संस्कार’ / अभ्यास बन जाता है और उससे छूटना क्रमशः और कठिन होने लगता है । कभी-कभी मनुष्य इस यातना से घबराकर आत्महत्या तक कर लेता है या इसका प्रयास करता है । मृत्यु भी आधिदैविक सत्ता है जिसे ’यम’ कहा जाता है । यमराज को ही धर्मराज भी कहा जाता है, क्योंकि उनका विधान अटल होता है । इस प्रकार ’धर्म’ मनुष्य को कभी त्यागता नहीं । जब ’धर्म’ को विधान की तरह देखकर उसका अनुष्ठान (आचरण) किया जाता है तो मनुष्य के क्लेश न्यूनतम और सुख अधिकतं होता है और मृत्यु भी उसे भयभीत नहीं करती ।
अविद्या है तमोगुण जबकि कर्म है रजोगुण धर्म सतोगुण के रूप में मनुष्य को उन दोनों में संतुलन बनाने में सहायक होता है । है तो यह भी गुण ही किन्तु इसकी वृद्धि होने पर मनुष्य में अनायास दृष्टि की स्पष्टता आती है ।
अविद्या काम और कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने पर इस प्रश्न का पटाक्षेप हो जाता है कि ’जन्म’ किसका हुआ? इसे मोक्ष का नाम दिया गया है किन्तु केवल औपचारिक रूप से क्योंकि ....।    
--  

आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक - 1

आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -1.
--
मनुष्य के अस्तित्व के प्रयोजन, अर्थ और जीवन के लिए प्रेरक तत्वों के बारे में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैसे पशु या अन्य जीवों के लिए आहार, निद्रा, भय (या सुरक्षा) और संतति उत्पन्न करना ये चार कारक ही प्रयोजन, अर्थ और प्रेरणा होते हैं, वैसे ही प्रायः हर मनुष्य का जीवन भी इन्हीं चार आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के प्रयास में संलग्न रहा करता है । इसे आधिभौतिक कह सकते हैं । अर्थात् शुद्धतः इन्द्रिय-संवेदनाओं से जुड़े भौतिक अनुभवों और भोगों की तृप्ति करते रहना । किन्तु जब किसी मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति का क्षेत्र विकसित होता है वह विचार / कल्पना द्वारा कुछ अमूर्त धारणाओं को जाने-अनजाने, उनकी सत्यता / औचित्य पर प्रश्न तक न उठाते हुए स्वीकार कर लेता है और उनके तारतम्य में पूर्वोक्त चार कारकों (आहार, निद्रा, भय और संतति उत्पन्न करना) को समायोजित करने की चेष्टा करता है । इन अमूर्त धारणाओं में से दो मुख्य हैं ’परिवार’ और ’समाज’ फिर उनके ही परिणामस्वरूप भाषा, संस्कृति, और रीति-रिवाज जिसे ’व्यवस्था’ भी कह सकते हैं, अपना आकार-प्रकार तय करती है ।
इसके पश्चात् ’व्यक्ति’ को अपने जीवन में दो परिस्थितियों से तालमेल बैठाना होता है । पहला है अपने-आप के लिए आहार, निद्रा तथा भय (सुरक्षा / असुरक्षा) से जुड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति में अधिकतम संतोष पाना, और दूसरा है इन्हीं का परिवारिक और सामाजिक सन्दर्भ
आहार (अन्न, भोजन) निद्रा और भयजनित आवश्यकताएँ पूर्ण करने में प्रायः व्यक्ति और समाज के बीच सामञ्जस्य बनाना लगभग आसान होता है क्योंकि सभी के हित समान और परस्पर पूरक होते हैं । जैसे खेती करना या ’घर’ बनाना, पसु-पालन आदि । हाँ अन्न / भोजन की कमी होने पर व्यक्तियों / समूहों के बीच वैमनस्य और शत्रुता पनप सकती है । किन्तु अपनी संतति होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति अर्थात् काम-भावना की तुष्टि में द्वन्द्व एक स्थायी स्थिति है । पशु-पक्षियों में मादा पर अधिकार पाने के लिए नर का दूसरे नर से शक्ति-परीक्षण ही एकमात्र कसौटी होता है इसे तय करने के लिए और ’द्वन्द्व’ शीघ्र ही दूर हो जाता है । किन्तु पशु-पक्षियों का परिवार और समाज एक तात्कालिक स्थिति होता है, अर्थात् उनकी जीवन-पद्धति में बहुत विरोधाभास नहीं हुआ करते ।
’काम-भावना’ से आधिदैविक का क्षेत्र प्रारंभ होता है । या तो मनुष्य इतना दुर्बल / वृद्ध हो जाता है कि उसकी काम-भावना बहुत क्षीण हो जाती है, या उसकी बुद्धि इतनी परिपक्व हो जाती है कि वह अपनी काम-भावना की तुष्टि के लिए कोई समुचित व्यवस्था निर्मित कर लेता है ताकि समाज में इससे अनावश्यक द्वन्द्व / संघर्ष न पैदा हो । इस प्रकार से ’विवाह’ नामक संस्था का जन्म हुआ । स्पष्ट है कि यह एक ओर एक ’विचार’ है, वहीं दूसरी ओर ’वर्ण’/ ’कुल’/ ’वंश’ की शुद्धता को नष्ट न होने देना भी इस विचार के लिए एक प्रेरक तत्व है ।
इसलिए यद्यपि अपने उद्देश्य की दृष्टि से ’विवाह’ की अपनी व्यावहारिक उपयोगिता और आवश्यकता भी परिवार और समाज के लिए है, और उसे आदर दिये जाने से परिवार और समाज अधिक सशक्त और सुस्थिर होता है, फिर भी बहुत कम मनुष्य इतने परिपक्व हो पाते हैं कि कामोपभोग के सुख को संतति उत्पन्न करने के लिए एक कर्तव्य / दायित्व / अधिकार तक मर्यादित रख सकें । इसके दो कारण हो सकते हैं : पहला यह कि प्रकृति ने प्राणिमात्र में काम-भावना इस प्रकार से नियोजित कर रखी है कि इस कार्य में उसे सुख की अनुभूति हो । यद्यपि कोई भी प्राणी शायद ही जानता हो कि काम-व्यवहार ही संतानोत्पत्ति का एकमात्र कारण होता है, फिर भी इस सुख के आकर्षण (इन्द्रिय-उत्तेजना के आवेश से लुब्ध चित्त) वह इसके वशीभूत हुआ, वह स्त्री हो या पुरुष, इस भावना को कठिनाई से ही नियंत्रण में रख पाता है । आहार, निद्रा, तथा भय की तरह संतति की अचेतन कामना ही चेतन मन के स्तर पर काम-व्यवहार में संलग्न होने के लिए मनुष्य को बाध्य करती है ।  ’काम’ इस प्रकार से आहार, निद्रा तथा भय (की समाप्ति) से भी कहीं बढ़कर एक ऐसी आवश्यकता है जिसका मनुष्य के अचेतन मन से अत्यन्त गहरा संबंध है ।
’धर्म’, अर्थ’, के बाद ’काम’ तीसरी सीढ़ी है जिस पर मनुष्य अनण्तकाल तक रुके रहना चाहता है किन्तु मृत्यु आने पर ’क्या होता है?’  इसका अनुमान न होने से वह अपनी तथाकथित उस मृत्यु के बाद (जिसे उसने स्वयं पर घटित होते हुए कभी नहीं देखा होता, और  जिसकी न शायद संभावना ही है), किसी रूप में अस्तित्व में बने रहने की कल्पना / आशा कर लेता है, और जब स्वप्न में या स्वप्न जैसी किन्हीं जागृत स्थितियों में उन व्यक्तियों से ’संपर्क’ हुआ प्रतीत होता है, जिनकी मृत्यु वह देख चुका होता है, तो वह सोचने लगता है कि भौतिक अस्तित्व से परे भी कोई ’लोक’ है, हैं, जहाँ मनुष्य मृत्यु के बाद जा सकता है ।
ईजिप्ट की ’ममी’-संस्कृति में शायद मनुष्य केवल भौतिक शरीर मात्र है, और जब तक देह ’है’ वह भी ’है’, इस भावना से ही प्रेरित होकर ही यद्यपि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर वे उसके शरीर को विभिन्न पदार्थों  से ’संरक्षित’ कर भूमि में गहराई में दबा भी देते थे किन्तु उसके साथ उस ’कक्ष’ में उसके रोज काम में आनेवाली अनेक वस्तुएँ, यहाँ तक की विलास की सामग्री और दास-दासी आदि को भी साथ रख देते थे । सभी संस्कृतियाँ / विश्वास जो इस भौतिक साकार शरीर को ही मनुष्य की आत्मा मानते हैं, मृतक के शरीर को भूमि में दफ़ना देते हैं और आशा करते हैं कि इस प्रकार ’संसार’ के समाप्त होनेवाले ’डे ऑफ़ जज्मेन्ट’ या ’क़यामत’ के दिन उनका पैग़म्बर और उनका ’ईश्वर’ उन्हें उनके अच्छे कर्मों के अनुसार उन्हें अनंत काल तक के लिए स्वर्ग / पैराडॉइज़ / जन्नत बख्शेगा या शाश्वत नर्क / इटर्नल हेल में भेज देगा जहाँ वे हमेशा के लिए सुखों का उपभोग या कष्टों का सामना करेंगे । फिर ऐसे विश्वास / संस्कृति के अनुयायी अपने मृतक संबंधियों के कब्र / मज़ार या ग्रेव पर निरंतर प्रार्थनाएँ करते रहते हैं जो या तो उनके लिए या स्वयं अपने भौतिक / साँसारिक लक्ष्यों कामनाओं के ध्येय से प्रेरित होती हैं । इस प्रकार उन विश्वासों / संस्कृतियों को माननेवाले उन मृतकों को ’स्पिरिट’ या कोई और नाम देकर संसार में उनका स्थायित्व सुनिश्चित करते हैं ।    
जिन संस्कृतियों में मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर को जला देने का, या जल में प्रवाहित करने का प्रचलन था / है, वे मनुष्य की आत्मा को निराकार और अनश्वर मानते हैं और उन्हें विश्वास होता है कि मृत्यु के पश्चात् उस मृतक की आत्मा अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार नए शरीर धारण करती हुई अंततः परम तत्व से एकीभूत होकर शाश्वत शान्ति की भागी होगी । धर्म की वेद से भिन्न मान्यताएँ रखनेवाली संस्कृतियाँ जैसे जैन या बौद्ध भी किसी न किसी ईश्वर को मानते हैं फिर वह तीर्थङ्कर हो या बुद्ध । उन्हें ’भगवान्’ कहा जाता है और उनकी उपासना करने के लिए अनेक प्रयोजन स्वीकार किए जाते हैं ।
संक्षेप में जो भी मनुष्य मृत्यु के बाद भी किसी न किसी रूप में ’मनुष्य’ के ’अस्तित्व’ में  बने रहने की संभावना को सत्य मानते हैं वे ’अशरीरी’ / आधिदैविक शक्ति और उसके ’लोक’ को भी सत्य मानते हैं । जो शुद्धतः नास्तिक हैं और अनुमान करते हैं कि इस शरीर के नष्ट होने पर सब समाप्त हो जाता है, वे भी मृत्यु से डरते हैं इससे यही संकेत मिलता है कि उन्हें अपने-आपके शरीर-मात्र होने की धारणा पर पूरा विश्वास नहीं है । वे चाहे कितना भी प्रयास करें मृत्यु के बाद जो होना सत्य है उससे वे बच नहीं सकते ।
आधिदैविक वह ’सत्यता’ है जिसे प्रकृति की सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली ’सत्ताएँ’ संचालित करती हैं । इसलिए जैसे अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल तथा अकाश एक ओर भौतिक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, वैसे ही उनकी ’आधिदैविक’ सत्ता भी है जो मनुष्य और जगत् के जीवन को सुश्चित और निर्धारित करती हैं । यह केवल अनुमान नहीं है बल्कि इस धारणा का समृद्ध रूप है कि सृष्टि को बनाने, संरक्षित करने, और संहार (अर्थात् पुनः अपने भीतर संकुचन) करने वाली एक ही परम सत्ता विभिन्न रूपों में विविध प्रकार से इस प्रक्रिया को पूर्ण करती है । सनातन / वैदिक धर्म इन शक्तियों को जो चेतन, प्राणयुक्त विराट सत्ताएँ हैं, ’अधिदेवता’ कहता है । इस प्रकार से सोम, वरुण, यम, आदित्य, आदि भी ’अधिदेवता’ हैं और उनका अपना कार्यक्षेत्र और अपनी भूमिका है । साँख्य या योग भी ’ईश्वर’ के ’एक’ या ’अनेक’ होने के संबंध में कुछ नहीं कहते किंतु जो उसे ’एक’ की तरह ग्रहण करते हैं उन्हें भी सम्मान देता है क्योंकि वस्तुतः वह परम सत्ता जिसे ’ईश्वर’ (ईशिता सर्वभूतानाम) कह सकते हैं ऐसी अद्वितीय (यूनिक) शक्ति है जिसे परिभाषित तक नहीं किया जा सकता । चूँकि वह अपने विस्तार और अभिव्यक्ति से पृथक् भी नहीं है, इसलिए उसकी उपासना तक नहीं की जा सकती । किन्तु इसलिए वह ’नहीं है’, यह तो नहीं सिद्ध हो जाता । उसका अस्तित्व तो स्वतःप्रमाणित है । जब तक ’जीव’ और ’जगत्’ हैं’, उनके ’अधिष्ठाता देवता’ जिसमें उन  जीव तथा जगत् का अधिष्ठान है, के अस्तित्व को नकारने का अर्थ हुआ अपने ही अस्तित्व को अस्वीकार कर देना । जो स्पष्ट ही है कि हास्यास्पद होगा ।
इस प्रकार ’आधिदैविक’ को स्वीकार करने से कोई बच नहीं सकता । उस विषय पर अधिक खोज करने और उन ’अधिदेवताओं’ से यज्ञ के माध्यम से संपर्क होने पर ऋषियों ने विवेचना द्वारा उनका महत्व और अस्तित्व में उनकी भूमिका सुनिश्चित की जो सनातन-धर्म की नींव है ।
किन्तु जिन्हें यह सब कोरी कल्पना या ब्राह्मणों द्वारा रचा गया जाल प्रतीत होता है, सनातन धर्म उन्हें अपनी विवेचना स्वीकार करने के लिए न तो आग्रह करता है, न इसके प्रति उसमें कोई रुचि या उत्सुकता है । सनातन-धर्म तो एक क़दम और आगे बढ़कर कहता है कि जो इस धर्म का पालन नहीं करना चाहते यदि यह उन्हें परंपरा या कुल से प्राप्त हुआ भी हो तो वे इसे त्यागने के लिए स्वतंत्र हैं । न तो भय दिखाकर, न प्रलोभन दिखाकर, सनातन-धर्म अनधिकारी / अपात्र / अश्रद्धावान् को कोई शिक्षा नहीं देता ।
’धर्म’ ’अर्थ’ और ’काम’ के पश्चात् ’मोक्ष’ की आवश्यकता, उपयोगिता और प्रासंगिकता के विचार ने ’ईश्वर’ की अवधारणा को बल दिया जो उस भय अथवा लोभ से उपजे ’ईश्वर’ की उस अवधारणा का ही सशक्त रूप था, जिसका मनुष्य ने अपनी कल्पना के सहारे सृजन किया था ।
’धर्म’ कहा जाता है ’वस्तु’ के स्वभाव को, अर्थात् अस्तित्व / प्रकृति के समस्त स्वाभाविक क्रिया-कलापों / गतिविधियों को । ’जिसका’ जन्म हुआ है, वह अपने ’धर्म’ से परिचालित होता है । उद्भिज्ज, वारिज, अंडज और स्वेदज इन चार वर्गों में से किसी एक वर्ग में सर्वप्रथम ’जन्म’ होता है एक ’जैव-प्रणाली’ का, जिसमें पुनः कुछ काल पश्चात् ’जन्म’ होता है ’जीव-भाव’ का अर्थात् अपने-आप के एक शरीर-विशेष होने का । ये दोनों ’जन्म’ उस ’जैव-प्रणाली’ की संरचना में ही सुप्त रूप (बिल्ट-इन-प्रोग्राम) में निष्क्रिय से रहते हैं किन्तु ’जैव-प्रणाली’ (ऑर्गेनिज़्म) के अस्तित्व में आने पर क्रमशः सक्रिय हो उठते हैं । इसलिए विचारणीय यह है कि ’जन्म’ किसका होता है ? क्या यह पूरा कार्य किसी अद्भुत विधान (लॉ) के ही नियंत्रण में नहीं होता? क्या वह विधान ’जड-तत्व’ है? इस ’विधान’ में भी पुनः दो तत्वों, प्राण तथा चेतना ही पर ही उत्तरदायित्व होता है ’सृष्टि’ की अभिव्यक्ति, संचालन तथा संहार का । सामान्यतः ’संहार’ शब्द को नाश के अर्थ में ग्रहण किया जाता है, इसी प्रकार ’सृष्टि’ को ’बनाने’ के अर्थ में किन्तु वह अनुवाद की गंभीर भूल है । क्योंकि जब ’संसार’ को ’बनाए जाने’ या ’मिटाए जाने’को सत्य स्वीकार कर लिया जाता है तो एक निरर्थक-सातत्य का प्रश्न (अब्सर्डम्-इन्फ़िनिटम्) हमारे सामने आता है । तब ’कहाँ’ और ’कब’ इससे जुड़ जाते हैं । तब ’बनानेवाले’ या ’मिटानेवाले’ को किसने ’बनाया’/ ’मिटाया’ यह प्रश्न भी उत्तर की अपेक्षा करता है । सनातन-धर्म इस प्रश्न की व्यर्थता जानकर इस पूरे प्रकरण को दूसरे तरीके से स्पष्ट करता है । केवल एक ही सत्ता है जो भिन्न-भिन्न और असंख्य रूपों में स्वयं को ’जीव’ तथा ’जीव’ के सन्दर्भ में ’जगत्’ को व्यक्त करती है, जब तक जीव-भाव है, वे दोनों सत्य प्रतीत होते हैं । पुनः वही सत्ता पूरे आयोजन को अपने में ’विलीन’ / ’विलुप्त’ ’संहरित’ करती है जिसे प्रलय / संहार कहा जाता है । इस नाटक का सूत्रधार इस नाटक से अविच्छिन्न होने से उसे अपने से ’पृथक्’ की तरह नहीं देखा जा सकता । इसलिए ’सृष्टि’ के प्रारंभ और उसे गतिशील बनाये रखने, तथा पुनः समाप्ति को नियंत्रित करनेवाली विभिन्न आधिदैविक शक्तियाँ इसके लिए कारण, उपादान तथा उत्तरदायी हैं ।
चूँकि ’ध्वनि-ग्राम’ के द्वारा इन ’देवताओं’ के स्वरूप को स्पष्टतः समझा / समझाया जा सकता है, और उनसे ’संपर्क’ भी स्थापित किया जा सकता है, इसलिए उनका अस्तित्व अनुमान या कल्पना से बढ़कर एक ठोस यथार्थ है । इसी प्रकार ये शक्तियाँ भी पुनः मनुष्य की ही तरह और उससे अनंतगुनी श्रेष्टतर ’चेतन-प्राणमय’ सत्ताएँ हैं । उन ’देवताओं’ के अपने ’लोक’ हैं और वे भी मनुष्य और अन्य सभी प्राणियों की तरह उस परम-सत्ता की ’उपाधि’ मात्र हैं । इस पूरे तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुदेववाद ’पॉलिथिज़्म’ नहीं है बल्कि उस एक ही सत्ता को उसके विविध रूपों में समझने की चेष्टा है ।
’काम’ अर्थात् अपने जैसे जीवों की उत्पत्ति के लिए जिस देवता से प्रेरणा प्राप्त होती है उसे कामदेव कहा जाता है । दूसरी ओर इसे चार ’पुरुषार्थों’ में से एक कहा गया है । जब जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति (धर्म) से परिचालित हुआ ’अर्थ’ / जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने की चेष्टा में संलग्न होता है तो अपने पीछे अपने प्रतिरूप अपनी संतति को उत्पन्न करना नैसर्गिक क्षमता की ही अभिव्यक्ति है जो जीवमात्र में होती ही है । किंतु स्त्री और पुरुष के शरीर की बनावट के अनुसार यह वृत्ति व्यावहारिक रूप से परस्पर कुछ भिन्न रूप लेती है । यह वृत्ति भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में उनकी रुचि और उनकी मानसिक परिपक्वता के अनुसार अनेक तरह की हो सकती है । कुछ इसे ’भोग’ के दृष्टिकोण से देखते हैं तो कुछ इसे संतानोत्पत्ति के लिए प्रदत्त नैसर्गिक वरदान की तरह भी देख सकते हैं । इसे ’भोग’ की तरह देखनेवाले हों या अन्य किसी दृष्टि से देखनेवाले, आयु बीत जाने पर मनुष्य स्त्री हो या पुरुष, वृद्ध हो जाता है, जैसे वृक्ष अपनी आयु बीतने पर फल-फूल-बीज देकर अंततः सूख जाते हैं । ’भोग’ एक मानसिक कल्पना है जिसे भोग के विषय के चिन्तन द्वारा बहुत सशक्त भी किया जा सकता है जिसका अन्त हताशा या निरर्थकता की अनुभूति में होता है । जबकि ’काम’ को देवता की तरह स्वीकार कर, उसके प्रति आदर और कृतज्ञता होने पर वह जीवन में सुख, शान्ति और उल्लास की सृष्टि करता है । उसका उपहास कर या उस प्रवृत्ति का बलपूर्वक दमन कर मनुष्य बस अपने अन्तर्द्वन्द्व में फँसा ही रहता है ।
यह हुआ ’आधिदैविक’ का महत्व ।
 --