आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक -1.
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मनुष्य के अस्तित्व के प्रयोजन, अर्थ और जीवन के लिए प्रेरक तत्वों के बारे में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैसे पशु या अन्य जीवों के लिए आहार, निद्रा, भय (या सुरक्षा) और संतति उत्पन्न करना ये चार कारक ही प्रयोजन, अर्थ और प्रेरणा होते हैं, वैसे ही प्रायः हर मनुष्य का जीवन भी इन्हीं चार आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के प्रयास में संलग्न रहा करता है । इसे आधिभौतिक कह सकते हैं । अर्थात् शुद्धतः इन्द्रिय-संवेदनाओं से जुड़े भौतिक अनुभवों और भोगों की तृप्ति करते रहना । किन्तु जब किसी मनुष्य की भावनात्मक अनुभूति का क्षेत्र विकसित होता है वह विचार / कल्पना द्वारा कुछ अमूर्त धारणाओं को जाने-अनजाने, उनकी सत्यता / औचित्य पर प्रश्न तक न उठाते हुए स्वीकार कर लेता है और उनके तारतम्य में पूर्वोक्त चार कारकों (आहार, निद्रा, भय और संतति उत्पन्न करना) को समायोजित करने की चेष्टा करता है । इन अमूर्त धारणाओं में से दो मुख्य हैं ’परिवार’ और ’समाज’ फिर उनके ही परिणामस्वरूप भाषा, संस्कृति, और रीति-रिवाज जिसे ’व्यवस्था’ भी कह सकते हैं, अपना आकार-प्रकार तय करती है ।
इसके पश्चात् ’व्यक्ति’ को अपने जीवन में दो परिस्थितियों से तालमेल बैठाना होता है । पहला है अपने-आप के लिए आहार, निद्रा तथा भय (सुरक्षा / असुरक्षा) से जुड़ी आवश्यकताओं की पूर्ति में अधिकतम संतोष पाना, और दूसरा है इन्हीं का परिवारिक और सामाजिक सन्दर्भ
आहार (अन्न, भोजन) निद्रा और भयजनित आवश्यकताएँ पूर्ण करने में प्रायः व्यक्ति और समाज के बीच सामञ्जस्य बनाना लगभग आसान होता है क्योंकि सभी के हित समान और परस्पर पूरक होते हैं । जैसे खेती करना या ’घर’ बनाना, पसु-पालन आदि । हाँ अन्न / भोजन की कमी होने पर व्यक्तियों / समूहों के बीच वैमनस्य और शत्रुता पनप सकती है । किन्तु अपनी संतति होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति अर्थात् काम-भावना की तुष्टि में द्वन्द्व एक स्थायी स्थिति है । पशु-पक्षियों में मादा पर अधिकार पाने के लिए नर का दूसरे नर से शक्ति-परीक्षण ही एकमात्र कसौटी होता है इसे तय करने के लिए और ’द्वन्द्व’ शीघ्र ही दूर हो जाता है । किन्तु पशु-पक्षियों का परिवार और समाज एक तात्कालिक स्थिति होता है, अर्थात् उनकी जीवन-पद्धति में बहुत विरोधाभास नहीं हुआ करते ।
’काम-भावना’ से आधिदैविक का क्षेत्र प्रारंभ होता है । या तो मनुष्य इतना दुर्बल / वृद्ध हो जाता है कि उसकी काम-भावना बहुत क्षीण हो जाती है, या उसकी बुद्धि इतनी परिपक्व हो जाती है कि वह अपनी काम-भावना की तुष्टि के लिए कोई समुचित व्यवस्था निर्मित कर लेता है ताकि समाज में इससे अनावश्यक द्वन्द्व / संघर्ष न पैदा हो । इस प्रकार से ’विवाह’ नामक संस्था का जन्म हुआ । स्पष्ट है कि यह एक ओर एक ’विचार’ है, वहीं दूसरी ओर ’वर्ण’/ ’कुल’/ ’वंश’ की शुद्धता को नष्ट न होने देना भी इस विचार के लिए एक प्रेरक तत्व है ।
इसलिए यद्यपि अपने उद्देश्य की दृष्टि से ’विवाह’ की अपनी व्यावहारिक उपयोगिता और आवश्यकता भी परिवार और समाज के लिए है, और उसे आदर दिये जाने से परिवार और समाज अधिक सशक्त और सुस्थिर होता है, फिर भी बहुत कम मनुष्य इतने परिपक्व हो पाते हैं कि कामोपभोग के सुख को संतति उत्पन्न करने के लिए एक कर्तव्य / दायित्व / अधिकार तक मर्यादित रख सकें । इसके दो कारण हो सकते हैं : पहला यह कि प्रकृति ने प्राणिमात्र में काम-भावना इस प्रकार से नियोजित कर रखी है कि इस कार्य में उसे सुख की अनुभूति हो । यद्यपि कोई भी प्राणी शायद ही जानता हो कि काम-व्यवहार ही संतानोत्पत्ति का एकमात्र कारण होता है, फिर भी इस सुख के आकर्षण (इन्द्रिय-उत्तेजना के आवेश से लुब्ध चित्त) वह इसके वशीभूत हुआ, वह स्त्री हो या पुरुष, इस भावना को कठिनाई से ही नियंत्रण में रख पाता है । आहार, निद्रा, तथा भय की तरह संतति की अचेतन कामना ही चेतन मन के स्तर पर काम-व्यवहार में संलग्न होने के लिए मनुष्य को बाध्य करती है । ’काम’ इस प्रकार से आहार, निद्रा तथा भय (की समाप्ति) से भी कहीं बढ़कर एक ऐसी आवश्यकता है जिसका मनुष्य के अचेतन मन से अत्यन्त गहरा संबंध है ।
’धर्म’, अर्थ’, के बाद ’काम’ तीसरी सीढ़ी है जिस पर मनुष्य अनण्तकाल तक रुके रहना चाहता है किन्तु मृत्यु आने पर ’क्या होता है?’ इसका अनुमान न होने से वह अपनी तथाकथित उस मृत्यु के बाद (जिसे उसने स्वयं पर घटित होते हुए कभी नहीं देखा होता, और जिसकी न शायद संभावना ही है), किसी रूप में अस्तित्व में बने रहने की कल्पना / आशा कर लेता है, और जब स्वप्न में या स्वप्न जैसी किन्हीं जागृत स्थितियों में उन व्यक्तियों से ’संपर्क’ हुआ प्रतीत होता है, जिनकी मृत्यु वह देख चुका होता है, तो वह सोचने लगता है कि भौतिक अस्तित्व से परे भी कोई ’लोक’ है, हैं, जहाँ मनुष्य मृत्यु के बाद जा सकता है ।
ईजिप्ट की ’ममी’-संस्कृति में शायद मनुष्य केवल भौतिक शरीर मात्र है, और जब तक देह ’है’ वह भी ’है’, इस भावना से ही प्रेरित होकर ही यद्यपि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर वे उसके शरीर को विभिन्न पदार्थों से ’संरक्षित’ कर भूमि में गहराई में दबा भी देते थे किन्तु उसके साथ उस ’कक्ष’ में उसके रोज काम में आनेवाली अनेक वस्तुएँ, यहाँ तक की विलास की सामग्री और दास-दासी आदि को भी साथ रख देते थे । सभी संस्कृतियाँ / विश्वास जो इस भौतिक साकार शरीर को ही मनुष्य की आत्मा मानते हैं, मृतक के शरीर को भूमि में दफ़ना देते हैं और आशा करते हैं कि इस प्रकार ’संसार’ के समाप्त होनेवाले ’डे ऑफ़ जज्मेन्ट’ या ’क़यामत’ के दिन उनका पैग़म्बर और उनका ’ईश्वर’ उन्हें उनके अच्छे कर्मों के अनुसार उन्हें अनंत काल तक के लिए स्वर्ग / पैराडॉइज़ / जन्नत बख्शेगा या शाश्वत नर्क / इटर्नल हेल में भेज देगा जहाँ वे हमेशा के लिए सुखों का उपभोग या कष्टों का सामना करेंगे । फिर ऐसे विश्वास / संस्कृति के अनुयायी अपने मृतक संबंधियों के कब्र / मज़ार या ग्रेव पर निरंतर प्रार्थनाएँ करते रहते हैं जो या तो उनके लिए या स्वयं अपने भौतिक / साँसारिक लक्ष्यों कामनाओं के ध्येय से प्रेरित होती हैं । इस प्रकार उन विश्वासों / संस्कृतियों को माननेवाले उन मृतकों को ’स्पिरिट’ या कोई और नाम देकर संसार में उनका स्थायित्व सुनिश्चित करते हैं ।
जिन संस्कृतियों में मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर को जला देने का, या जल में प्रवाहित करने का प्रचलन था / है, वे मनुष्य की आत्मा को निराकार और अनश्वर मानते हैं और उन्हें विश्वास होता है कि मृत्यु के पश्चात् उस मृतक की आत्मा अपने अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार नए शरीर धारण करती हुई अंततः परम तत्व से एकीभूत होकर शाश्वत शान्ति की भागी होगी । धर्म की वेद से भिन्न मान्यताएँ रखनेवाली संस्कृतियाँ जैसे जैन या बौद्ध भी किसी न किसी ईश्वर को मानते हैं फिर वह तीर्थङ्कर हो या बुद्ध । उन्हें ’भगवान्’ कहा जाता है और उनकी उपासना करने के लिए अनेक प्रयोजन स्वीकार किए जाते हैं ।
संक्षेप में जो भी मनुष्य मृत्यु के बाद भी किसी न किसी रूप में ’मनुष्य’ के ’अस्तित्व’ में बने रहने की संभावना को सत्य मानते हैं वे ’अशरीरी’ /
आधिदैविक शक्ति और उसके ’लोक’ को भी सत्य मानते हैं । जो शुद्धतः नास्तिक हैं और अनुमान करते हैं कि इस शरीर के नष्ट होने पर सब समाप्त हो जाता है, वे भी मृत्यु से डरते हैं इससे यही संकेत मिलता है कि उन्हें अपने-आपके शरीर-मात्र होने की धारणा पर पूरा विश्वास नहीं है । वे चाहे कितना भी प्रयास करें मृत्यु के बाद जो होना सत्य है उससे वे बच नहीं सकते ।
आधिदैविक वह ’सत्यता’ है जिसे प्रकृति की सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली ’सत्ताएँ’ संचालित करती हैं । इसलिए जैसे अग्नि, वायु, पृथ्वी, जल तथा अकाश एक ओर भौतिक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, वैसे ही उनकी ’आधिदैविक’ सत्ता भी है जो मनुष्य और जगत् के जीवन को सुश्चित और निर्धारित करती हैं । यह केवल अनुमान नहीं है बल्कि इस धारणा का समृद्ध रूप है कि सृष्टि को बनाने, संरक्षित करने, और संहार (अर्थात् पुनः अपने भीतर संकुचन) करने वाली एक ही परम सत्ता विभिन्न रूपों में विविध प्रकार से इस प्रक्रिया को पूर्ण करती है । सनातन / वैदिक धर्म इन शक्तियों को जो चेतन, प्राणयुक्त विराट सत्ताएँ हैं, ’अधिदेवता’ कहता है । इस प्रकार से सोम, वरुण, यम, आदित्य, आदि भी ’अधिदेवता’ हैं और उनका अपना कार्यक्षेत्र और अपनी भूमिका है । साँख्य या योग भी ’ईश्वर’ के ’एक’ या ’अनेक’ होने के संबंध में कुछ नहीं कहते किंतु जो उसे ’एक’ की तरह ग्रहण करते हैं उन्हें भी सम्मान देता है क्योंकि वस्तुतः वह परम सत्ता जिसे ’ईश्वर’ (ईशिता सर्वभूतानाम) कह सकते हैं ऐसी अद्वितीय (यूनिक) शक्ति है जिसे परिभाषित तक नहीं किया जा सकता । चूँकि वह अपने विस्तार और अभिव्यक्ति से पृथक् भी नहीं है, इसलिए उसकी उपासना तक नहीं की जा सकती । किन्तु इसलिए वह ’नहीं है’, यह तो नहीं सिद्ध हो जाता । उसका अस्तित्व तो स्वतःप्रमाणित है । जब तक ’जीव’ और ’जगत्’ हैं’, उनके ’अधिष्ठाता देवता’ जिसमें उन जीव तथा जगत् का अधिष्ठान है, के अस्तित्व को नकारने का अर्थ हुआ अपने ही अस्तित्व को अस्वीकार कर देना । जो स्पष्ट ही है कि हास्यास्पद होगा ।
इस प्रकार ’आधिदैविक’ को स्वीकार करने से कोई बच नहीं सकता । उस विषय पर अधिक खोज करने और उन ’अधिदेवताओं’ से यज्ञ के माध्यम से संपर्क होने पर ऋषियों ने विवेचना द्वारा उनका महत्व और अस्तित्व में उनकी भूमिका सुनिश्चित की जो सनातन-धर्म की नींव है ।
किन्तु जिन्हें यह सब कोरी कल्पना या ब्राह्मणों द्वारा रचा गया जाल प्रतीत होता है, सनातन धर्म उन्हें अपनी विवेचना स्वीकार करने के लिए न तो आग्रह करता है, न इसके प्रति उसमें कोई रुचि या उत्सुकता है । सनातन-धर्म तो एक क़दम और आगे बढ़कर कहता है कि जो इस धर्म का पालन नहीं करना चाहते यदि यह उन्हें परंपरा या कुल से प्राप्त हुआ भी हो तो वे इसे त्यागने के लिए स्वतंत्र हैं । न तो भय दिखाकर, न प्रलोभन दिखाकर, सनातन-धर्म अनधिकारी / अपात्र / अश्रद्धावान् को कोई शिक्षा नहीं देता ।
’धर्म’ ’अर्थ’ और ’काम’ के पश्चात् ’मोक्ष’ की आवश्यकता, उपयोगिता और प्रासंगिकता के विचार ने ’ईश्वर’ की अवधारणा को बल दिया जो उस भय अथवा लोभ से उपजे ’ईश्वर’ की उस अवधारणा का ही सशक्त रूप था, जिसका मनुष्य ने अपनी कल्पना के सहारे सृजन किया था ।
’धर्म’ कहा जाता है ’वस्तु’ के स्वभाव को, अर्थात् अस्तित्व / प्रकृति के समस्त स्वाभाविक क्रिया-कलापों / गतिविधियों को । ’जिसका’ जन्म हुआ है, वह अपने ’धर्म’ से परिचालित होता है । उद्भिज्ज, वारिज, अंडज और स्वेदज इन चार वर्गों में से किसी एक वर्ग में सर्वप्रथम ’जन्म’ होता है एक ’जैव-प्रणाली’ का, जिसमें पुनः कुछ काल पश्चात् ’जन्म’ होता है ’जीव-भाव’ का अर्थात् अपने-आप के एक शरीर-विशेष होने का । ये दोनों ’जन्म’ उस ’जैव-प्रणाली’ की संरचना में ही सुप्त रूप (बिल्ट-इन-प्रोग्राम) में निष्क्रिय से रहते हैं किन्तु ’जैव-प्रणाली’ (ऑर्गेनिज़्म) के अस्तित्व में आने पर क्रमशः सक्रिय हो उठते हैं । इसलिए विचारणीय यह है कि ’जन्म’ किसका होता है ? क्या यह पूरा कार्य किसी अद्भुत विधान (लॉ) के ही नियंत्रण में नहीं होता? क्या वह विधान ’जड-तत्व’ है? इस ’विधान’ में भी पुनः दो तत्वों, प्राण तथा चेतना ही पर ही उत्तरदायित्व होता है ’सृष्टि’ की अभिव्यक्ति, संचालन तथा संहार का । सामान्यतः ’संहार’ शब्द को नाश के अर्थ में ग्रहण किया जाता है, इसी प्रकार ’सृष्टि’ को ’बनाने’ के अर्थ में किन्तु वह अनुवाद की गंभीर भूल है । क्योंकि जब ’संसार’ को ’बनाए जाने’ या ’मिटाए जाने’को सत्य स्वीकार कर लिया जाता है तो एक निरर्थक-सातत्य का प्रश्न (अब्सर्डम्-इन्फ़िनिटम्) हमारे सामने आता है । तब ’कहाँ’ और ’कब’ इससे जुड़ जाते हैं । तब ’बनानेवाले’ या ’मिटानेवाले’ को किसने ’बनाया’/ ’मिटाया’ यह प्रश्न भी उत्तर की अपेक्षा करता है । सनातन-धर्म इस प्रश्न की व्यर्थता जानकर इस पूरे प्रकरण को दूसरे तरीके से स्पष्ट करता है । केवल एक ही सत्ता है जो भिन्न-भिन्न और असंख्य रूपों में स्वयं को ’जीव’ तथा ’जीव’ के सन्दर्भ में ’जगत्’ को व्यक्त करती है, जब तक जीव-भाव है, वे दोनों सत्य प्रतीत होते हैं । पुनः वही सत्ता पूरे आयोजन को अपने में ’विलीन’ / ’विलुप्त’ ’संहरित’ करती है जिसे प्रलय / संहार कहा जाता है । इस नाटक का सूत्रधार इस नाटक से अविच्छिन्न होने से उसे अपने से ’पृथक्’ की तरह नहीं देखा जा सकता । इसलिए ’सृष्टि’ के प्रारंभ और उसे गतिशील बनाये रखने, तथा पुनः समाप्ति को नियंत्रित करनेवाली विभिन्न आधिदैविक शक्तियाँ इसके लिए कारण, उपादान तथा उत्तरदायी हैं ।
चूँकि ’ध्वनि-ग्राम’ के द्वारा इन ’देवताओं’ के स्वरूप को स्पष्टतः समझा / समझाया जा सकता है, और उनसे ’संपर्क’ भी स्थापित किया जा सकता है, इसलिए उनका अस्तित्व अनुमान या कल्पना से बढ़कर एक ठोस यथार्थ है । इसी प्रकार ये शक्तियाँ भी पुनः मनुष्य की ही तरह और उससे अनंतगुनी श्रेष्टतर ’चेतन-प्राणमय’ सत्ताएँ हैं । उन ’देवताओं’ के अपने ’लोक’ हैं और वे भी मनुष्य और अन्य सभी प्राणियों की तरह उस परम-सत्ता की ’उपाधि’ मात्र हैं । इस पूरे तथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुदेववाद ’पॉलिथिज़्म’ नहीं है बल्कि उस एक ही सत्ता को उसके विविध रूपों में समझने की चेष्टा है ।
’काम’ अर्थात् अपने जैसे जीवों की उत्पत्ति के लिए जिस देवता से प्रेरणा प्राप्त होती है उसे कामदेव कहा जाता है । दूसरी ओर इसे चार ’पुरुषार्थों’ में से एक कहा गया है । जब जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति (धर्म) से परिचालित हुआ ’अर्थ’ / जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने की चेष्टा में संलग्न होता है तो अपने पीछे अपने प्रतिरूप अपनी संतति को उत्पन्न करना नैसर्गिक क्षमता की ही अभिव्यक्ति है जो जीवमात्र में होती ही है । किंतु स्त्री और पुरुष के शरीर की बनावट के अनुसार यह वृत्ति व्यावहारिक रूप से परस्पर कुछ भिन्न रूप लेती है । यह वृत्ति भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में उनकी रुचि और उनकी मानसिक परिपक्वता के अनुसार अनेक तरह की हो सकती है । कुछ इसे ’भोग’ के दृष्टिकोण से देखते हैं तो कुछ इसे संतानोत्पत्ति के लिए प्रदत्त नैसर्गिक वरदान की तरह भी देख सकते हैं । इसे ’भोग’ की तरह देखनेवाले हों या अन्य किसी दृष्टि से देखनेवाले, आयु बीत जाने पर मनुष्य स्त्री हो या पुरुष, वृद्ध हो जाता है, जैसे वृक्ष अपनी आयु बीतने पर फल-फूल-बीज देकर अंततः सूख जाते हैं । ’भोग’ एक मानसिक कल्पना है जिसे भोग के विषय के चिन्तन द्वारा बहुत सशक्त भी किया जा सकता है जिसका अन्त हताशा या निरर्थकता की अनुभूति में होता है । जबकि ’काम’ को देवता की तरह स्वीकार कर, उसके प्रति आदर और कृतज्ञता होने पर वह जीवन में सुख, शान्ति और उल्लास की सृष्टि करता है । उसका उपहास कर या उस प्रवृत्ति का बलपूर्वक दमन कर मनुष्य बस अपने अन्तर्द्वन्द्व में फँसा ही रहता है ।
यह हुआ ’आधिदैविक’ का महत्व ।
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