ऊर्ध्वरेता
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परसों अश्वत्थ से हुई चर्चा में मैंने गौर किया कि अश्वत्थ पिप्पलाद के नाम के साथ तो ’महर्षि’ का विशेषण लगाता था जबकि याज्ञवल्क्य के लिए केवल ’ऋषि’ का । मुझे वे दिन आए जब मैंने अश्वत्थ से मेरी चर्चाओं को ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ के माध्यम से अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया था । तब मुझे अश्वत्थ ने ऊर्ध्वरेता का अर्थ समझाया था । मुझे स्मरण नहीं कि क्या ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ में कहीं इसका उल्लेख मैंने किया है या नहीं ।
किन्तु तब अश्वत्थ ने ही बतलाया था कि ऋषि वह होता है जिसे सत्य के स्वरूप का ’नित्य’ तत्व के रूप में दर्शन हो जाता है । यह ’नित्य’ भी, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ की ही तरह सत्य का एक मुख है । ’नित्य’, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ काल और स्थान के सन्दर्भ से होते हैं जबकि काल-स्थान परम-सत्ता के केवल एक अंश का प्रकाश है ।
शाश्वत नित्य सनातन ब्रह्म ये ब्रह्मा के चार मुख हैं जिन्हें हर कोई अनायास देखता है, भले ही उसने इस ओर ध्यान न दिया हो । इनसे परे ब्रह्मा का पाँचवाँ मुख था जिसे शिव ने काट दिया था । इसलिए वह सृष्टि के लिए अदृश्य है । सृष्टि के माता-पिता के रूप में ब्रह्मा और सरस्वती पिता-पुत्री होकर भी पति-पत्नी हैं । सृष्टि रूपी संतान अपने माता-पिता की अधर्म-संतान होने से उनका मुख नहीं देख सकती । इसीलिए ब्रह्मा की पूजा भी नहीं की जाती । उनकी पूजा सदैव किसी अन्य देवता के साथ की जाती है । हाँ कोई केवल तप कर उन्हें प्रसन्न कर सकता है और उनसे इच्छित वर भी प्राप्त कर सकता है ।
तपस्वी प्रायः किसी कामना की पूर्ति के लिए तप करते हैं जबकि ऋषि केवल धर्म के आचरण के रूप में तप करते हैं । ऐसे ऋषि पुनः गृहस्थ अथवा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अत्याश्रम की अपनी अवस्था / प्रारब्ध के अनुसार ऊर्ध्वरेता होते हैं या नहीं भी होते । जब किसी ब्राह्मण का जन्म होता है तो उसे अनायास ही ब्रह्मचर्य आश्रम प्राप्त हो जाता है । यज्ञोपवीत हो जाने पर उसे ब्रह्मचर्य-सिद्धि के लिए पात्र कहा जाता है । यदि उसने गंभीरता से अपना शिक्षा-काल किसी योग्य आचार्य के सान्निध्य में व्यतीत किया है और उसके पश्चात् उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा गुरु ने दी हो तो ऐसा ब्रह्मचारी विवाह कर नियमपूर्वक गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए संतान की उत्पत्ति की कामना से स्त्री से अनुरक्त होता है तो भी वह ब्रह्मचारी ही है । दूसरी ओर ब्रह्मचर्य-आश्रम में स्थित कुछ ऐसे शिष्य भी होते हैं जिन्हें कामनाओं की व्यर्थता और अनर्थक विनाशकारिता का आभास होता है और इन्द्रिय-सुखों से उन्हें वैराग्य होने से वे सहज रूप से मन को वश में रख सकते हैं । ऐसे शिष्यों को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है । यदि आचार्य उन्हें गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने के लिए बाध्य करते हैं तो इससे आचार्य का, उस शिष्य का, और संसार का भी अहित ही होता है । गृहस्थ हो या नैष्ठिक ब्रह्मचारी जिसे भी सत्य के दर्शन ’नित्य’, ’शाश्वत्’, सनातन, ’ब्रह्म’ और ’परब्रह्म’ के रूप में हो जाते हैं, वे सभी ऋषि कहे जाते हैं । ऐसे ऋषियों में कुछ ’स्वः’, ’महः’ ’जनः’ ’तपः’ और ’सत्य’ के लोक में स्थित होने से उन्हें महर्षि भी कहा जाता है ।
ऊर्ध्व > अतो ऊर्ध्व > यहाँ से ऊपर के अर्थ में ऊर्ध्वरेता वह होता है जो इस जन्म में मृत्यु हो जाने के बाद के अपने अगले जन्म (या मुक्ति) के लिए संकल्प कर सकता है । पिप्पलाद और याज्ञवल्क्य दोनों ही ऋषि थे किन्तु पिप्पलाद ऊर्ध्वरेता थे और मृत्यु से भयभीत नहीं थे जबकि याज्ञवल्क्य का जीवन-मृत्यु पर ऐसा नियंत्रण नहीं था, जैसा पिप्पलाद का था, इसलिए महत्-तत्व में प्रतिष्ठित होने से पिप्पलाद को महर्षि कहा जा सकता है । किन्तु इस तुलना से यह सिद्ध नहीं होता कि उनमें से कौन अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ थे ।
पुनः ऋष् > ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थत् ’काम’ हो जाता है जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है । इसलिए उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है । लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है ।
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परसों अश्वत्थ से हुई चर्चा में मैंने गौर किया कि अश्वत्थ पिप्पलाद के नाम के साथ तो ’महर्षि’ का विशेषण लगाता था जबकि याज्ञवल्क्य के लिए केवल ’ऋषि’ का । मुझे वे दिन आए जब मैंने अश्वत्थ से मेरी चर्चाओं को ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ के माध्यम से अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया था । तब मुझे अश्वत्थ ने ऊर्ध्वरेता का अर्थ समझाया था । मुझे स्मरण नहीं कि क्या ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ में कहीं इसका उल्लेख मैंने किया है या नहीं ।
किन्तु तब अश्वत्थ ने ही बतलाया था कि ऋषि वह होता है जिसे सत्य के स्वरूप का ’नित्य’ तत्व के रूप में दर्शन हो जाता है । यह ’नित्य’ भी, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ की ही तरह सत्य का एक मुख है । ’नित्य’, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ काल और स्थान के सन्दर्भ से होते हैं जबकि काल-स्थान परम-सत्ता के केवल एक अंश का प्रकाश है ।
शाश्वत नित्य सनातन ब्रह्म ये ब्रह्मा के चार मुख हैं जिन्हें हर कोई अनायास देखता है, भले ही उसने इस ओर ध्यान न दिया हो । इनसे परे ब्रह्मा का पाँचवाँ मुख था जिसे शिव ने काट दिया था । इसलिए वह सृष्टि के लिए अदृश्य है । सृष्टि के माता-पिता के रूप में ब्रह्मा और सरस्वती पिता-पुत्री होकर भी पति-पत्नी हैं । सृष्टि रूपी संतान अपने माता-पिता की अधर्म-संतान होने से उनका मुख नहीं देख सकती । इसीलिए ब्रह्मा की पूजा भी नहीं की जाती । उनकी पूजा सदैव किसी अन्य देवता के साथ की जाती है । हाँ कोई केवल तप कर उन्हें प्रसन्न कर सकता है और उनसे इच्छित वर भी प्राप्त कर सकता है ।
तपस्वी प्रायः किसी कामना की पूर्ति के लिए तप करते हैं जबकि ऋषि केवल धर्म के आचरण के रूप में तप करते हैं । ऐसे ऋषि पुनः गृहस्थ अथवा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अत्याश्रम की अपनी अवस्था / प्रारब्ध के अनुसार ऊर्ध्वरेता होते हैं या नहीं भी होते । जब किसी ब्राह्मण का जन्म होता है तो उसे अनायास ही ब्रह्मचर्य आश्रम प्राप्त हो जाता है । यज्ञोपवीत हो जाने पर उसे ब्रह्मचर्य-सिद्धि के लिए पात्र कहा जाता है । यदि उसने गंभीरता से अपना शिक्षा-काल किसी योग्य आचार्य के सान्निध्य में व्यतीत किया है और उसके पश्चात् उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा गुरु ने दी हो तो ऐसा ब्रह्मचारी विवाह कर नियमपूर्वक गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए संतान की उत्पत्ति की कामना से स्त्री से अनुरक्त होता है तो भी वह ब्रह्मचारी ही है । दूसरी ओर ब्रह्मचर्य-आश्रम में स्थित कुछ ऐसे शिष्य भी होते हैं जिन्हें कामनाओं की व्यर्थता और अनर्थक विनाशकारिता का आभास होता है और इन्द्रिय-सुखों से उन्हें वैराग्य होने से वे सहज रूप से मन को वश में रख सकते हैं । ऐसे शिष्यों को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है । यदि आचार्य उन्हें गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने के लिए बाध्य करते हैं तो इससे आचार्य का, उस शिष्य का, और संसार का भी अहित ही होता है । गृहस्थ हो या नैष्ठिक ब्रह्मचारी जिसे भी सत्य के दर्शन ’नित्य’, ’शाश्वत्’, सनातन, ’ब्रह्म’ और ’परब्रह्म’ के रूप में हो जाते हैं, वे सभी ऋषि कहे जाते हैं । ऐसे ऋषियों में कुछ ’स्वः’, ’महः’ ’जनः’ ’तपः’ और ’सत्य’ के लोक में स्थित होने से उन्हें महर्षि भी कहा जाता है ।
ऊर्ध्व > अतो ऊर्ध्व > यहाँ से ऊपर के अर्थ में ऊर्ध्वरेता वह होता है जो इस जन्म में मृत्यु हो जाने के बाद के अपने अगले जन्म (या मुक्ति) के लिए संकल्प कर सकता है । पिप्पलाद और याज्ञवल्क्य दोनों ही ऋषि थे किन्तु पिप्पलाद ऊर्ध्वरेता थे और मृत्यु से भयभीत नहीं थे जबकि याज्ञवल्क्य का जीवन-मृत्यु पर ऐसा नियंत्रण नहीं था, जैसा पिप्पलाद का था, इसलिए महत्-तत्व में प्रतिष्ठित होने से पिप्पलाद को महर्षि कहा जा सकता है । किन्तु इस तुलना से यह सिद्ध नहीं होता कि उनमें से कौन अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ थे ।
पुनः ऋष् > ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थत् ’काम’ हो जाता है जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है । इसलिए उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है । लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है ।
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