Monday, 30 November 2015

ऊर्ध्वरेता

ऊर्ध्वरेता 
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परसों अश्वत्थ से हुई चर्चा में मैंने गौर किया कि अश्वत्थ पिप्पलाद के नाम के साथ तो ’महर्षि’ का विशेषण लगाता था जबकि याज्ञवल्क्य के लिए केवल ’ऋषि’ का । मुझे वे दिन आए जब मैंने अश्वत्थ से मेरी चर्चाओं को ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ के माध्यम से अंग्रेज़ी में प्रस्तुत किया था । तब मुझे अश्वत्थ ने ऊर्ध्वरेता का अर्थ समझाया था । मुझे स्मरण नहीं कि क्या ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ में कहीं इसका उल्लेख मैंने किया है या नहीं ।
किन्तु तब अश्वत्थ ने ही बतलाया था कि ऋषि वह होता है जिसे सत्य के स्वरूप का ’नित्य’ तत्व के रूप में दर्शन हो जाता है । यह ’नित्य’ भी, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ की ही तरह सत्य का एक मुख है । ’नित्य’, ’शाश्वत’, ’सनातन’ और ’ब्रह्म’ काल और स्थान के सन्दर्भ से होते हैं जबकि काल-स्थान परम-सत्ता के केवल एक अंश का प्रकाश है ।
शाश्वत नित्य सनातन ब्रह्म ये ब्रह्मा के चार मुख हैं जिन्हें हर कोई अनायास देखता है, भले ही उसने इस ओर ध्यान न दिया हो । इनसे परे ब्रह्मा का पाँचवाँ मुख था जिसे शिव ने काट दिया था । इसलिए वह सृष्टि के लिए अदृश्य है । सृष्टि के माता-पिता के रूप में ब्रह्मा और सरस्वती पिता-पुत्री होकर भी पति-पत्नी हैं । सृष्टि रूपी संतान अपने माता-पिता की अधर्म-संतान होने से उनका मुख नहीं देख सकती । इसीलिए ब्रह्मा की पूजा भी नहीं की जाती । उनकी पूजा सदैव किसी अन्य देवता के साथ की जाती है । हाँ कोई केवल तप कर उन्हें प्रसन्न कर सकता है और उनसे इच्छित वर भी प्राप्त कर सकता है ।
तपस्वी प्रायः किसी कामना की पूर्ति के लिए तप करते हैं जबकि ऋषि केवल धर्म के आचरण के रूप में तप करते हैं । ऐसे ऋषि पुनः गृहस्थ अथवा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, संन्यास तथा अत्याश्रम की अपनी अवस्था / प्रारब्ध के अनुसार ऊर्ध्वरेता होते हैं या नहीं भी होते । जब किसी ब्राह्मण का जन्म होता है तो उसे अनायास ही ब्रह्मचर्य आश्रम प्राप्त हो जाता है । यज्ञोपवीत हो जाने पर उसे ब्रह्मचर्य-सिद्धि के लिए पात्र कहा जाता है । यदि उसने गंभीरता से अपना शिक्षा-काल किसी योग्य आचार्य के सान्निध्य में व्यतीत किया है और उसके पश्चात् उसे गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने की आज्ञा गुरु ने दी हो तो ऐसा ब्रह्मचारी विवाह कर नियमपूर्वक गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए संतान की उत्पत्ति की कामना से स्त्री से अनुरक्त होता है तो भी वह ब्रह्मचारी ही है । दूसरी ओर ब्रह्मचर्य-आश्रम में स्थित कुछ ऐसे शिष्य भी होते हैं जिन्हें कामनाओं की व्यर्थता और अनर्थक विनाशकारिता का आभास होता है और इन्द्रिय-सुखों से उन्हें वैराग्य होने से वे सहज रूप से मन को वश में रख सकते हैं । ऐसे शिष्यों को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है । यदि आचार्य उन्हें गृहस्थ-आश्रम में प्रवेश करने के लिए बाध्य करते हैं तो इससे आचार्य का, उस शिष्य का, और संसार का भी अहित ही होता है । गृहस्थ हो या नैष्ठिक ब्रह्मचारी जिसे भी सत्य के दर्शन ’नित्य’, ’शाश्वत्’, सनातन, ’ब्रह्म’ और ’परब्रह्म’ के रूप में हो जाते हैं, वे सभी ऋषि कहे जाते हैं । ऐसे ऋषियों में कुछ ’स्वः’, ’महः’ ’जनः’ ’तपः’ और ’सत्य’ के लोक में स्थित होने से उन्हें महर्षि भी कहा जाता है ।
ऊर्ध्व > अतो ऊर्ध्व > यहाँ से ऊपर के अर्थ में ऊर्ध्वरेता वह होता है जो इस जन्म में मृत्यु हो जाने के बाद के अपने अगले जन्म (या मुक्ति) के लिए संकल्प कर सकता है । पिप्पलाद और याज्ञवल्क्य दोनों ही ऋषि थे किन्तु पिप्पलाद ऊर्ध्वरेता थे और मृत्यु से भयभीत नहीं थे जबकि याज्ञवल्क्य का जीवन-मृत्यु पर ऐसा नियंत्रण नहीं था, जैसा पिप्पलाद का था, इसलिए महत्-तत्व में प्रतिष्ठित होने से पिप्पलाद को महर्षि कहा जा सकता है । किन्तु इस तुलना से यह सिद्ध नहीं होता कि उनमें से कौन अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ थे ।
पुनः ऋष् > ऋषभ और ऋषि एक ही धातु से ब्युत्पन्न होने से ऋ’ अर्थात् ’रे’ होने से  ’रेतस्’ > ऋषभ अर्थत् ’काम’ हो जाता है जो संतति का कारक है । ’रेतस्’ से ’ऊर्ध्व’ अर्थात् वृषभारूढ वह है जिसने ’काम’ को वश में कर रखा है । इसलिए उसे भी ऊर्ध्वरेतस् / ऊर्ध्वरेता कहा जाता है । इसलिए उसे पशुपति शिव के रूप में देखा जाता है । लोक में भी वृषभ (सांड या बैल) की पीठ पर स्थित पिंड को देखकर भी इस तथ्य को सरलता से समझा जा सकता है ।
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अश्वत्थ / पुराण-कथा

अश्वत्थ / पुराण-कथा *   
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अश्वत्थ सर्दियों में अद्भुत् दिखलाई देता है ।
अभी सर्दियाँ बस शुरु ही तो हुई हैं ।
परसों सुबह कुँआरी धूप में भ्रमण करते हुए जब उसके समीप पहुँचा तो वह आत्मलीन सा समाधिस्थ था ।
सोच ही रहा था कि एक स्नैप ले लूँ कि उसकी समाधि टूट गई । उसने अन्यमनस्कतापूर्वक मुझे बरज दिया । जैसे पहले यह उत्साह उठा था कि स्नैप ले लूँ, अगले ही क्षण उसके तेवर से समझ गया कि उसे पसन्द नहीं ।
फिर भी यह जानकर प्रसन्नता हुई कि वह मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था ।
"सुनो!"
उसने ही वार्तालाप शुरु किया ।
मैं तो गद्गद् हो उठा ।
’इतने दिनों बाद?’
मैंने खुद से पूछा ।
"संकल्प कोई भी हो, क्लेश का ही कारण होता है । संकल्प उठते ही एक आभासी संकल्पकर्ता अस्तित्व ग्रहण कर लेता है, जो अपने अस्तित्व से सदा अपूर्ण और इस अपूर्णता से खिन्न रहा करता है । वह किसी प्रकार से इस खिन्नता को दूर नहीं कर सकता । क्योंकि वह स्वयं ही खिन्नता होता है । संतुष्टि का अर्थ होगा उसकी मृत्यु, और उसमें उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता । अंततः वह मृत्यु भी चाहता है तो वह खिन्नता की ही पराकाष्ठा होता है । या फिर, उसे इसका आभास हो जाता है कि एक स्रोत है उसका, वह जिसकी लहर मात्र है । लहर मिटे बिना जल से कैसे एक हो सकती है ? संकल्प जानता है कि अपने स्रोत में विलीन हो जाना ही परम संतोष होगा ।"
अश्वत्थ की धाराप्रवाह वक्तृता मेरे लिए नई थी । मेरी ओर बिना देखे वह बोलता रहा :
"सुनो! मैं तुम्हें महर्षि पिप्पलाद की कथा सुनाता हूँ । वे मेरे फलों को खाकर तप में संलग्न थे ।
वे पिछले जन्म में ही आत्म-ज्ञान प्राप्त कर चुके थे किन्तु कुछ पूर्व प्रबल संस्कारों के प्रभाव से समष्टि संकल्प अर्थात् प्रारब्ध के शेष रह जाने से कामना-मुक्त नहीं हो सके थे । प्रातः सायं वे ऋषि याज्ञवल्क्य को नदी-तट या सरोवर की ओर नित्य किए जानेवाले संध्या कर्म हेतु आते-जाते देखते और न जाने कब उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान की भावना से उनके चित्त में यह भावना जागृत हुई कि अगले जन्म में ऋषि याज्ञवल्क्य उन्हें पिता के रूप में प्राप्त हों  । दैववश वे इसे भूल भी गए किन्तु दैव पर उनके इस कर्म ने एक संकल्प-रेखा खींच दी थी, इसका उन्हें स्मरण न रहा ।
दूसरी ओर, ऋषि याज्ञवल्क्य को उन महर्षि या उनकी इस भावना / कर्म के बारे में आभास तक नहीं था ।
उस अपने विगत जन्म में  महर्षि पिप्पलाद अत्यन्त वृद्ध, असहाय और दुर्बल होकर अपनी एकाकी कुटिया में या बाहर, ईश्वर-चिन्तन करते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे । अन्न और फल आदि भी त्याग चुके थे और प्यास लगने पर उसकी निवृत्ति के लिए सिर्फ़ गंगा-जल को ईश्वरीय प्रसाद समझकर तिरस्कार न करते हुए ग्रहण करने लगे थे ।
ऐसे ही एक दिन समाधि में बैठे-बैठे उन्होंने उचित समय जानकर संकल्प-पूर्वक देह को त्याग दिया ।
ब्रह्मा की आज्ञा से तब कुछ तीर्थयात्री पथिक उस मार्ग से आए और महर्षि को परम-सत्ता में लीन जानकर उनकी पार्थिव देह को जल में समाधि दी और उनके बैठने के स्थान पर एक लिंग स्थापित कर वहाँ से चल दिए ।
इसके कुछ ही दिनों बाद ऋषि याज्ञवल्क्य जब नित्य संध्या कर्म करने बाद अपनी कुटिया पर आए तो उन्होंने बरसों से बिछड़ी अपनी बहन को द्वार पर खड़ा पाया । इस बीच उनके माता-पिता की मृत्यु कुछ समय पूर्व हो चुकी थी जिसका पता याज्ञवल्क्य को नहीं था क्योंकि वे बचपन में ही गृह छोड़कर गुरुकुल में रहने लगे थे, और फिर घर नहीं लौट सके थे । किन्तु माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद उनकी वह अविवाहित छोटी बहन अकेले ही भिक्षावृत्ति से जीवन-यापन करती हुई तपस्या और तीर्थाटन करती रही और संयोगवश यहाँ आ पहुँची थी ।
जब ऋषि ने बहिन को देखा तो वे भाव-विह्वल हो उठे, दोनों परस्पर गले मिले और तब ऋषि को अपने माता-पिता की मृत्यु के बारे में ज्ञात हुआ ।
दूसरे दिन ऋषि ने यथोचित पितृ-तर्पण आदि किया और अपनी बहन के लिए अपनी कुटिया की समीपवर्ती एक पुरानी कुटिया को स्वच्छ कर उसके लिए रहने हेतु व्यवस्थित कर दिया ।  वे प्रायः हर रोज ही एक-दूसरे से मिलते थे और कुशल-मंगल पूछते । दोनों बस तपस्वी और परस्पर अपरिचित दो मनुष्यों की तरह अपनी-अपनी तप-साधना में संलग्न रहते । कभी कभी तो कई कई दिनों तक भी उनके बीच बात तक नहीं हो पाती थी । तब एक दिन दैववश वे ही पथिक याज्ञवल्क्य की कुटिया पर आ पहुँचे और उनसे चर्चा के दौरान उन्होंने याज्ञवल्क्य से उन तपस्वी के बारे में जिज्ञासा की । याज्ञवल्क्य उन तपस्वी को वैसे तो जानते थे किन्तु दोनों में कभी कोई वार्तालाप नहीं हुआ था । इस बीच उनकी बहिन वहाँ आ पहुँची । उसे कुछ स्मरण हुआ तो उसने बताया, हाँ मैं कुछ समय उन तपस्वी के सान्निध्य में उनकी सेवा मे संलग्न थी, फिर वहाँ से आगे चली गई । उसने यह भी बताया कि वे वृद्ध तपस्वी उसकी सेवा से बहुत प्रसन्न थे और उसे माता कहते थे । एक बार तो उन्होंने अपना यह भाव भी उसके समक्ष रखा था कि यदि दैव ने चाहा तो वे उसे माता के रूप में किसी जन्म में प्राप्त करेंगे । ऋषि याज्ञवल्क्य ने अपनी अन्तर्दृष्टि से इस पूरे वृत्तान्त को देख लिया पर उन्होंने इस विषय को महत्व नहीं दिया और वे मौन रहे ।
दो-तीन वर्षों के बाद एक रात्रि ऋषि ने कोई कामुक स्वप्न देखा जिससे उनका वीर्य स्खलित हो गया और निद्रा से जागने के पश्चात उन्होंने रात्रि में स्नान करना उचित न जानकर उस अशुद्ध वस्त्र को कुटिया से बाहर थोड़ी दूर फेंक दिया । दूसरा अधोवस्त्र लपेटा और सो गए । भोर होने से पहले ही रोज की तरह उठे और स्नान आदि के लिए नदी की ओर जा रहे थे । वे अपने उस वस्त्र को खोज रहे थे जिसे उन्होंने रात्रि में फेंक दिया था । क्योंकि उनके पास अधिक वस्त्र नहीं थे इसलिए उसे ही स्वच्छकर प्रयोग किया जा सकता था ।
तभी उनकी बहन वहाँ आ पहुँची । उसने ऋषि से पूछा कि वे क्या ढूँढ रहे हैं? तब ऋषि ने रात्रि की घटना उसे सुनाई । सुनते ही वह कटे वृक्ष की भाँति धरती पर गिर पड़ी । ऋषि ने उससे पूछा ’क्या हुआ?’ तब उसने रोते-रोते कहा कि वह रजस्वला थी और रात्रि में अधिक स्राव होने से व्याकुल होकर कोई वस्त्र ढूँढ रही थी जिसे वह कमर पर लपेट सके, और जब बाहर आई तो उसे एक वस्त्र पड़ा दिखलाई दिया जिसे उसने तुरंत ही अपनी कटि पर लपेट लिया था ।
ऋषि यह सुनकर स्तब्ध रह गए और अपनी अन्तर्दृष्टि से उन्होंने क्षणमात्र में समझ लिया कि महषि पिप्पलाद के मन में उन्हें पिता के रूप में तथा उनकी बहन को माता के रूप में प्राप्त करने का जो संकल्प था वही इस पाप-काया में उनके जन्म लेने के लिए दैववश फलीभूत होनेवाला है । उन्होंने संयत होकर बहन से कहा :
दैव कितना कुशल है ! इसलिए मनुष्य को न तो शुभ न अशुभ संकल्प करना चाहिए । तपस्वी को तो कदापि नहीं । और जैसे ही कोई संकल्प उठे, उसे ज्ञानाग्नि में हवन कर देना चाहिए ।
तुम जानती हो वे तपस्वी तुम्हें माता के रूप में और मुझे पिता के रूप में प्राप्त करने की कामना से मोहित हो गए थे, और उन्हें इस बारे में स्मरण ही नहीं था कि तपस्वी को कामनाओं से कदापि मोहित नहीं होना चाहिए, क्योंकि तपस्वी की कामनाएँ संकल्प का रूप ले लेती हैं जिन्हें पूर्ण करने के लिए दैव भी बाध्य हो जाता है । उन्हें आभास तक कैसे होता कि हम दोनों भाई बहन हैं? यदि उन्हें जरा भी आभास या कल्पना होती तो वे कदाचित् सतर्क हो जाते । किन्तु अहा दैव ! अरे विधाता । अच्छा अब तुम उस शिशु को उसके जन्म लेते ही पीपल के वृक्ष तले छोड़ देना । और वहाँ से बहुत दूर चली जाना । विधाता ही उसकी रक्षा करेगा ।
समय आने पर उस स्त्री ने अपने नवजात शिशु (पिप्पलाद) को मेरी छाया तले रख दिया और मुझे और दिशाओं को, धरती और नभ को प्रणाम कर वहाँ से चली गई । "
अश्वत्थ यह कहकर चुप हो गया । उसकी पत्तियों से झरती ओस की बूँदों से मैंने जाना कि वह रो रहा था ।
पिप्पलाद एक नन्हें शिशु की भाँति मेरी छाया में  लेटा था और मैं उसका धर्मपिता था । उसके लिए मुझे भी संकल्पों से बँधना ही था । किसी वन्य पशु की उस पर दृष्टि न पड़ती, यदि पड़ती भी तो वह उसे दुलारकर चला जाता, बकरियाँ और गौएँ उसे स्तनपान करा जातीं, वनदेवी उसे ऊष्णता देती, ...।
और धीरे धीरे बड़े होते होते उसकी अपनी स्मृति जाग उठी और वह अपने ब्राह्मणोचित गुण-कर्मों में प्रवृत्त हो उठा ।
अपनी सहज प्रज्ञा से उसने यह भी जान लिया कि वह याज्ञवल्क्य और उनकी बहन की संतान है, इसलिए वह घोर पाप लेकर जन्मा है । यज्ञकर्म और अभिचार कर्म में कुशल होने से उसने यज्ञकुण्ड में ’कृत्या’ का आवाहन किया और उसे आज्ञा दी कि वह याज्ञवल्क्य को मार डाले । कृत्या याज्ञवल्क्य के पीछे उन्हें खाने के लिए दौड़ रही थी और याज्ञवल्क्य उससे अपनी रक्षा की आशा से पहले राजा जनक, फिर दूसरे राजा, फिर देवताओं , चन्द्र, सूर्य, ऋषियों और इन्द्र की भी शरण में गए परंतु कोई उनकी रक्षा करने में समर्थ न था । फिर वे ब्रह्मा और अंततः शिव के पास गए, जो अपनी समाधि में डूबे थे । जब उन्होंने याज्ञवल्क्य को द्वार पर देखा तो उनसे कुशल पूछी । ऋषि बोले : मेरे पुत्र ने कृत्या को जागृत कर मुझे खा जाने के लिए भेजा है । भगवान् शंकर ने पल भर में ही पूरा वृत्तान्त समझकर ऋषि को अभयदान दिया और कृत्या को शान्त कर वापस पिप्पलाद के पास भेज दिया । जब कृत्या महर्षि पिप्पलाद के पास पहुँची और उन्हें शंकर के पास जाने के लिए कहा तो पिप्पलाद भगवान् शंकर की सेवा में प्रस्तुत हो गए ।
"प्रभो आपने स्मरण किया, मैं तो धन्य हो गया ..."
महर्षि भगवान् के चरणों की वंदना कर रहे थे ।
"पिप्पलाद!  ऋषि और उनकी बहन पर तुम्हारा क्रोध करना सर्वथा अनुचित है । प्रमादवश तुमने स्वयं ही उन्हें माता-पिता के रूप में प्राप्त करने की इच्छा की थी और तुम्हारे संकल्प के आगे दैव को भी झुकना पड़ा । अब तुम निष्पाप हो ।"
अश्वत्थ इतना कहकर पुनः आँखें बंद कर अन्तर्लीन हो उठा । पल भर बाद बोला :
"इसलिए तुम्हें चाहिए कि कौतूहलवश भी कामना के वशीभूत कभी मत होओ । मन को मोहित करनेवाली सभी कामनाएँ अन्ततः विनाशकारी सिद्ध होती हैं ।"
मैंने दोनों हाथ जोड़कर अश्वत्थ को प्रणाम किया और अपने घर की दिशा में आगे बढ़ गया ।
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(*सन्दर्भ : पंकज प्रकाशन सतघड़ा मथुरा से प्रकाशित श्री नर्मदापुराण अध्याय 42)       

   

Sunday, 29 November 2015

अपने-आप को जानना / Knowing one-self -2.

अपने-आप को जानना / Knowing one-self -2. 
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जब तक ’विचार’ और ’विचारक’ के अस्तित्व को एक ही स्थिति के दो पक्षों के रूप में नहीं समझ लिया जाता, विचार की यातना से मुक्ति संभव नहीं । फिर, हैरानी की बात नहीं कि यह समझ जिस मन / चेतना में संभव होती है, वह यद्यपि ’व्यक्ति’ नहीं रह जाता, लेकिन ’बोधमात्र’ है, यह उसे स्पष्ट हो जाता है । वह "मैं नहीं हूँ" भी नहीं कह सकता, क्योंकि वह स्वयं अपना प्रत्यक्ष प्रमाण होता है ।
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अपने-आपको जानना / Knowing one-self.

अपने-आपको जानना / Knowing one-self.
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प्रश्न :
भला करने या भला चाहने से भला नहीं होता है। भला जब होना होता है तो खुद ही हो जाता है और नहीं होना हो तो मारते रहो तीर ।... आप बहुत बेहतर समझा सकेंगे Vinay ji...
उत्तर :
जो अपने आपको ’जाना’ या ’अनजाना’ मानता है, उसे यह भी पता होता है कि वह वस्तुतः अपने ’होने’ भर को ही जानता है । और इस प्रकार से अपने-आप को जानना ’जानकारी’ / ’इन्फ़ॉर्मेशन’ या मेमोरी, ओपिनिअन, निष्कर्ष, या कॉन्सेप्ट, इन्फ़रेन्स नहीं - बल्कि सहज प्रतीति होती है । यह बोध प्राणीमात्र में होता ही है । एक ’कर्म’ तो घटना के रूप में होता है, दूसरा उसकी 'व्याख्या' के रूप में । किसी एक ही घटना की व्याख्या हर मनुष्य अपने-अपने ढंग से करता है, यह ’व्याख्या’ उस वास्तविक घटना से बिल्कुल भिन्न प्रकार की चीज़ होती है । घटना और उसकी व्याख्या एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते (जैसा कि भूल से व्याख्या करनेवाला समझ बैठता है)। इसलिए जिसे हम ’कर्म’ कहते हैं ऐसी कोई वस्तु परिभाषित तक नहीं की जा सकती । किन्तु हम घटनाओं (अपनी या दूसरों के द्वारा की गई व्याख्या की, जिसे इतिहास / अनुभव कहा जाता है,) की स्मृति को आधार मानते हुए ’कर्म’ के अस्तित्व और ’अपने’ (स्वतन्त्र) ’कर्ता’ होने की कल्पना से आदतन / प्रमादवश (अर्थात सतर्क न होने से) इस बुरी तरह ग्रस्त (ऑब्सेस्ड) होते हैं कि फिर इस ग्रस्तता को अतीत और भविष्य (की आधारहीन कल्पना) तक खींच ले जाते हैं, और कहने लगते हैं ’मैंने’ ’यह’ / ’वह’ किया / नहीं किया, अथवा, ’मैं’, ”यह’ / ’वह’ करूँगा / नहीं करूँगा । इसमें अतीत, भविष्य, मैं, मैंने, करना, इन सबसे हम क्या समझते हैं, यह जानना भी हमारे लिए नितांत दुरूह, अनिश्चित और अज्ञातप्राय होता है । इसलिए मुख्य बात यह हो सकती है कि हम अपने विवेक से जो कर सकते हैं उसे ही करने के प्रयास तक ही स्वयं को सीमित रखें और जो होता है वह हमारे नियंत्रण में होगा ही ऐसा न सोचें ।
मुझे लगता है कि अधिकांश लोगों को ’शास्त्र’ (हिन्दू ही नहीं, सभी ) और अधिक भ्रमित कर देते हैं , इसलिए शास्त्र, ’शस्त्र’ से कम खतरनाक नहीं होते । शस्त्रों की भयावहता तो प्रकट है, किन्तु शास्त्रों की भयावहता की ओर हमारा ध्यान तक शायद ही कभी जाता हो । कोई दिलाये भी तो हम उसे महत्व नहीं देते ।
हमारा अपने-आपको जानना न तो किसी ’कर्म’ का परिणाम है, न किसी ’कर्म’ से इस ’जानने’ का अन्त संभव है । हमारा ’होना’ भी न तो किसी ’कर्म’ का परिणाम है, न किसी कर्म से हमारे ’होने’ के तथ्य को मिटाया जा सकता है ।
क्योंकि मान लें यदि ऐसा हो भी जाता है तो ’हमें’ कैसे पता चलेगा? और यदि किसी तल पर हमें पता चलता है, तो हम वहाँ ’होंगे’ ही । अपने होने को जानते हुए ।
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Saturday, 28 November 2015

गोमुख / gomukha (कविता हिन्दी संस्कृत)

कविता हिन्दी संस्कृत
गोमुख
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आप्यन्ते गोभिः पयांसि
गावः पृथिवी च वागपि ।
गोमुखात् प्रभवति गङ्गा
गोमुख! ते नमोनमः ॥
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अर्थ :
गौओं से जल / दूध प्राप्त होता है,
गौ पृथिवी तथा वाक् है,
गोमुख से गंगा अवतरित होती है,
हे गोमुख तुम्हें प्रणाम है ॥
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gomukha
(The Cow's mouth)
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āpyante gobhiḥ payāṃsi
gāvaḥ pṛthivī ca vāgapi |
gomukhāt prabhavati gaṅgā
gomukha! te namonamaḥ ||
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Cows give us milk / waters,
Cows are manifest Earth and saraswatī,
gaṅgā descends from the Cow's mouth,
O gomukha! Obeisence to you!
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(gomukha > Cow's mouth,
In saṃskṛta,
The place where-from a river issues forth from earth is called 'gomukha')
saraswatī > The Goddess of voice divine.
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Thursday, 26 November 2015

क्या ईश्वर अनश्वर है?

क्या ईश्वर अनश्वर है? 
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नश् > नश्यते नश्वर > नाम-रूप,
न नश्यते > अनश्वर > नाम-रूप जिस पर आरोपित किए जाते हैं,
ईश् > ईशते > शासन करना > ईश्वर ।
नाम रूप किसी चेतन तत्व द्वारा आरोपित किए जाते हैं ।
जिस पर नाम-रूप आरोपित किए जाते हैं वह दृश्य हुआ ।
जिसे दृश्य का संवेदन / प्रतीति होती है वह चेतन हुआ ।
इस चेतन के अस्तित्व को जागृति के ही समय ’मन’ के रूप में स्वीकार किया जाता है  । अन्य समय वह (मन) होता है इसका अनुमान या कल्पना भी जागृति के ही समय होती है । जिसकी कल्पना या अनुमान जागृति के समय की जाती है, वह दृश्य हुआ । जिस चेतना में यह अनुमान / कल्पना घटित होते हैं, वह स्वयं अनुमान या कल्पना नहीं है । भूल से उसे भी मन कह दिया जाता है । इस प्रकार चेतना के दो प्रकार कहे जा सकते हैं एक आधारभूत अविकारी (परिवर्तन से रहित) तथा दूसरी परिवर्तनशील । बुद्धि के कार्यशील होने पर स्मृति से विचारों का आगमन और ’पहचान’ का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार से अविकारी पर विकारशील (नाम-रूप) आरोपित कर दिया जाता है । इसके फलस्वरूप जगत् और स्व इन दो सत्ताओं का अनुमान बुद्धि के ही अन्तर्गत होता है । स्वयं बुद्धि (के कार्य) का भी आगमन और प्रस्थान सतत होने से उसे भी एक स्वतन्त्र तत्व (बुद्धि में ही) समझ लिया जाता है ।
अविकारी चेतना सबको सक्रिय बनाते हुए भी नित्य असंसक्त, निर्लिप्त और अप्रभावित रहती है । उस अविकारी चेतना को जाननेवाला कोई उससे अन्य नहीं है । इसलिए व्यवहार में उसे ईश्वर कहा जा सकता है । उसका जन्म नहीं और इसलिए उसके नश्वर या अनश्वर होने का प्रश्न ही नहीं उठता । बुद्धि-रूपी जीव का ही सतत् जन्म और नाश होता रहता है । नाम-रूप का आश्रय बुद्धि ही है । इसलिए नाम-रूप के भी नश्वर या अनश्वर होने का प्रश्न नहीं उठ सकता । इसलिए न तो ’कर्ता’ है, न ’कर्म’ केवल एक ही सत्ता है जिसमें जीव और उसके जगत् के बीच मायारूपी क्रीडा हुआ करती है । माया का भी जन्म और मृत्यु से कोई संबंध नहीं क्योंकि माया भी मूलतः एक धारणा मात्र है । यह धारणा विलीन हो जाए तो जो पहले था वही पुनः प्राप्त हुआ जान पड़ता है ।
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Tuesday, 24 November 2015

ईशावास्योपनिषत्-9 / īśāvāsyopaniṣat -9

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः ॥
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(ईशावास्योपनिषत् श्लोक 9)
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अर्थ :
वे जो अज्ञान में हैं अंधकार में जीते हैं, वे जो कोरे शब्द-बाहुल्य को ज्ञान समझकर उसमें डूबे रहते हैं, वे और भी अधिक अंधकार में जीते हैं ।
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andhaṃ tamaḥ praviśanti ye:'vidyāmupāsate |
tato bhūya iva te tamo ya u vidyāyām ratāḥ |
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(īśāvāsyopaniṣat śloka 9)
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Meaning :
Those who live in ignorance live in the darkness, those who have the light of intellect enter and live in even in the deeper.
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The Conspiracy of 'Thought' / 'Intellect'.
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There is a light,
that hides the darkness,
There is another, 
That reveals them both.

There is the intellect,
That hides the ignorance,
 There is an intellect,
 That is but ignorance in disguise.

There is an intelligence,
That transcends thought,
And let us see the light,
That it is freedom from thought.

When you know, 
You are ignorant,
This knowledge is but intellect,
This does not tell you,
What is ignorance,
When you know,
You are full of knowledge,
This is again but ignorance covered up.

Lack of words or full of words,
both survive in the dark,
The dark is just gone,
When there is Intelligence.
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The space between the words

Is there space between the words?
I think :
Word is the worth of the worthy,
They give and keep the word,
There is no space between their words,
Lest say people, they are wayward..
'वर्त्' / वृत्ति / वार्ता / वर्त्तमान
Though the above statement I made is in poetic vein, I would like to say 'space' 'स्पृश्' the physical one at least, is the AkAsha-tatva आकाश-तत्व and is one of the 5 elements > 'mahAbhUta' > महाभूत , that simply means ऋषि Rishi knew,  this 'space' is but 'matter' The very word 'mahAbhuta' महाभूत, points out that which is subject to emerge out and disappear with Creation (SriShTi / सृष्टि) and Dissolution (Pralaya / प्रलय) . The 'Self' / 'Consciousness-Supreme' neither emerges nor sinks / submerges. Though the existence keeps emerging and submerging. So Space is not everywhere, nor everywhere / everything in space. Again, This 'word' comes from Sanskrit root 'vart' 'वर्त्' that has many connotations, some are : 'to behave', 'to be present', 'to manifest', 'to express'. The word 'wort' in German is a direct descendant of this 'vart / 'वर्त्' which becomes 'word' in English. So 'vart' 'वर्त्' is a compact whole in the mathematical sense. This becomes 'vRtti' / 'वृत्ति' / mode and the Self' which is the ground is beyond this 'vRitti'/ वृत्ति,
यतो हि वृत्तिः प्रवर्तते यस्मिन् च प्रविलीयते ।
स दृष्टा नैव प्रवर्तते साक्षी नो प्रविलीयते ॥
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yato hi vṛttiḥ pravartate yasmin ca pravilīyate |
sa dṛṣṭā naiva pravartate sākṣī no pravilīyate ||
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जहाँ से वृत्ति उठती है और पुनः जिसमें विलीन हो जाती है वह 'दृष्टा' न तो व्यवहार में प्रवृत्त होता है न व्यवहार से निवृत्त होता है। 
(यहाँ वृत्ति का तात्पर्य है 'मन', … )  
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Meaning :
The place where-from thought / mode of mind begins to work / appears, and where subsides / disappears again, that Witness / The one who observes this movement of mind, neither rises, nor sets.
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Here word means 'mind' the movement of 'thought'. The Consciousness / the witness abides ever unaffected and aloof.
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Sunday, 22 November 2015

aṣṭāvakra gītā / अष्टावक्र गीता,

आज का श्लोक 
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यः पश्यति इह संसारे
यः दृश्यते तथा अपि ।
भोग-मोक्षनिराकांक्षी
न भुङ्क्ते नैव बध्यते ॥
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जो देखता है, जो दिखाई पड़ता है, ऐसा भोग-मोक्ष की कामना से रहित मनुष्य न तो (कामनाओं का) भोग करता है, न (कामनाओं से) बँधता है, (क्योंकि उसे मोक्ष की भी आवश्यकता नहीं अनुभव होती ) ।
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yaḥ paśyati iha saṃsāre
yaḥ dṛśyate tathā api |
bhoga-mokṣanirākāṃkṣī
na bhuṅkte naiva badhyate ||
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Meaning :
In this world, the one who sees, and the one who is observed as one free from desiring enjoyments or seeking freedom from them, neither experiences those enjoyments, nor gets indulged in them.
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बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते ।
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः ॥
(अष्टावक्र गीता, अध्याय 17, श्लोक 5)
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इस संसार में भोगों की कामना रखनेवाले और मोक्ष की कामना रखनेवाले भी देखे जाते हैं, किंतु ऐसा कोई महापुरुष बिरले ही दिखाई पड़ता है, जिसे न तो भोगों की कामना हो, न मोक्ष की ।
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bubhukṣuriha saṃsāre mumukṣurapi dṛśyate |
bhogamokṣanirākāṃkṣī viralo hi mahāśayaḥ ||
(aṣṭāvakra gītā 17 śloka 5)
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Meaning :
In this world are seen people who are gripped by desires and those who seek freedom from desire, but rarely we see a great one who seeks neither fulfillment of nor freedom from desire.
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Saturday, 21 November 2015

गौ / 'The Cow'-4.

 गौ / 'The Cow'-4. 


Some 25 years ago I met a beggar (mendicant) and my friend derided him, saying he is exploiting religious sentiments of people to earn a livelihood for himself. I asked the man with cow, (one like in this picture), and I knew he was but begging food only for him and the cow and offers the best to cow, whatever she likes to eat, while he himself feeds on the left overs. He keeps wandering from place to place and when the cow is on heat, he leaves her with some bull. After some-time, he gets her. He offers the milk to some needy, or consumes himself, only after the calf had left the udder and there is still some there. He moves with the cow and the calf and donates the calf to some pious people who could serve and protect it. This was his 'sadhana' as his Guru had directed him to practice. He was just a simple, perhaps not much learned one.
And he was the man who pointed out that गौ / 'The Cow' (and the Bull too). is the प्रत्यक्ष धर्म , the embodiment of 'dharma' visible on the earth, and as long गौ / 'The Cow' (and the Bull too). are protected and served, kept happy, all is well for every-one,
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Thursday, 19 November 2015

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...
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जिस प्रकार ’लिंग’ शिव की अभिव्यक्ति है, और ’गौ’ धर्म की, वैसे ही ’स्त्री’ शक्ति की अभिव्यक्ति है और ’पुरुष’ पुरुषार्थ की । ये ’प्रतीक’ या चिह्न की बजाय उन निराकार तत्वों का साकार अभिव्यक्त रूप हैं । शक्ति स्वयं किसी आश्रय के अभाव में बिखर जाती है । नारी / स्त्री भी उसी प्रकार पुरुष के आश्रय के बिना अस्तित्वहीन हो जाती है । जैसे पुरुष के कुछ अधिकार और उससे संलग्न उत्तरदायित्व होते हैं वैसे ही स्त्री के भी कुछ जन्मजात अधिकार और दायित्व होते हैं । हम देखते हैं कि पशुओं में और पक्षियों में भी प्रायः किसी भी दल का या ’परिवार’ का मुखिया कोई ’पुरुष’ ही हुआ करता है । कुछ पशु-पक्षी युगल-जीवन भी जीते हैं और हंस जैसे पक्षी तो प्रायः अपने साथी से बिछड़ जाने पर, उसकी मृत्यु हो जाने पर पुनः जोड़ा नहीं बनाते । प्रायः पशु-पक्षी प्रकृति के अनुकूल होने पर अपनी ऋतु आने पर ही प्रजनन के कार्य में संलग्न होते हैं । मनुष्य ही शायद इसका अपवाद है । झुण्ड में रहनेवाले जानवर, जैसे वानर, गाय-भैंसे, भेड़-बकरियाँ आदि भी इसका अपवाद हुआ करते हैं । वह प्रकृति-प्रदत्त धर्म है । किन्तु जो मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थों को जानता-समझता है उसके लिए अपनी काम-प्रकृति को सुव्यवस्थित रखना आवश्यक हो जाता है, चाहे स्त्री हो या पुरुष । वर्ण-व्यवस्था का पालन करनेवाला समाज हो या वर्णरहित समाज हो, यौन-व्यवहार की दृष्टि से पुरुष में सामान्यतः आक्रामकता और स्त्री में समर्पण प्रकृति से ही उन्हें प्राप्त प्रवृत्तियाँ होती हैं । इसलिए जहाँ पुरुष के लिए यह संभव है कि वह नारी से बलपूर्वक यौन-संसर्ग करे, वहीं सभ्य समाज में नारी का यह जन्मजात अधिकार है कि कोई पुरुष उसकी इच्छा के विरुद्ध ऐसा न कर सके । यह तभी संभव है जब नारी से, चाहे वह बाल, युवा या वृद्ध हो, सम्मान का व्यवहार किया जाए । यदि ऐसा न हो तो ’परिवार’ और ’संबंध’, ’कुल’ और समाज सभी विनष्ट हो जाते हैं । ’वर्ण’ की शुद्धता बनाए रखना भी इसीलिए आवश्यक है क्योंकि हर वर्ण के अपने नियत ’जातिगत’ कर्म होते हैं जिनमें वह सरलता से और अधिक कुशलता से कर सकता है । चूँकि ’जाति’ माता-पिता से प्राप्त ’गुणों’ का एक शुद्ध और सशक्त स्रोत होती है इसलिए उस स्रोत को शुद्ध बनाए रखना हर मनुष्य का दायित्व है । अमर्यादित भोग-बुद्धि को अधिकार माननेवाले न केवल स्वयं नष्ट हो जाते हैं बल्कि संसार को भी विनष्ट कर देते हैं । चार वर्ण और चार आश्रम एक वैज्ञानिक तथ्य है जो एक ओर कर्म और गुणों से अर्थात् मनुष्य की प्रवृत्तियों से निर्धारित होता है वहीं दूसरी ओर यदि उसमें हस्तक्षेप न किया जाए तो मनुष्यमात्र को सर्वोच्च ’श्रेयस्’ की प्राप्ति तक भी ले जाता है । किन्तु जिन ’प्रगतिशील’ लोगों को इसमें ब्राह्मणवाद और उच्च-जाति का दंभ दिखलाई देता है उन्हें चार पुरुषार्थों की कल्पना भी नहीं होती । अमर्यादित धन, बल का संग्रह और भोग ही उनके लिए एकमात्र पुरुषार्थ हुआ करते हैं और इसके परिणाम में स्त्री को ही अधिक कष्ट और क्लेश उठाने पड़ते हैं । स्त्री अपनी रक्षा न तो कर सकती है, न समाज उसे सुरक्षा दे सकता है जब तक कि स्त्री-मात्र को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता, जब तक कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे को भोग-दृष्टि से देखते हैं । स्त्री को सहज और स्वाभाविक सुरक्षा केवल उसी स्थिति में प्राप्त हो सकती है, जब वह समाज के प्रति अपने दायित्व को भी समझे, जिसके अन्तर्गत विवाह के द्वारा वंश का विस्तार करना और पति तथा पति के कुल परिवार की यथाशक्ति सेवा करना भी उसका कर्तव्य है ।
किन्तु स्त्री हो या पुरुष जब तक मनुष्य अमर्यादित आचरण करता है या करने के लिए बाध्य है, तब तक यह सब कोरा आदर्श स्वप्न भर है । और यहाँ बात आती है ’जीवन-मूल्यों’ की । हर मनुष्य को अपनी ’मर्यादा’ स्वयं ही तय करनी होगी और जब तक वह ’ब्रह्मचर्य-आश्रम’ में है तभी तक वह यह सीख सकता है कि प्रकृति से प्राप्त ’काम-प्रवृत्ति’ का मुख्य प्रयोजन संतानोत्पत्ति है न कि भोग । काम-भोग का सुख तो प्रकृति के द्वारा दिया जानेवाला पारितोषिक है न कि धन या अधिकार की तरह से अर्जित की जानेवाली वस्तु । काम-वृत्ति बिल्कुल नैसर्गिक एक वृत्ति है जिसे उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना मनुष्य भूख-प्यास या निद्रा की आवश्यकता को देता है । जैसे मनुष्य कृत्रिम विधियों से भोजन को प्रसंस्कृत कर, विविध प्रकार से कृत्रिम भूख जगाता है वैसे ही वह अज्ञानवश और संगति के प्रभाव से काम-सुख को कृत्रिम-रूप से भी उद्दीप्त कर सकता है और प्रायः करता भी है । किन्तु कोई भी मनुष्य इस प्रकार से  काम-प्रवृत्ति का केवल दास ही बन जाया करता है, उसे स्वयं यह समझ में आने तक बहुत देर हो चुकी होती है । उसके बाद वह पतन से पतन की ओर अग्रसर होता है और अन्ततः समाप्त हो जाता है । पशु-पक्षी भी अपनी मृत्यु के समय प्रायः उससे कहीं बेहतर स्थिति में हुआ करते हैं । ऐसा मनुष्य, भले ही उसकी सामाजिक उपलब्धियाँ जैसे यश, धन-संपत्ति या सामाजिक प्रतिष्ठा कितनी भी क्यों न हो बस एक व्यर्थता,यहाँ तक कि घोर विषाद, अवसाद या मनोयन्त्रणा अनुभव करते हुए किसी ऊँचे अस्पताल में, या विपन्न, दयनीय स्थिति में किसी ’अपने’ तक से दूर अकेला दम तोड़ देता है । उसे यह भी नहीं पता होता, कल्पना तक नहीं हो सकती है, कि मृत्यु के बाद उसकी आत्म कहाँ और किस दशा में होगी । किन्तु जिस मनुष्य को मनुष्य जीवन के चार ’पुरुषार्थों’, श्रेयस्कर प्रयोजनों के थोड़ी भी कल्पना है वह अपनी काम-भावना का दास न होकर उससे किसी हद तक मुक्त होकर जीवन के श्रेयस्कर लक्ष्यों के लिए प्रयास करेगा । यदि वह इतना जानता है कि वेद-विहित चार आश्रम मनुष्यमात्र को, अवर्ण हो या सवर्ण, समय आने पर अवश्य ही प्राप्त होते हैं और उन आश्रमों में अधिकतम सुखी कैसे रहा जा सकता है, दुःखों और क्लेशों को कैसे कम से कम किया जा सकता है और मृत्यु आने पर संभवतः उसे भी अपने लिए सर्वाधिक हितकारी और शुभ कैसे बनाया जा सकता है तो उसका जीवन धन्य हो जाता है । यदि समाज मनुष्य-मात्र को इस प्रकार से जीने के अवसर प्रदान करता है तो वह समाज अवश्य ही अधिकतम सुखी हो सकता है ।
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चलते-चलते एक प्रश्न :
क्या हिन्दू / सनातन / वैदिक धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी 'धर्म' / रिलिजन में इस सब के बारे में कोई चिन्तन है? क्या वहाँ इस सब पर सोचा जाता है ?
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Kurt Gödel and René Descartes,

Kurt Gödel and René Descartes,
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God is a Jewish concept began with Abraham / Moses.
And the other two next 'religions' caught up with this fundamental concept. The three religions elaborated and further decorated, developed the theme.
Like all other 'concepts' this 'God', a concept / an empty word less content and meaning, was a brain-child of some-one, obsessed with word / thought, an ignorant of Reality / ब्रह्मन् / Self / I (am) / brahman / आत्मा / ātmā  / आत्मन् / ātman . Perhaps not well-versed in expressing his idea / vision / revelation in sophisticated words. Who had a fascination for holding and wielding 'Authority' and power over the others.
Christianity and Islam took the hint and developed and transformed this 'theme' (of 'One' God) in their vein and way and as a consequence, The Jew were at a tremendous loss. Still suffering.
Thinking of Kurt Godel and Descartes, one may trace the origin of their names in संस्कृत saṃskṛta
roots  √कृत् > √kṛt and √डुकृञ् > √ḍukṛñ / ...
The √कृत् > √kṛt  gives us 'to cut', curt, 'kurt' (In German) short,
The √डुकृञ् > √ḍukṛñ / ... gives us 'to do' and 'to create' / make,
May be just a guess, but Descartes and Kurt Gödel seem to show how names carry the meaning of their roots. The two eminent figures did their allotted role faithfully.
Des Cartes devised Cartesian Co-ordinates. He first split the 'Whole' into parts, and then elaborated this concept. Like-wise he also divided 'What is', The bare Essential Reality into 'thinker' and 'thought'. He created this myth and developed this into a theme / presumption :
"I think hence / therefore I am."
May be (as some point out) he meant "I think therefore I am" is a wrong while "I am therefore I think" is the correct meaning what he wanted to say.
Whatever he might have in his mind, he was basically ignorant of the truth that what could be termed as 'I' has no relation what-so-ever with thought. 'thought' is a movement / process / activity that takes place in brain and has memory as the only support. 'I' just 'knows' / does not know how this process is going on. We can say 'I' is but witness, though we can not perhaps isolate / locate (a place) of this witness in the body or brain or any other part of our body. The simple reason is : this 'witness' is not a person as 'some-one' other than the rest. This 'witness' is all-encompassing, all-inclusive.
Kurt Godel helps us in understanding the essential characteristic of this 'witness'. He asserts that though existence of this 'witness' can never be challenged and denied, refuted or disproved, nothing what-so-ever could be said to describe about this 'witness'. Though this 'witness' is the true and only unique Lord, there is no other than this Lord who could shed light upon This Lord.
But this Lord could not be approached or arrived at by any means whatsoever.
And we need to be very alert lest we shall tend to think /'believe' This Lord could be worshiped / propitiated, pleased to gain some advantage.
And because This Lord does not think, has no desire what-so-ever, He is ever perfect.
But again when we call This Lord in terms of He / She / That / This / You / I / We / at once we split The Lord and disintegration follows. And we have already drifted away from The Reality. Thinking of Lord keeps us away from The Lord. And all description about the Lord drifts us even more and more.
साङ्ख्य दर्शन / sāṅkhya darshana deals with the whole problem in a different way . suggests us to discover / find out the essential truth / character / Reality of This Lord which is variously named as  He / She / That / This / You / I / We / ब्रह्मन् /  brahman / आत्मा / ātmā  / आत्मन् / ātman / Self.
Philosophy dwells into words, deals with words, while  दर्शन / darshana with vision. And the vision is the right approach. The same is called धर्म / dharma when followed in practice.
The core / essential Teaching of Buddha in  'Pali' is :
'अप्प दीपो भव' / 'appa  dīpo bhava'
which is from संस्कृत saṃskṛta phrase / aphorism
आत्म दीपो भव / ātma dīpo bhava.
This indicates Buddha didn't deny Existence of  आत्मा / ātmā / Self and insisted :
"Be your own a light unto Self"
Though Buddha Philosophy took the way that lead to think of this way of Buddha as नास्तिक / nāstika, yet He stressed upon आत्मा / ātmā / Self and so was not a नास्तिक / nāstika in fact. So If He was called 'भगवान' / 'bhagavan' (Lord)  this was quite a fitting title He deserved.    
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Wednesday, 18 November 2015

The Cow.

The Cow.
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I have a whole history to tell about in summary the background of the present world-situation. And not from a philosophical or Hindu point of view, but from the clues I could see in my understanding the whole thing.
वेद / Veda refers to ब्रह्मन् / Totality Essential / brahman  (not to be confused with ब्रह्मा  / brahmA, the God-head) and the totality phenomenal / अब्रह्मन् / abrahma. Veda again talks of  धर्म / 'dharma' (the spontaneous nature / order of things) which has been mistranslated as 'religion'. Then Veda also talks of अधर्म / 'adharma' / which is distortion of this natural way of things. The whole body of religion that descended from Abraham (I don't know it is Semitic or other than Semitic) is a deviation from 'dharma'. This starts from Moses and Christ ends with Mohammad. I don't know if they were prophets or not, but they 'preached' belief and faith in whatever they taught to their people. This belief / faith is but a word and the teachings they gave was / is in words. Words are the most dangerous and dubious things. They (words) let us think 'we have the truth', while we have the empty containers only. And these empty containers fight with each other. The three beliefs / faiths namely the Jew, Christianity (and Catholicism) and Islam have been always in disputes with each-other. And Veda says 'cow' is the embodiment of 'dharma'. As long 'cow' is happy and preserved 'dharma' will flourish on earth. This dharma is the peace and happiness for all. These three 'religions' eat beef and that is the root cause of all problems, whole chaos, anarchy disorder in the world.
वेद  Veda in a short, crisp concise and direct teaching tells us the essence of the true 'dharma, and how to follow / practice the same.
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Monday, 16 November 2015

’गौ’ / ’The Cow’ -2.

’गौ’ / ’The Cow’ -2.
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ऋषि आपस्तम्ब द्वारा कहे गए वचन, स्कन्द-पुराण, आवन्तिका-रेवाखण्ड- अध्याय 13, से श्लोक 62, 63, 64, 65
प्रस्तुत हैं  :
गावः प्रदक्षिणी कार्या वन्दनीया हि नित्यशः ।
मङ्गलायतनं दिव्याः सृष्टास्त्वेताः स्वयम्भुवा ॥62
अप्यागाराणि विप्राणां देवतायतनानि च ।
यद्गोमयेन शुद्ध्यन्ति किं ब्रूमो ह्यधिकं ततः ॥63
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिसर्पिस्तथैव च ।
गवां पञ्च पवित्राणि पुनन्ति सकलं जगत् ॥64
गावो मे चाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च ।
गावो मे हृदये चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥65
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सरल अर्थ:
गौओं की प्रदक्षिणा की जाना पुण्य कार्य है, गौएँ नित्यशः वन्दनीया, स्वस्ति-स्वरूपा, दिव्य, सृष्टा एवं स्वयंभू हैं । साथ ही वे (गौएँ) विप्रों तथा देवों का अधिष्ठान और आवास हैं, जिन विप्रों के गृह गोबर से लिपे होते हैं ऐसे ब्राहमण (और उनके गृह) तो और भी अधिक शुद्ध और पवित्र होते हैं ।गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गो-दधि, तथा गो-घृत ये पाँचों सम्पूर्ण जगत् को ही पुण्यता और पवित्रता प्रदान करते हैं । गौएँ नित्य मेरे आगे चलें, अर्थात् मैं उनका अनुसरण करूँ, और गौएँ नित्य मेरे पीछे चलें अर्थात् वे मेरा अनुसरण करें । गौएँ मेरे हृदय में बसें और मैं उनके हृदय में ।
इसे पढ़ते हुए अनायास ऐतरेयोपनिषत् का शान्तिपाठ याद हो आता है :
"ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ..."
"मेरी वाचा मन में प्रतिष्ठित हो और मेरा मन वाचा में..."
मेरी व्यक्त वाणी मेरे हृदय की भावनाओं के अनुरूप हो और मेरा हृदय परावाणी के अनुरूप हो..."
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वेदों में व्यक्त वाणी वही परा-वाणी है और परा-वाणी का इन्द्रियों मन-बुद्धि में परावर्तित प्रकाश ही वेद-निहित ज्ञान है ।
इसलिए ऐसा ज्ञान ’श्रुति’-रूप में ही ग्राह्य है न कि स्मृतिरूप में । सत्य तो यह है कि यह ज्ञान स्मृति का विषय है भी नहीं ।
इसलिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि आपस्तम्ब-धर्म-सूत्र या मनुस्मृति या याज्ञवल्क्य-स्मृति वेद का विपर्याय भी हो सकता है ।
वेद अनादि और अनंत है और ग्रन्थ-रूप में प्राप्त वेद केवल औपचारिक और प्रासंगिक, तात्कालिक महत्व ही रखते हैं । पुनः वह भी स्थान काल और अधिकारी-भेद से । चूँकि वेद नित्य प्रकाश हैं इसलिए भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा इन्हें भिन्न-भिन्न समय पर पाया जाता है और उनकी अपनी पात्रता भी इसमें विचारणीय है ।
ऋषि-मुनि भी गौमांस का सेवन करते थे ।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह बिल्कुल संभव है । किन्तु यदि वेदों में गौमांस के सेवन को पाप कहा गया है तो वे ऋषि भी अवश्य ही पाप के भागी हैं । और ऋषि होने से उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता । दूसरी ओर वेदों के ही अनुसार अत्याश्रमी, ब्रह्मर्षि वर्ण-आश्रम-धर्म से परे होता है और उस पर पाप-पुण्य का नियम लागू नहीं होता फिर भी लोकसंग्रह (लोक में अनुकरणीय उदाहरण के रूप में) के उद्देश्य से ऐसे महापुरुष कितने भी पूज्य हों, हमारा आदर्श नहीं हो सकते ।
हो सकता है कि प्रारब्धवश ही उनके द्वारा ऐसे कृत्य किए गए हों जो शास्त्र में निषिद्ध और निन्दित कहे गए हों ।
यहाँ पुनः यह भी इसीलिए दृष्टव्य है कि केवल ’अधिकारी’ अर्थात् पात्र को ही वेद पढ़ने का अधिकार है । अन्य व्यक्ति भले ही पढ़े किन्तु उसे वेद की व्याख्या या आलोचना करना मर्यादा के विपरीत होगा क्योंकि वह वेद के स्वरूप से अनभिज्ञ होता है ।
स्वामी विवेकानन्द का ही एक अन्य उद्धरण इस प्रकार से है :
*...they change in the course of time. This you always have to remember, that because oa little social custom is going to be changed you are not going to lose your religion, not at all. Remember these customs have already been changed.  There was a time in this very India when without eating beef, no ब्राह्मण / brahmin could remain a ब्राह्मण / brahmin; you read in the Vedas how, when a संन्यासी / Sannyasin, a king, or a great man came into a house, the best bullock was killed ; how in time it was found that as..
(From the complete works of Swami Vivekananda published by Advaita Ashram, Mayavati Almora, 1932, p.173.)
...nature.
Orthodox ब्राह्मण / brahmins regarded with abhorrence his habit of eating animal food, The Swami courageously told them about the eating of beef by the ब्राह्मण / brahmins in Vedic times. One day, asked about what he considered the most glorious period of Indian history, the Swami mentioned the Vedic period, when "five ब्राह्मण / brahmins used to polish-off one cow." He advocated animal food for the Hindus if they were to cope at all with the rest of the world in the present reign of power and find a place among the other great nations, whether within or outside the British Empire.
(From : Vivekanand. 'A biography
by Swami Nikhilanand,
Published by Ramkrishna Vivekanand Centre 1953.)
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यहाँ दो बातें विचारणीय हैं :
स्वामी विवेकानन्द ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य तक नहीं थे, इसलिए वर्ण के आधार पर वे वेद पढ़ने के अधिकारी तक नहीं थे । और अगर कहा जाए कि वेद पढ़ने में सभी का अधिकार है तो भी उन्हें वेद की व्याख्या आलोचना करने का अधिकार तो था ही नहीं । इस दृष्टि से वे ’अवर्ण’ ही थे । यदि कहा जाए कि ’संस्कार’ से वे ’ब्राह्मण’ या संन्यासी थे, तो ’संन्यासी’ भी वर्ण-आश्रम से परे होता है । शंकराचार्य विवेक-चूड़ामणि में कहते हैं, अष्टावक्र-गीता में भी कहा गया है :
" तुम्हारी न जाति है, न वर्ण है, है, तुम न तो स्त्री हो न पुरुष, न बालक, युवा या वृद्ध... यह देह तक तुम्हारी नहीं, ये अवस्थाएँ देह की हैं, तुम्हारी नहीं । "
और अगर स्वामी विवेकानंद को एक औसत मनुष्य माना जाए तो वे जीवन भर जितने रोगों से जूझते रहे, अल्प आयु में ही उनकी मृत्यु हो गई इस सबके लिए उनके ’मांसाहार’ को कारण समझना गलत नहीं होगा । ’माँस’ यद्यपि ’बल’ प्रदान करता है, किन्तु रजोगुणयुक्त होने से रजोगुण के दोषों को भी पैदा करता है ।
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( *The info has not been verified by myself, please note)

Sunday, 15 November 2015

'गौ' / The 'Cow'

'गौ' / The 'Cow' 

वैदिक ग्रन्थों में गौहत्या और गौमांससेवन की स्वीकृति के प्रमाण हैं, ऐसा कुछ बुद्धिजीवियों का अनुमान / शंका  है ।
स्वामी विवेकानन्द ने भी एक बार कहा था :
मैंने सुना है कि "आपस्तम्ब धर्मसूत्र" में कहा गया है कि गाय का मांस अत्यन्त स्वादिष्ट होता है और..."
मुझे दुःख है कि क्या यह सत्य है?
यदि ऐसा है और कोई इसका विपरीत प्रमाण प्रस्तुत करे तो मेरा यह दुःख दूर हो सकेगा ।
बरसों पूर्व इन्दौर (म.प्र.) से प्रकाशित होनेवाले ’नईदुनिया’ में मैंने उपरोक्त उल्लेख पढ़ा था ।
पहला प्रश्न यह है कि वेदों के वे अध्येता जो वेदों का ’अध्ययन’ करते हैं जाति के आधार पर ’सवर्ण’ हैं ? इसी आधार पर वे वेद पढ़ने की पात्रता / अधिकार ही नहीं रखते । यदि वे वर्ण-व्यवस्था की परंपरा से नहीं हैं तो वेदों का उनका अध्ययन ही सर्वथा अप्रामाणिक और अविधिपूर्ण है ।
वेदों का अध्ययन केवल ब्राह्मणों के ही लिए है और ब्राह्मणों में भी वे ही जो विधिपूर्वक यज्ञोपवीत हों ।
पुनः वेद (जो शाश्वत्-वाणी है, ’संस्कृत-भाषा’ जिसका आवश्यकता के अनुसार व्यावहारिक संशोधित व परिमार्जित बस एक रूप ही है,) जैसे कि लिखित रूप में हमें प्राप्त हैं उनमें निहित ज्ञान को केवल वाचिक-परंपरा से ही ’संप्रदाय-विशेष’ के अनुसार कुल, शाखा, गोत्र आदि में पात्र / अधिकारी ब्राह्मण शिष्यों को ही प्रदान किया जाता है ।
दूसरी ओर वेद की ही एक और धारा है ’शैव’ जो अक्षरशः इसी वाचिक-परंपरा का दृढ़ता से पालन करती है ।
वह ’अवर्णों’ के लिए है और सामान्यतः ’सवर्ण’ उसके लिए अनधिकारी हैं ।
’सामान्यतः’ इसलिए क्योंकि कुछ सवर्ण इस नियम के अपवाद भी हैं । इन्हें ’ऋषि’ कहा जाता है ।
वे ’संस्कृत’ की परंपरा से भिन्न परंपरा से संबंधित होते हैं ।
इस प्रकार (मेरे विचार से) वर्तमान में प्रचलित दो ही भाषाएँ हमें प्राप्त हैं जिनके माध्यम से वेद के शुद्ध ज्ञान की धारा को आनेवाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और संरक्षित रखा गया है ।
जिस प्रकार संस्कृत यद्यपि शुद्धतम ध्वनिगत स्वरूप में लिपिबद्ध की जा सकती है, और इसीलिए केवल कोई अत्यन्त समर्पित अध्येता ही इसे ठीक से समझ सकता है यदि उसे किसी मार्गदर्शक (आचार्य) की सहायता प्राप्त हो, वैसे ही तमिऴ दूसरी ऐसी भाषा है जिसमें बिना वाचिक-परंपरा के तो वेद के ज्ञान को लिपिबद्ध तक नहीं किया जा सकता ।
इस प्रकार इन दोनों भाषाओं का वैदिक-ज्ञान के प्रसार पर इस दृष्टि से एकाधिकार है कि कोई अनधिकारी इस अमूल्य ज्ञान का दुरुपयोग कर अपना व संसार का अहित न कर बैठे ।
वेद के ज्ञान की दूसरी धाराएँ भी हैं जैसे ’श्रीदक्षिणामूर्ति’ या ’वैदिक-तन्त्र’ जो अवर्णों और सवर्णों सभी के लिए हैं ।
किन्तु ’धर्म’ का, (’रिलीजन’ जिसका न केवल त्रुटिपूर्ण बल्कि भ्रामक अनुवाद भी है) भी वर्गीकरण वेद के अनुसार पुनः ’ब्राह्मी’ एवं ’अब्राह्मी’ इन दो विभागों में पाया जाता है ।
पहला है ब्रह्मा के मुख से वर्णित ’वैदिक धर्म’, दूसरा है ब्रह्मा की सृष्टि में मनुष्यों द्वारा अज्ञानपूर्वक निर्धारित व्यवस्था-रूपी धर्म ।
’अब्राहम’ / ’इब्राहीम’ से प्रारंभ हुई परंपरा मूलतः इसी दूसरे ’धर्म’ / ’रिलिजन’ पर आधारित है जिसमें ’विचार’ को ’विश्वास’ के रूप में बलपूर्वक आरोपित किया गया है । इसलिए ’अब्राह्मिक-धर्म’ में परस्पर मतभेद, विवाद और संघर्ष उसकी नियति ही है ।
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भाषा अभिव्यक्ति है, अभिव्यक्ति संकेत, चिह्न या लक्षण होती है, जिसके लिए संस्कृत में एक अन्य शब्द है ’लिंग’ । विचारणीय है कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार ’लिंग’ तीन होते हैं ’पुंलिंग’, ’स्त्रीलिंग’, तथा नपुंसकलिंग । तात्पर्य यह कि ’लिंग’ मूलतः इन ’लिंगभेदों’ से परे ’द्योतक’ के अर्थ में ही ग्राह्य है ।
परम-सत्ता के अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं कर सकता । क्योंकि तब वह अपनी ही सत्ता तक पर प्रश्न कर रहा होता है । इसलिए परम-सत्ता के द्योतक के रूप ’लिंग’ के चिह्न को मनुष्यमात्र अनायास समझ सकता है । और समस्त जैविक-जगत्  (या मनुष्य की भौतिक / सांसारिक / लौकिक अस्तित्व) की सृष्टि ’लिंग’ से होती है इस सरल तथ्य को तो मूढ से मूढ भी अनायास ग्रहण कर सकता है ।
चूँकि वेद / वैदिक ज्ञान काल-स्थान की अपेक्षा नहीं रखता इसलिए संपूर्ण जगत् में उसकी व्याप्ति होना स्वाभाविक है । और उस ज्ञन के चिह्न-स्वरूप उस परम-सत्ता की अभिव्यक्ति ’लिंग-रूप’ में सारे संसार में पाई जाती है । किन्तु वह लिंग मनुष्य के लिंग से इस अर्थ में भिन्न और अत्यन्त विलक्षण है कि वह उस परम-सत्ता के सृष्टि, सृष्टि-संधारण तथा परिरक्षण, संवर्धन एवं संहार का भी द्योतक है, परम पावन और पवित्रकारी है । जीव-सृष्टि में वही प्रजनन का हेतु होने से वह अत्यन्त पूज्य है । पशु इसी काम-वृत्ति कीशक्ति से बाध्य होकर प्रजनन का कार्य करते हैं और कार्य पूर्ण होते ही काम-वृत्ति से निवृत्त हो जाते हैं । वह ’निवृत्ति’ उनके लिए प्रायः ’सुख-भावना’ में नहीं परिणत होती । प्रायः मनुष्य ’कल्पना’ के द्वारा उस सहज-प्राप्त काम-वृत्ति को नासमझी से विकृत कर देता है और ’समाज’ में इसलिए द्वन्द्व उत्पन्न होता है ।’काम’ एक ओर सामाजिक, तो दूसरी ओर वैयक्तिक समस्या बन जाता है । चिन्तन / वर्णन / चित्रण के द्वारा मनुष्य अपनी काम-भावना को कृत्रिम-रूप से उद्दीप्त करता है और फिर व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर भी एक ऐसे दुष्चक्र में फँस जाता है जिससे कभी मुक्त नहीं हो पाता । समाज या बुद्धिजीवियों के पास इसका कोई समाधान आज तक तो नहीं मिला ।
किन्तु यदि इस ’काम-भाव’ को समझने का यत्न किया जाए और इसे विचार के बजाय विवेचना-पूर्वक समझा जाए, या इसे सहजता से स्वीकार किया जाए तो संभवतः हम इस दुष्चक्र से मुक्त हो सकते हैं । जब ’काम-भावना’ को एक नैसर्गिक प्रक्रिया समझकर उसे कृत्रिम उत्तेजना देकर ’सुख’ प्राप्त करने की मूर्खता समझ ली जाती है तो मनुष्य इस संबंध में सरल-चित्त, अपने मन में दुविधा से रहित हो सकता है । लेकिन एक और बिल्कुल भिन्न मानसिकता भी है जो है ’ऊर्ध्वरेता’ होने की मानसिकता । और किसी किसी बहुत शुचितापूर्ण चित्त-मन वाले मनुष्य में यह जन्मजात भी हो सकती है । ’ब्रह्मचर्य’ आश्रम में यह स्वाभाविक रूप से सभी में प्रायः पाई जा सकती है । यदि ऐसे शिशु को बचपन से ही अनुकूल वातावरण मिले तो उसके मन को दूषित और विकृत होने से बचाया जा सकता है और तब ’युवा’ होने पर उसके द्वारा कामोपभोग ’संतति-प्राप्ति’ के मुख्य प्रयोजन और ’सुख-प्राप्ति’ के गौण प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा । इनमें से भी कोई-कोई बचपन से ही इतने सुस्थिर वैराग्य-बुद्धि युक्त हो सकते हैं कि उन्हें सभी सुखों में अनित्यता के स्थिर तत्व का दर्शन हो जाता है और प्रकृति का उन पर इतना वश नहीं रह जाता कि वे संतानोत्पत्ति के ध्येय तक को महत्व दें । हो सकता है उनमें किसी ’नित्य-तत्व’ (जिसे वेद में ’ब्रह्म’ कहा गया है,) को जानने की इतनी उत्कट आकाँक्षा हो कि वे सभी साँसारिक-सुखों और कामोपभोग के आभासी सुखों तक से उदासीन हो जाएँ ।
गीता 
अध्याय 8, श्लोक 11,

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
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(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
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भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं,  और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
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तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
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मुझे नहीं लगता ऐसा धन्यभागी, हममें से कोई होगा । हममें से अधिकाँश तो बचपन पार करते करते इतने जटिल और उलझे हुए हो जाते हैं कि इस संभावना की ओर हमारा ध्यान तक जा सके । बहुत से ’विद्वान’ इस ’ऊर्ध्वरेता’ होने के इतने मनमाने अर्थ गढ़ते हैं कि उनकी बुद्धि पर बस तरस ही किया जा सकता है । ’ब्रह्मचर्य’ की उनकी सारी समझ येन-केन-प्रकारेण ’काम’ के आवेग को नियन्त्रित करने के सामाजिक सन्दर्भ में वाँछित ’नैतिक’मूल्य से सामञ्जस्य स्थापित करने तक ही है ।
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अभी कुछ दिनों पूर्व एक बुद्धिजीवि मित्र ने प्रश्न उठाया था :
"क्या मनुष्य को उसकी यौन-मानसिकता के अनुसार जीने की स्वतन्त्रता नहीं होनी चाहिए? क्या उसे समलैंगिक, विषमलैंगिक या अन्य किसी प्रकार से लैंगिक-व्यवहार करने की स्वतन्त्रता नहीं होनी चाहिए?"
मैंने उत्तर में इतना कहा कि विषम-लैंगिकता के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार विकृत मानसिकता के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं ।
"आप ऐसा क्यों कहते हैं ? यह विकृति क्यों है?"
"क्योंकि प्राकृतिक रूप से काम-वृत्ति का एकमात्र प्रयोजन संतान की उत्पत्ति है और वह स्वाभाविक है । और इसीलिए जो काम-वृत्ति इससे भिन्न किसी ’सुख-प्राप्ति’ के प्रयोजन से पैदा होती है वह अस्वाभाविक / विकृत है । मैं नहीं कहता कि वह निंदनीय ही है ।इसे आप तय करें ।"
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पुनः स्वामी विवेकानंदजी के लिए
ऋषि आपस्तम्ब द्वारा कहे गए वचन, स्कन्द-पुराण, आवन्तिका-रेवाखण्ड- अध्याय 13, से श्लोक 62, 63, 64, 65
प्रस्तुत हैं  :
गावः प्रदक्षिणी कार्या वन्दनीया हि नित्यशः ।
मङ्गलायतनं दिव्याः सृष्टास्त्वेताः स्वयम्भुवा ॥62
अप्यागाराणि विप्राणां देवतायतनानि च ।
यद्गोमयेन शुद्ध्यन्ति किं ब्रूमो ह्यधिकं ततः ॥63
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिसर्पिस्तथैव च ।
गवां पञ्च पवित्राणि पुनन्ति सकलं जगत् ॥64
गावो मे चाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च ।
गावो मे हृदये चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥65
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gāvaḥ pradakṣiṇī kāryā vandanīyā hi nityaśaḥ |
maṅgalāyatanaṃ divyāḥ sṛṣṭāstvetāḥ svayambhuvā ||62
apyāgārāṇi viprāṇāṃ devatāyatanāni ca |
yadgomayena śuddhyanti kiṃ brūmo hyadhikaṃ tataḥ ||63
gomūtraṃ gomayaṃ kṣīraṃ dadhisarpistathaiva ca |
gavāṃ pañca pavitrāṇi punanti sakalaṃ jagat ||64
gāvo me cāgrato nityaṃ gāvaḥ pṛṣṭhata eva ca |
gāvo me hṛdaye caiva gavāṃ madhye vasāmyaham ||65
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निष्कर्ष
जिस प्रकार शिवलिंग शिव (परम सत्ता) की अभिव्यक्ति है न कि 'प्रतीक' (symbol), उसी प्रकार 'गौ' (The Cow) सनातन-धर्म का 'अभिव्यक्त' रूप है और जब तक पृथ्वी पर गौहत्या जारी रहेगी, तब तक संसार में  मनुष्यों में पारस्परिक सौहार्द्र, शान्ति हो पाना असंभव है । ऋषि आपस्तम्ब ने धर्मसूत्र में गाय के मांस बारे में क्या कहा होगा, और वह कितना प्रामाणिक है, इसका अनुमान लगाने लिए चार श्लोक पर्याप्त हैं ।
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Friday, 13 November 2015

’सहिष्णुता’ किस क़ीमत पर?

'सहिष्णुता’
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सम्राट अशोक ने कलिंग-विजय के बाद बौद्ध-धर्म ग्रहण किया ।
कहा जाता है कि कलिंग-विजय में लाखों मनुष्यों के मारे जाने के बाद उसका हृदय-परिवर्तन हुआ । शायद उसे पश्चात्ताप हुआ हो । इतिहासवेत्ता शायद ठीक-ठीक जान बता सकें । इतिहास भी कई-कई झूठ गढ़ता है लेकिन बारीकी से खोजने पर उन झूठों का भांडा भी देर-अबेर फूट जाता है । स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय-चिन्ह में साँची के स्तूप से प्राप्त ’चक्र’ रखा गया ।
कलिंग-युद्ध में जिन लाखों लोगों की मृत्यु हुई, हमारे पास इसका कोई प्रमाण नहीं कि वे हिन्दू नहीं थे । अशोक भी जन्म और जाति के आधार पर हिन्दू ही था । भगवान् बुद्ध भी इसी प्रकार हिन्दू ही थे ।
सम्राट अशोक को ’भारत’ ने स्वीकार किया और सम्राट अशोक ने बौद्ध-धर्म को ।
यदि वैदिक-धर्म में पशु-बलि की स्वीकृति हो भी तो क्या प्राणियों की अकारण हिंसा को पाप नहीं माना गया है? क्षत्रियों के लिए दस्युओं और हिंस्र जन्तुओं से प्रजा की रक्षा करना उनके वर्ण का विहित ’धर्म’ था । जिसके लिए ’शिकार’ या अस्त्र-शस्त्र संचालन में सक्षम होना भी स्वाभाविक रूप से ज़रूरी था । क्षत्रियों में अगर ये ’गुण’ थे तो इनसे जुड़ी कुछ अन्य रजोगुणी प्रवृत्तियाँ भी अनिवार्यतः उनमें थीं ही सही । इसलिए क्षत्रियों को धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करने के लिए ब्राह्मणों और विशेषकर ऋषि-मुनियों का मार्गदर्शन लेना भी उतना ही आवश्यक था । वे ही क्षत्रिय आपसी संघर्ष में भारत पर विदेशियों आक्रमण के समय परस्पर विरोधी हो गए और भारत में विदेशियों के शासन की नींव उसी काल में पड़ गई । जयचन्द के जमाने से, आम्भि के जमाने तक इसीलिए भारत में धीरे-धीरे सनातन-धर्म लगभग ध्वस्त हो गया । मुग़लों, पठानों, तुर्क़ों आदि ने भी भारतीयों हिन्दुओं की इस कमज़ोरी का भरपूर लाभ लिया और अंग्रेज़ों ने तो अक्षरशः भारत् / हिन्दुत्व की कमर ही तोड़ दी । पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को 16 बार परास्त किया किन्तु कभी उसका पीछा कर उसकी राजधानी तक नहीं पहुंचे । इससे तो चाणक्य की नीति ही सही सिद्ध होती है : दुश्मन को कभी छोटा मत समझो, उसे समूल नष्ट करो । यह वास्तव में  बुद्धिमत्ता है । दुष्ट शत्रु के साथ व्यवहार करने का और कोई तरीका नहीं हो सकता । शठं शाठ्यं समाचरेत् । क्या यह ’असहिष्णुता’ है?
फिर भी भारत ने सम्राट अशोक को ’अशोक-महान’ कहा और कलिंग (उत्-कल) में उसके द्वारा किए गए नर-संहार को क्षमा कर दिया । क्या यह ’सहिष्णुता’ नहीं है? भारत ने साँची के स्तूप के चार सिंहों  की जिस प्रतिमा को और उस प्रतिमा के बीच स्थित चक्र को अपने राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में अभिषिक्त किया वह निश्चित ही ’सर्व-धर्म-समादर’ का ही द्योतक है । ’सिंह’ (शेर) और ’वृषभ’ (बैल) वैसे तो वैदिक प्रतीक के रूप में भी देखे जा सकते हैं किन्तु वे परस्पर अवैर का भाव भी प्रदर्शित करते हैं । स्पष्ट है कि बैल तो सिंह पर आक्रमण करने से रहा, क्योंकि उसे इसकी कोई आवश्यकता नहीं हो सकती । वह तो शेर से अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता । उसकी रक्षा तो क्षत्रिय ही करेगा । इसलिए सिंह पर नियंत्रण के लिए क्षत्रिय का होना भी जरूरी है । अशोक क्षत्रिय था । फिर उसने बौद्ध-धर्म क्यों स्वीकार किया? क्या यह बुनियादी भूल नहीं थी ? हो सकता है न भी किया हो, केवल भगवान्-बुद्ध के प्रति समर्पित रहा हो, उनका आदर करता रहा हो । जो भी हुआ हो, बौद्ध-धर्म के कारण हिन्दू न तो क्षत्रिय रह पाये न पूरी तरह से भिक्षु ही हो पाये ।
सामाजिक-धर्म के रूप में बौद्ध-धर्म अपनी रक्षा कैसे कर सकता है? समाज के स्तर पर तो ’क्षात्र’ या ’क्षत्रिय’-धर्म का पालन करनेवाला ही होना चाहिए । कमज़ोर के ’सहिष्णु’ होने का कोई अर्थ ही नहीं है । वह तो बाध्य है सहिष्णु होने के लिए । इसलिए सहिष्णुता, अहिंसा का पाठ आक्रामक को सिखाया जाना चाहिए, न कि आक्रान्त को ।
पंडित नेहरू ने ’सेक्युलरिस्म’ की अपनी ’समझ’ में या अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा के प्रभाव से इरादतन भी पहले पाकिस्तान के रूप में भारत के एक बड़े भूखण्ड पर से हिन्दुओं को बेदख़ल किया, फिर जम्मू-कश्मीर के एक हिस्से को पाकिस्तान के नियन्त्रण में जाने दिया और बाद में तिब्बत पर चीन को आधिपत्य कर लेने दिया ।
अंग्रेज़ीपरस्ती के प्रति सहिष्णुता से आगे बढ़कर वे उनकी चाटुकारिता करने तक से और हिन्दुओं से नफ़रत तक करने तक से पीछे नहीं हटे । उर्दू के माध्यम से मुस्लिम शासकों ने भारत में अरबी और पारसी लिपि को थोपा । नेहरू हिन्दी और भारतीय भाषाओं की अपेक्षा के बजाय अंग्रेज़ी और उर्दू के अधिक हिमायती थे ।
भारत कभी ’राजनैतिक’ विस्तारवाद का पक्षधर नहीं रहा । हाँ साँस्कृतिक रूप से सदैव भारतीय-संस्कृति सबका स्वागत करती रही और अफ़गानिस्तान से सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक यदि भारत की भाषा और संस्कृति के पुरातात्विक और ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं तो यह इसी बात का प्रमाण है कि भारत (पर्याय से हिन्दू) न सिर्फ़ ’सहिष्णु’ हैं बल्कि सब को विश्व-बन्धुत्व की भावना से प्रेम करते हैं ।
प्रसंगवश :
तिब्बती भाषा और लिपि की ब्राह्मी और भारतीय भाषाओं से से समानता यही सिद्ध करती है साँस्कृतिक दृष्टि से तिब्बत भारत का ही बन्धु है, न कि चीन का । किन्तु ’पोटाला’ / ल्हासा के शासकों ने ’बौद्ध-धर्म’ की सहिष्णुता के आदर्श का निर्वाह करने के जोश में शायद इस तथ्य से आँखें मूँद लीं । और पंडित जवाहरलालजी ने अपनी महत्वाकाँक्षाओं के चलते । यह मॆक्मोहन-लाइन किसने खींची?
’सहिष्णुता’ किस क़ीमत पर?
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Thursday, 5 November 2015

हिन्दुत्व की चुनौती -6

हिन्दुत्व की चुनौती -6
हिन्दुत्व और जे.कृष्णमूर्ति
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क़रीब महीने भर पहले किसी ने ’ट्वीट्’ / tweet किया था :
"बुद्ध 100% हिन्दू थे ।"
उस के प्रत्युत्तर में मैंने ’ट्वीट्’/ tweet किया था :
"...और श्री जे.कृष्णमूर्ति भी ।"
इसे हालाँकि उनके कुछ प्रशंसकों ने पसंद भी किया लेकिन मेरा यह अनुमान लगभग सही सिद्ध हुआ कि न तो जे. कृष्णमूर्ति से संबद्ध और न बुद्ध से संबद्ध कोई व्यक्ति मेरे इस ’ट्वीट्’ से प्रभावित हुआ होगा । यह बिलकुल स्वाभाविक भी था क्योंकि प्रायः बहुत से लोग जो बुद्ध की और जे.कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को लगभग एक जैसा अनुभव करते हैं उन्हें बुद्ध या जे.कृष्णमूर्ति को हिन्दुत्व की धारा में देखे जाने पर ऐतराज हो सकता है । किन्तु यदि हम इन दोनों महापुरुषों के आचरण पर गौर करें तो अनायास स्पष्ट हो जाएगा कि दोनों का ही आचरण जाने-अनजाने भी वैदिक शिक्षा से पूर्णतः सुसंगत था । वे दोनों उपनिषद् की स्थापित परंपरा के अनुसार ’विवेचना’ और चिन्तन-मनन तथा अभ्यास के माध्यम से सत्य का साक्षात्कार किए जाने की शिक्षा देते थे । वे किसी भी अपात्र को न तो शिक्षा देते थे और न दावा करते थे कि वे ही एकमात्र गुरु या पथ-प्रदर्शक हैं । भगवान् बुद्ध की शिक्षा थी अप्प दीपो भव । अर्थात् अपने ही भीतर चेतना का दीप जलाओ । जे. कृष्णमूर्ति सत्य के लिए उत्कंठा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहते थे । और दोनों ही सत्य, ईश्वर या मुक्ति की प्राप्ति के बजाय तथ्य को देखने पर अधिक महत्वपूर्ण कहते थे । सनातन धर्म यही कहता है कि अपात्र को शिक्षा दिया जाना न सिर्फ़ निरर्थक है, बल्कि उसके लिए क्षतिप्रद भी है । और दोनों ही के अनुसार व्यक्ति अपने-आपके ही लिए यथार्थ धर्म क्या है इसका आकलन और निर्धारण कर सकता है । दोनों ही किसी भी पूर्व-मान्यता की सत्यता पर प्रश्न उठाते थे क्योंकि मान्यता और विश्वास मूलतः शाब्दिक विचारमात्र होता है और स्मृति का अंश होता है । स्मृति विचार का संग्रह है और विचार उसे नहीं इंगित करते जिसका वे वर्णन करते हैं । इस प्रकार विचार प्रतीक से अधिक बेहतर तो कदापि नहीं हो सकते । इस प्रकार विचार प्रतीक से बेहतर तो कदापि नहीं हो सकता । वाक्य की पुनरावृत्ति इस ओर ध्यान दिलाने के लिए है कि बुद्ध और जे.कृष्णमूर्ति दोनों ही ’विचार’ के स्वरूप को समझे जाने पर जोर देते हैं । विचार का रूप और आकृति (Form and shape) तो होती है किन्तु उसमें कोई अन्तर्निहित तत्व / सार (essence) नहीं होता । इसलिए विचार के आदान-प्रदान और संग्रह से किसी सारभूत तथ्य का आदान-प्रदान और संग्रह संभव नहीं । और इससे भी अधिक ध्यान दिये जाने योग्य सत्य यह है कि जो विचार एक समय पर तथ्य से सुसंगत प्रतीत होता है, वही विचार अक्षरशः अपने रूप और आकृति में, शब्दशः भी, किसी अन्य समय में तथ्य को देख पाने में बाधा तक पैदा कर देता है । उदाहरण के लिए ’ईश्वर’ का विचार । ’ईश्वर’ शब्द स्वयं दूसरे ही शब्दों जैसा वर्णों का एक विशिष्ट संयोजन मात्र है । इस शब्द को पढ़ने-सुनने के बाद किसी भी परंपरा में पले बढ़े व्यक्ति के भीतर अपने संस्कारों के अनुसार कोई प्रतिक्रिया होती है । और यह प्रतिक्रिया ’स्मृति’ का ही प्रत्युत्तर होती है । हो सकता है कि इस प्रतिक्रिया के रूप में कोई भावना या भावुकता उद्दीप्त हो उठे, लेकिन वह आवेग विचार की ही गतिविधि है जिसका ’ईश्वर’ नामक वास्तविकता से कोई संबंध नहीं हो सकता । उस ’वास्तविकता’ के साक्षात्कार के लिए ’विचार’ की बाधा को दूर किया जाना पहली आवश्यकता है । ’राष्ट्र’, ’धर्म’, ऐसे ही कुछ और शब्द हैं जिनका रूप और आकृति भर हमारे सामने होते हैं, और शब्द से मोहित होकर उनका सार क्या है इस ओर से हमारा ध्यान तक हट जाता है । शुद्ध भौतिक अर्थों में विचार की प्रासंगिकता और औचित्य तो अनायास ही स्पष्ट है किन्तु जब जीवन के अपेक्षाकृत गहन आयामों के संबंध मे ’विचार’ के यन्त्र का ’अनुप्रयोग’ किया जाता है तो वह अपर्याप्त और असमर्थ भी सिद्ध होता है । विचार शाब्दिक धारणा ही तो होता है, और विश्वास भी इसी का एक और दृढ आग्रह । और लोभ, भय अथवा संशय की मनःस्थिति होने पर ही मनुष्य का मन ’इस’ या ’उस’ विचार से अपने-आपको बाँध लेता है । वह विशिष्ट विचार ही ’विश्वास’ के रूप में मनुष्य की ’ओढ़ी-हुई पहचान’ बन जाता है । उस विश्वास या विचार के इर्द-गिर्द दूसरे संबंधित विचार एक घेरा बना लेते हैं और विश्वास का एक ’समुदाय’ अस्तित्व में आता है । इस समुदाय की अपनी कोई पहचान ही नहीं होती किन्तु इस कल्पित, ओढ़ी हुई पहचान को केन्द्र का स्थान प्राप्त हो जाता है । ’विचार’ के इस ’तथ्य’ पर ध्यान दिया जाना बहुत रोचक भी है और महत्वपूर्ण भी ताकि मनुष्य-मात्र मनुष्य की तरह से, ’विचार’ की इस कारा से, इस सतत यातना से मुक्त हो सके । बुद्ध और जे.कृष्णमूर्ति हमारा ध्यान सीधे ही इस यथार्थ पर ले जाते हैं । बुद्ध दुःख के और दुःख-निरोध के महत्व को समझने की आवश्यकता पर बल देते हैं । वे किसी स्वर्ग या ईश्वर को बीच में नहीं लाते । जे. कृष्णमूर्ति थोड़े और विस्तार से दुःख ही नहीं बल्कि जीवन के अन्य पक्षों के भी समग्र अवलोकन की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं । किन्तु इसलिए वे दोनों वेद-विरोधी या ईश्वर-विरोधी हैं ऐसा अनुमान लगाना पक्षपातपूर्ण निर्णय होगा । वे वेद या ईश्वर की बात इसलिए भी नहीं करते कि जिसे वेद / ईश्वर के प्रति श्रद्धा या आग्रह है, वह उन्हें समझ नहीं सकेगा, और जो वेद / ईश्वर का विरोधी है, या वेद / ईश्वर को नहीं मानता उससे  वेद / ईश्वर के बारे में चर्चा करना व्यर्थ है ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -3...4...5

हिन्दुत्व की चुनौती -3
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भावना और विचार इन दो तत्वों का जीवन में अपना-अपना स्थान है । दोनों अस्थायी होते हैं विचार किसी तथ्य का शब्दीकरण होता है जबकि भावना तथ्य से तादात्म्य । यह तादात्म्य तथ्य को जिस संवेदनशीलता के माध्यम से ग्रहण और अभिव्यक्त किया गया है वह संवेदनशीलता अपने-आप में अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक और स्वतःप्रमाणित सत्य है । यह संवेदनशीलता न तो तथ्य की भाँति अनित्य और परिवर्तनशील है और न कल्पना की भाँति क्षणिक और व्यक्तिगत । सूर्योदय और सूर्यास्त ’तथ्य’ हैं संवेदनशीलता उन्हें प्रत्यक्ष जानने हेतु माध्यम है, और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के आधार पर ’काल’ का निर्धारण करना तथ्य का शब्दीकरण हुआ । इस प्रकार ’शब्दीकरण’ तथ्य को विरूपित कर देता है और हमारा ध्यान इस तथ्य से हटा देता है कि इस प्रकार से निर्धारित ’काल’ की निरंतरता केवल विचार पर ही अवलंबित होती है ।’घटनाएँ’ जो कि ’तथ्य’ हैं, विचार का सहारा लेकर ’काल’ को परिभाषित करने में सहायक प्रतीत होती हैं और ’काल’ के माध्यम से पुनः घटनाओं पर एकरूपता आरोपित कर दी जाती है । इस प्रकार से उस ’भौतिक’ काल की उपलब्धि की जाती है जो सदैव अबूझ बनारहता है । चूँकि
इस काल को नापा भी जा सकता है और विचार-आधारित गणित के नियमों से इसका चरित्र असंदिग्ध रूप से ’खोजा’ जा सकता है और उस चरित्र को ’प्रयोगों’ द्वारा अकाट्य सत्य की तरह सिद्ध भी किया जा सकता है, इसलिए विचार के रूप में ही इस भ्रम का जन्म होता है कि ’काल’ नामक सत्ता शाश्वत् रूप से स्वततन्त्र रूप में विद्यमान है । यदि हम शाश्वत् शब्द के अर्थ पर ध्यान दें तो सरलता से देखा जा सकता है कि तथ्य-रूप में इस ’शाश्वत्’ का ’काल’ से कोई लेना-देना संभव नहीं । शाश्वत् न तो ’काल’ का विरोधी है, न उसका आधार । यह तो ’विचार’ है जो दो तथ्यों ’घटना’/’काल’ नामक तथ्य और ’शाश्वत्’ जैसे सत्य की तुलना करने लगता है । जबकि ये दोनों परस्पर विलक्षण तत्व हैं, और एक दूसरे से इनका कोई संबंध कल्पना के अतिरिक्त और कहीं संभव नहीं ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -4
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किन्तु ’विचार’ पर आधारित ’गणित’, ’तर्क’ और ’विज्ञान’ का सम्मोहन हमें यह तक देखने में असमर्थ बना देता है कि इनकी तमाम उपयोगिता, सैद्धान्तिक प्रामाणिकता के बावज़ूद ’काल’ या ’स्थान’, पदार्थ या ऊर्जा की स्वतन्त्र सत्ता हो ही नहीं सकती । वे अवश्य ही ऐसी किसी शाश्वत् सत्ता पर परोक्ष (कल्पना और विचार रूपी) या अपरोक्षतः (स्वप्रमाणित रूप में) आश्रित होते हैं जिसका प्रमाण वह शाश्वत् सत्ता स्वयं ही अपने ही लिए होती है । चूँकि उस शाश्वत् अखण्ड सत्ता से अन्य किसी और की सत्ता विचार पर ही आश्रित होती है ।
इस शाश्वत् सनातन सत्ता को ही ’धर्म’ या सनातन-धर्म कहा जाता है ।
’शाश्वत्’ में गति करता हुआ, गतिशील घटनाक्रम जिस पर ’पहले’ और ’बाद में’ के विचार को आरोपित करने पर ही ’काल’ की आभासी उपलब्धि होती है । इस ’काल’ की निरंतरता विचार के ही आश्रय से, विचार के ही अन्तर्गत होती है । जबकि ’सनातन’ की निरंतरता ’शाश्वत्’ के अन्तर्गत ।
विज्ञान, गणित और तकनीक, राजनीति, मनोविज्ञान, साहित्य और शास्त्र की सारी भाग-दौड़ शब्दीकरण अर्थात् विचार से और विचार तक सीमित है । कला की सारे यत्न कल्पना तक । इतिहास की उन ’घटनाओं’ तक, जिनकी समसामयिक असंख्य दूसरी घटनाओं के सन्दर्भ की झलक तक उसके पास नहीं होती, जिनके ’घटित होने’ / ’न होने’ के तरीके तक के बारे में अनुमान मात्र ही उसके पास होते हैं, किसी ठोस आधार पर असंदिग्ध निष्कर्ष हो भी नहीं सकते ।
इसलिए शाश्वत् ही, जिसमें ’धर्म’ सनातन-भाव से गतिशील है, एकमात्र विकल्प शेष रहता है जिसमें मनुष्य के सुखद भविष्य की आशा देखी जा सकती हो।
अप्रकट और अनुभवगम्य रूप में यही धर्म सर्वहितकारी एक शुभ भावनामात्र है जो विचार और विचारजनित भावुकता से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र तत्व है ।
’धर्म’ वस्तु-स्वभाव है, विवेक अर्थात् विवेचनापूर्वक पाया जानेवाला आधारभूत समाधान है, जबकि धर्म का विचार शब्दीकरण, विश्वास, मत, शाब्दिक-व्याख्या तक सीमित होता है । सनातन-धर्म एक ऐसा तथ्य है जो स्थिर शाश्वत् में एक निरंतर गतिशीलता है । विचार या विश्वास कल्पना और हठमात्र हैं ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -5
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हिन्दुत्व यदि सनातन-धर्म की एक गतिविधि है तो अवश्य ही सार्वकालिक व्यावहारिक, सदा पालन किया जाने योग्य आचरण, संस्कृति है ।
हिन्दुत्व यदि एक विचार है, कोरा बौद्धिक सिद्धान्त या राजनीतिक आदर्श तो वह भी इस्लाम, यहूदी, क्रिश्चियन, कैथोलिक, नास्तिकता या अज्ञेयवाद जैसे दूसरे विश्वासों जैसा ही मनुष्यता के लिए एक और घातक विचार मात्र है । इस रूप में ’विचार’ सदा ही ’तथ्य’ को यथावत् देख पाने की संभावना को ही नष्ट कर देता है । विचार के इस दायरे में आप कितने ही तर्क-वितर्क, वाद-विवाद कर लें ’संशय’ के यथार्थ का निराकरण / समाधान नहीं हो पाता । ’वैचारिक’ या बौद्धिक रूप में प्राप्त ’निष्कर्ष’ उन परिस्थितियों से सीमित होता है । इसलिए भौतिक-शास्त्र के ज्ञान का जितना विस्तार होता है, जानकारी यद्यपि उतनी ही अधिक विस्तृत हो जाती है, किन्तु उससे जीवन के आध्यात्मिक तथ्य की दिशा में कोई ऐसा नया मोड़ नहीं आता जो ’विश्वास’ के औचित्य की पुष्टि कर सके ।
दूसरी ओर ’विवेचना’ यद्यपि ’सत्य’ को जान लेने का दावा नहीं करती, तथापि त्रुटिपूर्ण विश्वासों और विचारों की सीमा और औचित्य को स्पष्ट कर देती है । सनातन-धर्म की विवेचना करनेवाले ग्रन्थ सदा से जीवन के गूढ, अज्ञातप्राय और अनिर्वचनीय आधारभूत सत्य को चिन्तन मनन और निदिध्यासन के द्वारा समझे जाने पर बल देते हैं, वे भय या लोभ पर आधारित किसी विचार-विशेष को ’सत्य’ स्वीकार कर लेने का आग्रह नहीं करते, बल्कि उसे तो सत्य के आविष्कार में एक बाधा हो सकने की ओर भी संकेत करते हैं । हिन्दुत्व, जो कि सनातन-धर्म की नींव पर खड़ी संस्कृतिरूपी इमारत है, इसलिए स्वाभाविक रूप से ’सहिष्णुता’ को महत्व देता है क्योंकि सहिष्णुता के अभाव में कोई भी विश्वास अंततः दम तोड़ देता है । विवेचना के माध्यम से सत्य के प्रति जिज्ञासा की जाने पर जिज्ञासु अवश्य ही उस तत्व के दर्शन कर सकते हैं जो विचार का अतिक्रमण करने पर ही समझ में आता है । गीता का अध्याय 4 श्लोक 34 स्पष्ट कर देता है कि बुद्धि की सीमा में उस तत्व की अभिज्ञा नहीं हो सकती, इसके लिए विवेचन अर्थात् विवेकपूर्ण अन्वेषण ही एकमात्र संभावित उपाय है । दर्शन ’उपाय’ है न कि विचार-प्रणाली । इसलिए सनातन-धर्म प्रधानतः छः उपायों को स्वीकार करता है । वे हैं साँख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त । और वे परस्पर विपरीत नहीं सहयोगी हैं । सनातन-धर्म इन्हें स्वीकार न करनेवालों पर इन्हें बलपूर्वक आरोपित करने के पक्ष में भी नहीं है, क्योंकि सनातन धर्म सभी के स्वाभाविक मार्गों को उनके लिए उचित मानता है । सनातन-धर्म तो यहाँ तक कहता है कि अपने स्वाभाविक धर्म का आचरण ही मनुष्यमात्र को श्रेयस्कर की प्राप्ति में सहायक है, (गीता अध्याय 3, श्लोक 35, तथा अध्याय 18 श्लोक 47)  ’सहिष्णुता’ का इससे अच्छा और क्या तरीका हो सकता है ? वर्ण-आश्रम की व्यवस्था को सनातन-धर्म मानव-समाज के लिए सर्वाधिक स्थायी और अनुकूल घोषित करता है और गीता अध्याय 4 श्लोक 13 की विवेचना करते हुए भगवान् शंकर आचार्य तो सचेत करते हैं :
"मानुषे एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारो न अन्येषु लोकेषु इति नियमः किंनिमित्त इति ...।"
तात्पर्य यह कि मनुष्यमात्र का ही वर्णाश्रम आदि के कर्मों के अनुष्ठान में उनकी पात्रता के अनुसार अधिकार है, और ये वर्ण-आश्रम यद्यपि मनुष्य को जन्म से प्राप्त होते हैं किन्तु जाति-आधारित नहीं हो सकते । जाति एक प्राथमिक संभावना के रूप में अवश्य विचारणिय है, किन्तु गुण तथा कर्म मनुष्य के वर्ण को निर्धारित करते हैं । इसलिए यदि ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुआ मनुष्य ऐसे कर्म करता है जो ब्राह्मणवर्ण के लिए निषिद्ध हैं तो वह स्वयं को ब्राह्मण नहीं कह सकता । इसलिए स्त्री अथवा अब्राह्मण को वेद पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार ही नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह नहीं कि सनातन-धर्म को उनसे द्वेष है, बल्कि इसके पीछे केवल इतनी सावधानी है कि वेद का पठन-पाठन स्त्री अथवा अब्राह्मण की प्रकृति के अनुकूल नहीं है । यदि कोई पूछे कि पुरुष को गर्भ-धारण का अधिकार क्यों नहीं है, तो हम उसकी नासमझी पर शायद हँस पड़ेंगे, किन्तु चूँकि विधाता ने इसके लिए पुरुष के शरीर को अनुकूल बनाया ही नहीं है इसलिए यह प्रश्न ही तर्क-असंगत है । फिर अध्यात्म या धर्म जैसे कठिन विषय को ग्रहण करना ब्राह्मण के लिए ही सर्वाधिक अनुकूल है इसलिए उसे ही वेद के पठन-पाठन का अधिकारी कहा गया । ब्राह्मण दूसरे वर्णों के धर्म का पालन करे, यह तो उसके और सभी के लिए अत्यन्त क्षतिकारक है, इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार अनुकूल वर्णाश्रम धर्म का आचरण करे । किन्तु सनातन-धर्म उन विरोधियों पर भी बलपूर्वक अपना मत नहीं थोपता जो वर्णाश्रम की व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं । क्या सनातन-धर्म को न माननेवाले भी यही दृष्टि रखते हैं ? सनातन-धर्म तो प्रचार तक का विरोधी है । दूसरों को बलपूर्वक अपने मत को मानने के लिए बाध्य करना तो सनातन-धर्म की दृष्टि में सरासर अधर्म ही है ।
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