Tuesday, 31 August 2021

अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निम्

 अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु ।

अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः ।।१९।।

(भूमि और ओषधियों में अग्नि प्रच्छन्न है, जल में अग्नि प्रच्छन्न है, अश्म अर्थात् पत्थरों में भी। पुरुष के भीतर जठराग्नि और प्राणाग्नि आदि की तरह, इसी तरह से अग्नि गौओं तथा अश्वों में भी विद्यमान है।)

अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्व१ अन्तरिक्षम् ।

अग्निं मर्तास इन्धते हव्यवाहं घृतप्रियम्।।२०।।

(दिव्यलोक, स्थूल आकाश में अग्निदेव सूर्य की तरह तपते हैं, अन्तरिक्ष में, देवलोक में द्युति और विद्युत् की तरह, इन्धन के रूप में यज्ञ की आहुतियों में दिए जानेवाले हव्य की तरह, और हव्य को देवताओं को प्रिय, उन तक ले जानेवाले घृत के रूप में भी अग्नि ही विद्यमान होते हैं।)

अग्निवासाः पृथिव्य सितज्ञूस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु।।२१।।

(असित अर्थात् कज्जल में विद्यमान अग्नि हमें अन्धकार से मुक्त कर प्रकाश के तेज से युक्त करें।) 

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Monday, 30 August 2021

ता नः प्रजाः

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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ता नः प्रजाः सं दुह्रतां समग्रा वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् ।।१६।।

(ता - ताः, पिछले १५ के संदर्भ में है। 

हे पृथिवि! तुम हमें वह वेदवाणी, मधु प्रदान करो जिसे वे सूर्य की रश्मियाँ हमारे लिए लेकर आती हैं!

यहाँ मधु का तात्पर्य है रस, जीवन का अमृत। मधु का संकेत उपनिषद् वर्णित मधु विद्या के सन्दर्भ में भी है। शिव-अथर्वशीर्ष के मंत्र ६ से भी इसका तात्पर्य अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है :

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत् ।

...

... 

उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति। अर्चयन्ति तप सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् ।।६।।)

विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम् । शिवां स्योनामनुचरेम विश्वा ।।१७।।

(ओषधी और धर्म को भी शिव-अथर्वशीर्ष के मंत्र ४ के परिप्रेक्ष्य में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है :

योऽग्नौ रुद्रो योऽप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश। यः इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोस्त्वग्नये ।

यहाँ अग्नि और सूर्य एक ही वह परमेश्वर है जिसे इस अथर्वशीर्ष में रुद्र कहा गया है। 

यह पृथिवी, जिसमें -सूर्य की अग्नि से- समस्त औषधियाँ तथा अन्न, वनस्पतियाँ आदि उत्पन्न होते हैं,  - प्रशस्त और सुस्थिर हो! 

उस शिवा, शिवात्मिका पृथिवी पर, जिसने हमें धर्म से धारण किया है, हम समृद्धि सहित जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करें!

महत्सधस्थं महती बभूविथ महान् वेग एजथुर्वेपथुष्टे। महान्स्वेन्द्रो रक्षत्यप्रमादम्। सा नो भूमे प्र रोचय हिरण्यस्येव संदृशि मा नो द्विक्षत कदाचन ।।१८।।

जिस महीषी - विष्णुपत्नी महान पृथिवी ने समस्त लोकों को धारण किया है, जो सतत गतिशील और भ्रमणशील है, -  एज् धातु गति के अर्थ में है -तदेजति तन्नेजति-ईशावास्योपनिषद्- वेपथुः कम्पन करने के अर्थ में है - गीता - वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते । 

महान् इन्द्र जिसकी सदा रक्षा करता है।

 हे भूमे! वह तुम, हमें वैसे ही संपन्न और प्रसन्न रखो, जैसे स्वर्ण रूपी धन की प्राप्ति से कोई होता है! हम कभी किसी से द्वेष न करें ।

तुलना करें : औपनिषदिक शान्तिपाठ

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै। तेजस्वि नावधीतमस्तु।  मा विद्विषावहै। 

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Sunday, 29 August 2021

यस्यां वेदिं

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यस्यां वेदिं परिगृह्णन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः। यस्यां मीयन्ते स्वरवः पृथिव्यामूर्द्ध्वा शुक्रा आहुत्याः पुरस्तात्। सा नो भूमिर्वर्धयद् वर्धमाना।।१३।।

(जिस भूमि माता पर वेदियों की स्थापना कर उन वेदियों पर यज्ञों का विस्तारपूर्वक अनुष्ठान जगत् के महान कर्मठ पुरुषों द्वारा किया जाता है। और उन यज्ञों में तेजयुक्त आहुतियाँ देकर यज्ञों के प्रभाव को हर दिशा में, भूमि से बहुत ऊँचे आकाश तक फैलाया जाता है । वह निरंतर समृद्धिशाली भूमि हमारा संवर्धन  करे।)

यो नो द्वेषत् पृथिवि यः पृतन्याद् योऽभिदासान्मनसायो वधेन।  तं नो भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ।।१४।।

(हे पृथिवि!  हमसे द्वेष करनेवाले जो हमारे शत्रु अपने सैन्य-बल का प्रयोग कर हमें पराजित करने, हमें दास बनाने और हमारा वध करने की चेष्टा करता हैं, हे भूमे! उन शत्रुओं का तुम समूल विनाश कर दो।)

त्वज्जातास्त्वयि चरन्ति मर्त्यास्त्वं बिभर्षि द्विपदस्त्वं चतुष्पदः।  तवेमे पृथिवी पञ्च मानवा येभ्यो ज्योतिरमृतं मर्त्येभ्य उद्यन्त्सूर्यो रश्मिभिरातनोति।।१५।।

(हे पृथिवि! तुमसे उत्पन्न होनेवाले द्विपद, जैसे मनुष्य और पक्षी, चतुष्पद, जैसे चौपाये पशु आदि मर्त्य प्राणी, तुम पर ही विचरण करते हुए पलते और बढ़ते हैं। इसी तुम्हारी भूमि पर पाँच प्रकार के श्रेष्ठ पुरुष, सूर्य से उसकी तेजस्वी राशियों के माध्यम से शक्ति प्राप्त कर उद्यमशील होकर पराक्रम करते हैं।)

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टिप्पणी : 

किसी का प्रश्न है कि कौन ये पाँच प्रकार के मनुष्य हैं, जो कि पृथ्वी पर उद्यमशील होते हुए पराक्रम करते हैं? 

इस बारे में यही कहा जा सकता है कि वेद और वेदवाणी नित्य और सनातन है, न कि संस्कृत या किसी अन्य मानवभाषा में कहा या लिखा हुआ कोई ग्रन्थ । किसी भी ऋषि को यह किसी समय अनायास तथा प्रत्यक्ष ही प्राप्त होता है, यह उस किसी ऋषि की रचना होता हो, ऐसा भी नहीं है । इसलिए मनुष्य की किसी भाषा में किया गया कोई भी अर्थ अधूरा और अपर्याप्त होता है। अतः इस विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, कि ये पाँच प्रकार के मनुष्य कौन हैं जो कि सूर्य के प्रकाश से प्रेरित होकर उद्यम और पराक्रम करते हैं। 

एक तात्पर्य यह हो सकता है कि श्रमजीवी, बुद्धिजीवी, कवि या कलाकार, वीर और साहसी, तथा जिसे परमात्मा, आत्मा, सत्य का, या ईश्वर का दर्शन हुआ है, अर्थात् ऋषि, इनका ही उल्लेख  संभवतः यहाँ प्रासंगिक है।

उपनिषद् में कहा गया है :

सूर्यः आत्मा जगतस्थश्च..। 

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Friday, 27 August 2021

यामश्विनावमिमातां

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे। इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः। सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पयः।।१०।।

(जिस भूमि का मापन दोनों अश्वविनीकुमारों (equinox) के द्वारा किया गया, विष्णु ने भिन्न भिन्न काल में अवतार ग्रहण कर जिस धरा पर अनेक पराक्रम किए । लोक-कल्याण हेतु इन्द्र ने  जिस भूमि से जगत के शत्रुओं का नाश किया । वह भूमि माता अपने द्वारा उत्पन्न किए जानेवाले अन्न और रस से भरे विविध द्रव्यों के अमृततुल्य दुग्ध से हमारा पोषण करे।)

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु। बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम् । अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम्।।११।।

(तुम्हारे हिमाच्छादित पर्वत और समृद्ध वनस्पतियाँ, हे पृथिवि! हमारे लिए सुखदायी हों। बभ्रुकौशेयवर्णा -लाल, भूरे आदि वर्णों  से युक्त, अपने मार्ग पर सतत आरोहण करती रहनेवाली, अनेक और विभिन्न तरंगों से आप्लावित विश्वरूपा, ध्रुवा (दो ध्रुवों से युक्त) भूमि को, जिसकी रक्षा इन्द्र के द्वारा की जाती है। पृथिवी की मैं, अजित, अहत,  -स्तुति करता हूँ।)

यत् ते मध्यं पृथिवि यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवुः। तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः  पुत्रो अहं पृथिव्याः। पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु।।१२।।

(हे पृथिवि! जो तुम्हारा मध्य और जो नाभि भाग है, वह हमारे लिए सतत ऊर्जस्वी होता है, हो। उनसे तुम हमारा पोषण करती रहो, उनसे हमें पावन करती रहो, हे धरती माता तुम माता हो और मैं अर्थात् हम सभी तुम्हारे पुत्र हैं। पर्जन्य हमारे पिता हैं वे नित्य हमारे लिए वर्षा द्वारा हमारा परिपालन किया करें।)

पर्जन्य : 

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।।१४।।

(गीता अध्याय ३)

पृ - पूर्यते, जन् - जनयति :

पर्जन्य  :

जो जीवन को जन्म और पूर्णता देता है।  

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यां रक्षन्त्यस्वप्ना

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवी मा प्रमादम्। 

सा नो मधुप्रियं दुहामथो उक्षतु वर्चसा।।७।।

(जिस भूमि अर्थात् पृथिवी की रक्षा तंद्रा, आलस्य और निद्रा से रहित, प्रमादरहित होकर देवगण किया करते हैं, वह विश्वस्वरूपा माता भूमि हमें मधुर प्रिय श्रेष्ठ पदार्थ प्रदान करनेवाली हो।)

यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद् यां मायाभिरन्वचरन् मनीषिणाः । यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः । सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे।।८।।

(जो भूमि प्रारंभ में जल से आवृत होकर समुद्र के भीतर गुप्त थी, और जिसका चिन्तन बुद्धिरूपी माया के बल पर मनीषी किया करते थे, जिस पृथिवी का परम हृदयाकाश को सत्य ने आवरित किया था । वह भूमि हमारी अभिलाषाओं को पूर्ण करते हुए राष्ट्र का उत्तम संवर्धन करे।) 

यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। 

सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।।९।।

(जिस भूमि पर परिव्राजक, ऋषि महर्षि, भू-देवता (विप्र) आदि  अहर्निश, सतत विचरण करते हुए अपने तप के प्रभाव से उसे पुष्ट करते हैं, वह पृथिवी अपने अनेक उत्तमोत्तम उपहारों से हम पर वैसे ही अपना स्नेह उंडेलती रहे, जैसे दुधारू गौ अपने वत्स के लिए दुग्ध प्रदान किया करती है।)

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Thursday, 26 August 2021

यस्याश्चतस्रः

अथ पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम्

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यस्याश्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्या

यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः। 

या बिभर्ति बहुधा प्राणदेजत् 

सा नो भूमि गोष्वप्यन्ने दधातु।।४।।

(जिस भूमि / पृथिवी पर चारों दिशाओं व प्रति-दिशाओं में, कृषि का कार्य करनेवाले श्रमिकों और श्रमिकों  ने अन्न उपजाया, और जिस भूमि से उपजे उस अन्न आदि को खाकर हम प्राणवान हुए, वह भूमि / पृथिवी हमें गौ आदि से, तथा उनके लिए भी उपयुक्त अन्न प्रदान कर समृद्ध करे।)

यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे

यस्यां देवा असुरानभ्यवर्तयन् ।

गवामश्वानां वयसश्च विष्ठा

भगं वर्चः पृथिवी नो दधातु ।।५।।

(जिस भूमि पर पूर्वकाल में ऋषियों आदि ने धर्म का आचरण किया, जहाँ देवताओं ने अपने पराक्रम से अनुरोध का पराभव किया, वह पृथिवी हमारे गौओं, अश्वों, पशु-पक्षियों आदि का भी संरक्षण और संवर्धन करते हुए हमारे लिए श्रेयस्कर, सौभाग्य-दायिनी हो।)

विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा

हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी

वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्नि-

मिन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु।।६।।

(जो भूमि समस्त विश्व को समृद्धि से परिपूर्ण करती है, जहाँ वसुओं का वास और प्रतिष्ठा है, जिसके आँचल में स्वर्ण और रत्न आदि हैं, इस जगत को धन-संपदा से संपन्न करनेवाली, वैश्वानर अग्नि जैसी देदीप्यमान पृथिवी, इन्द्र की गौ, हमारे लिए द्रव्य और द्रविण (धन) की धात्री हो।)

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Tuesday, 24 August 2021

एक प्रसंग

पृथिवी सूक्तम् स्तोत्रम् 

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उक्त स्तोत्र का सरल अर्थ लिखने का कर्तव्य प्राप्त हुआ, अतः लिखना प्रारंभ किया। आज ही प्रथम 3 मंत्र लिखे। साथ ही उनका सरल भावार्थ भी, जैसा भी मुझे प्रतीत हुआ।

मुझे उक्त स्तोत्र के प्रथम मंत्र में 

"पत्न्युरुं" 

शब्द का सही अर्थ क्या है यह समझने में संशय हो रहा था। 

माता पृथिवी को विष्णुपत्नी कहा जाता है ।

पौराणिक दृष्टि के अनुसार समुद्र मंथन से लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई, और भगवान् विष्णु द्वारा उसका पाणिग्रहण किया गया। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पृथिवी की जल से उत्पत्ति इससे सुसंगत है। इस दृष्टि से पृथ्वी ही विष्णुपत्नी है।

किन्तु क्या मेरा यह अनुमान ठीक है? यह प्रश्न मन में उठा। स्मृति से एक शब्द उभरा :

विष्णुः उरुक्रमः

किन्तु यह शब्द कहाँ पढ़ा था, याद नहीं आ रहा था। 

फिर दो तीन शान्तिपाठ पढ़ लिए, क्योंकि अनुमान था कि इस शब्द को वहीं कहीं पढ़ा होगा। 

फिर श्री गणपति-अथर्वशीर्ष, फिर श्री शिव-अथर्वशीर्ष और फिर श्री देवी-अथर्वशीर्ष का पाठ करते हुए, एकाएक इस मंत्र :

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।।६।।

को पढ़ते ही मन स्तब्ध हो गया ।

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अथ पृथ्वी सूक्तम् स्तोत्रम्

स्तोत्रपाठ 

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इस स्तोत्र का देवता पृथ्वी, ऋषि अथर्वा है।

निष्ठा और भावना के अनुरूप पृथ्वी का, जो कि समस्त जीवन का अधिष्ठान है, ध्यान करने के पश्चात् इस स्तोत्र का पाठ करें :

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति ।

सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्न्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु ।।१।।

(सत्य, बृहत् / महान ब्रह्म, ऋत्, उग्र / कठिन तप, दीक्षा, और यज्ञ ही संपूर्ण पृथ्वी का आश्रय हैं। वह विष्णुपत्नी पृथिवी, जो समस्त भूत, भावी का आधार है, हमारे लिए जीवन हो।)

असंबाधं मध्यतो मानवानां

यस्या उद्वहतः प्रवतः समं बहु।

नाना वीर्या ओषधीर्या बिभर्ति

पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः।। २।।

(उपरोक्त सत्यलोक, ब्रह्मलोक, महत् लोक, तपोलोक, जनलोक के आधार पृथिवी के मध्य जो मनुष्य की संतति, मनुष्य हैं, उन सब का निरंतर, सतत, अबाध रूप से पालन-पोषण पृथिवी पर उत्पन्न अनेक वीर्यवान ओषधियों तथा वनस्पतियों द्वारा पृथिवी करती रहती है। वह हमारी आराध्य पृथिवी सदैव हमारे लिए पूज्य और सम्मानित रहे।)

टिप्पणी :

पृथिवी पञ्च महाभूतों में प्रथम है। यही वह भू तत्व है जिससे भौतिक जगत का उद्भव होता है। गायत्री मन्त्र में क्रमशः भू, भुवः तथा स्व व्याहृतियों के प्रयोग से यही स्पष्ट है कि यह भू तत्व यद्यपि पदार्थ का सर्वाधिक जड प्रकार है, और इस प्रकार भौतिक वैज्ञानिकों के द्वारा परिभाषित क्वान्टम के सन्निकट है, फिर भी चैतन्यस्वरूप परमात्मा से अभिन्न है। इसीलिए पृथिवी को देवता कहा जाता है।

उपरोक्त दोनों मंत्रों से सिद्ध होता है कि चैतन्य / चेतना तत्व ही अस्तित्व मात्र का उपादान और निमित्त कारण भी है और इसी आधार पर आधुनिकतम वैज्ञानिकों के इस प्रश्न का भी समाधान किया जा सकता है कि  क्या क्वान्टम सिद्धान्त की सहायता से चेतना / चैतन्य (consciousness / Consciousness) क्या है, इसकी कोई समुचित और संतोषजनक विवेचना की जा सकती है।

यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो

यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।

यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्,

सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ।।३।।

(जिसमें समुद्र तथा सिन्धु जैसी बड़ी जलराशि से परिपूर्ण बहुत सी नदियाँ विद्यमान हैं, जिसके जल से कृषक अनेक अन्न आदि उत्पन्न करते हैं, और जिस जल तथा अन्न के सेवन से वह हमारे जीवन में प्राणों का संचार करती है, वह पृथिवी हमें सदैव यह प्रथमपेय-रूपी जल, अर्थात् जीवन देकर पुष्ट करे।)

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Monday, 23 August 2021

छन्दांसि : पृथ्वी सूक्तम्

परिचय

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १५ का प्रारंभ इस श्लोक से होता है:

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।

अव्यय (अविनाशी) कहे जानेवाले अस्तित्व रूपी इस अश्वत्थ वृक्ष का मूल तो उर्ध्व दिशा में अवस्थित सर्वोच्च परमात्मा-तत्व है, जबकि इसकी असंख्य शाखाएँ अधःस्तर पर नीचे की दिशा में अवस्थित समस्त लोक हैं। वेद के छन्द (मंत्र) ही इसके पत्र आदि हैं, और इसे जाननेवाले को ही वेदवित् कहा जाता है।

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वेद के किसी अंश का अर्थ और प्रयोजन होता है, क्योंकि वेद के मंत्र देवताओं के आवाहन तथा स्तुति के प्रयोजन को पूर्ण करते हैं, तथा वेद के मंत्र वर्णमय, प्राणमय तथा चेतना से युक्त होते हैं, इसलिए योग्य ब्राह्मण (जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ हो) के  द्वारा उनका उच्चारण किए जाने पर तथा यज्ञ के माध्यम से इष्ट देवता के लिए प्रज्वलित अग्नि में इन मंत्रों के साथ विशिष्ट द्रव्यों आदि की आहुतियाँ देने पर उस देवता विशेष से संपर्क किया जा सकता है। 

सभी द्रव्य-यज्ञों का अनुष्ठान मुख्यतः तो जगत के कल्याण के उद्देश्य से ही संकल्पपूर्वक किया जाता है, किन्तु तपोयज्ञ और ज्ञान-यज्ञ आदि विभिन्न यज्ञों का अनुष्ठान मनुष्य अपनी भौतिक, लौकिक आदि कामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से भी किया करता  है। इस स्थिति में इन्हीं मंत्रों को किसी देवता-विशेष की स्तुति के लिए भी प्रयुक्त किया जा सकता है।

वेद के ऐसे किसी अंश को ही सूक्त (सु-उक्तम्) कहा जाता है। अतः किसी ऐसे सूक्त का, जिसने सर्वप्रथम इसका आविष्कार किया होता है, ऐसा कोई ऋषि होता है। 

चूँकि वेद, वेदमंत्रों, तथा ऋषि नित्य सत्यता हैं, अतः ऋषि कोई विशेष मनुष्य नहीं, बल्कि वह आधिदैविक चेतना है, जो किसी भी पात्र मनुष्य में उचित स्थान और समय होने पर अपने आप को अभिव्यक्त करती है।

जब ऐसे किसी सूक्त का पाठ कोई विधिपूर्वक करता है, तो उसी देवता को, जिसे द्रव्य-यज्ञ के द्वारा संतुष्ट किया जाता है, और जो मनुष्य के शरीर के समस्त अंगों आदि में भी अवस्थित होता है, अंगन्यास, हृदयादिन्यास आदि से अपने ही भीतर जानकर इस प्रकार से उससे संपर्क और निवेदन किया जा सकता है। 

वैदिक ज्ञान के अनुसार परमात्मा ही अनेक देवताओं के रूप में उन उपाधियों के माध्यम से जगत की सृष्टि, परिपालन, संचालन, तथा संहरण करता है। इस दृष्टि से भी जगत का कण कण उसी परमेश्वर की अभिव्यक्ति है। 

सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि भी इसी प्रकार से चेतना और प्राण से युक्त देवता हैं। पृथ्वी भी इसलिए देवता ही है और उसकी स्तुति करने के लिए ही पृथ्वी-सूक्त का पाठ किया जाता है। 

इस सूक्त के ऋषि अथर्वा हैं, विभिन्न मंत्रों के छन्द अनुष्टुप् आदि विभिन्न छन्द (मंत्र) हैं, और चूँकि पृथ्वी सभी की जन्मभूमि या मातृभूमि है इसलिए जिसकी भी इस प्रकार की निष्ठा है वह इस पाठ का अनुष्ठान कर सकता है।

इसी सूक्तम् का स्तोत्रपाठ करने पर भरद्वाज इसके ऋषि, दिक् अर्थात् दिशाएँ ही इसकी शक्ति (शक्तिः), तथा कालदेवता ही इसके कीलक (कीलकम्) होते हैं, जिसका उल्लेख आगे के पोस्ट में किया जाएगा। 

जहाँ निष्ठा और भावना होती है वहाँ पाठ में होनेवाली संभावित त्रुटियाँ अनायास ही दूर हो जाती हैं। क्योंकि मंत्रों की रचना वर्णों के समूह से बने शब्दों से होती है, और इस प्रकार तकनीकी दृष्टि से वे वैसे ही कूट-संकेत में लिखे गए सूत्र होते हैं जैसे कि किसी कंप्यूटर-भाषा में लिखा गया कोई प्रोग्राम होता है। 

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भूमि-सूक्तम्

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यह सूक्त अथर्ववेद संहिता के द्वादश काण्ड का प्रथम सूक्त है। 

किसी सूक्त का पाठ करने से पहले इसका प्रयोजन और फल जान लेने पर इसका वाँछित और उपयुक्त प्रभाव भी होता है। 

यह सूक्त के पाठ से पृथ्वी देवता को संबोधित किया जाता है। 

इसको सर्वप्रथम ऋषि अथर्वा ने उद्घाटित किया था। 

इसके भिन्न भिन्न मंत्रों में जिस छन्द का प्रयोग किया गया है, वह इस प्रकार है :

६३ : अनुष्टुप् 

६२ : पराविराट् त्रिष्टुप् 

६१ : पुरोबार्हता त्रिष्टुप् 

६० : मंत्र

५९ : मंत्र

५८ : पुरस्ताद् बृहती 

५७ : पुरोऽतिजागता जगती

५६ : मंत्र, अनुष्टुप् 

५५ : मंत्र,

५४ : मंत्र, अनुष्टुप्,

५३ : पुरोबार्हतानुष्टुप् 

५२ : पञ्चपदा अनुष्टुपब्गर्भा पराति जगती 

५१ : त्र्यवसाना षट्पदा अनुष्टुपब्गर्भा ककुम्मती शर्वरी 

५० : मंत्र, अनुष्टुप् 

४९ : शक्वरी

४८ : पुरोऽनुष्टुप् त्रिष्टुप्

४७ : षट्पदा उष्णिक् अनुष्टुपब्गर्भा पराति शक्वरी 

४६ : षट्पदा अनुष्टुपब्गर्भा पराशक्वरी

४५ : जगती 

४४ : जगती 

४३ : विराट् आस्तार् पंक्ति 

४२ : स्वराट् अनुष्टुप्

४१ : त्र्यवसाना षट्पदा ककुम्मती शक्वरी 

४० : अनुष्टुप् 

३९ : अनुष्टुप् 

३८ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती 

३७ : त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी 

३६ : विपरीत पादलक्ष्मा पंक्ति

३५ : अनुष्टुप् 

३४ : त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भा अतिजगती 

३३ : त्र्यवसाना षट्पदा उष्णिक् अनुष्टुपब्गर्भा शक्वरी

३२ : पुरस्ताज्ज्योति त्रिष्टुप् 

३१ : मंत्र

३० : विराट् गायत्री 

२९ : मंत्र

२८ मंत्र

२७ : मंत्र, अनुष्टुप् 

२६ : मंत्र, अनुष्टुप्

२५ : मंत्र, अनुष्टुप्

२४ : पञ्चपदा अनुष्टुपब्गर्भा जगती

२३ : पञ्चपदा विराट् अतिजगती

२२ : त्र्यवसाना षट्पदा विराट् अतिजगती

२१ : एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् 

२० : मंत्र

१९ : उरोबृहती

१८ : त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् अनुष्टुपब्गर्भा शक्वरी 

१७ : मंत्र

१६ : एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् 

१५ : पञ्चपदा शक्वरी

१४ : महाबृहती

१३ : त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी

१२ : त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी

११ : त्र्यवसाना षट्पदा विराडष्टि  

१० : मंत्र

९ : परानुष्टुप् त्रिष्टुप् 

८ : त्र्यवसाना षट्पदा विराडष्टि 

७ : प्रस्तार पंक्ति 

६ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती 

५ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती 

४ : त्र्यवसाना षट्पदा जगती

३ : अनुष्टुप्

२ : अनुष्टुप् 

१ : अनुष्टुप्

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यह तो हुई  पृथ्वी-सूक्त की भूमिका और परिचय ।

पृथ्वी-सूक्त स्तोत्रम् अगले पोस्ट में।

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Wednesday, 4 August 2021

उत्तरगीता

उत्तररामायण

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एक समय भगवान् शिव माता पार्वती को नित्यप्रति की तरह गीता-रामायण सुना रहे थे। 

काल से परे अवस्थित नित्य, शाश्वत, सनातन और चिरंतन उस  शिवधाम कैलास में भगवान् शिव ने प्रारंभ में देवताओं, योगियों, भक्तों और मनुष्यों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए दैवी व आसुरी संपदाओं का वर्णन किया और फिर मनुष्य के प्रारब्ध के विषय में कहते हुए कहने लगे :

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।

दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।।१।।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। 

दयाभूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दव ह्रीरचापलम् ।।२।।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। 

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।३।।

दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। 

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।।४।।

भवानी! 

तुम्हारी त्रिगुणात्मिका माया से अभिभूत काल और स्थान में मनुष्य इस प्रकार दैवी तथा आसुरी संपदाओं से युक्त होता है। 

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मताः। 

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।।५।।

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। 

दैवी विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ।।६।।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः। 

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ।।७।।

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्। 

अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ।।८।।

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिता ।।९।।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता ।

मोहाद्ग्रहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ।।१०।।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता। 

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ।।११।।

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः। 

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान् ।।१२।।

इदमद्य मया लब्धमिदं प्राप्स्ये मनोरथम्। 

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।।१३।।

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि। 

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।।१४।।

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया। 

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।१५।।

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।।१६।।

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ।।१७।।

अहङ्कारं बलं दर्पं काम-क्रोधं च संश्रिताः। 

ममात्मपरदेहेषु प्रविद्वषन्तोऽभ्यसूयकाः ।।१८।।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्। 

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।।१९।।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि। 

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ।।२०।।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।।२१।।

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः। 

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ।।२२।।

(उपरोक्त सभी संकेत / लक्षण,  मनुष्य-जीवन के आज के काल में प्रत्यक्षतः दिखाई ही दे रहे हैं!)

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। 

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।२३।।

(इति श्री महाभारतेशतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्विद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगोनाम षोडषोऽध्यायः)

उत्तररामायण

हे पार्वति! तू मेरी अत्यन्त प्रिय भक्ता है, अतः इस परम गुह्य रहस्य को सुन!

पुराकाल में भगवान् महर्षि वाल्मीकि ने जिस रामकथा को कहा उसमें राम ही मायामनुष्य है, यह तो तुम्हें विदित ही है। 

जब राजा दशरथ ने भगवान् ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की आज्ञा से राम और लक्ष्मण को उनकी सेवा में सौंप दिया, तो विश्वामित्र उन्हें लेकर ताटका-वन में गए । ताटका-वन चिन्ता-रूपी राक्षसी का वैसा ही मोद-वन है जैसा कृष्ण का वृन्दावन, राम का पञ्चवटी, और इन्द्र का अलकापुरी स्थित नंदनवन! 

ताटका वह राक्षसी है, जो समुद्र-तट पर कामरूपिणी की तरह रहती है। वही चिन्ता, आशा-अपेक्षा रूपी राक्षसी सुर, ऋषियों मुनियों और ज्ञानियों का भी भक्षण कर लेती है। 

ताटका-वन में ताल-वृक्ष हैं। ताल अर्थात् ताडयति इति ताडं। 

उस ताड़-वन में धैर्यशील मनुष्य प्रवेश न करे। 

उसमें प्रवेश करने का अर्थ है, - उन अपरिमेय चिन्ताओं से ग्रस्त होते रहना, जो अंततः मनुष्य को विनाश की ओर ले जाती हैं। 

शुभानने! 

ऋषि विश्वामित्र प्राणिमात्र के अर्थात् सभी के मित्र हैं। 

माया-मनुष्य भगवान् श्रीराम को ताटकावन और ताटका राक्षसी का परिचय देने, और उस राक्षसी का वध करने का निर्देश देने के बाद उन महर्षि ने कहा :

हे राम! 

उस राक्षसी के तुम्हारे समक्ष आते ही बिना कोई सोच-विचार किए तुम उस पर बाण चलाकर उसका वध कर देना।"

महर्षि वाल्मीकि ने पहले ही कहा था राम अक्लिष्टकर्मा हैं। उनके सभी कार्य अनायास होते हैं।

इस प्रकार चिन्ता के आगमन से पूर्व जो आशा-अपेक्षाएँ मनुष्य में उठती हैं, राम के हृदय में उनका उदय भी नहीं होता।"

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Sunday, 1 August 2021

ज्ञान का दंभ और...

दंभ का ज्ञान 

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इसी ब्लॉग में कभी,

"ज्ञान का भ्रम और भ्रम का ज्ञान"

शीर्षक से एक पोस्ट लिखा था। 

यह पोस्ट भी कुछ उसी शैली में लिखने का प्रयास किया है।

वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और बुद्धिजीवी 'चेतना' शब्द से जिस भी वस्तु का अनुमान करते हैं, और उसके स्वरूप से अनभिज्ञ रहते हुए इतने अधिकारपूर्वक उस पर चिन्तन, चर्चा आदि करते हैं तो आश्चर्य होता है। 

पातञ्जल योग सूत्र के अनुसार 'प्रमाण' एक 'वृत्ति' ही है। ऐसी ही एक अन्य 'वृत्ति', 'अनुमान' भी है। यही नहीं, इसी 'प्रमाण' की श्रेणी में महर्षि पतञ्जलि ने 'आगम' को भी रखा है। क्या इसका तात्पर्य यह हुआ कि आगम अर्थात् आप्त-वाक्य भी किसी वृत्ति की ही तरह मन में बार बार उठता और लुप्त होता रह सकता है? शायद इसीलिए गीता (अध्याय २) में कहा गया है :

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।। 

वैज्ञानिक उस ज्ञान को 'प्रमाण' कहते हैं, जो किसी (भौतिक) वस्तु या विषय का अन्तर्विरोधों से रहित ज्ञान है । जैसे ही ज्ञान के समस्त अन्तर्विरोधों को दूर कर दिया जाता है, उसे सर्वमान्य प्रमाण कहा जा सकता है। भौतिक वस्तुओं के संबंध में तो यह बिल्कुल स्वीकार्य है और इस पर संदेह नहीं किया जा सकता। किन्तु जिन मनोनिर्मित वस्तुओं के बारे में कोई 'प्रमाण' किसी एक या दूसरे पक्ष के समर्थन या विरोध में प्रस्तुत किया जाता है, उसकी सत्यता असंदिग्ध या सुनिश्चित नहीं कही जा सकती। इस भौतिक जगत के इन्द्रियग्राह्य सत्यों का वैज्ञानिक प्रमाण अवश्य प्रस्तुत किया जा सकता है, तथा अपने अनुभवों से इसकी पुष्टि या इसका खंडन भी सरलता से किया जा सकता है। इसे प्रत्यक्ष या 'आँखों देखे सत्य' की श्रेणी में भी रखा जा सकता है और ऐसे समस्त सत्य, वैचारिक धारणाओं की किसी  विसंगतिशून्य प्रणाली में सामञ्जस्यपूर्ण तरीके से इस प्रकार समायोजित भी किए जा सकते हैं, जो तर्कसम्मत भी हो। किन्तु यह सत्यता विचार-आधारित और विचार के ही अन्तर्गत उसकी परिसीमा तक सीमित होती है। भूल से इसे सार्वकालिक तथा सार्वत्रिक कहा जाता है तो वह 'काल तथा स्थान' भी विचार और अनुमान पर निर्भर होता है, इसलिए इस सत्यता की पूर्णता संदिग्ध ही है। 

तीसरा प्रमाण है किसी अन्य ऐसे मनुष्य का वचन जिसे हम विश्वसनीय तो मान सकते हैं किन्तु फिर भी उस वचन की सत्यता की परीक्षा हम अनुभव, प्रयोग व तर्क से इस प्रकार से कर सकते हैं कि उसमें प्रतीत हो रहे विरोधाभासों का निवारण हो जाए। आज की भाषा में इस मनुष्य को 'संवाददाता' भी कह सकते हैं, और यदि ऐसा मनुष्य पक्षपात से रहित होकर किसी घटना या स्थिति का वर्णन करता है तो उसे 'आप्त' कहा जा सकता है। 

शुद्ध घटनात्मक विवरण के रूप में यह जानकारी भी वैसे ही विश्वसनीय हो सकती है, जैसे कोई रेकॉर्ड किया हुआ वीडिओ आदि होता है।

किन्तु मनुष्य या अस्तित्व की आत्मा (Core-Reality) के बारे में किसी मनुष्य के द्वारा दिए गए वचनों की प्रामाणिकता हमारे लिए और हमारे सन्दर्भ में कितनी विश्वसनीय है, इसकी परीक्षा तो हमें स्वयं ही करना होगी।

इस प्रकार आगम अर्थात् शास्त्र की उत्पत्ति होती है, और जब शास्त्र के तात्पर्य की विवेचना सत्य के जिज्ञासु परस्पर चर्चा से मिलकर करते हुए उसके सत्य को ग्रहण करते हैं, तो इसे ही शास्त्रार्थ कहा जाता है जहाँ विभिन्न मतों का खंडन-मंडन करते हुए भी अंततः किसी निश्चय पर पहुँचा जा सकता है। इसलिए इसमें कुतर्क या पूर्वाग्रह तक के लिए स्थान नहीं हो सकता फिर दुराग्रह का तो प्रश्न ही कैसे हो सकता है?

किन्तु इस प्रकार का शास्त्रज्ञान भी अन्ततः यदि शाब्दिक ही होता है, और इस रूप में यदि उसकी सत्यता स्वयं अपने ही हृदय में न परखी गई हो, तो वह भी वृत्ति ही है।

ऐसा ही एक आप्त-वाक्य है:

"सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म।।"

[ज्ञान अर्थात् चेतना (consciousness), जो ध्यान अर्थात् अवधान (attention) है,  यही अनन्त सत्य और ब्रह्म नामक सत्ता भी है।]

जब किसी वस्तु को जाना जाता है, तो यह तो कोई चेतन तत्व ही होता है जो कि उसे 'जाननेवाला', उसका 'ज्ञाता' होता है । यह ज्ञान, यह ज्ञाता, और यह ज्ञात, तीनों ही अन्योन्याश्रित होने से चेतन उन सबसे नितान्त विलक्षण और अस्पर्शित होता है।  

चेतना मूलतः वैयक्तिक न होते हुए भी व्यक्ति और वैयक्तिक का भी अधिष्ठान है और अपनी इन सब अभिव्यक्तियों के माध्यम से संसार और व्यक्ति के उद्भव और लय का कारण भी है।

ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का यह विभाजन केवल औपचारिक है और बुद्धि / वृत्ति के सक्रिय होने पर ही व्यावहारिक प्रतीति हो जाता है। इसलिए पतञ्जलि सबसे पहले वृत्तिमात्र को निरुद्ध करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। 

बुद्धि का अर्थात् वृत्ति का कार्य ही वैचारिक ज्ञान है, और जब तक वृत्ति को निरुद्ध नहीं किया जाता, तब तक धारणा, ध्यान तथा समाधि का तात्पर्य स्पष्ट नहीं हो सकता।

विभूतिपाद में इसी को सूत्रों से कहा गया है :

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।३।।

त्रयमेकत्र संयमः।।४।।

यहाँ समाधिपाद के सूत्र :

स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।।४३।।

का सन्दर्भ प्रासंगिक है।

चूँकि (निद्रा और) स्मृति भी वृत्ति ही है, इसलिए वृत्तिनिरोध से उनका भी निरोध हो जाता है, यह तो स्पष्ट ही है।

'निर्वितर्का' शब्द से :

वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः।।१७।।

का संबंध है। और 'निर्वितर्का' उपरोक्त मनःस्थितियों के निषेध का द्योतक है।

जो चेतना जो बुद्धि से पूर्व ही अस्तित्वमान है, उसी चेतना में बुद्धि तथा अन्य उपरोक्त वृत्तियाँ उठती और लय होती रहती हैं,  जिनमें से एक है 'अस्मिता' ।

इसलिए चेतना ही समस्त विकासशील वृत्तियों का अविकारी आधार और अधिष्ठान है। यही वृत्तिमात्र का द्रष्टा है जिसका सहारा लेकर मनुष्य में अस्मिता का उन्मेष होता है जो ज्ञातृत्व, भोक्तृत्व, कर्तृत्व और स्वामित्व के रूपों में सतत परिवर्तित होते हुए स्वतंत्र प्रतीत होकर आभासी व्यक्तिसत्ता का रूप ले लेती है। समाधिपाद के प्रारंभिक सूत्र इसे ही इस प्रकार दर्शाते हैं:

अथ योगानुशासनम्।।१।।

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।।२।।

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्।।३।।

वृत्तिसारूप्यमितरत्र।।४।।

जैसे किसी यंत्र में कोई खराबी आ जाने पर पहले उसे बन्द कर दिया जाता है, फिर उस खराबी को खोजकर दूर करते हुए यंत्र को सुधार दिया जाता है, वैसे ही 'योग' चित्तयंत्र के दोषों को दूर कर उसे इस योग्य सक्षम बना देता है कि मनुष्य चेतना अर्थात् आत्मा के सत्य का साक्षात्कार कर सके। 

वैज्ञानिक की बुद्धि भी वृत्ति ही और इसलिए वह अनुमान तथा प्रमाण की परिधि में ही देख पाती है, जहाँ ज्ञान में ज्ञाता, ज्ञात तथा ज्ञेय का आभासी और कृत्रिम विभाजन विद्यमान होता है। 

जब तक वैज्ञानिक इस आधार पर अनुसन्धान करता रहता है तब तक वह बुद्धि की सीमा में ही अवरुद्ध होता है। 

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