प्रसंगवश / स्त्री-विमर्श
(कच्चा-चिट्ठा)
क्या आज की स्त्री ने अपने-आप को ’सेक्स-ऑब्जेक्ट’ मानने से इन्कार कर दिया है और वह अपनी स्वतंत्र अस्मिता को नए ढंग और नए सिरे से परिभाषित कर रही है? कुछ इस प्रकार का विचार एक मित्र ने प्रस्तुत किया है ।
सबसे बड़ा सत्य यह है कि स्त्री प्रकृति-तत्व प्रधान होने से सदा से ही पुरुष के द्वारा शोषित रही है और यदि उसने कभी अपने स्त्री होने के यौन-पक्ष को अपने लिए वर्चस्व पाने का साधन बनाया भी है तो पुरुष ने सदा उसे ही वैश्या कहकर अपमानित किया है । दूसरी ओर पुरुष आज का हो या सुदूर अतीत के ज्ञात इतिहास का, सदैव स्त्री को ’सेक्स-ऑब्जेक्ट’ की दृष्टि से ही देखता रहा है, हाँ अपवाद अवश्य हैं किंतु उँगलियों पर गिने जाने योग्य । ’व्याकरण’ का एक अर्थ होता है ’विकृत’ करना !
ग्रंथों में नवधा व्याकरण का वर्गीकरण इस रूप में किया गया है :
ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् ।
सारस्वतं चापिशलं शाकलं पाणिनीयकम् ॥
इनमें से प्रथम दो तो इस बारे में विश्व-विख्यात हैं ही । इन्द्र ने व्याकरण की रचना की किंतु गौतम ऋषि की पत्नी का शीलभंग भी किया जिसके लिए अहल्या को पाषाण हो जाने का शाप पति से मिला । ज़ाहिर है कि वह भी ऋषि होते हुए भी पुरुष ही था । चन्द्र ने गुरु-पत्नी तारा से दुराचार किया जिससे बुध का जन्म हुआ । बुध इसलिए तभी से शापग्रस्त है और इसलिए बुद्धिजीवी भी उस शाप से अछूते नहीं हैं ।
दूसरी ओर वाल्मीकि रामायण में हनुमान को भी व्याकरणवेत्ता कहा गया है जिनके ब्रह्मचर्य के चरित्र की तुलना में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कहीं नहीं ठहरते । यह उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि कपि होते हुए भी वे इन्द्र और चन्द्र जैसे देवताओं से भी अधिक शीलवान और चरित्रवान थे !
परंपरा बन चुके सामाजिक-नैतिकता के ठेकेदारों ने चाहे वे किसी भी समुदाय से संबंध रखते हों, स्त्री को हमेशा उपभोग की वस्तु और ’संपत्ति’ की कोटि में रखा । वेदों और वर्णाश्रम-धर्म ने ’वंश’ की शुद्धता की दृष्टि से ’विवाह’ की संस्था को स्थापित और गौरवान्वित किया जिसमें ’पिता’ के आधार पर वंश की प्रामाणिकता परिभाषित और सिद्ध भी होती है । (इसके लिए हमें एक्स-एक्स और एक्स-वाय क्रोमोसोम के आधार पर लिंग-निर्धारण के सिद्धान्त को समझना होगा, जो यहाँ अनावश्यक प्रतीत हो रहा है) किंतु यदि ’वर्ण’ की शुद्धता का विचार और महत्व समझा जाता है तो कुल के विस्तार के लिए, जो कि ब्रह्मा के कार्य का ही अंश है, विवाह ही सर्वोत्तम विकल्प है । इसलिए कामोपभोग ’विवाह’ का गौण उद्देश्य था न कि प्रधान, और संतानोत्पत्ति के माध्यम से वंश और कुल की शुद्धता बनाए रखना ’विवाह’ का प्रधान उद्देश्य था । बाद में ’व्याकरण की भूलों से (पुरुष की दृष्टि में ) ’काम-तुष्टि’ विवाह का प्रधान ध्येय बनकर रह गई और स्त्री केवल उपभोग का साधन बनकर रह गई । स्त्री को अपनी पवित्रता की परीक्षा पुनः पुनः देनी पड़ी चाहे सीता हो या जौहर करनेवाली क्षत्रिय वीराँगनाएँ रही हों ।
प्रकृति से भी ’काम’ कल्पना और विचार के रूप में पुरुष में ही होता है, न कि स्त्री में । यह ठीक है कि परिवेश के प्रभावों से स्त्री का मन भी (जो वैसे तो पुरुष के मन से अधिक पवित्र और निष्कपट होता है) दूषित होकर विकार में रस लेने लगता है, किंतु मूलतः तो पुरुष के ही दोष के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है ।
तथाकथित आधुनिकतम 'मनोविज्ञान' भी पुरुष-केंद्रित है और स्त्री (के मन) को कितना समझ पाया है निश्चित रूप से कहना कठिन है ।
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एक प्रश्न : ’व्या’ और ’वि’ में कोई अंतर नहीं?
काम, मूलतः पुरुष का दोष है यह कथन भी उपयुक्त नहीं लगता ।
जन्तु-जगत् में भी और मनुष्य-जगत् में भी ।
उत्तर :
वि उपसर्ग का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है, - एक है विशिष्ट या विपरीत, दूसरा है भिन्न,
जैसे रम् > राम > विराम में विराम का अर्थ है आराम करना या रुकना, विरमते का अर्थ ’रुकता है’ या ’विश्राम करता है’ प्रसंग के अनुसार दोनों में से किसी भी रूप में ग्रहण किया जा सकता है । वि+आ+कृत > का इसी प्रकार प्रसंग के अनुसार व्याकृत तथा विकृत दो भिन्न तात्पर्यों में ग्रहण किया जा सकता है । इन्द्र और चन्द्र का उदाहरण और सन्दर्भ इसे ही स्पष्ट करता है ।
पुनः ’काम’ को दोष दिया ही नहीं जा रहा । काम तो मूलतः एक 'पुरुषार्थ' है, चार परम श्रेयस्कर पुरुषार्थों , -'धर्म', 'अर्थ', 'काम' तथा 'मोक्ष' में से एक ! जीवन की निरंतरता का प्रेरक और मूल आधार भी । दोष तो केवल इस सन्दर्भ में है कि मनुष्य काम-प्रवृत्ति को किस दृष्टि से ग्रहण करता है? ’कर्तव्य’ की दृष्टि से या उपभोग की दृष्टि से? यदि कर्तव्य की दृष्टि से ग्रहण करता है तो वह संतान की उत्पत्ति, संतान से प्रेम के लिए काम-प्रवृत्ति के लिए प्रकृति के प्रति अनुग्रह अनुभव करता हुआ ’काम’ का भोग करते हुए भी काम से त्रस्त न होगा । किंतु यदि वह केवल अधिक सुख के लिए ’काम-प्रवृत्ति’ का दुरुपयोग करेगा तो ’काम-प्रवृत्ति’ से मुक्त कभी न हो पायेगा । 'मुक्ति' अर्थात् मोक्ष भी ऐसा ही एक और 'पुरुषार्थ' है ! जीवन में एक उम्र में ’काम’ की अपनी भूमिका है किंतु एक उम्र आने पर मनुष्य का ’काम’ से ग्रस्त होना उसकी मानसिक अपरिपक्वता का द्योतक है । और यह दर्शन पुरुष पर ही अधिक लागू होता है क्योंकि स्त्री तो स्वभाव से ही कामोपभोग की भावना से रहित होती है । किंतु जैसे पुरुष उसमें इस प्रवृत्ति को उद्दीप्त करता है तो वह भी ’काम-सुख’ के जाल में फँस जाती है । इसलिए प्रथमतया तो पुरुष का, -उसकी अपरिपक्वता का ही दोष है । ’काम-प्रवृत्ति’ को शारीरिक आवश्यकता तक सीमित न रखकर उसे मानसिक आवश्यकता बना लेना ही उसे विकृत करना है ।
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(कच्चा-चिट्ठा)
क्या आज की स्त्री ने अपने-आप को ’सेक्स-ऑब्जेक्ट’ मानने से इन्कार कर दिया है और वह अपनी स्वतंत्र अस्मिता को नए ढंग और नए सिरे से परिभाषित कर रही है? कुछ इस प्रकार का विचार एक मित्र ने प्रस्तुत किया है ।
सबसे बड़ा सत्य यह है कि स्त्री प्रकृति-तत्व प्रधान होने से सदा से ही पुरुष के द्वारा शोषित रही है और यदि उसने कभी अपने स्त्री होने के यौन-पक्ष को अपने लिए वर्चस्व पाने का साधन बनाया भी है तो पुरुष ने सदा उसे ही वैश्या कहकर अपमानित किया है । दूसरी ओर पुरुष आज का हो या सुदूर अतीत के ज्ञात इतिहास का, सदैव स्त्री को ’सेक्स-ऑब्जेक्ट’ की दृष्टि से ही देखता रहा है, हाँ अपवाद अवश्य हैं किंतु उँगलियों पर गिने जाने योग्य । ’व्याकरण’ का एक अर्थ होता है ’विकृत’ करना !
ग्रंथों में नवधा व्याकरण का वर्गीकरण इस रूप में किया गया है :
ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् ।
सारस्वतं चापिशलं शाकलं पाणिनीयकम् ॥
इनमें से प्रथम दो तो इस बारे में विश्व-विख्यात हैं ही । इन्द्र ने व्याकरण की रचना की किंतु गौतम ऋषि की पत्नी का शीलभंग भी किया जिसके लिए अहल्या को पाषाण हो जाने का शाप पति से मिला । ज़ाहिर है कि वह भी ऋषि होते हुए भी पुरुष ही था । चन्द्र ने गुरु-पत्नी तारा से दुराचार किया जिससे बुध का जन्म हुआ । बुध इसलिए तभी से शापग्रस्त है और इसलिए बुद्धिजीवी भी उस शाप से अछूते नहीं हैं ।
दूसरी ओर वाल्मीकि रामायण में हनुमान को भी व्याकरणवेत्ता कहा गया है जिनके ब्रह्मचर्य के चरित्र की तुलना में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी कहीं नहीं ठहरते । यह उल्लेख इसलिए आवश्यक है कि कपि होते हुए भी वे इन्द्र और चन्द्र जैसे देवताओं से भी अधिक शीलवान और चरित्रवान थे !
परंपरा बन चुके सामाजिक-नैतिकता के ठेकेदारों ने चाहे वे किसी भी समुदाय से संबंध रखते हों, स्त्री को हमेशा उपभोग की वस्तु और ’संपत्ति’ की कोटि में रखा । वेदों और वर्णाश्रम-धर्म ने ’वंश’ की शुद्धता की दृष्टि से ’विवाह’ की संस्था को स्थापित और गौरवान्वित किया जिसमें ’पिता’ के आधार पर वंश की प्रामाणिकता परिभाषित और सिद्ध भी होती है । (इसके लिए हमें एक्स-एक्स और एक्स-वाय क्रोमोसोम के आधार पर लिंग-निर्धारण के सिद्धान्त को समझना होगा, जो यहाँ अनावश्यक प्रतीत हो रहा है) किंतु यदि ’वर्ण’ की शुद्धता का विचार और महत्व समझा जाता है तो कुल के विस्तार के लिए, जो कि ब्रह्मा के कार्य का ही अंश है, विवाह ही सर्वोत्तम विकल्प है । इसलिए कामोपभोग ’विवाह’ का गौण उद्देश्य था न कि प्रधान, और संतानोत्पत्ति के माध्यम से वंश और कुल की शुद्धता बनाए रखना ’विवाह’ का प्रधान उद्देश्य था । बाद में ’व्याकरण की भूलों से (पुरुष की दृष्टि में ) ’काम-तुष्टि’ विवाह का प्रधान ध्येय बनकर रह गई और स्त्री केवल उपभोग का साधन बनकर रह गई । स्त्री को अपनी पवित्रता की परीक्षा पुनः पुनः देनी पड़ी चाहे सीता हो या जौहर करनेवाली क्षत्रिय वीराँगनाएँ रही हों ।
प्रकृति से भी ’काम’ कल्पना और विचार के रूप में पुरुष में ही होता है, न कि स्त्री में । यह ठीक है कि परिवेश के प्रभावों से स्त्री का मन भी (जो वैसे तो पुरुष के मन से अधिक पवित्र और निष्कपट होता है) दूषित होकर विकार में रस लेने लगता है, किंतु मूलतः तो पुरुष के ही दोष के कारण यह स्थिति उत्पन्न हुई है ।
तथाकथित आधुनिकतम 'मनोविज्ञान' भी पुरुष-केंद्रित है और स्त्री (के मन) को कितना समझ पाया है निश्चित रूप से कहना कठिन है ।
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एक प्रश्न : ’व्या’ और ’वि’ में कोई अंतर नहीं?
काम, मूलतः पुरुष का दोष है यह कथन भी उपयुक्त नहीं लगता ।
जन्तु-जगत् में भी और मनुष्य-जगत् में भी ।
उत्तर :
वि उपसर्ग का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है, - एक है विशिष्ट या विपरीत, दूसरा है भिन्न,
जैसे रम् > राम > विराम में विराम का अर्थ है आराम करना या रुकना, विरमते का अर्थ ’रुकता है’ या ’विश्राम करता है’ प्रसंग के अनुसार दोनों में से किसी भी रूप में ग्रहण किया जा सकता है । वि+आ+कृत > का इसी प्रकार प्रसंग के अनुसार व्याकृत तथा विकृत दो भिन्न तात्पर्यों में ग्रहण किया जा सकता है । इन्द्र और चन्द्र का उदाहरण और सन्दर्भ इसे ही स्पष्ट करता है ।
पुनः ’काम’ को दोष दिया ही नहीं जा रहा । काम तो मूलतः एक 'पुरुषार्थ' है, चार परम श्रेयस्कर पुरुषार्थों , -'धर्म', 'अर्थ', 'काम' तथा 'मोक्ष' में से एक ! जीवन की निरंतरता का प्रेरक और मूल आधार भी । दोष तो केवल इस सन्दर्भ में है कि मनुष्य काम-प्रवृत्ति को किस दृष्टि से ग्रहण करता है? ’कर्तव्य’ की दृष्टि से या उपभोग की दृष्टि से? यदि कर्तव्य की दृष्टि से ग्रहण करता है तो वह संतान की उत्पत्ति, संतान से प्रेम के लिए काम-प्रवृत्ति के लिए प्रकृति के प्रति अनुग्रह अनुभव करता हुआ ’काम’ का भोग करते हुए भी काम से त्रस्त न होगा । किंतु यदि वह केवल अधिक सुख के लिए ’काम-प्रवृत्ति’ का दुरुपयोग करेगा तो ’काम-प्रवृत्ति’ से मुक्त कभी न हो पायेगा । 'मुक्ति' अर्थात् मोक्ष भी ऐसा ही एक और 'पुरुषार्थ' है ! जीवन में एक उम्र में ’काम’ की अपनी भूमिका है किंतु एक उम्र आने पर मनुष्य का ’काम’ से ग्रस्त होना उसकी मानसिक अपरिपक्वता का द्योतक है । और यह दर्शन पुरुष पर ही अधिक लागू होता है क्योंकि स्त्री तो स्वभाव से ही कामोपभोग की भावना से रहित होती है । किंतु जैसे पुरुष उसमें इस प्रवृत्ति को उद्दीप्त करता है तो वह भी ’काम-सुख’ के जाल में फँस जाती है । इसलिए प्रथमतया तो पुरुष का, -उसकी अपरिपक्वता का ही दोष है । ’काम-प्रवृत्ति’ को शारीरिक आवश्यकता तक सीमित न रखकर उसे मानसिक आवश्यकता बना लेना ही उसे विकृत करना है ।
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