Saturday, 13 May 2017

द्वैत-अद्वैत

द्वैत-अद्वैत
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चाहकर भी मुलाक़ात नहीं हो पाती है,
मुलाक़ात हो भी तो बात नहीं होती है,
और होती भी हों तो दूसरों की ही तो होती हैं,
अपने-आपसे अपनी भला कभी कहाँ होती है?
अपने-आपसे बात करने की ज़रूरत भी क्या है?
अपने को अपने से छूना भी कहाँ मुमक़िन है?
जहाँ दो होते हों वहाँ होता है छूना मिलना,
शब्द हों या न हों खुद से कहाँ मुमक़िन है?
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गहरी सुषुप्ति में द्वैत नहीं (अनुभव) होता । ज्ञाता ज्ञान तथा ज्ञेय की त्रिपुटी का लय हो जाता है । सुषुप्ति से उठते ही कुछ क्षणों तक जागृति में भी यही स्थिति बनी रहती है । थोड़े समय बाद वृत्ति सक्रिय होते ही स्मृति से ’मैं’ और ’मेरे संसार’ की पहचान स्पष्ट होकर उस लय की स्थिति को ज्ञाता ज्ञान तथा ज्ञेय की त्रिपुटी के रूप में अभिव्यक्त कर देती है । तब ’मैं’ को संसार से भिन्न वस्तु मान लिया जाता है और इस प्रकार ’अपनी त्रिपुटीरहित वास्तविकता’ को दो के रूप में ग्रहण कर लिया जाता है । फिर मैं और ’मेरा मन’ इन दोनों के रूप में अपना कृत्रिम विभाजन कर लिया जाता है । वहाँ इन दोनों का परस्पर स्पर्श, मिलन होने -न होने का प्रश्न बन सकता है । किंतु जहाँ द्वैत का अस्तित्व ही नहीं वहाँ कैसा स्पर्श और कैसा मिलन? कैसा बिछुड़ना और कैसी दूरी?
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