Wednesday, 24 May 2017

’मैं’ का अर्थ / वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का द्वंद्व

वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का द्वंद्व 
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प्रश्न : क्या आप व्यंग्य का अर्थ समझते हैं?
सीधा ज़वाब है : ठीक से नहीं जानता ।
उलटा ज़वाब है : शायद जानता हूँ ।
सही ज़वाब है : क्या व्यंग्य का कोई अर्थ होता भी है?
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व्युत्पत्ति की दृष्टि से अंग > (अंग किए जाने योग्य) > आंग्य (जिसका अंग किया जाता है, अर्थात् अपनाया जाता है > अंग्य > जिसे किसी अंग का रूप दिया गया है ।)
 >वि+अंग्य = व्यंग्य > जिसे कोई विशिष्ट रूप दिया गया है।
दूसरा अर्थ है : ’वक्रोक्ति’ अर्थात् वक्र-उक्ति > जिसका अर्थ वह  नहीं होता जैसा कि सीधे प्रतीत होता है ।
अध्यात्म की पूरी समस्या यही है । जैसे ही ’मैं’ शब्द का प्रयोग किया जाता है तो उसका वास्तविक अर्थ तो वह चेतन-सत्ता होता है जो इस शरीर को ’मैं’ कहता है, जबकि जिस शरीर को ’मैं’ समझा जाता है, वह ’मैं’ नहीं होता । ’यह’ / ’वह’ / ’तुम’ ... कभी ’मैं’ का विकल्प नहीं हो सकते ।
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The apparent and the implied sense :
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A spoken word often bears more than one sense according to the circumstances, the object / purpose it describes, the one who speaks and the one who hears it.
A very special word that everyone inevitably uses or has to use is 'I' : The First Person Pronoun.
Though by this word, apparently the physical body / the person who utters this word is indicated, The real meaning is the 'consciousness' associated with this body.
This 'consciousness', the conscious-entity that indicates the body / the person as 'I' is the Implied / Real 'I', while the body / the person that is indicated thus (by saying 'I') is the Apparent meaning of the word 'I'.
Usually one fails to this distinction.
This is the core of all Spiritual quest.
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