Sunday, 7 May 2017

कला का अर्थ -2-/ -'अकेलापन'-

कला का अर्थ -2
--अकेलापन--
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वृत्तिसारूप्यमितरत्र’ से स्पष्ट होता है कि जब जब किसी वृत्ति से सारूप्य (एकात्मता) नहीं हो पाता चित्त ’अकेलापन’ अनुभव करता है । अर्थात् ’मैं अकेला हूँ’ इस भावना / संकल्प / वृत्ति का आगमन होता है जो अभी कुछ क्षणों पहले तक अनुपस्थित सी थी । इस भावना / संकल्प / वृत्ति के आगमन और ’मन’ पर इसके हावी हो जाने पर मनुष्य इससे अपने को जोड़कर प्रमादवश इसे ’अकेलापन’ कहता है । इस भावना / संकल्प / वृत्ति के आगमन तथा मन की इस अवस्था की पहचान तथा नामकरण ’अकेलापन’ किए जाने के बाद ही ’मैं अकेला हूँ’, यह विचार उठता है । स्पष्ट है कि यह विचार और मन की जिस अवस्था की पहचान और नामकरण ’अकेलापन’ किया जाता है अस्थायी घटनाक्रम है और जिस ’चेतना’ में यह सब होता हुआ प्रतीत होता है वह अपेक्षाकृत स्थायी अचल, इस पूरी गतिविधि का आधार है । इसे बौद्धिक रूप से भी समझा जा सकता है कि चेतनारूपी इस आधारभूत सत्यता को किसी नई जानकारी, अनुभव या तर्क से नकारा नहीं जा सकता । ’अकेलापन’ की मनःस्थिति भी एक अस्थिर अवस्था होने से किसी अन्य भावना / संकल्प / वृत्ति का आगमन होते ही विदा हो जाती है, इसलिए यह भी स्पष्ट है कि यह नई प्रतीत होनेवाली  किसी अन्य भावना / संकल्प / वृत्ति का आगमन होने की स्थिति भी उस ’अकेलेपन’ की भावना / संकल्प / वृत्ति जैसी ही एक और अस्थायी अवस्था है जो अपने आने-जाने के लिए ’चेतनारूपी’ किसी अपेक्षतया स्थिर परिप्रेक्ष्य की आधारभूमि पर संभव होती है । जिस प्रकार ये सभी भावना / संकल्प / वृत्ति आदि जिस तरह से अनायास जाने जाते हैं और अपने-आपकी पहचान और नामकरण उनके ’जाननेवाले’, - उनसे पृथक् और स्वतंत्र ’मैं’ के रूप में किया जाता है वह पहचान तथा नामकरण भी उन सब जैसी ही अस्थायी अवस्था है जो अपने आने-जाने के लिए ’चेतनारूपी’ किसी अपेक्षतया स्थिर परिप्रेक्ष्य की आधारभूमि पर संभव होती है । यदि इसका नामकरण ’दृष्टा’ किया जाए, तो यह ’दृष्टा’ उन दृश्यों जैसा अस्थिर तत्व न होकर अखंडित निरंतरता है जिसकी न तो पहचान की जा सकती है, न स्मृति बनती या बनाई जा सकती है । चूँकि पहचान स्मृति का ही पर्याय है और स्मृति पहचान का, इसलिए उस दृष्टा-तत्व का वास्तविक स्वरूप स्मृति या पहचान का विषय न होते हुए भी केवल विवेक से ही अवश्य ही समझा जा सकता है । प्रश्न यह है कि क्या उसे ’मैं’ कहा जा सकता है?
 दूसरी ओर एक ’मैं’ वह भी होता है जो कहता है : ’मैं अकेलापन महसूस / फ़ील / अनुभव कर रहा हूँ ।’
इनमें से पहलेवाला मैं ’दूसरों’ अर्थात् संसार और संसार की तमाम वस्तुओं से अछूता है जबकि यह दूसरा ’मैं’ जो ’अकेलापन’ महसूस / फ़ील / अनुभव करता है हमेशा किसी न किसी ’दूसरे’ के सन्दर्भ में ही अस्तित्व ग्रहण करता और अस्तित्व खो बैठता है । क्या इस दूसरेवाले ’मैं’ को दृष्टा कहा जा सकता है? स्पष्ट है कि यह दूसरावाला ’मैं’ स्मृति और पहचान से क्षण-क्षण बनते-मिटते रहनेवाला अनित्य ’विचार’ है जो निरंतर प्रतीत होता है किंतु होता नहीं । वह क्षणिक भी होता है यह भी तय नहीं । क्योंकि विचार एक गतिविधि है, - एक गत्यात्मकता । और गत्यात्मकता की पहचान (और इसलिए स्मृति भी) बनना या बनाये जाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है?
संक्षेपतः मन किसी भावना / संकल्प / वृत्ति से जुड़ा होता है तो ’अकेलापन’ या रिक्तता की कल्पना तक नहीं होती, किंतु जब मन ऐसे किसी सहारे से वंचित होता है तो ही ’मैं अकेला हूँ’ इस भावना / संकल्प / वृत्ति का आगमन होता है । और इससे जुड़ी निराशा, व्याकुलता, ऊब या अर्थहीनता मन पर हावी हो जाते हैं । तब मन पुनः किसी सहारे की तलाश करता है जिससे ’अकेलेपन’ से छुटकारा हो । यह सहारा कुछ भी हो सकता है, कोई ’आदर्श’, ’धर्म’, ईश्वर, या कला, संगीत, साहित्य, जिसे वह ’रचनात्मकता’ का नाम देता है । धन-संपत्ति, कीर्ति, मान-सम्मान, पद, प्रतिष्ठा, इस लोक में या परलोक में, ऐसे असंख्य सहारे उसे मिल जाते हैं । किसी नशे के अभ्यस्त होना सबसे सरल रास्ता होता है ।
किंतु इस सूत्र से पहले का सूत्र कहता है :
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः
इसके अनुसार ’अकेलापन’ वस्तुतः इसका द्योतक है कि चित्तवृत्ति का निरोध नहीं हो पाया है । यह वृत्तिनिरोध होना ही समस्त ध्यान, दर्शन का सारतम ध्येय है और यह कैसे होता है यह प्रश्न मौलिक प्रश्न है । एक ऐसी समस्या जिसका निराकरण किसी विचार / सिद्धान्त से नहीं हो सकता, क्योंकि विचार / सिद्धान्त से सारूप्य और उसकी गतिविधि भी वृत्ति-विशेष ही होती है और चित्तवृत्ति के स्वाभाविक निरोध में बाधक ही होती है ।
कला और ज्ञान इसी प्रकार किसी न किसी वृत्ति से बाँधे रखते हैं । कहना न होगा कि ’चित्त’ का वृत्ति से तादात्म्य निरंतर बनाए ही रखते हैं ।
ऑल आर्ट इज़ इमिटेशन / All Art is imitation.
ऑल नॉलेज इज़ इग्नोरेन्स / All knowledge is ignorance.
तो फिर आत्मानुसन्धान क्या है?      
कला, विज्ञान-ज्ञान अर्थात् सिद्धान्त-मात्र वृत्ति है, जबकि ध्यान / जागरूकता (attention / अटेन्शन) इससे नितान्त भिन्न प्रकार की वस्तु है । ध्यान चित्त की गतिविधि है जिसका अभाव  नहीं होता किंतु उसकी तीव्रता कम-अधिक होती रहती है । ध्यान चेतना की स्वस्फूर्त,  स्व-प्रेरित अनायास होनेवाली गतिविधि है, जबकि चित्त में कोई भी वृत्ति स्मृति से ही आती है, और पतञ्जलि ने स्मृति को भी निद्रा की ही तरह ’वृत्ति’ कहा है ।
तप और वैराग्य भी मूलतः वृत्ति ही हैं, इसलिए बुद्ध या महावीर की शिक्षाएँ वृत्ति-निरोध की दिशा नहीं दिखलाती ।
ईश्वर / आत्मा का अस्तित्व है, -इस प्रकार का विश्वास और वह एक है या अनेक, निराकार है या साकार, सगुण है या निर्गुण, व्यक्ति-विशेष है या समष्टि इस प्रकार के विश्वास यद्यपि विश्वास हैं किंतु विश्वास होने से ही वे स्मृति के अन्तर्गत हैं ।
इसी तरह, ईश्वर /आत्मा ’नहीं’ है, यह आग्रह भी एक भिन्न तरह का किंतु फिर भी बस विश्वास ही तो है,
-न कि सत्य का दर्शन ।
चित्तवृत्ति अर्थात् सारूप्य / तादात्म्य के बारे में कहा गया है :
चित्तं चिद्विजानीयात् ’त’-काररहितं यदा ...
अर्थात् जिसे चित्त कहा / जाना जाता है वह ’त’-कार से रहित हो तो चित् अर्थात् विशुद्ध बोधमात्र ही है,
’त’-कार विषयाध्यासो ...
और ’त’-कार है विषय से चित् का अध्यास ..
जब विषयों से चित् का संसर्ग होता है तो इस अध्यास (निकटता) से ’चित्त’ अस्तित्व ग्रहण करता प्रतीत होता है, और इस चित्त का उद्भव वृत्ति-रूप में होता है । चित्त ही मन, बुद्धि और अहं के रूप में भी होता है और ये चारों अहंकार-चतुष्टय कहे जाते हैं । दूसरी ओर ’चित्’ चितिमात्र है जो सत्-चित् का अभिव्यक्त प्रकार है ।
आत्मानुसन्धान (’मैं कौन?’) जैसा कि शब्द से ही पता चलता है, ’स्व’ या ’आत्मा’ के बारे में जानने-समझने का प्रयास है । चूँकि वृत्तिमात्र ’चित्त’ है, जिसका निरोध किए जाने की शिक्षा पतञ्जलिप्रणीत योगशास्त्र देता है, इसलिए यह जानने पर कि ’मैं’ अर्थात् ’स्व’, जो मूलतः चित्त या चित् के ही रूप में होता / पाया जाता है, और प्रथमरूप (चित्त) में किसी न किसी वृत्ति के सहारे से ही अस्तित्व / जगत् से पृथक् शरीर-विशेष या स्मृति-विशेष की तरह से आभासी रूप से स्वतन्त्र और भिन्न समझा जाता है, अहं-वृत्ति है, न कि आत्मा / अहं / स्व की वास्तविकता, इसलिए चित्त के निरोध का तात्पर्य हुआ वृत्तिमात्र का निरोध होना ।
यह कैसे होता है इसे जानना-समझना, इसकी शिक्षा पातञ्जल-योगशास्त्र का केन्द्रीय तत्व है । पुनः किंतु यदि पातञ्जल-योगशास्त्र से यह भाव ग्रहण किया जाता है कि चित्त-निरोध कैसे ’किया जाता है?’ तो यह एक भूल है । यदि ’किया जाना’ है, तो वह पुनः स्मृति, वृत्ति और संकल्प के ही अन्तर्गत रह जाता है । किंतु जब ’यह (चित्त-निरोध) कैसे होता है?’ इसे समझा जाता है तो वह आत्मानुसन्धान हो जाता है ।
यहाँ ध्यातव्य तथ्य यह भी है कि जब तक चित्त में विषय-मात्र से वैराग्य नहीं हो जाता, -जब तक चित्त में वैराग्य उदित नहीं होता तब तक मनुष्य में आत्मानुसन्धान की जिज्ञासा / रुचि / उत्सुकता भी नहीं जाग्रत होती, और न उसके महत्व की ओर उसका ध्यान जाता है । वैराग्य का आगमन ’नित्य-अनित्य’ के विचार से ही होता है जिसकी आवश्यकता बुद्धि के शुद्ध, सूक्ष्म होने और अपनी आत्मा की कृपा होने पर ही अनुभव की जाती है । किंतु जब तक संसार की स्वतंत्र और पृथक् सत्ता में अपने को कोई शरीर-विशेष, और उस शरीर से जुड़ा मन-विशेष समझा जाता है,तब तक इस आभासी संसार में सुखों की निरंतर प्राप्ति और दुःखों से दूर रहने की कामना  बने रहते हैं और 'अकेलापन' भी !     
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