Tuesday, 16 May 2017

सुजाता

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सुजाता
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कहोड ऋषि उद्दालक के सुयोग्य और प्रिय शिष्य थे । शिक्षा पूर्ण करने पर ऋषि ने अपने प्रिय वेदाधीत शिष्य को अपनी कन्या सुजाता प्रदान की ।
सुजाता का भाई श्वेतकेतु भी ब्रह्मवादी ऋषि था । वरुणद्वीप (वर्तमान बोर्नियो, इन्दोनेशिया / Borneo, Indonesia ) का राजा उन दिनों किसी यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा था जिसके लिए उसे वेदों तथा यज्ञ में कुशल पंडितों की आवश्यकता थी । इसीलिए उसने अपने एक कुशल ब्राह्मण पुरोहित को समुद्र-पार भारत भेजा जहाँ वह ऋषि उद्दालक के देश जा पहुँचा और उसने राजा की सभा में जाकर अपना परिचय देते हुए शास्त्रार्थ के लिए राज्य के पंडितों को ललकारा । राजा ने उसे बन्दी बना लिया ताकि वह शास्त्रार्थ में हार जाने पर भाग न जाए । उसकी शर्त थी कि यदि कोई पंडित शास्त्रार्थ में उससे हार गया तो उसे समुद्र में डूबना होगा । तब बहुत से पंडित उससे शास्त्रार्थ करने आए और हार जाने के बाद उन्हें उसने अपने देश वरुण-द्वीप भेज दिया । प्रकटतः वह यही कहता था कि वह इन्हें समुद्र में डुबो रहा है और ऐसा दिखलाई भी देता था कि वह उन्हें समुद्र-तट पर बड़ी नौका में ले जाकर सुदूर सागर में कहीं छोड़ आता था ।
इसी क्रम में एक समय कहोड भी उत्सुकतावश राजा के दरबार जा पहुँचा और शास्त्रार्थ में उस आगंतुक से हार गया ।
जैसी कि शर्त थी, कहोड को भी एक बड़ी नौका पर ले जाया गया जिसमें कुछ कक्ष भी थे । कहोड को समुद्र में ’डुबा’ कर नौका लौट आई । इस पूरे क्रम में कभी-कभी पूरा सप्ताह लग जाता था ।
कहोड और सुजाता का पुत्र जब माता के गर्भ में ही था तो एक बार उसने पिता के मुख से वेद के मन्त्रों का अशुद्ध उच्चारण सुना और गर्भ से ही उनके इस दोष को इंगित कर उस त्रुटि को दूर करने के लिए कहा । इस पर कहोड ने क्रुद्ध होकर कहा : तू पिता के दोष देखता है, जैसे ही तेरा जन्म होगा तेरे आठ अंग त्रुटियुक्त होंगे । समय आने पर सुजाता ने जब शिशु को जन्म दिया तो उसके आठ अंग वक्र थे, दोनों स्कंध, दोनों हाथ दोनों पैर तथा दोनों घुटने । इससे कुछ ही दिनों पहले कहोड को समुद्र में 'डुबो' दिया गया था ।
उसका लालन-पालन उसकी माता और मामा ने किया । किंतु जब कहोड को समुद्र में ’डुबो’ दिया गया तो अष्टावक्र की देख-रेख माता सुजाता, मामा श्वेतकेतु और नाना उद्दालक ही करने लगे । अष्टावक्र उद्दालक को अपना पिता और श्वेतकेतु को अपना भाई समझने लगा था ।
उधर जब कहोड नौका पर चढ़ा तो उसकी आँखों पर नीले-हरे रंग की पट्टी बाँध दी गई ताकि उसे कहाँ ले जाया जा रहा है वह देख न सके । कई दिन समुद्र में यात्रा करने के बाद जब उसकी आँखों की पट्टी खोली गई तो उससे कहा गया कि वह अपनी आँखें बंद ही रखे । उसे जल्दी ही समझ में आ गया कि आँखें खुली या बंद रखने का कोई प्रयोजन ही नहीं रह गया था । जहाँ उसे समुद्र में छोड़ा गया था वहाँ अनेक सुन्दर जलचर, मछलियाँ, कछुए और दूसरे जलीय जन्तु और वनस्पतियाँ थीं । उसे समझ में आ गया कि वह भूमि पर नहीं जल में ही था किंतु जल इतना विरल था मानों वायु ही हो । उसे वास्तव में अपने चारों ओर जल और जल का ही विस्तार दिखली देता था । उसके हाथों में लोहे की कठोर श्रंखलाओं के बंधन थे जिन्हें लेकर उस स्थान के प्रहरी उसे ले जा रहे थे । वहाँ पर भी उसके पैरों तले कठोर भूमि थी जिससे उसे चलने में कोई कठिनाई नहीं थी । एक अद्भुत् और विचित्र बात यह थी कि वहाँ की सभी वस्तुओं का रंग हरित-मिश्रित नीला श्वेत कहीं कहीं सुनहला या चाँदी जैसा शुभ्र भी था किंतु अन्य कोई आकृति बहुत ध्यान देने पर भी कठिनाई से देखी जा सकती थी । अर्थात् समस्त वस्तुओं की आकृति एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी इन्हीं रंगों में होने से केवल छूकर ही उनकी पृथकता जानी जा सकती थी । कहोड को इससे भी अधिक आश्चर्य इससे हुआ कि उसके श्रवण-शक्ति अत्यंत तीव्र हो गई थी और इस आधार पर कौन सी वस्तु या जलचर आदि उससे कितनी दूर है इसका सटीक अनुमान वह अनायास ही लगा लेता था । वास्तव में वह वरुण-द्वीप के राजा के महल में आ चुका था जहाँ उसका स्वागत किया गया और उससे यज्ञ के अनुष्ठान में सहायता, पौरोहित्य करने का निवेदन किया गया । उससे कहा गया कि यदि वह चाहे तो इसी द्वीप में रह सकता था या बहुत सी इच्छित वस्तुएँ ग्रहणकर, यज्ञ पूरा होते ही अपने देश वापस जा सकता था । कहोड के पास कोई विकल्प नहीं था और वह देश भी इतना अद्भुत् और रमणीय प्रतीत हुआ कि उसने वहाँ रहने के लिए सहर्ष स्वीकृति दे दी ।
अष्टावक्र जब अपने उसके देश के राजा की सभा में पहुँचा तो प्रहरियों ने पहले तो उसे भीतर जाने से रोका किंतु जब उसने अपने पिता के बारे में जानकारी दी तो वे उसे राजा के पास ले गए । अष्टावक्र ने पिता की मुक्ति के लिए बन्दी अतिथि से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर लिया और उसे शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया तो उसने उन समस्त ब्राह्मणों सहित कहोड को भी समुद्र से निकालकर राजा को सौंप दिया और अपने देश वरुण-द्वीप को लौट गया ।
कहोड पूरी आयु तक शास्त्रार्थ, वेदाध्ययन और गृहस्थ-धर्म का निर्वाह करते हुए वानप्रस्थ और संन्यास में प्रविष्ट हुए किंतु तब तक उन्हें केवल ब्रह्मज्ञान की ही प्राप्ति हो सकी थी । आत्म-ज्ञान या ’आत्मा ब्रह्म ही है’ इस ब्रह्मात्मैक्य-ज्ञान की जागृति उनमें नहीं हो सकी ।
सहस्रों वर्षों बाद फिर कपिलवस्तु के शाक्यवंशीय राजा शुद्धोधन की रानी माया के गर्भ से जब उनका पुनर्जन्म हुआ तो ’आत्म-ज्ञान’ की प्रबल अभीप्सा उनमें परिपक्व और प्रगाढ़ हो चुकी थी । क्षत्रिय वर्ण में जन्म लेने से ब्रह्म-कर्म करना उनके लिए न तो संभव था और न उन्हें उस सबमें रुचि या उसका महत्व प्रतीत होता था । विवेक, वैराग्य और मुमुक्षा ही अब उनका जीवन-क्रम था जिसे कोई समझ नहीं पाता था ।
ऐसी ही एक निविड अंधकारपूर्ण रात्रि में अपनी रानी यशोधरा और नन्हें पुत्र राहुल को उनकी निद्रा की स्थिति में विदा कहते हुए उन्होंने राजमहल को त्याग दिया । जब बाहर आए तो एकमात्र सारथि छन्दक को प्रतीक्षा करते पाया ।
प्रसंगवश, यह छन्दक वही था जो उस पूर्व-जन्म में, जब वे कहोड के नाम से विख्यात थे, उनका सखा था जिसके साथ वे छान्दोग्य-उपनिषद् के मंत्रों पर प्रायः शास्त्रार्थ किया करते थे । यद्यपि उनमें से किसी को भी यह स्मरण नहीं था ।   छन्दक के साथ रथ में बैठकर उनका मन जीवन के अर्थ और प्रयोजन का चिन्तन करने लगा ।
महाभिनिष्क्रमण  ...
यह आवश्यक था, मेरे नहीं उस जगत् के उद्धार के लिए जो केवल भास है ...।
यह गृहत्याग भी उसी का एक अत्यंत छोटा अंश है ...।
कितने गृह त्यागे, कितने शरीर धारण किए और त्यागे ... कब तक ....?
महल से दूर जाते रथ के घोड़ों के टापों की ध्वनि इतनी लयबद्ध थी कि रात्रि के मौन में उससे यत्किञ्चित भी बाधा नहीं हो रही थी । या राजकुमार के मन का मौन इतना गहन रहा होगा जहाँ ये ध्वनियाँ बस विलीन होकर रह जाती होंगी।
अब रात्रि का तीसरा प्रहर होने जा रहा था । जिन्हें पहनकर वे महल से चले थे, राजकुमार ने सारथि को अपने वे राजोचित वस्त्र-आभूषण भेंट किए, और उसे राजधानी लौट जाने के लिए कहा ।
एक मौन-चिन्तन राजा के मन में था और एक हाहाकार छन्दक के मन में दोनों मनुष्य की वेदना के दो ध्रुव थे ।
अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या करते हुए जब उनकी काया अत्यन्त कृश और दुर्बल हो गई तो वे निरञ्जना के तट पर स्नान कर दुर्बलतापूर्वक देह को खींचते हुए वटवृक्ष तले स्थित ध्यान के अपने आसन पर जैसे-तैसे पहुँच सके ।
वैशाख-पूर्णिमा की नीरव शीतलता से युक्त चन्द्ररश्मियाँ निरञ्जना के तट से खेल रही थीं । और उन्हें उस नारी का स्मरण हुआ जो किसी पूर्व-जन्म में उनकी जीवन-सहचरी थी । उन्हें अपने उस पुत्र का स्मरण हुआ जो उनके ही शाप से आठ अंगों से वक्र था, और समंगा नदी में स्नान करते ही जिसके सब अंग सरल, साधु हो गए थे । उन्हें वरुण-द्वीप का स्मरण हुआ और दूर एक नारी-आकृति दिखलाई दी ।
"भद्रे ! तुम कौन हो?"
उन्होंने उससे प्रश्न किया ।
सुजाता को कभी इस बारे में संशय न था कि यह तपस्वी कौन है, किंतु जैसे अपने पूर्व-जन्म में वह बस पति और पुत्र की सेवा स्निग्ध मौनभाव से करती थी, बिलकुल उसी तरह उसने तपस्वी के सम्मुख खीर का पात्र प्रस्तुत किया । दोनों की दृष्टि मिली और तपस्वी की तपस्या पूर्ण हो गई । सिद्धार्थ अब संबुद्ध थे ।
उनके नेत्रों में दो अश्रु-बिन्दु छलक आए ।
निरञ्जना में तब से कितना जल बहा कौन कह सकता है ?
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