Thursday, 23 June 2016

अर्थ और प्रयोजन -7

आज की कविता *
(*Please see the English Translation of this Hindi Poem just below it.)
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अर्थ और प्रयोजन -7
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संवेदन अनुभव से पूर्व है,
संवेदन भव है,
अनुभव को शब्द मत दो,
शब्द है,
अनुभव का आभासी सातत्य ।
और शब्द का सातत्य है स्मृति ।
अनुभव तथ्य है,
शब्द उसका चित्र ।
इसलिए प्रायः हर कोई,
हर अनुभव का,
अपना एक चित्र बना लिया करता है ।
चित्र और शब्द,
शब्द और स्मृति,
जन्म देते हैं पहचान को,
जो केवल कल्पना है,
और उस यथार्थ से भटकाव है,
 जो अनुभव से पूर्व,
अनुभव के साथ,
और अनुभव के बीत जाने पर भी,
यथावत् अपरिवर्तित है ।
किंतु अनुभव को शब्द देते ही,
प्रतीति जन्म लेती है,
और उसे हम विचार की काया में,
आवरित कर लेते हैं ।
विचार जो तरंग है,
क्षणिक, और नश्वर ।
जिसका कभी तो अर्थ होता है,
जो संवाद को संभव करता है,
और कभी प्रयोजन भी,
जिससे अभीष्ट सिद्ध हो जाता है ।
यह शायद ज़रूरी भी है,
शायद अपरिहार्य भी ।
वस्तुओं को शब्द दो ।
वे कुछ नहीं कहतीं ।
न आपत्ति, न विरोध ।
जबकि अनुभव को शब्द दिये जाते ही,
अनेक प्रतीतियाँ और अनेक अर्थ पैदा होने लगते हैं ।
जो हर-एक के लिए,
अपने-अपने अलग-अलग होते हैं ।
प्रतीति प्रेत है,
प्रेताविष्ट मत होओ!
अतीत एक शब्द है,
एक विचार,
एक प्रेतात्मा ।
भविष्य एक शब्द है,
एक विचार,
अतीत का प्रेत ।
और दोनों शब्दों को विसर्जित कर,
उनका पिण्डदान कर दो ।
उनसे मुक्ति ही उनकी मुक्ति है ।
काल से परे की यात्रा का पहला पग ।
निर्विचार, निर्विकार, सनातन, चिरंतन,
नित्य-अनित्य का अधिष्ठान शाश्वत ।
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English Translation
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अर्थ और प्रयोजन -7
Meaning and Purpose
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Perception is prior to experience.
Perception is being.
Don't give word to experience.
Word is but continuity of experience.
And memory is the continuity of word.
Experience is fact,
Word its sketch.
And so every-one tends to sketch out,
One's own picture of experience.
Picture and word,
Word and memory,
Give birth to re-cognition.
Which is but imagination only,
And is straying away from the Reality,
Which is ever so unchangeable,
Before the beginning of experience,
While experience takes place,
And when the experience is no more.
But as soon as experience is given a word,
Appearances come into being.
And we hide them under the skin of thought.
We give them the body of thought.
Thought, which is but a wave,
Momentary and transitory.
Which may though have a meaning,
Which helps sometimes communication happen,
Which may though have a purpose,
Which helps in achieving a desired goal.
It is perhaps needed,
Perhaps unavoidable too.
Give the things a word.
The things don't complain.
The things neither object, nor oppose.
Whereas giving a word to experience,
Crop up a stream of appearances and meanings.
Which are many and divergent,
Opposite and contrary,
Paradoxical and controversial.
Different for each and every-one,
One's own for oneself.
Appearances are apparitions,
Don't get possessed by apparitions,
Past is but a word,
But a thought only.
The ghost of a dead.
Future is again a word,
But a thought only.
The ghost of the dead past.
Discard the two,
Offer salvation to them both.
Freedom from them is their liberation.
The First and last step on a voyage,
Beyond Time.
A voyage into,
The Freedom from thought,
Freedom from deterioration,
A voyage into,
The Eternity Timeless, Genuine,
Incorruptible, Chaste, Virgin,
The Substratum,
The ground from where emerges,
The transitory and the lasting phenomenon.
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Wednesday, 22 June 2016

अर्थ और प्रयोजन - 5

अर्थ और प्रयोजन - 5
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सनातन धर्म की अब तक की सर्वाधिक मान्य प्रामाणिक परिभाषाएँ हम केवल धम्मपदं और मनुस्मृतिः में पाते हैं । धम्मपदं के संबंध में पाश्चात्य इतिहासकारों ने हमारी स्मृति में एक भ्रम यह प्रश्न उठाकर उत्पन्न कर दिया है कि धम्मपदं पहले पालि में लिखा गया या संस्कृत में । दोनों भाषाओं की यत्किञ्चित् अच्छी पकड़ जिसे हो वह आसानी से देख सकता है कि विभिन्न बौद्ध (और / या पालि) विद्वानों ने (पालि भाषा में लिखित)  धम्मपदं के जो भिन्न-भिन्न रूप रचे, वे सभी मूल संस्कृत ग्रन्थ के ही पालि संस्करण मात्र थे । पालि का व्याकरण जहाँ अन्य सभी भाषाओं के व्याकरण की भाँति ’भाषा के प्रचलन और व्यवहार पर स्थापित नियमों’ का संग्रह है, वहीं वेद का व्याकरण मूलतः वेदाङ्ग है जो भाषा की उत्पत्ति में ’क्यों’ पर अधिक ध्यान देता है । और इसका मूल एवं सार-रूप दिशा-निर्देश हमें तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षा-वल्ली में ही प्राप्त हो जाता है ।
शीक्षा वल्ली
(द्वितीय अनुवाक)
शीक्षां व्याख्यास्यामः । वर्णः स्वरः मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्त शीक्षाध्यायः ।
(शिक्षा शिक्ष्यतेऽनयेति वर्णाद्युच्चारणलक्षणम् । ... -शांकर-भाष्य)    
जैसा कि स्कन्द-पुराण में और अन्यत्र भी स्पष्ट किया गया है कि ’देवता’ का स्वरूप ’ध्वन्यात्मक’ होता है, अर्थात् ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन और उच्चारण से उस वर्ण-समूह के अधिष्ठाता ’देवता’ का आवाहन किया जा सकता है, मूल वैदिक देवताओं से संबंधित समस्त वेद-मंत्रों का आविष्कार ऋषियों ने किया । चूँकि वेद नित्य-वाणी है अतः काल-स्थान के परिवर्तन से यह वाणी-स्वरूप वेद अप्रभावित रहता है । जैसे विज्ञान के नियम काल-स्थान से प्रभावित नहीं होते वैसे ही वेद (और वेद-वाणी) काल-स्थान से निरपेक्ष सत्य है । किन्तु जहाँ एक ओर तथाकथित विज्ञान हमारी ’जागृत-अवस्था’ में ही आविष्कृत और अनुभव किया जाता है और हमारी दूसरी अवस्थाओं (जैसे स्वप्न या सुषुप्ति) में उन वैज्ञानिक मान्यताओं की प्रामाणिकता पर प्रश्नवाचक चिह्न लग जाता है, वहीं वेदरूपी सत्य त्रिकालनिरपेक्ष होने से काल-स्थान से बाधित नहीं होता । पुनः, वैज्ञानिक सत्य भी तभी कार्योपयोगी होता है जब उसका विचार किया जाता है । ऐसे असंख्य वैज्ञानिक सत्य हैं जो प्रसंग के सन्दर्भ में विचार किए जाने पर ही व्यावहारिक होते हैं । जबकि वैदिक / सनातन-धर्म का सत्य काल-स्थान (और व्यक्ति-विशेष) की अपेक्षा से स्वतन्त्र अधिष्ठान है ।
इस प्रकार हम सरलता से समझ सकते हैं कि भगवान् बुद्ध ने अपनी शिक्षाएँ किसी भी भाषा में दी हों, इन्हें सर्वप्रथम संस्कृत धम्मपदम् के रूप में ही लिखा गया । पालि में या सिंहली, बर्मी और तिब्बती भाषाओं में इनके अनुवाद बाद में लिखे गए । यह इसलिए भी स्पष्ट है कि पालि या सिंहली, बर्मी और तिब्बती के संस्कृतनिष्ठ शब्द सीधे संस्कृत धम्मपदम् से उठा लिए गए हैं और ’प्रचलन’ के अनुसार उनके अपभ्रंश रूप हमें उन विभिन्न भाषाओं में मिलते हैं । माइक्रोसॉफ़्ट द्वारा प्रदत्त संस्कृत धम्मपदं की प्रस्तावना में भी दबे स्वरों में यह प्रश्न उठाया गया है, यहाँ तक कि इस ओर संकेत भी किया गया है कि धम्मपदं सर्वप्रथम संस्कृत में ही लिखा / लिपिबद्ध किया गया ।
वेद के विधान को ही सरल भाषा में 'पुराण' के रूप में व्यक्त किया गया । 'पुराण' लौकिक व्यवहार के लिए दी गयी शिक्षा है ।
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next part of this post 
अर्थ और प्रयोजन - 6
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Tuesday, 21 June 2016

सनातन धर्म / sanātan dharma

सनातन धर्म
sanātan dharma
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धम्मपदम्
पालि [1.5] यमक
न हि वेरेण वेराणि
सम्मन्तीध कुदाचनम् ।
अवेरेण च सम्मन्ति
एस धम्मो सनन्तनो ॥
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पटना 253 [14.5] खान्ति
न हि वेरेण वेराणि
शामन्तीह कदाचनम् ।
अवेरेण तु शामंति
एस धंमो सनातनो ॥
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paṭanā 253 [14.5] khānti
na hi vereṇa verāṇi
śāmantīha kadācanam |
avereṇa tu śāmanti
esa dhaṃmo sanātano ||
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उदानवर्ग 14.11 द्रोह
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यतीह कदा चन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मूलसर्वास्तिवादिविनय
(गिल्गित .184)
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यन्तीह कदाचन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मनुस्मृति:
अध्याय 4, श्लोक 138,
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥
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manusmṛtiḥ
adhyāya 4, śloka 138,
satyaṃ brūyāt priyaṃ brūyānna brūyāt satyamapriyam |
priyaṃ ca nānṛtaṃ brūyādeṣa dharmaḥ sanātanaḥ ||
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Revered Dr. Bhimarao R. Ambedkar (BabaSaheb) While accepting Bauddha-dharma declared He was relinquishing Hindu-dharma. Evidently, He didn't relinquish sanātana dharma.
We can say sanātana dharma is the true identity of the 'religion' of India.
And if He decided to leave Hindu-dharma and opted for Bauddha-dharma, this further questions if we should follow / insist to be 'Hindu'.
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Related Links :
http://swaadhyaaya.blogspot.in/2015/12/blog-post_20.html?view=flipcard
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Saturday, 18 June 2016

अर्थ और प्रयोजन -4

हिन्दुत्व : अर्थ और प्रयोजन
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’संगठित धर्म’ .... उन्होंने एक जुमला उछाला ।
’साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे’ इस कला के प्रयोग में कुशल, दक्ष, निष्णात, पारंगत बुद्धिजीवी थे वे ।
ऐसा लगता था कि उनका हमला ’संगठित धर्म’ पर था न कि किसी ख़ास ’धर्म’ पर । और मैं मानता हूँ कि वे न सिर्फ़ चतुर बल्कि एक राजनीतिज्ञ भी थे ही ।
अगर आप किसी मुसलमान, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, या यहूदी से पूछें कि उनका ’धर्म’ / ’संप्रदाय’ कितना सुपरिभाषित है तो वे गर्व से, यहाँ तक कि आक्रामकता से कहेंगे :
"जी मेरा ’धर्म’ इतनी अच्छी तरह से हर चीज़ को स्पष्ट करता है कि कोई अन्य इसका मुक़ाबला तक नहीं कर सकता ।"
यहाँ तक कि नास्तिक-धर्म के पक्षधर भी यही कहेंगे, ग़ो कि उनका ’धर्म’ के उस स्वरूप (के अर्थ) से कोई प्रयोजन नहीं है जैसा कि उपरोक्त कहे गए ’धर्मों’ के पक्षधर अपने ’धर्म’ के बारे में दावा करते हैं ।
इसलिए ’हिन्दुत्व’ के अर्थ और प्रयोजन पर सतर्कता और सावधानी से ध्यान देना बहुत ज़रूरी है । क्योंकि भिन्न-भिन्न लोग ’हिन्दुत्व’ इस शब्द को जो अर्थ समझते हैं वह अलग अलग है । इस्लाम, बौद्ध, जैन, ईसाई, सिख, या यहूदी ’धर्म’ या समुदाय / संप्रदाय / वर्ग के इस प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थ शायद ही कोई लगाता हो । और यदि कुछ मतभेद हों भी तो वे इतने सतही / औपचारिक होते हैं कि उन्हें वे समुदाय / संप्रदाय / वर्ग मिल-बैठकर सुलझा सकते हैं और सुलझा ही लेते हैं जब उन्हें ’हिन्दुत्व’ पर आक्रमण करना होता है ।
’हिन्दुत्व’ वह ’सिटिंग डक’ है, जिस पर वे फ़ायरिंग का अभ्यास कर सकते हैं ।
और उनकी दलील में दम है इससे आप (?) इनक़ार नहीं कर सकते । भले ही उनके आपसी मतभेद हों, तथ्य यह है कि उनमें से हर एक की एक ’क़िताब’ है, एक पैग़म्बर / मसीहा / उद्धारकर्ता है और एक ’ईश्वर’ भी है । वह पैग़म्बर / मसीहा / उद्धारकर्ता परस्पर एक हैं या भिन्न-भिन्न इस बारे में उनके अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं किंतु उसे भी वे अपने मठाधीशों के निर्देश के अनुसार अपनी बुद्धि में बिठाकर संतुष्ट हो जाते हैं ।
क्या हिंदुत्व की ऐसी कोई आसान सी परिभाषा है जिसे ’हिन्दुत्व’ के सभी अनुयायी स्वीकार कर सकें?
तथ्य यह है कि चूँकि ’हिन्दुत्व’ परिभाषित तक नहीं है तो "हिन्दुत्व क्या है?" यह भी अस्पष्ट है ।
इसलिए हर किसी के, चाहे वह स्वयं को हिन्दू मानता हो या न मानता हो, ’हिन्दुत्व’ शब्द के अपने-अपने अर्थ, और उस शब्द के प्रयोग के अपने-अपने प्रयोजन होते हैं । मज़े की बात है कि इस प्रकार हारता हिन्दुत्व ही है, और निरन्तर हारता जा रहा है, यह किसी को नज़र नहीं आता । जिन्हें नज़र आता है वे परम प्रसन्न हैं क्योंकि हिन्दुत्व शब्द के उनके अपने अर्थ और इसे प्रयोग में लाने के उनके अपने-अपने प्रयोजन उन लोगों से बिल्कुल भिन्न और विपरीत हैं, जो अपने-आपको गर्व से या सहजता से हिन्दू कहते हैं ।
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Thursday, 16 June 2016

Theism, Atheism, Agnosticism and Intellect.

Theism, Atheism, Agnosticism and Intellect.
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'धी अस्मि' > बुद्धिः प्रथमो, आदिधर्मो सर्वेषाम् । यथा हि बुद्धिः तथा हि धर्मो । धी अस्मि > theism > अथ गणेशो (धीः) पूज्यो प्रथमो । अ धी अस्मि > atheism is but a negative word. And could never be a religion in the sense of ’धर्म’. If one denies the existence of 'God', it is his ’धर्म’. Veda / sAnkhya never imposes upon man any belief what-so-ever. Either one follows Vaidika / Sanatana VarNAShrama- ’धर्म’ or is ’अवर्ण’. One has (right and inherent duty) to find out for oneself. But 'atheism' is just a wandering in dark. Likewise is agnosticism. But no one can ever forget oneself and one's 'mind' / intellect / धी: ....
In plain words no one can ignore the intellect / consciousness of being and accepting oneself a living being. This spontaneous perception of oneself how-so-ever dim / clumsy, stays uninterruptedly throughout one's life.
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'धी अस्मि' > बुद्धिः प्रथमो, आदिधर्मो सर्वेषाम् । यथा हि बुद्धिः तथा हि धर्मो । धी अस्मि > theism > अथ गणेशो (धीः) पूज्यो प्रथमो । अ धी अस्मि ...
English Translation :
'I am intellect' is the very first perception of all. As is one's perception, so is his धर्म / religion.
And the perception may or may not be correct.
भगवान्  गणेश / Lord GaNesha the presiding deity of  धी / बुद्धि is thus accepted the First-most God.
' ... धियो यो नः प्रचोदयात् ।'
May He illuminate light in our minds.  
'theism' should have been a direct descendant of  'धी अस्मि'.
Like-wise, 'atheism' its antonym.
'अ धी अस्मि' > atheism'. The perception that ignores intellect. The perception that has no way to 'विज्ञत्वम्' / 'Wisdom'.
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Tuesday, 14 June 2016

Of Bees and Birds.

अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते ।
... ... अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् । एतद्धि परमं तपः ...॥
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This honey that oozes out from the hives is the consequence of austerities performed by Rudra. This is not the honey that is obtained by taming the bee.... And though bee produce their own, man could destroy them by his greed for money and superficial prosperity.....
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The bee (honeybee) work earnestly to collect the flower-nectar, again the flower is the ultimate attainment of the tree and gives this essence either as honey or in the form of fruit. This is all 'tapas' done by call it nature / The Ultimate Truth. I often wonder how this word has two roots in Sanskrit. One is ऋत् / ṛt , another is रुद्र / rudra which is known as shiva in common parlance. 'tapas' is the spontaneous meditation done by shiva all the time even because of that 'Time' comes into existence, as is narrated in अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते ।..and so रुद्र / rudra gains the characteristic of omnipresence. That means 'Space' is generated. And I have skipped the next paragraph of 'shiva-atharva-sheerShaM' which tells clearly how then 'Creation' happens. And how He (रुद्र / rudra) experiences the same. Then He रुद्र / rudra withdraws that 'Creation' within Him. That is the 'saMhAra' aspect of rudra. So everything is just manifest and latent potential of rudra only. 'bee' itself could be derived from 'dija' / dwi / or 'bija' meaning seed. And this appeals me because every word and letter emanates from and is an expression of rudra. And bee is the source that gives us honey. (bumble-bee?).
Birds too are called 'द्विज' / 'dwij' > meaning twice-born'.
Again an aspiring ब्राह्मण / brahmin is also known as 'द्विज' / 'dwija', when has been initiated in Veda.
Figuratively, As birds are born first in the form of an egg and then from egg comes out the fledgling, they are also 'द्विज' / 'dwija', And The Eagle 'तार्क्ष्य' is given the status of the vehicle of 'विष्णु', The
Lord Supreme, we pray to Him in 'शान्तिपाठ' in the following words.
...स्वस्ति नस्तार्क्ष्य ...
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Monday, 13 June 2016

ताबीज़ और तिलिस्म

ताबीज़ और तिलिस्म
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वेताल-कथा.
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
कृष्णपक्ष की रात्रि में जब क्षीणप्राय चन्द्रमा अस्त हो चुका था, दो घड़ी बीतते ही वह श्मशान में जा पहुँचा । चिता पर स्थित अधजले शव को उसने कंधे पर रखा और जंगली भूमि पर जहाँ कहीं रूखी घास, कँटीली झाड़ियाँ और नुकीले कठोर कंकड़ पत्थर थे, चलता हुआ गुरु के स्थान की ओर चल पड़ा । वहाँ से गुरु के स्थान तक जाने में घड़ी भर का समय लगता था ।
अन्धेरे में चलते हुए उसे बहुत सावधान होना पड़ता था क्योंकि जमीन पर अनेक ज़हरीले सर्प, बिच्छू और ऐसे दूसरे जीव थे जो रात्रि में शिकार के लिए निकलते थे, तो आकाश और वायु-मार्ग से जानेवाले अनेक उलूक, चर्मगात्र (चमगादड़), और अदृश्य निशाचर भी थे । उन अदृश्य निशाचरों से या धरती के इन जीवों से उसे कदापि भय न था क्योंकि वह जानता था कि मृत्यु अपने निर्धारित समय से पहले या बाद में नहीं होती । दूसरी ओर उसके पास गुरु का दिया तद्बीज (ताबीज) भी था जिससे उसे इस विषय के बारे में सोचना ही नहीं था ।
कभी-कभी कोई सिद्ध-पुरुष या दिव्य आत्माएँ आकाश-मार्ग से जाते हुए अपने पीछे द्युति की एक किरण-रेखा छोड़ती जाती थीं, तो कभी कुछ तान्त्रिक शक्तियाँ, कुछ अतृप्त आत्माएँ वैसे ही गिरकर भूमि पर लौट जातीं जैसे योगभ्रष्ट योगी । इन दोनों के बीच भी कितने ही प्रकार के देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर आदि थे और चूँकि यह महाश्मशान चिरकाल से भगवान् शिव की रमण-भूमि रहा है इसलिए भी उन सब शिव-भक्तों का यहाँ आवागमन होना स्वाभाविक था ।
"हे राजन्! तुम्हें पता है कि तुम पिछले कई वर्षों से पुनःपुनः गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए एक शव को कभी नदी से, तो कभी पेड़ से, कभी वन से तो कभी नगर के किसी निर्जनप्राय भाग से लाकर गुरु के समक्ष प्रस्तुत कर देते हो । गुरु ही जानते हैं कि किस तिथि में किस स्थान पर किसकी मृत्यु किन कारणों से हुई है जिसके शव पर बैठकर वे उसकी प्रेतात्मा से संपर्क कर सकते हैं और उसकी मुक्ति में सहायता कर सकते हैं । तुम्हारे अतिरिक्त स्यात् ही किसी को इसकी कल्पना भी होगी । सर्वसामान्य मनुष्य तो इस बारे में बिल्कुल ही अनभिज्ञ है कि तुम उनकी सेवा करते हो और किस उद्देश्य से करते हो ।
तुम्हारे गुरु भी जानते हैं कि ऐसी बहुत सी आत्माओं के मुक्त हो जाने के बाद किसी दिन उनका सामना उनसे होगा ही । क्योंकि उनमें से प्रायः सभी पिशाच-योनि में स्थित आत्माएँ होती हैं, जबकि मैं उनसे कहीं अधिक शक्तिशाली ब्रह्मराक्षस हूँ जो कभी किसी का अहित नहीं करता, किंतु जैसे पिशाच-आत्माएँ अपनी विवशता से किसी शव में प्रविष्ट होती हैं और कभी-कभी किसी जीवित मनुष्य में भी, वैसे ही मैं भी मेरी एकमात्र विवशता से बाध्य होकर किसी ऐसे आत्मा के शव में प्रविष्ट होता हूँ जो जीते जी ही विमुक्त थी, और उसे इससे कोई अंतर नहीं आता कि उसके शव का क्या हुआ ।
कुल्यायामथ नद्यां वा शिवक्षेत्रेऽपि चत्वरे ।
पर्णं पतति चेत्तेन तरोः किं नु शुभाशुभम् ॥*
(*विवेकचूडामणि 559)
ब्रह्मराक्षस होने की विडंबना यही है कि समस्त शास्त्रों का ज्ञान होते हुए भी वह विमुक्त नहीं होता क्योंकि उसने शास्त्र-वासना के कारण मुक्ति के लिए कभी प्रयत्न नहीं किया होता और न उस हेतु आवश्यक विवेक वैराग्य और मुमुक्षा ही उसमें होती है । किन्तु मृत्यु आने पर उसकी यही एकमात्र वासना उसे एक ओर जहाँ किसी नई देह, नए जन्म को नहीं ग्रहण करने देती वहीं तुम्हारे गुरु जैसे किसी महापुरुष का सामीप्य पाने की प्रतीक्षा में न जाने कितने युग भटकती रहती है । तुम्हें विस्मय तो होगा कि आज तुम्हारे गुरु ने तुम्हें रक्षा-कवच के रूप में ताबीज़ (तद्बीज) या तिलिस्मन् (Talisman) क्यों नहीं दिया । तद्बीज जहाँ बाधाओं और विघ्नों से रक्षा करता है, वहीं तिलिस्मन् उन शक्तियों से तुम्हारी रक्षा करता है तुम्हारे पितृ-पुरुष होने के कारण जिनकी तुममें आसक्ति होती है । तुम्हें पता है कि पितृ-श्राद्ध में इन्हीं तिलों की अञ्जलि उन्हें देकर उस सक्ति / आसक्ति का निवारण क्या जाता है । यह आसक्ति काल-स्थान में वैसे ही व्याप्त है जैसे तिल में तैल !
और इसलिए आज तुम्हें इन दोनों प्रकार की शक्तियों से कोई विघ्न न होगा ।
दूसरी ओर आज मैं तुमसे कुछ पूछूँगा नहीं बल्कि तुम्हें कुछ ऐसा ज्ञान दूँगा जो तुम पर बोझ न बनकर एक बोध भर बना रहेगा और तुम अपने राजधर्म का और अधिक कुशलता से निर्वाह कर सकोगे ।
तुम्हारे लौटने का समय तुम्हारे जागतिक काल-प्रमाण के आधार पर तो एक घटी का है किन्तु मैं उसे अपने काल-प्रमाण से बढ़ाकर इतना विस्तृत कर रहा हूँ कि तुम्हारी एक घटी में मेरी तीन घटियाँ समाहित हो जाएँ ।
तो सुनो!
हर जीव का जागतिक काल-प्रमाण भिन्न-भिन्न विस्तार का होता है । और अपने काल-प्रमाण के विस्तार से ही प्रत्येक जीव अपने विशिष्ट लोक में किसी सुनिश्चित अवधि तक रह सकता है । मृत्यु में वह काल-प्रमाण परिवर्तित हो जाता है और जीव इस लोक को त्यागकर नए लोक में अस्तित्वमान हो जाता है । ये सारे लोक और काल-प्रमाण महाकाल के अनंत विस्तार में एक तरंग-मात्र होते हैं । पुराणों में ऐसे ही अनेक कल्पों युगों और लोकों का वर्णन है जो सभी नित्य हैं किंतु अपने से भिन्न किसी अन्य काल-प्रमाण पर उन्हें नहीं पाया जाता । और अब मैं तुमसे तुम्हारे जागतिक-काल के संदर्भ में जो कभी हुआ / हो रहा है / होगा, तुम्हारे भूत वर्तमान और भविष्य का वर्णन तुमसे करूँगा ताकि तुम मन की असीम शान्ति और स्थिरता को प्राप्त हो सको ।
सत्-युग में (और किसी भी युग में) ऋषियों को परम ज्ञान ऐसे ही प्राप्त रहता है जैसे तुम्हारे नगरवासियों के लिए मोक्षदायिनी शिप्रा सदैव सुलभ्य है ।
ऐसे ही एक कल्प में एक वैदिक कर्मकाण्डी विद्वान पंडित के रूप में मेरा जन्म हुआ था । पिता जानते थे कि अपनी विलक्षण स्मरण-शक्ति के कारण मैं शास्त्र-मर्मज्ञ भी हो जाऊँगा किंतु जगत् की सत्यता का आग्रह और मेरी उसके प्रति मोह-बुद्धि मुझमें वैराग्य, विवेक और मुमुक्षा उत्पन्न होने में बाधा बनेगी । किंतु इसीलिये या इस आशा से पिता ने मेरा नामकरण ’मुक्तिबोध’ किया ताकि कभी संभवतः इस ओर मेरी रुचि और ध्यान जागृत हो । पिता तो दिवंगत हो गए और जन्म-मृत्यु से रहित निज धाम में लौट गए किंतु मैं बस भौतिक नाम, यश, परिवार (स्त्री-पुत्र) आदि की अंतहीन लालसा और आशा से कभी छूट न पाया । ऐसे ही मैंने संसार की अनेक भाषाओं का अध्ययन किया और मुझे पता चला कि किस प्रकार विधाता ने अग्नि के माध्यम से भगवान् बुद्ध को और तीन पाश्चात्य परंपराओं को स्थापित करते हुए उन्हें प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष रूप से यही उपदेश दिया कि वैदिक / सनातन वर्णास्रम धर्म ही मनुष्यमात्र के उद्धार और परम कल्याण का एकमात्र मार्ग है । बुद्ध तो स्वयं विष्णु का अवतार थे और उनके होने का प्रयोजन इतना ही था कि जो वेद-मार्ग विरोधी हैं उन्हें भी परम-ज्ञान प्राप्त हो । किंतु आर्यावर्त के पार्श्व में स्थित जरथुष्ट्र नामक महापुरुष और उसकी परंपरा जो बाद में लुप्तप्राय हो गई इस उपदेश को यथावत् ग्रहण न करते हुए प्रमादवश अपनी व्याख्या की ।
इसी प्रकार ’अब्राह्मण’-धर्म के संस्थापकों मोज़स् ने भी इस तत्व की अपनी व्याख्या की जिससे भ्रान्त धारणाओं का जन्म हुआ ।
वेद में वर्णित ’अह्’ प्रातिपदिक से ’अहं’ तथा ’अः यः" इन दो पदों के रूप में  वैदिक धर्म और अग्नि के प्रथम देवता-स्वरूप होने का निर्देश दिया गया । इसी प्रकार परमात्मा के एक नाम ’यह्व’ की यथावत् शिक्षा दी गई । किंतु अब्राह्मण बुद्धि मे उस पूरी शिक्षा को विरूपित कर दिया ।
शलं  अः च वा अः च व अथ 
बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार ’अहं नामाभवत्’... उस परमात्मा का नाम ’अह्’ / ’अहं’ ’अः’ हुआ ।
(श्री रमण महर्षि से बातचीत  क्रमांक 518/27 सितंबर 1938)
इसी प्रकार ’मातृका’ के अनुसार ’अ’ से ’ह’ तक के समस्त वर्ण ’अहं’ पद में प्रत्याहृत होने से वह ’अहं’ हुआ ।
’यह्व’ और ’अहयहयह’ इन दो शब्दों के आधार पर पाश्चात्य अब्राह्मण / अब्राहम धर्म द्वारा का उद्भव और अत्यन्त विरूपित रूप में विस्तार हुआ, और उसकी प्रामाणिकता संदिग्ध है इसलिये उस पर निरंतर अंतहीन विवाद होता रहेगा ।"
विक्रमार्क न जाने कब तक सुनता रहा । अचानक अपने-आपको उसने शिप्रा तट के त्रिवेणीसंगम पर उस बरगद  के समीप पाया जहाँ ब्राह्मण अपना प्रातः स्नान और संध्यावंदन कर रहे थे और उसका अश्व निष्ठापूर्वक उसके आँखे खोलने और अगले आदेश की प्रतीक्षा में बरगद (अश्वत्थ) से बँधा खड़ा था । वह नहीं कह सकता था कि अभी अभी जो उसने देखा था वह स्वप्न था, या अब जो उसे दिखलाई दे रहा है वह एक और नया स्वप्न है !
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Thursday, 9 June 2016

Memory and forgetfulness

Memory and forgetfulness!
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Forgetting / not remembering is a spontaneous and natural activity of brain. This is not because the brain does so according a plan, owing to the anticipation and as a precautionary measure. This is rather because of the inherent process of its learning by experience, which builds up and maintains memory.  Accordingly follows a process of creating cognizance / recognition  which is but another form of memory. It is important to note that cognizance / recognition and memory are two aspects of the same thing. No memory implies no recognition and no recognition implies no memory.
Each of the two implies and is implied by the other. This memory / recognition makes the brain believe in the existence of 2 entities. Namely, 'me' and 'my world'. This 'me' / thinker becomes the center around which the 'person' comes into appearance. That gives existence to fear, forgetfulness, remembrance, and also desire, conflict, and many other confusions, beliefs, concepts. This whole 'person' has existence because of memory / thought only. Attachment to this person and fear of loss of this is another name of ego. Ego is not pride, but the assertion and re-assertion of 'oneself' as this person. The effort of seeking a permanent element in this whole mass is also because of this attachment to name and form of this 'person'.  Is it not an amazing fact that 'memory' becomes centered around this 'person' which is itself a product of memory? The resulting attachment and ignorance of this attachment happen in the mind which is neither a slave to the person nor the memory. Though memory functions supported by this very thing 'the mind' and comes under bondage, seeks freedom but that is entirely futile because memory itself keeps changing all the time. something is always added to deleted from the memory which is another name for recognition only.
A mind that awakens to this truth was never in bondage nor seeks or needs freedom / liberation.      
The apparent conflict that one finds in life is again a temporary state of thought / brain.
When this conflict is seen thus, attention to it brings a fundamental radical transformation in the working of brain and thinking process.
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Q.: Why we tend to forget some urgent matters?
A.:  We began with saying :
Forgetting / not remembering is a spontaneous and natural activity of brain.... psychologists can tell you in volumes about this but that does not explain 'we' have neither 'memory' nor 'forgetfulness'. To understand this, one needs to find out what one means by 'I' / 'we' and brain. Saying 'my brain' is itself the very first misunderstanding. If the two ('we' / 'brain') could be correctly seen as two entirely distinct things / entities, this question is no more significant ...;)
But this question leads to another important topic for discussion. What we take by the term 'mind' and what is meant by (physical) brain, and how the two have the mutual relationship? I shall write about this after a while.
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Wednesday, 8 June 2016

अर्थ और प्रयोजन -3.

अर्थ और प्रयोजन -3.
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भौतिक वस्तुओं का इन्द्रियग्राह्य संवेदन और उस संवेदन का अनुकूल या प्रतिकूल होना स्वयंसिद्ध तथ्य है ।
किंतु यह अनुकूल अथवा प्रतिकूल होना भी काल के छः आयामों के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न रूपों में पाया जाता है । ये छः आयाम / पक्ष हैं : ’चित्त’ की जागृत स्वप्न अथवा सुषुप्त अवस्था, और उन अवस्थाओं में भूत, भविष्य और वर्तमान का विचार । यह देखना / समझने का प्रयास संभवतः रोचक होगा कि ’चित्त’ की जागृत अथवा स्वप्न की स्थिति में ’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान का विचार ही उनकी तथ्यात्मकता तय करता है । यदि विचार नहीं तो इन सभी तत्वों (’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान व ’द्रव्य’ / ’ऊर्जा’) के बारे में कहने के लिए कोई पैमाना / criteria क्राइटेरिया ही कहाँ होता है? इस विचार की देह शब्द से बनी होती है और विभिन्न भाषाएँ तथा एक ही भाषा में बने विभिन्न विचारों की देह भी शब्दों / words  ही से बनी होती है । इसलिए एक ही भाषा में एक ही विचार को किसी दूसरे विचार के रूप में किसी सीमा तक व्यक्त तो किया जा सकता है किंतु वह उसी अर्थ का संप्रेषण करे जो वक्ता कहना चाहता है, यह कभी संभव होता है, तो कभी-कभी संभव नहीं भी होता ।
भौतिक वस्तुओं के संबंध में यद्यपि विज्ञान तथ्यों को सुपरिभाषित करने का दावा करता है किन्तु उसके द्वारा स्थापित ’नियमों’ की सत्यता ’स्थान’ और ’स्थान’ की व्यापकता एवं विस्तार का तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान के विचार के अन्तर्गत सीमित होती है । और केवल ’जागृत’ अवस्था में उन्हीं के द्वारा इसकी परीक्षा की जा सकती है जो विज्ञान की मूल परिकल्पनाओं को आधारभूत सत्य स्वीकार करते हैं ।
इन नियमों का उपयोग प्रत्यक्षतः अनुभव किये जाने से हम उन्हें सार्वत्रिक और सार्वकालिक मान बैठते हैं, जबकि इसके लिए हमारे पास कोई प्रमाण नहीं । दूसरी ओर उनकी सार्वत्रिकता या सार्वकालिकता का खंडित होना प्रत्येक मनुष्य के अनुभव में अनायास ही स्पष्ट है ।
किन्तु फिर भी जिस जगत में हम रहते हैं उसे औपचारिक रूप में सत्य समझने के विचार से ग्रस्त होने से हमारी बुद्धि यह नहीं समझ या देख पाती है कि ऐसा कोई सर्वसामान्य (common ) जगत कहीं है ही नहीं, जबकि हमारे ’संवेदन’ (consciousness) का तथ्य तो स्वयंसिद्ध निर्विवाद और अकाट्य सत्य है ।
’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ विचार-आश्रित निष्कर्ष हैं और इस रूप में विचार का भिन्न-भिन्न तरीके से प्रयोग (न कि उपयोग) करने से प्राप्त होने वाले विभिन्न विचार मात्र हैं । जो सदैव सीमित, एक सीमा तक परस्पर भिन्न और कभी कभी अत्यंत विपरीत भी हो सकते हैं । इन निष्कर्षों को हम ’विचार’ के आवरण से ढँककर विभिन्न ’वाद’ निर्मित करते हैं और यह भूल जाते हैं कि वे जिन तत्वों (’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ आदि) का आग्रह करते हैं उन्हें हम केवल शब्द-रूप में ही जानते हैं और हमारे लिए वे कोरे शब्द भर होते हैं । परंपरा / रूढियाँ, भय और प्रलोभन हमें कट्टर बनाकर उन वादों का मोहरा बना डालते हैं और हम कठपुतलियों की भाँति न केवल मनुष्य-जाति बल्कि समूचे संसार (common world) को विनष्ट करने को पराक्रम, परम कर्तव्य और पुण्य-कार्य तक मान बैठते हैं । ’हिंसा’ एक स्पष्ट तथ्य है और ’हिंसा’ की बर्बरता को समझाये जाने की आवश्यकता नहीं, किंतु हम ’अहिंसा’ जैसे नकारात्मक शब्द को गरिमामंडित कर उसे ’स्थापित’ करने और उसके आग्रह में अपने (और दूसरों के भी) प्राण तक बलि चढ़ा देते हैं । ’हिंसा’ करो / न करो का कर्म के रूप में अर्थ स्पष्ट है, जबकि ’अहिंसा’ करने / न करने को न तो समझा जा सकता है, न व्यवहार में उसका आचरण किया जाना संभव है ।*see foot-note.
 प्रश्न है ’अर्थ’ और ’प्रयोजन’ के भेद को समझने का ।
सम्पूर्ण ’वेद-वाणी’ जो स्वर-रूप अर्थात् ध्वनि-रूप है, आधिदैविक सत्य है, जबकि उसका वैखरी-रूप / लिखित या लिपिबद्ध रूप आधिभौतिक सत्य होने से ’विचार’ मात्र है, और जो इसके आधिदैविक रूप से अनभिज्ञ है, उसके लिए वेद का न कोई अर्थ है न प्रयोजन । वेद इसका आग्रह भी नहीं करता । वेद केवल पात्रता के बारे में आग्रह करता है और अपनी पात्रता की परीक्षा हर मनुष्य स्वयं ही कर सकता है, न कि कोई और ।
’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ विचार की निष्पत्ति है और ’स्मृति’ ही इस विचार को सातत्य देती है, जबकि स्मृति स्वयं विचारों का एक निरंतर परिवर्तनशील प्रवाह है जो विरूपित होता रहता है । ऐसी स्मृति किसी ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ को स्थिरता कैसे दे सकती है ।
कल्पना करें यदि हमारी स्मृति लुप्त हो जाए तो ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’का हमारे लिए क्या महत्त्व रह जाएगा?
’हिन्दुत्व’ भी इस्लाम, क्रिश्चिनियटी, कैथोलिसिज़्म या यहूदी ’धर्म’, ’ईश्वर’, ’संस्कृति’ ’आदर्श’ ’समुदाय’ परंपरा जैसा ही एक विचार मात्र है और इसलिए सदा अपरिभाषित अनिश्चित अनुमान ही है । इसे ’राष्ट्रीयता’ का आधार बनाना इन विभिन्न धर्मों, परंपराओं आदि को सतत जीवित रखने जैसा है । क्योंकि तब इस विचार की उन सारे विचारों से टकराहट होगी ही, जिनका उद्भव और विस्तार भय अथवा प्रलोभन से हुआ है, न कि ’वास्तविकता’ के आग्रह से ।
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*La no-violencia se ha pregonado una y otra vez en política, en religión y por diferentes líderes. La no-violencia no es un hecho, tan sólo es una idea, una teoría, un montón de palabras; el hecho real es que somos violentos, es un hecho, es ‘lo que es’. Pero no somos capaces de comprender ‘lo que es’ y por eso, inventamos esa tontería que llamamos la no-violencia, lo cual genera un conflicto entre ‘lo que es’ y ‘lo que debería ser’. Mientras persigamos la no-violencia estaremos sembrando la semilla de la violencia; es algo tan obvio. Así pues, ¿podemos mirar juntos ‘lo que es’ sin evadirnos, sin ningún ideal, sin reprimirlo o escapar de ‘lo que es’?
Jiddu Krishnamurti "La llama de la atención"
Non-violence has been preached over and over again in politics, in religion and different leaders. Non-violence is not a fact, it's just an idea, a theory, a lot of words; the reality is that we are violent, it is a fact, it is ' what it is '. But we are not able to understand ' what is ' and that's why we invented this nonsense that we call the non-violence, which creates a conflict between ' what is ' and ' what should be '. While we pursue non-violence, we'll be sowing the seeds of violence; it is something so obvious. So, we can look together ' which is ' no escape, no ideal, no suppress or escape of ' what it is '?
Jiddu Krishnamurti "the flame of attention"
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Saturday, 4 June 2016

अर्थ और प्रयोजन -2.

अर्थ और प्रयोजन -2.            
वस्तुओं और घटनाओं का कारण और प्रयोजन होता है जबकि विचार का अर्थ होता है, जो पुनः एक विचारमात्र होता है । चूँकि विचार शब्दाश्रित होता है इसलिए किसी भाषा में व्यक्त विचार का दूसरी किसी भाषा में अनुवाद या अर्थ किया जा सकता है किन्तु यदि उससे कोई प्रयोजन न सिद्ध होता हो तो वह कोरी बौद्धिक गतिविधि होता है । दूसरी ओर प्रयोजन को यद्यपि विचार से व्यक्त किया भी जा सकता है किन्तु तब उस विचार का संप्रेषण होने के बाद कोई उसका क्या तात्पर्य ग्रहण करेगा यह तय नहीं किया जा सकता ।
इसलिये ’जीवन’ का प्रयोजन तो है किन्तु अर्थ क्या है यह कह पाना कठिन है । जीवन का एक प्रयोजन यह भी हो सकता है कि ’उसे’ जान लिया जाए जो जन्म-मृत्यु से अछूता है ।
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नाडी-सूत्र 7.

नाडी-सूत्र 7.
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अर्थ और प्रयोजन  
(Meaning and Purpose)
गुरुकुल में आए उसे लगभग बारह वर्ष होने रहे थे ।
तभी एक दिन प्रातः उस प्रकार शंखनाद हुआ जो आचार्य की अनियमित कक्षा के प्रारंभ होने  द्योतक था ।
वह तब गाय को दुह रहा था । वैसे यह कार्य स्त्रियों के लिए निश्चित था, किन्तु कभी-कभी अपरिहार्य स्थितियों में गुरुकुल के छात्र भी इस कार्य को करते थे ।
जब वह अपना कार्य पूर्ण कर चुका तो सत्वर पदों से गोशाला से उस चबूतरे की ओर पहुँचा, जहाँ उसके अतिरिक्त उसके केवल तीन सहपाठी बैठे । आचार्य भी अपने आसन पर शांतभाव से विराजित थे ।
थोड़ी प्रतीक्षा के पश्चात् एक और सहपाठी आ गया ।
तब उसे अतिथिशाला भेजा गया ताकि वह गुरुकुल में आए एक अतिथि को ले आए ।
वे अतिथि कोई वेदपाठी ब्राह्मण थे, जो आचार्य से अपनी किसी शङ्का का समाधान पाने की आशा में वहाँ आए थे ।
"अपना प्रश्न पूछें ।"
आचार्य ने उनसे कहा ।
"वेद का वास्तविक और शुद्ध अर्थ कौन जानता है ?"
अतिथि ने नम्रतापूर्वक अपना प्रश्न प्रस्तुत किया ।
तब आचार्य ने उसे और उसके सहपाठियों की ओर देखते हुए उनसे पूछा :
"क्या तुममें से कोई इसका उत्तर देना चाहेगा?"
उसने अपने चारों सहपाठियों की ओर देखा किन्तु सभी अपना मुख नीचे किए हुए बैठे थे ।
तब आचार्य ने उससे पूछा कि क्या वह इस प्रश्न के उत्तर को देने का प्रयास करेगा ?
तब उसने आचार्य के चरण-स्पर्श कर, कहना प्रारंभ किया ।
"वैखरी वाणी में कहे गए वक्तव्यों के अनेक अर्थ होते हैं । वेदवाणी नित्य होने से उसका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं होता । वह विधि और विधान है, जिसका प्रयोजन तो है किन्तु वह सापेक्ष वक्तव्य नहीं होता । भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिए वेदवाणी से भिन्न भिन्न लक्ष्य सिद्ध होते हैं । इसलिए वेदवाणी को अर्थ तक सीमित नहीं रखा जा सकता ।"
"यदि अर्थ नहीं, तो क्या ग्रन्थ-रूपी वेद का भाष्य (commentary) संभव है?"
"हाँ, जैसा कि सायण-भाष्य है । स्पष्ट है कि वह निरयण न होकर सायण (स-अयन) ही होगा, और उसके द्वारा वेदवाणी का जो तात्पर्य ग्रहण किया जाएगा वह किसी सन्दर्भ में ही पूर्णतः उपयुक्त / सुसंगत होगा । जैसे सायण और निरयण ज्योतिष के भिन्न भिन्न सिद्धान्त हैं, और अयनांश शोधन के आधार पर उनकी सापेक्ष सत्यता किसी स्थान, समय और सन्दर्भ में ही प्रयोजन-सिद्धि में सहायक होती है ।"
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चलते-चलते-
इस गर्मी में पास रखा पेडेस्टल-फैन गर्म हवा फेंक रहा है । उसका अर्थ तो कभी था ही नहीं, जो  प्रयोजन था वह भी फ़िलहाल पूरा नहीं हो पा रहा !
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Friday, 3 June 2016

आनन्द

आनन्द क्या है ?
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(originally posted by me on my face-book page on June 4, 2015)  
नन्दो अथ कृष्णस्य पिता,
यशोदा इति तथा माता ।
एते तस्य धाताधात्र्यौ,
नन्दति तत्र स परमात्मा ॥
आनन्दयति अपि रमते चापि
यो उद्बभूव कारायाम् ।
नन्दयति तत्र च अत्रापि,
इति आनन्द-संज्ञकः ॥
देवकी स्यात् तस्य जननी
वसुदेवो आसीत् जनको तथा ।
कारागृहे द्वौ विबन्धीतौ,
कंसराज्ञा च मातुलेन ॥
स जीवो हि परमात्मा,
आनन्द-चित्-सत्-रूपा ।
यदा यदा हि उद्भवति,
संप्रसारयति आनन्दम्  ॥
स्वमाप्नोति स्वात्मनि च,
लीलया च स्वेन अपि ।
एतद्दृष्टम् स्वेन चैव,
आत्मना जगदीश्वरेण  ॥
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अर्थ :
नन्द और यशोदा कृष्ण के पालक माता-पिता हैं।
देवकी और वसुदेव, वासुदेव के जनक और जननी हैं,
जो कारागृह में कृष्ण के मामा कंस द्वारा बंदी बनाए गए हैं।
उस परमात्मा ने इस प्रकार जीवरूप से कारागृह में जन्म लिया।
आनंद उसका ही नाम है।
वही स्वयं आनंद है और दूसरों को भी आनंद देता है।
जब भी वह जन्म लेता है सर्वत्र आनंद ही फैलाता है।
कारागृह में भी और कारा से बाहर भी।
अनेक लीलाओं से आनंद में मग्न वह परमेश्वर अपनी ही आत्मा में जगत् को, तथा जगत् में अपने को ही देखता है।
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Thursday, 2 June 2016

कुतुब-मीनार

’कुतप-काल’
स्कन्द-पुराण के वर्णन के अनुसार (और ज्योतिष के प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार भी) दिन के द्वितीय-प्रहर की अन्तिम घड़ी और तृतीय प्रहर की प्रथम घड़ी इन दो घड़ियों की सम्मिलित अवधि ’कुतप-काल’ कही गयी है ।
दिल्ली में स्थित कुतुब-मीनार इसे ही दृक्-ज्योतिष के द्वारा प्रमाणित रूप से जाने हेतु किया गया है । ’मा’ > मिमीते (नापना) के आधार पर कुतुब-मीनार का यही प्रयोजन था । समीप ही स्थित अशोक की लाट वस्तुतः उसी समय निर्मित की गई थी ताकि जब सूर्य की स्थिति आकाश में इन दो (कुतुप-मीनार तथा लाट) की सीध में हो तो कुतुप-काल स्पष्ट हो सके । सम्भवतः बहुत बाद में सम्राट अशोक ने उस लाट पर अपने विचार उत्कीर्ण करवाए होंगे । शोध का विषय है ।
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Wednesday, 1 June 2016

भूलना !

भूलना !
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भूलना मस्तिष्क की एक स्वाभाविक और प्राकृतिक प्रक्रिया है, फ़िर भी मस्तिष्क (हम नहीं) उतनी ’मेमोरी’ सुरक्षित रखता है जिसकी ज़रूरत उसे (हमें नहीं) भविष्य में पड़ सकती है । ऐसा नहीं है कि मस्तिष्क ’भविष्य’ के अनुमान या किसी योजना के अन्तर्गत ऐसा करता है, बल्कि यह तो उसके ’सीखने’ की निरन्तर प्रक्रिया का एक छोटा सा हिस्सा होता है, जो ’स्मृति’ को जन्म देता और बनाए रखता है । फ़िर इसके समानांतर ’स्मृति’ में संचित ’पहचान’ पर आधारित ’अपना’ और ’अपने जगत्’ का एक नया रूप बनता है, जिसमें ’डर’, ’भूलना’, ’याद करना’, इच्छा, ’मोह’ अर्थात् ’भ्रान्त धारणाएँ’ आदि इकट्ठे हो जाते हैं, बाकी पूरा ’भवन’ इसी नींव पर खड़ा होता है, ... इसमें किसी ’स्थिरता’/ स्थायी तत्व की तलाश भी इसी ’मोह’ का एक परिणाम मात्र है ....
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(2 जून 2015 को मेरे फेसबुक पेज पर पोस्ट किया मेरा 'स्टेटस अपडेट')
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पुनश्च :
क्या यह रोमांचक और आश्चर्यप्रद भी नहीं है कि ’स्मृति’ जो स्वयं एक अनिश्चित तत्व है कैसे ’मस्तिष्क’ पर आधिपत्य स्थापित कर लेती है, और मस्तिष्क बिना किसी प्रतिरोध या विरोध के कैसे उसकी दासता स्वीकार कर लेता है? इसी ’स्मृति’ के अन्तर्गत एक धारणा होती है ’व्यक्तिगत-रूप’ में अपनी निज सत्ता की सत्यता की । निज सत्ता जो वस्तुतः नितान्त निर्वैयक्तिक है इस प्रकार से मस्तिष्क-केन्द्रित व्यक्ति से स्थानांतरित हो जाती है, और व्यक्ति-सत्ता ’अपना’ जीवन जीते हुए एक अन्तहीन प्रतीत होनेवाली दुविधा से ग्रस्त रहती है !  
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