Sunday, 29 May 2016

वेताल-कथा-1.

नई वेताल-कथाएँ
वेताल-कथा-1.
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
कृष्णपक्ष की रात्रि में जब क्षीणप्राय चन्द्रमा अस्त हो चुका था, दो घड़ी बीतते ही वह श्मशान में जा पहुँचा । चिता पर स्थित अधजले शव को उसने कंधे पर रखा और जंगली भूमि पर से, जहाँ कहीं रूखी घास, कँटीली झाड़ियाँ और नुकीले कठोर कंकड़ पत्थर थे, चलता हुआ गुरु के स्थान की ओर चल पड़ा । वहाँ से गुरु के स्थान तक जाने में घड़ी भर का समय लगता था ।
अन्धेरे में चलते हुए उसे बहुत सावधान होना पड़ता था क्योंकि जमीन पर अनेक ज़हरीले सर्प, बिच्छू और ऐसे दूसरे जीव थे जो रात्रि में शिकार के लिए निकलते थे, तो आकाश और वायु-मार्ग से जानेवाले अनेक उलूक, चर्मगात्र (चमगादड़), और अदृश्य निशाचर भी थे । उन अदृश्य निशाचरों से, या धरती के इन जीवों से उसे कदापि भय न था क्योंकि वह जानता था कि मृत्यु अपने निर्धारित समय से पहले या बाद में नहीं होती । दूसरी ओर उसके पास गुरु का दिया तद्बीज (ताबीज) भी था जिससे उसे इस विषय के बारे में सोचना ही नहीं था ।
कभी-कभी कोई सिद्ध-पुरुष या दिव्य आत्माएँ आकाश-मार्ग से जाते हुए अपने पीछे द्युति की एक किरण-रेखा छोड़ती जाती थीं, तो कभी कुछ तान्त्रिक शक्तियाँ, कुछ अतृप्त आत्माएँ वैसे ही गिरकर भूमि पर लौट जातीं जैसे योगभ्रष्ट योगी । इन दोनों के बीच भी कितने ही प्रकार के देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर आदि थे और चूँकि यह महाश्मशान चिरकाल से भगवान् शिव की रमण-भूमि रहा है इसलिए भी उन सब शिव-भक्तों का यहाँ आवागमन होना स्वाभाविक था ।
"राजन्! तुम संकल्प के धनी हो, किन्तु संकल्प ही सिद्धि का एकमात्र साधन नहीं होता । कुछ दूसरी ऐसी बाधाएँ होती हैं जिनसे संकल्प टूट जाता है । तुम्हारे श्रम के विस्मरण और मनोरंजन के लिए मैं तुम्हें यह कथा सुनाता हूँ । ध्यान देकर सुनना ..."
एक बार भगवान् शिव अपने आसन पर विराजमान थे, माता पार्वती, भगवान् गणेश और भगवान् स्कन्द भी उनके समीप ही थे । मयूर, सर्प, मूषक, वृषभ और सिंह परस्पर निर्भय होकर आनन्दपूर्वक बैठे हुए थे ।
तभी देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे ।
भगवान् की वन्दना करने के उपरान्त जब भगवान् ने उनकी कुशल-क्षेम पूछी तो वे बोले :
"भगवन् ! मेरे मन में एक जिज्ञासा है जिसे आप ही शान्त कर सकते हैं । ऐसा कहा जाता है कि अपनी स्तुति देवताओं को भी प्रिय होती है ! भगवान् नारायण, माता लक्ष्मी, स्वयं भगवान् ब्रह्मा भी स्तुति से संतुष्ट होकर वरदान देते हैं । आप तो औढर-दानी ही हैं ।
किन्तु इस सत्य को जाननेवाले कुछ लोग इसका दुरुपयोग अपने कुत्सित और कुटिल प्रयोजनों की प्राप्ति के लिए भी करते हैं, जिनसे संसार का प्रायः अहित ही होता है और संसार पर घोर संकट भी आ खड़े होते हैं । भस्मासुर का उदाहरण तो आपके सामने ही है । यह जानते हुए भी देवता अपनी आराधना करनेवालों को वरदान क्यों दे देते हैं?"
"हे राजन् ! यदि तुम जानते हो तो मेरे इस प्रश्न का सही-सही उत्तर दो । यदि जानते हुए भी तुम इसका उत्तर न दोगे तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा ।"
तब राजा विक्रम ने कहा :
"यह सच है कि अपनी स्तुति से देवता भी प्रसन्न होते हैं फिर हम मनुष्यों की क्या बिसात! यह भी सच है कि स्तुति या प्रशंसा सत्य या असत्य भी हो सकती है और अपने शुभ-अशुभ प्रयोजन की सिद्धि के लिए कुछ लोग इसका दुरुपयोग भी करते हैं । देवता और ज्ञानीजन, ऋषि-महर्षि भी इस तथ्य से अवगत होते हैं, किन्तु जहाँ देवता भक्ति के प्रभाव में वरदान देने के लिए विवश होते हैं वहीं ऋषि-महर्षि स्तुति-निन्दा से अलिप्त होने के कारण, और कर्तृत्व-भाव तथा संकल्प आदि से रहित होने से अपनी स्तुति, प्रशंसा या निन्दा से अप्रभावित रहते हैं । भगवान् शिव और नारायण, लक्ष्मी और अन्य देवता सृष्टि के विधान का पालन करते हुए वरदान दे देते हैं । किन्तु सामान्य मनुष्य प्रायः मोह-बुद्धि के कारण अपनी स्तुति, सच्ची-झूठी प्रशंसा से धोका खा जाता है और स्वयं अपने लिए भी विपत्ति खड़ी कर लेता है । श्रेष्ठ साधक इस विषय में सतर्क रहता है । जहाँ भगवान् शिव का कोई शत्रु नहीं है, वहीं भगवान् नारायण का भी कोई शत्रु नहीं है किन्तु कुछ लोग उनकी भक्ति शत्रु-भाव से करते हैं, और इस प्रकार जाने-अनजाने ही उनका स्मरण करते हैं ।"
राजा का मौन भंग होते ही उसके इस उत्तर को सुनकर शव में स्थित वेताल शव को छोड़कर पुनः अपने उस वृक्ष पर लौट आया, जहाँ से वह उस मृत शव में प्रविष्ट हुआ था ।
(कल्पित)
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Thursday, 26 May 2016

यह्व / YHVH / yod-he-vau-he /יהוה,

यह्व / YHVH / yod-he-vau-he / יהוה,
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We find, the above word is perhaps used first time in Rigveda Madala 10, 036/01.
संस्कृत यह्वः (पुं.) / यह्वी (स्त्री.)
ऋग्वेद 1/036/01
प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् ।
We find, the above word is perhaps used last time in the  Rigveda Madala 10, 110/03.
ऋग्वेद 10/110/03
त्वं देवानामसि यह्व होता ...
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The last mention of  यह्व / YHVH /yod-he-vau-he is used as an address to Lord Indra, though Rigveda Mandala 1.164.46 clearly explains all these  devatA are different names and forms of the same Lord (Ishvara)
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्नि माहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद्विप्रा बहुधा  वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥
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ऋग्वेद 10/110/03
Accordingly the above mantra in veda categorically defines 'Who' is 'यह्वः (पुं.)' / YHVH / yod-he-vau-he / יהוה,
I strongly feel this the conclusive evidence that puts to rest all further doubt and discussion, / speculation about 'God'.
त्वं देवानामसि यह्व होता ...
twaM devAnAM asi hotA ...
in Sanskrit clearly means that 'यह्वः' is either the priest to 'devatA-s' or the one who Himself performed vedika sacrifice especially in Agni / Fire for them.
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There are at least more than 30 places in entire Rigveda, where  'यह्वः' finds a mention.
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And the first time we find यह्वीः / 'yahwI:' in Rigveda is here -
ऋग्वेद
1.059.04
बृहती इव सूनवे रोदसी गिरो होता मनुष्यो3 न दक्षः ।
स्वर्वते सत्यशुष्माय पूर्वीवैश्वानराय नृतमाय यह्वीः
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Obviously, this  'यह्वीः' is in accusative plural case of  'यह्वी' feminine.
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बेताल-पच्चीसी और अपरोक्षानुभूतिः

बेताल-पच्चीसी और अपरोक्षानुभूतिः
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बेताल-पच्चीसी या सिंहासन-बत्तीसी शायद पंचतन्त्र से अधिक रोचक और गूढ हैं ।
बचपन में जब इन्हें पढ़ा करता था तो मेरी रुचि और उत्सुकता सिर्फ़ बेताल या पुत्तलिका के प्रश्न और राजा (विक्रम या भोज) के द्वारा दिए जानेवाले उसके उत्तर को सुनने-पढ़ने तक सीमित रहा करती थी । जब मैं कुछ बड़ा हुआ अर्थात् कॉलेज में पढ़ने लगा तो मुझे ’यक्ष-प्रश्न’ अधिक गंभीर और विचारणीय लगने लगा था ।
कॉलेज की शिक्षा पूर्ण होते-होते ’विचार’ के वर्तुल से मेरा मोहभंग हुआ और ’विचार’ तथा ’विचार’ का महत्व और उनका परस्पर भेद स्पष्ट हुआ ।
मुझे लगता है कि भगवान् श्री रमण की शिक्षाओं से इसका प्रारंभ हुआ । उनके ’आत्म-विचार’ के उपदेश को समझने में मुझे कुछ समय लगा और सर्वाधिक आश्चर्यजनक और हास्यास्पद बात यह भी थी कि इस बीच ’विचार’ (वृत्ति) और ’विचार’ (अनुसंधान) इन दोनों गतिविधियों के लिए इस एक ही शब्द के प्रयोग से जो भ्रम उत्पन्न होता है, उस भ्रम तक से मैं अनभिज्ञ था ।
संक्षेप में,
विचार अर्थात् ’विचरण’ का एक अर्थ होता है चलना, घूमना, भटकना जो सही / गलत दिशा में हो सकता है । ’वृत्ति’ इस प्रकार के विचार का दूसरा नाम है । पातञ्जलि ने योग-दर्शन में इसी वृत्ति के निरोध को ’योग’ कहा है । तात्पर्य है चित्त का वृत्ति-मात्र से रहित होना । किन्तु इसका अर्थ निद्रा / स्मृति नहीं है, यह भी उन्होंने स्पष्ट कर दिया है । किन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थ को इसी प्रयोजन (वृत्ति-निरोध) तक सीमित रखा है । संभवतः इसलिए कि अपरिपक्व साधक इस ध्येय तक पहुँचने के बाद इतना परिपक्व हो सके कि ’किसकी वृत्ति?’ यह प्रश्न उसकी बुद्धि में उत्पन्न हो । पर्यायतः ’मैं कौन?’ यह जिज्ञासा उसमें जागृत हो उठे ।
यह ’मैं कौन?’ का प्रश्न वृत्ति / वैचारिक प्रक्रिया से भिन्न एक ऐसा मोड़ है जो ’स्वरूप’ / ’आत्मा’ के तत्व को जानने की अभीप्सा का व्यक्त रूप है । तमिल भाषा में ’नान् यार्’ / मराठी भाषा में ’मी कोण?’, संस्कृत में ’कोऽहम्?’, गुजराती में ’हुँ कोण?’ इन प्रश्नवाचक वाक्यों में ’हूँ’ का पुट नहीं होता । इसे ही हिंदी में ’मैं कौन?’ के रूप में व्यक्त किया जाना अधिक उपयुक्त होगा । यह आत्म-जिज्ञासा है न कि वैचारिक कोलाहल । जब हमें किसी ऐसी वस्तु / व्यक्ति के स्वरूप के बारे में जानना होता है जिससे हम अनभिज्ञ हैं, तो हम ’क्या’ / ’कौन’ शब्द का प्रयोग करते हैं  । इस ’अनुसंधान’ को भी वेदान्त में ’विचार’ कहा जाता है । आदि शङ्कराचार्य के
शब्दों में ’विचारो सोऽयमीदृशः’ (अपरोक्षानुभूतिः श्लोक 10 से 16)
रोचक बात यह है कि ’विचार’ शब्द का प्रयोग मराठी भाषा में भी प्रायः इस अर्थ में भी किया जाता है ।
<मला / त्याला / तिला / तुला / त्यांना विचार! > इस वाक्य का हिन्दी अनुवाद होगा :
<मुझसे / उससे (पुँ) / उससे (स्त्री.) / तुमसे (स्वयं से) / उनसे पूछो!>
इसी प्रकार मलयालम भाषा में ’पूछने’ के लिए ’चोदिक्कणम्’ या ’शोधिक्कणम्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । जिसकी व्युत्पत्ति संभवतः संस्कृत धातु ’चुद्’ > चोदयति > प्रेरणा देना या ’शुध्’ > शुध्यति / शोधयति में देखी जा सकती है । गायत्री-मंत्र में यही धातु ’प्रचोदयात्’ के रूप में देखी जा सकती है ।
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अब हम लौटें बेताल-पच्चीसी की ओर !
’राजा’ विक्रमार्क हमारी आत्मारूपी हमारा वास्तविक तत्व है, ’देह’ वह शव है जिसे हम ’अज्ञानवश’ ढोते रहते हैं, ’मन’ ’शव’ में स्थित बेताल है जो हमें मिथ्या प्रश्नों में भ्रमित करता रहता है । ’गुरु’ वह शिक्षक है जिसकी शरण में हम अपनी ’सिद्धि’/ मुक्ति के लिए जाते हैं । यदि हम जानते हुए भी मन के वास्तविक प्रश्नों का ठीक उत्तर नहीं देते तो हमारे सिर (बुद्धि) के टुकड़े-टुकड़े हो सकते / हो जाते हैं । और वास्तविक प्रश्न का संतोषजनक उत्तर दिए जाते ही 'शव' / देह में स्थित 'बेताल' / मन शव को छोड़कर चला  जाता है ।  
संक्षेप में, अनेक बार इस बेताल-कथा की यह व्याख्या मुझे संतोषजनक लगी ।
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Sunday, 22 May 2016

एष धर्मः सनातनः ॥ सनातन धर्म एक, परम्पराएँ दो !

एष धर्मः सनातनः ॥
सनातन धर्म एक, परम्पराएँ दो !
धम्मपदम्
पालि [1.5] यमक
न हि वेरेण वेराणि
सम्मन्तीध कुदाचनम् ।
अवेरेण च सम्मन्ति
एस धम्मो सनन्तनो ॥
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पटना 253 [14.5] खान्ति
न हि वेरेण वेराणि
शामन्तीह कदाचनम् ।
अवेरेण तु शामंति
एस धंमो सनातनो ॥
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उदानवर्ग 14.11 द्रोह
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यतीह कदा चन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मूलसर्वास्तिवादिविनय
(गिल्गित III.ii.184)
न हि वैरेण वैराणि
शाम्यन्तीह कदाचन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति
एष धर्मः सनातनः ॥
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मनुस्मृति:
अध्याय 4, श्लोक 138,
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥
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स्पष्ट है कि संस्कृत का आधार न लेने पर पालि की क्या स्थिति होती । हिंदुत्व और बौद्ध धर्म सनातन धर्म की ही शाखाएँ हैं । संस्कृत जहाँ शास्त्रीय भाषा है जिसे सीखने जानने समझने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता होती है, वहीं संस्कृत से उपजी पालि लोकभाषा के समीप है ।
इसलिए जब हम 'हिंदुत्व' को  धर्म की तरह स्वीकार करते हैं तो जाने-अनजाने बुद्ध की परंपरा को बौद्ध धर्म कहकर दोनों ही को सनातन धर्म से तोड़ देते हैं । और यही पेंच है जिसे समझने में हमारे बड़े बड़े विचारक भी देख नहीं पा रहे । इसलिए 'हिंदुत्व' की राजनीति  मीठी छुरी या मीठा ज़हर है  सनातन धर्म के लिए भयावह हानिकारक है ।  'हिंदुत्व' को 'धर्म' कहते ही जैन, सिख धर्म भी इसी तरह हिंदुत्व से टूट कर अलग हो जाते हैं जबकि अपने मूलस्वरूप में वे सनातन धर्म ही शाखाएँ हैं । डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने हिंदू धर्म को त्यागकर बौद्ध धर्म ग्रहण लिया क्या उन्होंने सनातन धर्म को त्याग दिया ? सनातन धर्म के ॐ को शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर, गाणपत्य नहीं, जैन, सिख आदि भी परम महत्वपूर्ण स्थान देते हैं ।
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The Spirit behind The Teachings of Lord Buddha.

Buddha was born as Siddhartha सिद्धार्थ, to His Parents Shuddhodhana शुद्धोधन,  and MAyAdevI (मायादेवी), at Kapilavastu (कपिलवस्तु) in the Kingdom of Nepal (नेत्रपाल). The names indicate He was a born 'JnAnI' (ज्ञानी). The name 'Kapilavastu' (कपिलवस्तु) indicates He was an 'avatAra' (अवतार) of 'Kapilmuni' (कपिलमुनि) the Father of 'sAnkhya-darshana' (सांख्य-दर्शन). It is very important to know that The 2nd chapter of Shrimadbhagvadgita (श्रीमद्भगवद्गीता) is about ‘sAMkhya-darshana' (सांख्य-दर्शन)’ of ‘Kapila’(कपिलमुनि), and many great scholars are of the view that this chapter 2nd concludes the text that has been elucidated only further in the following chapters of  Shrimadbhagvadgita (श्रीमद्भगवद्गीता). The Sanskrit (संस्कृत) word 'darshana' (दर्शन) means vision / sight and not 'philosophy' as we have been taught and never questioned. 'MAyA' (माया) indicates He was son of a mother who exists not. 'Shuddhodhana'(शुद्धोधन) indicates His Father was the Pure spirit mind and intelligence (prajnA) (प्रज्ञा) / Wealth that is never lost, imperishable 'Self' (आत्मन् /ब्रह्मन्). Accordingly, as Kapila-muni (कपिलमुनि), Buddha (गौतम बुद्धा) didn't speak / debate about the existence of 'Ishvara' 'ईश्वर' / 'Atman' (आत्मन् /ब्रह्मन्), though He indirectly referred to 'Atman' (आत्मन् /ब्रह्मन्) in His sermons (श्रवणम् in संस्कृत), like 'Appa dIpo bhava' 'अप्प दीपो भव'/ पालि, 'आत्मदीपो भव'/संस्कृत . Because 'Atman' / आत्मन् is irrefutable Reality no one could ever deny or doubt about. Though Kapila कपिलमुनि talked of 'puruSha' पुरुष as the only Reality, He accepted 'prakriti'/ प्रकृति as the 'vyAvahArika satya' (व्यावहारिक सत्य). But It is the 'puruSha' (पुरुष) who is the only evidence for 'prakriti' (प्रकृति), प्रकृति as such is inert and does not have an individual consciousness though every single being (living object) owes an inherent consciousness (चैतन्य) of oneself and the world around it. 'gau' गौ  is another name of 'prakriti' (प्रकृति) 'Gautama' (गौतम) means the essence of 'prakriti' प्रकृति  i.e. 'puruSha' (पुरुष). 'God' of English 'Gott' in German has roots in this word 'gau'(गौ)  'Gautama' (गौतम). Its not coincidence that Buddha was addressed as BhagavAn (भगवान) or Lord Supreme. Another name for BhagavAn (भगवान) or Lord Supreme is 'ViShNu' (विष्णु). This was the reason He was accepted as an 'avatAra' (अवतार) of Lo'rd Vishnu (भगवान विष्णु) in 'purANa' (पुराण). 'purANa (पुराण) is but elucidated version of वेद . Lord Buddha objected the spirit of violence not the action, because action could never be free from killing in one or other form. But empathy and compassion towards all that exists is the real foundation of the teachings of Buddha that one could understand and follow too.
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Saturday, 21 May 2016

The Contrast

The Contrast
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असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी ।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तवगुणानामीश पारं न याति ॥
(गन्धर्वराजपुष्पदन्तविरचितंशिवमहिम्नःस्तोत्रं :32)
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अर्थ :
यदि समुद्ररूपी पात्र में काजल का बना एक विशाल पहाड़ हो,
और, यदि सारे वृक्षों की शाखाओं से बनी एक लेखनी हो,
यदि समूची धरती ही विशाल पृष्ठ रूपी एक कागज़ हो,
पूरे समय सरस्वती उस लेखनी से उस पर लिखती रहें,
तो भी परमेश्वर तुम्हारे अनंत गुणों का पार नहीं पाया जा सकता ॥
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asiragirisamaṃ syāta kajjalaṃ sindhupātre
surataruvaraśākhā lekhanī patramurvī |
likhati yadi gṛhītvā śāradā sarvakālaṃ
tadapi tava guṇānāmīśa pāraṃ na yāti ||
(gandharvarājapuṣpadantaviracitaṃśivamahimnaḥstotraṃ :32)
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Meaning :
If The ocean is made an ink-pot,
Where a mountain-load of lampblack is kept, 
If all the twigs of all the trees,
Were made into a writing-pen,
If Goddess Saraswatī writes on all the time,
Upon the paper that is the face of earth, 
Could not be able to describe,
Your virtues are so infinite, O Lord!
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If all the trees .....
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If all the seas were one sea,
What a great sea that would be!
If all the trees were one tree,
What a great tree that would be!
If all the axes were one axe,
What a great axe that would be!
If all the men were one man,
What a great man he would be!
And if the great man took the great axe,
And cut down the great tree,
And let it fall into the great sea,
What a great splash-splash that would be!
(by Janina Domanska)
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Tuesday, 17 May 2016

सोचने के लिए -4

सोचने के लिए -4 
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शंस् > शंस्यते > प्रशंसा करना > to praise, to appreciate,
न-शंस् / नि शंस् > अविद्या (मिथ्या ज्ञान / जानकारी) > nescience,
śaṃs > śaṃsyate > na-śaṃs / ni śaṃs
> Science > Nescience > अव नि शंस् ava ni śaṃ s > innocence, the state of mind prior to acquisition of 'knowledge'.
Thus, a pure mind is devoid of knowledge and what is acquired by a man through society is but worldly knowledge / concepts only. When one is just a child he is innocent because absence of this acquired knowledge. But the latent tendencies soon get accommodated with this knowledge / information and one has to strive hard to overcome this and re-connect to the earlier state of innocence that he had while he was not indoctrinated by 'knowledge'. This knowledge is useful but not true wisdom.
Shedding off from mind all conditioning is needed to re-join that pure innocence, the pristine state of awareness one was born with.
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Compare :
नवसंत > नव सन् > नवजात,
> nascent > new-born, newly formed as in
nascent Hydrogen (used in production of vegetable ghee for commercial purpose)
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सोचने के लिए -3

सोचने के लिए -3
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जिसमें थोड़ी भी समझ होती है, वह छल-कपट, लोभ-लालच, ईर्ष्या-द्वेष, भूत-भविष्य की कल्पना / डर से मोहित नहीं होता । संक्षेप में वह राजनीति से कोसों दूर होता है । फिर नेता होना तो उसके लिए और भी मुश्किल है । नासमझ ही नेता बनते हैं क्योंकि वे अपनी कल्पना की ’दुनिया’ आदर्श, लक्ष्य, महत्वाकाँक्षा को ही एकमात्र सत्य  / सच समझते हैं और उसे ’सुधारना / बिगाड़ना’ चाहने लगते हैं । कई तरीकों से, यहाँ तक कि ’धर्म’ या ’अध्यात्म’ की अपनी व्याख्या से भी । तब उन्हें 'गुरु', 'धर्मगुरु', 'आचार्य', 'इमाम', 'पोप', 'रब्बाई' 'अवतार', 'महर्षि', 'संत', 'भगवान', 'Savior', 'Prophet' आदि भी कहा / समझा जाने लगता है  ।
थोड़ा भी समझदार मनुष्य इस जाल को सरलता से देख / समझ सकता है । क्योंकि सरलता श्रेष्ठतम विवेक और प्रज्ञा है ।      
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Cryptic Clues.

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ-स्वाम् ॥
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(कठोपनिषद् 1/2/23, मुण्डकोपनिषद् 3/2/3)
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nāyamātmā pravacanena labhyo
na medhayā na bahunā śrutena |
yamevaiṣa vṛṇute tena labhya-
stasyaiṣa ātmā vivṛṇute tanūm̐-svām ||
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(kaṭhopaniṣad 1/2/23, muṇḍakopaniṣad 3/2/3)

Looks cryptic, ...
There are 'two' entities :
the 'self' / 'person', the apparent  illusory / entity, which has but a conceptual existence and which keeps emerging out from and disappearing into the True Being 'The Self'.
This shloka explains this fact in two ways.
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य could be thought of being applicable to both these entities in different ways. And as the 'self' is but the shadow-existence while 'Self' The True, contemplating the above shloka in these two ways helps immensely in understanding the true purport of the shloka.
When the 'self' / 'person' seeks what it is made of, it soon finds out it is of the nature of a flux / phenomenal appearance. But the Support where-in this phenomenon happens is The 'Self', stable, firm foundation.
When That foundation removes the ignorance of the 'person', and abides in its Reality, it is its 'Freedom' from the apparent / illusory 'person'.
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My mind is confused, yet I am convinced I know (my?) mind.
Though I inadvertently, because of my negligence of this fact,
mistake myself for the mind, I at once also know clearly,
without least doubt :
<I'm not mind> .
When I solve this riddle, in a split second I embrace my True identity.
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Monday, 16 May 2016

Fibonacci Sequence.

Fibonacci Sequence.
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छन्दोनुशासनम् by आचार्य हेमचन्द्र around 1150 A .D .
describes Fibonacci Sequence in the following words :
अथ मात्रा-विकल्पानां संख्यामाह -
(Now is enunciated the derivation of the next numbers in the sequence from the earlier two.)
विभानाक्षि शक्वंशः
vibhānākṣi śakvaṃśaḥ
(Fibonacci Sequence.)
The Sanskrit word विभानाक्षि means one who has a talented eye (vision).
The Sanskrit word śakvaṃśaḥ means the possible next generation.
अङ्क-अन्त्य-उपान्त्य-योगः परे पत्रे मात्राणाम् ॥16॥
the next number of the sequence is the sum of the earlier two numbers in the sequence.
अङ्कानां एक-द्वि-आदीनां यौ अन्त्य-उपान्त्यौ तयोः योगः परस्पर मीलनं परे परे स्थाने न्यस्तौ मात्राणां सङ्ख्या भवति ।
starting from 0,
0+1 > 2,
1+2 > 3,
2+3 > 5,
3+5 > 8,
5+8 > 13,
8+13 > 21,
13 + 21 > 34,
and so on.

यथा - द्वि-एकयोः अन्त्य-उपान्त्ययोः योगे त्रयः परस्थाने न्यस्ताः त्रिमात्रस्यविकल्पसङ्ख्या । द्विक्-त्रिकयोः योगे पञ्च परे स्थाने न्यस्ताः चतुर्मात्रस्य विकल्पसङ्ख्या । पञ्चकत्रिकयोः योगे अष्टौ परे स्थाने न्यस्ताः पञ्चमात्रस्य विकल्पस्ङ्ख्या ।
अष्टक-पञ्चकयोः योगे त्रयोदश परे स्थाने न्यस्ताः सप्तमात्रस्य विकल्पसङ्ख्या । एकविंशति त्रयोदशयोः योगे चतुस्त्रिंशत् परे स्थाने न्यस्ताः अष्टमात्रस्य विकल्पसङ्ख्या ।
स्थापना -
1/2/3/5/8/13/21/34....
एवम् उत्तरत्र अपि ॥16॥
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Sunday, 15 May 2016

Sri Ramana Talks

Talks with Sri Ramana Maharshi :
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Talk 389.
April 6, 1937
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With regard to presents to Sri Bhagavan, He observed: Why do they
bring presents? Do I want them? Even if I refuse they thrust presents
on me. What for? If I accept them I must yield to their wishes. It is
like giving a bait to catch the fish. Is the angler anxious to feed the
fish? No, he is anxious to feed on the fish.
Swami Lokesananda, a sannyasi: What is meant by jnana ज्ञान and vijnana विज्ञान ?
M.: These words may mean differently according to the context.
Jnana ज्ञान = samanya jnana सामान्य ज्ञान or Pure consciousness शुद्ध बोध.
Vijnana विज्ञान = Visesha jnana विशेष ज्ञान. Visesha विशेष  may be (1) लौकिक / भौतिक / material / worldly (relative knowledge); and
(2) transcendental (Self-Realisation) आत्मज्ञान .
Mind is necessary for visesha; it modifies the purity of absolute
consciousness. So vijnana represents intellect (बुद्धि) and the sheath (कोष)
composing it, i.e., relative knowledge. In that case jnana is common
(samanya) running through vijnana / विज्ञान, samjnana / संज्ञान, prajnana / प्रज्ञान, ajnana / अज्ञान,
mati / मति , dhirti / धृति - different modes of knowledge (vide: Aitareyopanishad / ऐतरेय उपनिषद् ,
Chapter 3) or jnana is paroksha / परोक्ष (hearsay) and vijnana is aparokska अपरोक्ष (immediate/direct)
(direct perception) as in jnana vijnana triptatma (ज्ञान-विज्ञान-तृप्तात्मा), one perfectly
content with jnana and vijnana.
D.: What is the relation between Brahman (ब्रह्म) and Isvara ईश्वर ?
M.: Brahman is called Isvara in relation to the world.
D.: Is it possible to speak to Isvara as Sri Ramakrishna did?
M.: When we can speak to each other why should we not speak to
Isvara in the same way?
D.: Then why does it not happen with us?
M.: It requires purity and strength of mind and practice in meditation.
D.: Does God become evident if the above conditions exist?
M.: Such manifestations are as real as your own reality. In other words,
when you identify yourself with the body as in jagrat जाग्रत you see gross
objects; when in subtle body or in mental plane as in svapna / स्वप्न, you
see objects equally subtle; in the absence of identification as in sushupti सुषुप्ति / deep sleep you see nothing. The objects seen bear a relation to the state of the seer.
The same applies to visions of God.
By long practice the figure of God, as meditated upon, appears in dream and may later appear in jagrat also.
D.: Is that the state of God-realisation?
M.: Listen to what happened once, years ago.
There was a saint by name Namdev / नामदेव . He could see, talk and play
with Vithoba as we do with one another. He used to spend most of
his time in the temple playing with Vithoba.
On one occasion the saints had assembled together, among whom was
one Jnandev ज्ञानदेव / ज्ञानेश्वर of well-established fame and eminence.
Jnandev / ज्ञानदेव / ज्ञानेश्वर asked Gora Kumbhar / गोरा कुंभार (a potter-saint) to use his proficiency in testing the soundness of baked pots and find out which of the assembled saints was properly baked clay. So Gora Kumbhar took his stick and gently struck each one’s head in joke as if to test. When he came to Namdev / नामदेव,  the latter protested in a huff; all laughed and hooted. Namdev /नामदेव was enraged and he sought Vithoba / विठोबा in the temple. Vithoba / विठोबा said that the
saints knew best; this unexpected reply upset Namdev नामदेव all the more.
He said: You are God (भगवान). I converse and play with you. Can there be anything more to be gained by man?
Vithoba / विठोबा persisted: The saints know.
Namdev / नामदेव : Tell me if there is anything more real than you.
Vithoba: We have been so familiar with each other that my advice
will not have the desired effect on you. Seek the beggar-saint in  
the forest and know the truth.
Accordingly Namdev sought out the particular saint mentioned
by Vithoba. Namdev was not impressed with the holiness of the
man for he was nude, dirty and was lying on the floor with his feet
resting on a linga.
Namdev wondered how this could be a saint. The saint, on the
other hand, smiled on Namdev and asked, “Did Vithoba send you
here?” This was a great surprise to Namdev who was now more
inclined to believe the man to be great.
So Namdev asked him: “You are said to be a saint, why do you
desecrate the linga?” The saint replied. “Indeed I am too old and
weak to do the right thing. Please lift my feet and place them where
there is no linga.” Namdev accordingly lifted the saint’s feet and
placed them elsewhere. But there was again a linga below them.
Wherever the feet were placed then and there appeared a linga
underneath. Namdev finally placed the feet on himself and he turned
into a linga. Then Namdev understood that God was immanent and
learnt the truth and departed. He went home and did not go to the
temple for several days. Vithoba now sought him out in his home
and asked why Namdev would not go to the temple to see God.
Namdev said: “Is there a place where He is not?”
The moral of the story is clear. Visions of God have their place
below the plane of Self-Realisation.

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Saturday, 14 May 2016

#PIE

just now discovered this !
ऋत् > ṛt > truth
अनृत् > anṛt > untruth.
Could we consign #PIE to dust-bin?
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Thursday, 12 May 2016

सोचने के लिए -2

सोचने के लिए -2
प्रेतवाद और अध्यात्म
Spiritualism and Spirituality
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सनातन धर्म में 'ईश्वर' को अपरिभाषित की श्रेणी में रखा गया है । अस्तित्व के तीन क्रमशः व्यक्त तलों अर्थात् आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक के बारे में विस्तार से विचार और विवेचना की गई है और इसलिए 'मृत्यु' के बाद मनुष्य को कौन सी गति प्राप्त होती है इसे भी क्रमशः आधिदैविक और आध्यात्मिक सन्दर्भ में स्पष्ट किया गया है । 'ईश्वर' का वर्णन जहाँ एक ओर 'ईशिता' अर्थात् उस आदि कारण और शक्ति के रूप में भी किया गया है, वहीं उसके 'एक' (1) अथवा 'अनेक' (एक से अधिक) होने की संभावना पर कोई निष्कर्ष न निकालते हुए उसके स्वरूप को  'एक' (1) अथवा 'अनेक' (एक से अधिक) से विलक्षण  (unique) कहा गया है । इसका एक स्पष्ट कारण भी है, कि वह 'ईश्वर'-तत्व व्यक्त और अव्यक्त दोनों स्तरों पर अस्तित्व का विधाता है । वह 'संज्ञा' भी है, 'क्रिया' भी है और क्रिया-विशेषण भी । वह व्यक्त रूप में वह काल और स्थान भी है, तथा अव्यक्त रूप में उनका भी कारण है ।
उसके स्वरूप का वर्णन शिवाथर्वण में इस प्रकार है :
"... अक्षरात् सञ्जायते कालः कालात् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः ।  उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपो अप्सु अङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोः ॐ कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति । ..... ॥६
'सृष्टि' प्रक्रिया का इतना स्पष्ट वर्णन !
'अक्षर' / 'अच्युत' / अविनाशी परमात्मा से 'काल' उद्भव होता है, उससे 'काल' का उद्भव होने से से उसे व्यापक कहा जाता है  अर्थात् 'काल' से 'स्थान' अस्तित्व में व्यक्त होता है । वही परमात्मा जब भोग में संलग्न होता है, तब व्यक्त / व्यापक होता है। और वही जब सुषुप्त अर्थात् 'अव्यक्त' स्थिति में लौट जाता है तो व्यक्त जगत को अपने भीतर समेट लेता है । चूँकि वह 'अक्षर' / 'अच्युत' / अविनाशी है, इसलिए सृष्टि-रचना और सृष्टि के लय से उसमें कोई विकार नहीं आता । इसलिए वह मृत्यु भी है और काल भी, ब्रह्मा,विष्णु, स्कन्द, इंद्र, अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, अष्टग्रह (8 planets) अष्ट-प्रतिग्रह (8 complementary planets / counter-parts),  भू, भुवः, स्वः, महः, पृथिवी (लोक), अंतरिक्ष (लोक), द्यु (लोक), आपः (तत्व / महाभूत), तेजः (तत्व / महाभूत), काल, यम, मृत्यु, अमृत, आकाश (तत्व / महाभूत), विश्व (अखिल व्यक्त जगत), स्थूल, सूक्ष्म, शुक्ल, कृष्ण, कृत्स्न (निखिल), सत्य (लोक) सर्व (समष्टि) भी  वही है ।
यह हुआ परमात्मा का आदिपुरुष के रूप में father-principle के रूप में वर्णन ।
दूसरी ओर 'देव्यथर्वण' में 'मातृतत्व' के रूप में देवी का वर्णन इस प्रकार है  :
"... एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। .. . "
स्पष्ट कि वह परमात्मा तत्व एक भी है और एक नहीं भी है । उसे 'एक' कहना तर्क की दृष्टि से भी असंगत है क्योंकि तब जो उसे एक कह रहा है उसकी सत्ता की उस परमात्मा तत्व से पृथक् स्वतंत्र सत्यता स्वीकार कर ली जाती है । अतः सनातन धर्म 'एकेश्वरवाद' इस रूप में अंतिम सत्य नहीं मानता ।
किन्तु जब अनेक उपाधि-सत्ताओं (33 कोटि / प्रकार) के औपचारिक 'देवता' तत्व के रूप में उसी परमात्मा के कार्य  देखा जाता है तो प्रत्येक ही उसका विशिष्ट रूप मानकर उनके माध्यम से परमात्मा ही स्तुति / उपासना  है । ये 'देवता' जो अदिति की संतान हैं, और उन्होंने ही अदिति को जन्म दिया, इसमें विसंगति नहीं बल्कि उनकी परस्पर अनन्यता का वर्णन है ।
प्रथम अर्थ में  देवी ने देवताओं के तेज से व्यक्त (दुर्गा) रूप ग्रहण किया ।
"देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपा पशवो वदन्ति ..(10)"
इससे  स्पष्ट जाता है कि  देवताओं का रूप वर्ण-ध्वन्यात्मक (phonetic) है और उससे उस भाषा का उद्भव हुआ जिसे पशु (बद्ध जीव) प्रयोग करते हैं ।
दूसरे अर्थ में
"अदितिः (कर्ता) हि अजनिष्ट दक्ष (सम्बोधन) या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वजायन्त (अनु अजायन्त) भद्रा अमृत बन्धवः ॥ "
(13)
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यह 'देववाद' भी आधिदैविक का एक रूप है, तो प्रेतवाद भी आधिदैविक का एक अन्य रूप ।
'देवता तत्व' नित्यसत्य है जैसे विज्ञान के नियम, जबकि प्रेत-तत्व (spirit) काल-स्थान के अंतर्गत व्यक्त और अव्यक्त होते रहनेवाला, अनित्य सत्य ।
बेबीलोन (Babylon) > भव्यलोकं,  और माया (Maya), अष्टक (Aztec) प्रेतवाद और मृत्यु के बाद 'आत्मा' को उसी भौतिक रूप में स्वीकार करते हैं, जैसा की वह देहरूप में मृत्युपूर्व था । Masonic (श्मशानिक) भी इसी का एक और प्रकार है ।
संक्षेप में :
ऋषि कश्यप की दो पत्नियों अदिति और दिति से क्रमशः 12 आदित्य और दैत्यों का जन्म हुआ । यह संयोग नहीं है कि अंग्रेज़ी भाषा में 'Deity' का अर्थ 'उपास्य' होता है । संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद करते समय विदेशियों तथा  भारतीय विद्वानों ने भी 'अधिष्ठाता देवता' का अनुवाद 'presiding-deity' किया है, जो अत्यन्त भ्रामक प्रयोग है ।  सनातन धर्म के देवता, पौराणिक ग्रंथों के अवतार, अदिति की संतानें हैं, जबकि मानव 'मनु' की, दानव 'दनु' की और दैत्य दिति की ।
इस प्रकार तथाकथित 'एकेश्वरवाद' उसी नींव पर स्थापित है जिससे प्रेरित होकर हिरण्यकशिपु अपने-आपको 'एकमात्र ईश्वर' कहता था ।
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~~~~~~~~~ क्रमशः ~~~~~~~~~       


          
           

Monday, 9 May 2016

सोचने के लिए

सोचने के लिए
क्या मनुष्य सोचने या न सोचने के लिए स्वतन्त्र है? इसके लिए क्या वह विवश, बाध्य, सक्षम, अक्षम नहीं है ? सोचना या न सोचना, क्या इच्छा या जरूरत से ही प्रेरित नहीं होता? और अनेक बार, क्या कोई अपेक्षतया प्रबल इच्छा अनजाने और अनायास, अकस्मात् और एकाएक ही किसी दूसरी इच्छा या जरूरत को ठेलकर परे नहीं हटा देती? और स्वयं उससे अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाती है? तब हमारे तथाकथित ध्येयों, आदर्शों, नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों, कर्तव्यों और दायित्वों की परिणति किस रूप में फलित होती है? यह ’इच्छा’ या ’जरूरत’ हममें कोरी भावुकता या गहरी संवेदनशीलता (या उसके अभाव) के कारण, या किसी विचार, स्मृति या भावना के निरंतर पोषण के फलस्वरूप भी तो जागृत हो जाया करती है ।
क्या मनुष्य ’कर्म’ करने या न करने के लिए स्वतन्त्र है? इसके लिए क्या वह विवश, बाध्य, सक्षम, अक्षम नहीं है ? ’कर्म’ करना या न करना, क्या इच्छा या जरूरत से ही प्रेरित नहीं होता? और अनेक बार, क्या कोई अपेक्षतया प्रबल इच्छा अनजाने और अनायास, अकस्मात् और एकाएक ही किसी दूसरी इच्छा या जरूरत को ठेलकर परे नहीं हटा देती? और स्वयं उससे अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो जाती है? तब हमारे तथाकथित ध्येयों, आदर्शों, नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक, धार्मिक मूल्यों, कर्तव्यों और दायित्वों की परिणति किस रूप में फलित होती है? यह ’इच्छा’ या ’जरूरत’ हममें कोरी भावुकता या गहरी संवेदनशीलता (या उसके अभाव) के कारण, या किसी विचार, स्मृति या भावना के निरंतर पोषण के फलस्वरूप भी तो जागृत हो जाया करती है ।
जब हममें किसी ’कर्म’ का महत्व / औचित्य प्रतीत होता है तब भी परिस्थितियाँ ही तय करती हैं कि वह ’कर्म’ हमारे माध्यम से घटित होगा कि नहीं । घटना के रूप में किसी पूर्ण हो चुके कर्म के संबंध में हम शायद यह दावा कर सकते हैं कि उसे मैंने किया या नहीं किया, किंतु किसी भावी कर्म के संबंध में इसका केवल अनुमान भर कर सकते हैं । सबसे बड़ी भूल हमसे यह होती है कि यद्यपि हममें तमाम इच्छाएँ, विचार, संकल्प उठते रहते हैं और यह भी स्पष्ट है कि वे ’हममें’ उठते (दृश्य होते हुए) और पुनः विलीन (अदृश्य होते हुए) प्रतीत होते हैं, पुनः यह भी इतना ही स्पष्ट है कि जिसे हम ’मैं’ की तरह स्वीकार करते हैं वह तत्व इस पूरे घटनाक्रम में सुस्थिर और अपरिवर्तित रहता है, यदि ऐसा न होता तो विचारों, इच्छाओं, संकल्पों की भिन्नता, अन्तर्द्वन्द्व / विरोधाभासों का हमें पता ही न चलता । हम उन विचारों, इच्छाओं, संकल्पों पर ’अपने होने’ की मुहर केवल इसीलिए लगाते हैं क्योंकि जिस सुस्थिर और अपरिवर्तित तत्व की पृष्ठभूमि में ये आते-जाते रहते हैं उस सुस्थिर और अपरिवर्तित तत्व को जाननेवाला उससे अलग कोई / कुछ कहीं नहीं है, न हो सकता है । किन्तु व्यावहारिक धरातल पर स्मृति जो पहचान है, और पहचान जो स्मृति है, ’व्यक्ति’ रूप में हमारी एक कृत्रिम कामचलाऊ प्रतिमा गढ़ती है और शरीर, मन द्वारा किए जानेवाले सारे कर्मों के लिए उस प्रतिमा को कर्ता के रूप में प्रस्तुत करती है । यह सम्पूर्ण नाटक मस्तिष्क में घटित होता है और उस कर्ता (की प्रतिमा) को ’मैं’ समझ लिया जाता है । इस प्रकार के ’मैं’ की औपचारिक सत्ता व्यावहारिक रूप में भी अपना महत्व रखती है, किन्तु वह सत्य नहीं है ।
वस्तुतः ’कर्म’ का विचार ही मौलिक भ्रम है । जैसे हम भौतिक जगत् को जानते हैं उस प्रकार से हम भविष्य / अतीत को नहीं जानते । ’कर्म’, भविष्य / अतीत, ’मैं’ आदि का विचार भर हममें पैदा होता है और हम उसे किसे ठोस वस्तु की तरह ग्रहण कर बैठते हैं । ’मैं’ जो विचार-रूप में हममें निरंतर उठता और विलीन होता है, हमारी वास्तविकता नहीं है । हमारी वास्तविकता तो सुस्थिर और अपरिवर्तित तत्व की वह पृष्ठभूमि है जिसे ’जानना’ तो दूर की बात, कोई विचार छू तक नहीं सकता ।
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इस खोज को दो दिशाओं में आगे ले जाया जा सकता है । पहली वैयक्तिक, -व्यक्ति-केन्द्रित, उस 'व्यक्ति' के रूप में स्वयं को बुद्धि के माध्यम से स्वतंत्र सत्ता मान्य करते हुए, जो संसार में, संसार से बँधा फिर भी अपने आपके एक सीमा तक स्वतंत्र होने के भ्रम का शिकार है । अपनी 'बुद्धि' पर उसकी निर्भरता इतनी दृढ है कि वह इस सरल से तथ्य को नहीं देख पाता कि उसकी बुद्धि उसे लगातार भिन्न भिन्न दिशाओं में धकेलती रहती है और केवल तभी निर्दोष / त्रुटिरहित होती है जब उसे लगता है कि वह भ्रमित / confused है ।  ऐसे ही किसी क्षण उसे इस सत्य का आभास सकता है कि भ्रम का शिकार बुद्धि ही होती है, न कि 'वह' स्वयं ! इस 'स्वयं' को बुद्धि के माध्यम से नहीं जाना जा सकता जबकि 'स्वयं' बुद्धि को बिना किसी माध्यम के अनायास जानता है, जैसे कोई  कहता है : 'मैं भ्रमित हूँ ।' और जब कोई कहता है 'मेरी बुद्धि भ्रमित हो गई थी ।' इन दोनों स्थितियों में इतना ही अंतर है कि पहली स्थिति में बुद्धि को स्वामी और 'स्वयं' को दास मान लिया जाता है, जबकि दूसरी स्थिति में 'स्वयं' को स्वामी और बुद्धि को दास ।
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उपनिषद में इसे बहुत अच्छी तरह से कहा है :
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ४
यन्मनसा न मनुते  येनाहुर्मनो मतम्  ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ५
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ६
यच्छ्रोत्रेण  न श्रुणोति  येन श्रोत्रमिदम्  श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥ ७
यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः  प्रणीयते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥  ८
(केनोपनिषद्  खण्ड १, ...) 
अर्थ : 
जिसे वाणी से कहा जाता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा से वाणी कहती है । ४
जिसका चिंतन मन द्वारा किया जा सकता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से मन चिंतन कर पाता है । ५
जिसे नेत्रों से देखा जाता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से नेत्र देख पाते हैं । ६
जिसे कानों से सुना जाता है उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से कान सुन पाते हैं । ७
जिसे प्राण संचालित करते हैं उसे नहीं,
बल्कि उसे ही तुम ब्रह्म जानो, जिसकी प्रेरणा / शक्ति से प्राणों का संचालन होता है । ८
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आधिभौतिक अर्थात् शुद्ध भौतिक (स्ट्रिक्टली मटेरियल) और आध्यात्मिक (स्ट्रिक्टली स्पिरिचुअल) के मध्य एक तल होता है आधिदैविक (स्ट्रिक्टली स्पिरिचुअलिस्टिक )। 'मन' उसी तल का व्यक्त रूप है । प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि अलग समय पर अलग अलग प्रकार की होती है, जो एक ओर उसके संस्कारों का उस समय कुल प्रभाव होती है तो दूसरी ओर उसके 'मन' के उस तत्व / देवता से प्रेरित होती है जो उसका अधिष्ठाता देवता होता है । स्कन्दपुराण में वर्णित ३३ प्रधान देवता ही मनुष्य की बुद्धि को प्रेरित और संचालित करते हैं । इन ३३ देवताओं का स्वरूप मंत्रमय, आधिभौतिक (मिट्टी, धातु पत्थर आदि की प्रतिमा, नदी, पर्वत, वृक्ष गृह-नक्षत्र), आधिदैविक (मनोमय) और आध्यात्मिक इन चार रूपों में चार तलों पर अनुभव किया जा सकता है । इनमें   प्रत्येक का बीजमंत्र जिन वर्णों के विशिष्ट योग से बना होता है वह उस देवता का मंत्रमय स्वरूप होता है और मनुष्य उस विशिष्ट मंत्र के माध्यम से उस देवता से सम्बद्ध  सकता है । इस मंत्र के द्रष्टा को ऋषि कहा जाता है ।
गणेश मंत्र ॐ गं गणपतये नमः
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥
या देवी के मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी  प्रचोदयात् ॥
जैसे असंख्य मंत्र हैं जो मनुष्य को अनायास ही प्राप्त होते हैं, और उसके लिए अध्यात्म की सीढ़ी बन जाते हैं ।संक्षेप में यह कि जैसे ये देवता 'मन' को प्रेरित और संचालित करते हैं, वैसे ही इस आधिदैविक (spiritualism) तल पर ऐसी शक्तियाँ भी होती हैं जो मनुष्य के लोभ, भय को जगाकर उसे अनिष्ट मार्ग पर खींच ले जाती हैं । और 'अपनी बुद्धि' के मद और आग्रह से ग्रस्त मनुष्य प्रायः इसके शिकार हो जाते हैं । यह तो मनुष्य के विवेक पर ही निर्भर करता है कि वह किस मार्ग पर जाता है ।
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इस प्रस्तावना के साथ अगली पोस्ट्स में वैदिक / सनातन धर्म के कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों के सन्दर्भ में लिखने का विचार है ।
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Thursday, 5 May 2016

आज की संस्कृत रचना / अधुनैव सुखी

आज की संस्कृत रचना
06-05-2016
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न पात्रत्वं नाधिकारिता न कर्तव्यं नैव दायित्वं ।
नापेक्षा कर्हिचित् कश्चित् अधुनैव सुखी अहम् ॥
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न मेरी कोई पात्रता है, न अधिकार, न कर्तव्य, न दायित्व, न (संसार से) मुझे किसी प्रकार की कोई अपेक्षा है, मैं अभी ही सुखी हूँ  ...
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Love and Existence / प्रेम और अस्तित्व


Love and Existence.
प्रेम और अस्तित्व 
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वैसे तो प्रेम सदा अस्तित्व की निश्छल, निष्कपट और स्वाभाविक गतिविधि है, किन्तु किसी जीव (मनुष्य / देह) में इसका प्रस्फुटन होते ही देह की जरूरतें इसे स्वार्थ-केन्द्रित बना देती हैं । यद्यपि फिर भी यदि मनुष्य इसे आक्रामकता, लोलुपता से दूषित न होने दे तो यह (प्रेम) अस्तित्व के प्रति अनुग्रह और आभार की अभिव्यक्ति बना रह सकता है । जीवन की पूर्णता यही है ।
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Love is always the spontaneous, self-less, honest, sincere, conscious movement of existence, yet when it sprouts in a being the needs and compulsions of the body turn this into self-centered activity. Even though, if one does not let the arrogance, greed and fear born of imagination corrupt this pure chaste movement that is Love, one can sure feel grateful for this most precious gift of existence given to one by the existence.
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