।। भवप्रत्ययो विदेह प्रकृतिलयानाम् ।।१९।।
(समाधिपाद, पातञ्जल योग-सूत्र)
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वैदिक ज्ञान की दो परंपराओं में से प्रथम है पाठ, जो कि केवल बीजमन्त्र का, नाममन्त्र का, या स्तवन हो सकता है। दूसरा है : जिज्ञासा अर्थात् चित्त में प्रश्न का उठना, जो कि कौतूहल या तीव्र उत्कण्ठा भी हो सकता है। इन दोनों ही स्थितियों में अभ्यास या प्रयास को ही छन्द अथवा लय कहा जाता है।
उल्लेखनीय है कि स्तवन रूपी पाठ करते हुए, जब तक मन में अन्य विचार आते-जाते रहते हैं, तब तक छन्दोवस्था की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु जब पाठ करते हुए पातञ्जल-योग में वर्णित निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम और समाधि-परिणाम सिद्ध हो जाते हैं, तो ही चित्त छन्दोवस्था में प्रविष्ट हो पाता है। इसी स्थिति को लय भी कहा जाता है।
।। तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।।२।।
(विभूतिपाद, पातञ्जल योग-सूत्र)
स्पष्ट है कि एकतानता ही छन्द अथवा लय का पर्याय है। और इस प्रकार से पाठ में एकातानता के प्रकार-विशेष को ही छन्द कहा जाता है। अतः वैदिक स्तवन के छन्द में मात्रा का विस्तार सुनिश्चित नहीं होता। या कहें, वैदिक पाठ में छन्द विषम-मात्रिक भी होते हैं, जैसे उद्गात, गाथा या उद्गीथ।
वैदिक स्तवन में देवता को ही वर्ण, मंत्र, बीजाक्षर, कीलक, शक्ति और छन्द के साथ संयुक्त किया जाता है और तब देवता-विशेष से सम्पर्क किया जाता है। पौराणिक या लोक-प्रचलित स्थानीय विश्वासों और मान्यताओं में भी यही होता है, किन्तु व्यावहारिक रूप से वह अनिश्चितप्राय होता है।
छन्द > 'छाद्' > आच्छादयति से व्युत्पन्न है।
साहित्य और संस्कृत भाषा में जहाँ छन्द का तात्पर्य सामान्यतः आशय या 'प्रभाव-विशेष' होता है, वहीं वैदिक सन्दर्भ में देवता और देवता का लोक-विशेष होता है।
'लय' का अर्थ एक अवस्था का लोप होकर किसी दूसरी अवस्था का प्रकट होना है। जैसे जागृति का लोप होने पर स्वप्नावस्था का प्रकट होना, और इसी तरह, स्वप्नावस्था का लोप होने पर गहरी स्वप्नरहित सुषुप्ति का प्रकट होना। स्मृति के सातत्य के कारण मनुष्य इन्हीं तीनों अवस्थाओं को अपना अस्तित्व मान लेता है। उसे इसकी कल्पना भी नहीं होती कि शरीर की मृत्यु हो जाने पर वह चेतना, जो कि उसका जीवन थी, जो इन तीनों अवस्थाओं में सतत अपरिवर्तित रहती थी, इस शरीर को त्यागकर किसी नये लोक में प्रकट हो सकती है। यह भी संभव है कि तब यह चेतना किसी अन्य शरीर का आश्रय लेकर उस स्तर का जीवन जीने में सक्षम हो जाए। इसे ही पुनर्भव या पुनर्जन्म कहा जा सकता है। यह आकस्मिक हो सकता है, या मनुष्य की अपनी दृढ मान्यता के आधार पर भी घटित हो सकता है । श्री रमण महर्षि के द्वारा रचित 'उपदेश सार' ग्रन्थ में कहा गया है :
चित्त वायवश्चित्क्रियायुता ।
शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका ।।
लयविनाशने उभयरोधने ।
लयगतं पुनर्भवति नो मृतम् ।।
इस प्रकार जीव-मात्र जब तक आत्मा के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है, जीवन भर ही एक अवस्था से अन्य अवस्था में आता-जाता रहता है, किन्तु मृत्यु हो जाने, और शरीर के नष्ट हो जाने पर वह किसी अन्य शरीर का आश्रय ले लेता है। साधारण मनुष्य शायद ही कभी इन सूक्ष्मताओं को जान-समझ पाता है। और जान-समझ भी ले तो भी यह सब केवल बौद्धिक ही होता है ।
सामान्य, सर्वसाधारण मनुष्य अपनी परंपरा, परिस्थिति, कुल के अनुसार प्राप्त हुई पद्धति पर ही चल सकता है, और अंततः उस स्थिति को प्राप्त करता है, जिसमें वह या तो पुनर्भव (पुनः जन्म ग्रहण करने) के रूप में प्रकृति में लौट जाता है, अर्थात् लीनता / लय में चला जाता है, मिट्टी, पानी, वायु, आकाश अथवा वायु में उस प्रकार का होकर उससे एक हो जाता है, या अपने आराध्य के उस प्रकार से एकाकार हो जाता है जिस रूप में उसने अपने जीवित रहते समय उसकी आराधना की हुई होती है ।
अपनी अपनी निष्ठा के अनुसार जिसने देवताओं की आराधना की हुई होती है, वह देवताओं और उनके विशिष्ट लोकों को प्राप्त करता है, और इसी प्रकार से यक्ष, राक्षस, पिशाच, सिद्ध, पितर, ऋषि आदि की आराधना करनेवाले उन उन लोकों को प्राप्त हो जाते हैं ।
वहाँ वे अपनी निष्ठा के अनुसार प्राप्त हुए उस लोक में सीमित समय तक रहते हैं क्योंकि कोई भी लोक या अवस्था अनित्य ही होती है।
वे मनुष्य जिनका यह दृढ विश्वास होता है कि मृत्यु ही जीवन का अन्त है, वे भी अपने अन्त समय में अपने मन की वृत्ति-विशेष से एकाकार होकर वृत्ति-रूप होकर उस वृत्ति के आश्रय से किसी नये शरीर से अपना संबंध स्थापित कर लेते हैं, क्योंकि अहंवृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है।
कुछ मनुष्य संकल्पयुक्त ध्यान या भक्ति के माध्यम से, ध्यान के विषय (object) में लीन हो जाते हैं, और एक निश्चित समय के बीत जाने पर पुनः किसी नये शरीर में अपने आपको पाते हैं। जो मनुष्य किसी देवता आदि का ध्यान करते हैं वे तो उस देवता के लोक को प्राप्त होकर सायुज्य, सान्निध्य, सामीप्य या सारूप्य के माध्यम से उस लोक को अनुभव करते हैं किन्तु जो केवल आत्मा / परमात्मा का अनुसंधान करते हैं वे उस आत्मा अर्थात् परमात्मा में निमग्न होकर जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं।
इसे ही
।। भवप्रत्ययो विदेह प्रकृतिलयानाम् ।।
से समझा जा सकता है ।
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