सृष्टि-क्रम / क्रमिक सृष्टि
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जगत्, जीव एवं उनमें व्याप्त चेतन, और उस चेतन (चित्) में व्याप्त जगत्, एवं जीव जिस अव्यक्त सत्ता की अभिव्यक्ति हैं वह सत् यद्यपि अविकारी है, और चित् ही उसका प्रमाण है, किन्तु पुनः चित् भी अस्तित्वमान (existential) होने से असत् (non-existent) न होकर सत्-मात्र है।
इसे ही सत्-चित् परमात्मा कहा जाता है।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।१६।।
(गीता, अध्याय २)
चूँकि सत् का कभी अभाव नहीं है, असत् कभी अस्तित्वमान ही नहीं है इसलिए जगत् जीव और ईश्वर केवल विचार या कल्पना मात्र है।
किन्तु इस जगत् का अस्तित्व फिर भी यदि इतना सत्य प्रतीत होता है, तो वह भी केवल इसीलिए क्योंकि उसका अधिष्ठान जिस नित्य वस्त में है, वह सत् और चित् अर्थात् सत्-चित् है।
वह सत्-चित् अधिष्ठान इस जगत्प्रपञ्च का मूल होते हुए भी, अविकारी और नाम-रूप से अछूता पारमार्थिक सत्य है :
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।२।।
(गीता, अध्याय १५)
मनुष्य की बुद्धि अन्य सभी वस्तुओं के संबंध में जिस प्रकार से कार्य-कारण का क्रम कल्पित कर लेती है, उसी प्रकार से जगत् के भी किसी कारण की कल्पना कर उसके प्रारंभ को भी किसी अतीत के अन्तर्गत सत्य की तरह ग्रहण कर समय की कल्पना कर लेती है । यह समय, यदि यह मान भी लिया जाये कि कभी प्रारंभ हुआ, तो उससे पहले क्या समय था ही नहीं! इस प्रकार सृष्टि का प्रारंभ होने की कल्पना ही नितान्त विसंगतिपूर्ण और हास्यास्पद भी है। क्या 'प्रारंभ' समय के बाहर का तथ्य है?
ऐसे ही किसी ऐसे मनुष्य को जो कि कार्य-कारण के आधार पर सृष्टि के किसी प्रारंभ को सत्यता प्रदान करता है, उसकी अपनी तर्क-बुद्धि के माध्यम से पारमार्थिक सत्य की शिक्षा देने के लिए उपनिषदों में क्रम-सृष्टि को स्वीकार किया जाता है।
ऐतरेय उपनिषद् में इसी युक्ति से पारमार्थिक सत्य का उपदेश क्रमबद्ध रीति से दिया गया है।
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