ऐतरेय उपनिषद्
शान्तिपाठः
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ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता।
मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि।
वेदस्थ म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्संदधाम्यृतं वदिष्यामि।
सत्यं वदिष्यामि तन्मामववतु।
तद्वक्तारमवतु।
अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
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अन्वय :
ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता। मनः मे वाचि प्रतिष्ठितम् आविः आवीः एधि। वेदस्य मे आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः। अनेन अधीतेन अहोरात्रान् संदधामि ऋतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तत् माम् अवतु। तत् वक्तारम् अवतु। अवतु माम् अवतु वक्तारम् अवतु वक्तारम्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
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अर्थ :
मनुष्य का शरीर ही उसकी वाणी है। वाणी अर्थात् स्थूल प्राण, जिसे वह मुख से कहता है। मेरी वाणी के और मेरे मन के बीच सामञ्जस्य हो - वाणी का मन से, और मन का वाणी से, दोनों की परस्पर सुसंगति हो। हे तेज! तुम आकर मुझमें प्रकट होकर अभिव्यक्त हो जाओ। मेरे लिए वेद के तत्व को प्रकट करो, मेरा सुना हुआ यह तत्व मेरा त्याग न करे। इसका अध्ययन करते हुए मैं दिन-रात एक कर दूँ, मैं श्रेयस्कर ही कहूँगा । मैं सत्यभाषण ही करूँगा। वह (सत्य) मेरी रक्षा करे। वह (इस वेद की) वाणी का प्रयोग करनेवाले की रक्षा करे। वह रक्षा करे, मेरी रक्षा करे, वाणी का प्रयोग करने़वाले वक्ता की रक्षा करे, वक्ता की रक्षा करे।
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शरीर, मन, बुद्धि और चित्त यही चारों वैयक्तिक अहंकार (ego, individual) हैं। इन चारों के समन्वय (integration) से ही किसी में अपने व्यक्तिगत अस्तित्व का, और उसके सापेक्ष उस जगत् का भान उत्पन्न होता है जिसे बुद्धि की सहायता से अपने से भिन्न मान लिया जाता है, जबकि निश्चय ही जिन तत्वों से इस जगत् की रचना हुई है, उन्हीं तत्वों से शरीर भी बना है ।
फिर बाह्य दृष्टि से, शरीर स्त्री अथवा पुरुष हो सकता है, मन भी स्त्री अथवा पुरुष, बुद्धि भी स्त्री अथवा पुरुष एवं इसी प्रकार से चित्त भी पुनः स्त्री अथवा पुरुष हो सकता है, क्योंकि ये सभी ही मूलतः प्रकृति-पुरुषात्मक सृष्टि से उत्पन्न होते हैं।
जब स्थूल (भौतिक) शरीर पुरुष होता है, तो सूक्ष्म शरीर अर्थात् मानसिक शरीर अर्थात् मन, -स्त्री होता है, फिर बुद्धि पुरुष, तथा चित्त (चित्त की सतत परिवर्तित होती रहनेवाली वृत्ति) स्त्री होता है।
इसी प्रकार जब स्थूल (भौतिक) शरीर स्त्री होता है, तब सूक्ष्म शरीर अर्थात् मानसिक शरीर या मन, पुरुष होता है, फिर बुद्धि स्त्री, तथा चित्त (चित्त की सतत परिवर्तित होती रहनेवाली वृत्ति) पुरुष होती है।
यहाँ स्त्री और पुरुष का तात्पर्य है, सृष्टि के प्रकृति-पुरुषात्मक मूल तत्व।
उपरोक्त विवेचना इस दृष्टि से उपयोगी है कि इस आधार पर हमें मनुष्य के अन्तर्द्वन्दों को समझने के लिए एक आधार प्राप्त हो सकता है ।
इसी दृष्टि से वेद के उपाङ्ग ज्यौतिष शास्त्र में नक्षत्र के आधार पर विवाह के लिए वर-कन्या के गुणों की तुलना उनके जन्म-नक्षत्र के विचार से की जाती है, क्योंकि जन्म-नक्षत्र ही किसी मनुष्य के जीवन का दर्पण होता है।
किन्तु इस विवेचना का एक और उपयोग यह भी हो सकता है कि मनुष्य अपने-आपको समझकर अपने ही भीतर सामञ्जस्य और शान्ति की प्राप्ति कर सके।
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यह उदाहरण (analogy) क्यों?
क्योंकि संसार को शरीर की इन्द्रियों के माध्यम से जाना जाता है, इन्द्रियों को मन के माध्यम से जाना जाता है, मन को बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है और बुद्धि का आगमन जहाँ से होता है तथा इसी प्रकार बुद्धि जहाँ पुनः लौट जाती है वह तत्व इन सभी से स्वतन्त्र है। वही अविकारी (immutable) आत्मा है ।
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