संकल्प और पुनर्संकल्प
--------------©-------------
पिछले एक-दो पोस्ट्स में आध्यात्मिक साधना के तीन प्रकारों अर्थात् संकल्प, समर्पण और अनुसंधान के बारे मे लिखा था। अब उसे विस्तारपूर्वक लिखा जा सकता है।
किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना अर्थात् अभ्यास का प्रारम्भ अज्ञान ही से होता है। मन, बुद्धि, चित्त तथा स्मृति का अभी उन्मेष ही हुआ होता है जब प्रायः हर मनुष्य ही अज्ञान से ग्रस्त होकर जीवन और संसार क्या है, वह स्वयं क्या है, इन सब प्रश्नों तक से अनभिज्ञ होता है, वह केवल जीवन की तात्कालिक आवश्यकताओं से प्रेरित होकर जीवन में विकसित होता है, जैसे कोई वनस्पति या कोई नवजात शिशु। किसी भी जीवित इकाई (live, living organism) में प्रकृति से अभिन्नता अनायास ही होती है और प्रकृति और अपने बीच विभाजन की कोई भेदरेखा यदि होती भी हो तो वह अत्यन्त ही क्षीण होती है। अपने स्वयं के अस्तित्व का भान किसी जैव इकाई (organism) में जब भी उत्पन्न होता है, तो वह भान उस जैव इकाई में उस चेतना के व्यक्त होने के बाद ही उत्पन्न होता है जो मूलतः अव्यक्त चेतना अर्थात् चैतन्य अर्थात् चित् तत्व है, जो उस जैव इकाई की रचना के पूर्व से ही सर्वत्र और सदा विद्यमान है और काल और स्थान का उद्भव जिससे होता है। क्योंकि काल और स्थान की सत्ता का प्रमाण भी अवश्य ही कोई ऐसी सत्ता है जो चैतन्य है, अर्थात् जो काल तथा स्थान का आधारभूत तत्व है। जानना और होना (knowing and being) उस आधारभूत तत्व के आवश्यक और अन्तर्निहित अंश (essential and inherent parts) हैं। इस प्रकार जानना और होना, दोनों ही काल और स्थान से भी पूर्व की सत्यता है क्योंकि काल-स्थान स्वयं अपना प्रमाण न होकर उस चैतन्य के माध्यम से अस्तित्व में आते हैं।
इस प्रकार चैतन्य अर्थात् 'जानना और होना' किसी जैव इकाई को जब प्रकाशित करता है और वह प्रकाश जब उस इकाई तक सीमित हो जाता है, तो उस जैव इकाई में विद्यमान 'जानना और होना' स्वयं को उस प्रकाश के रूप में जीव-भाव के रूप में सत्य की भाँति स्वीकार कर लेता है।
सत् और चित् ही अस्तित्व है, और सत् और चित् ही अस्तित्व के दो पक्ष (aspects) हैं क्योंकि सत् (होना) तथा चित् (जानना), एक ही सत्यता के दो नाम हैं जो है, उसे जाननेवाला भी कोई अवश्य है, नहीं तो उस होने का क्या प्रमाण होगा? इसी प्रकार जानना भी है, अर्थात् जानने का भी अस्तित्व स्वयंसिद्ध ही है, अर्थात् जानना भी सत् ही है क्योंकि यदि जानना अस्तित्वमान न हो तो कोई अन्य वस्तु अस्तित्वमान है या नहीं इसका प्रमाण क्या होगा। किन्तु जैव इकाई में प्रकाशित जीव-भाव, जो जानने होने का एक सूक्ष्मतम अंश है, उस जैव इकाई अर्थात् उस शरीर की भौतिक सीमा के भीतर स्थित स्नायुप्रणाली के माध्यम से स्वयं को उस शरीर तक ही जान और स्वीकार कर सकता है। यही जीव-भाव स्वयं और स्वयं के संसार को दोनों को परस्पर भिन्न भिन्न दो वस्तुओं की भाँति ग्रहण कर स्वयं को सत्य और नित्य विद्यमान तथा संसार से अनभिज्ञ अनुभव करता है। यही जीव-भाव तब देह-भाव से घुल-मिलकर एक हो जाने पर स्वयं की सांसारिक पहचान अर्थात् अस्मिता होता है।
इस प्रकार हर मनुष्य जन्म से ही इच्छा और द्वेष के साथ संसार में जन्म लेता है।
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत ।।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ।।२७।।
(गीता, अध्याय ७)
संकल्प का उद्भव इच्छा तथा द्वेष की द्वन्द्व-बुद्धि से ही होता है और तब मनुष्य अपने संसार में प्रेय अथवा श्रेय की प्राप्ति का निश्चय कर लेता है। यह निश्चय ही संकल्प कहलाता है। निश्चय ही संकल्प भी है और यही संकल्पकर्ता (अहंकार) भी है ।
इस प्रकार जब कोई मनुष्य संकल्प से प्रेरित होकर किसी लक्ष्य, जैसे ईश्वर की प्राप्ति के ध्येय से तप या भक्ति करने लगता है तो उसकी उत्कंठा (urge) की तीव्रता के अनुसार उसे विलम्ब से या शीघ्र ही सफलता मिल जाती है :
तीव्रसंवेगानामासन्नः ।।२१।।
मृदुमध्यादिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः।।२२।।
ईश्वरप्रणिधानाद्वा ।।२३।।
(पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद)
यह संकल्प का मार्ग है ।
उस इष्ट ईश्वर की अनुभूति हो जाने पर उसमें सहज स्वाभाविक निष्ठा उत्पन्न हो जाती है जो अन्ततः परम श्रेयस् की उपलब्धि हो जाती है।
यह वही निष्ठा है जिसका वर्णन गीता के अध्याय ३ में इस प्रकार से किया गया है :
लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।३।।
इससे पूर्व अध्याय २ में साङ्ख्य योग की शिक्षा दी गई है।
***
No comments:
Post a Comment