संकल्प, समर्पण और अनुसंधान
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संकल्प उठते ही संकल्पकर्ता भी उसकी छाया की भाँति पृथक् रूप से अस्तित्व में आया हुआ प्रतीत होता है, और इससे पहले जो अवधान (attention) अपने स्रोत से अभिन्न था, वही अब संकल्प उठने पर संकल्पकर्ता के रूप में व्यक्त हो जाता है।
(अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत, गीता 2/28)
संकल्प का उठना ही स्रोत से अनवधानता (inattention) का प्रारंभ है। यह अवधानरहित होना ही विषय और विषयी का विभाजन है। तब विषय को विषयी से भिन्न एक स्वतंत्र सत्ता की तरह मान लिया जाता है। अनवधानता ही संकल्पकर्ता है।
विषयी का विषय में विलय हो जाना ही उनका परस्पर तादात्म्य (identification) होता है।
स्वरूप मूलतः एकमेव अविभाज्य और अविभाजित पूर्ण सत्ता अर्थात् सत्-मात्र, सन्मात्र है। यही चित् / चिति अर्थात् अवधान भी है। इस प्रकार सत् और चित् परस्पर अभिन्न एकमेव सत्यता है । चित् का ही विभाजन विषय-विषयी रूपी द्वैत है, और इस विभाजन से ही संकल्प और संकल्पकर्ता को एक दूसरे से अन्य मान लिया जाता है। मान्यता बुद्धि के सक्रिय होने पर ही फलित होती है। बुद्धि का उद्भव स्रोत के अनवधानता व विषय अर्थात् आभासी संसार के भान और उसे तथा अपने स्वरूप को भिन्न भिन्न की तरह देखने का परिणाम है। यह 'देखना' वही 'प्रत्यय' है, जिसके बारे में पातञ्जल योग-सूत्र में कहा है :
दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ।।२०।।
(साधनपाद)
चूँकि जगत्, जीव तथा ईश्वर एक ही त्रयी के तीन और परस्पर अभिन्न प्रकार हैं, इसलिए जगत् के स्वामी के रूप में ईश्वर की अनुभूति जिसे होती है, वह अपने अनुभव के उस विशिष्ट विषय अर्थात् ईश्वर अर्थात् परमात्मा के प्रति अपनी बुद्धि को अनायास ही समर्पित कर देता है । यही समर्पण, ईश्वर-प्रणिधान, अर्थात् भक्ति है :
तीव्रसंवेगानामासन्नः ।।२२।।
ईश्वर-प्रणिधानाद्वा ।।२३।।
(समाधिपाद)
आध्यात्मिक अनुशासन का तीसरा प्रकार है अनुसंधान, जिसमें यह जानने का यत्न होता / किया जाता है कि क्या विषय और विषयी परस्पर भिन्न हैं?
यह यत्न करनेवाला ही विचार (thought) और विचारकर्ता (thinker) भी है।
सम्यक अनुसंधान किए जाने पर विचार (thought) अर्थात् वृत्तिमात्र, एवं विचारकर्ता अर्थात् अहंकार (thinker, ego) दोनों ही विलुप्त हो जाते हैं।
संकल्प-मात्र के उठते ही यह प्रश्न अर्थात् यह त्वरित जिज्ञासा होना, कि संकल्प कहाँ से आता है और पुनः कहाँ लौट जाता है, और इसके उस स्रोत पर अवधान (attention) का चले जाना ही यह अनुसंधान है, कि संकल्प का उद्भव कहाँ से होता है।
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