ऐतरेयोपनिषद्
प्रथम अध्याय
प्रथम खण्ड
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(*सृष्टि-क्रम या क्रम-सृष्टि)
ॐ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् ।
नान्यत्किञ्चन मिषत् ।
स ईक्षत लोकान्नु प्रजाः सृजा इति ।।१।।
अन्वय :
ॐ आत्मा वा इदं एकः एव अग्रे आसीत् । न अन्यत् किञ्चन मिषत् । सः ईक्षतः लोकान् नु प्रजाः सृजै इति ।।१।।
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स इमाँल्लोकानसृजत ।
अब्धोमरीचिर्मरमापोऽदोऽम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठान्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरो या अधस्तात्ता आपः ।।२।।
अन्वय :
सः इमान् लोकान् असृजत । अब्धः मरीचिः मरम् आपः अदः अम्भः परेण दिवं द्यौः प्रतिष्ठा अन्तरिक्षं मरीचयः पृथिवी मरः याः अधस्तात् ताः आपः।।२।।
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स ईक्षतेमे नु लोका लोकपालान्नु सृजा इति सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूर्च्छयत् ।।३।।
अन्वय :
सः ईक्षत इमे नु लोकाः लोकपालानु नु सृजै इति सः अद्भ्यः एव पुरुषं समुद्धृत्य अमूर्च्छयत् ।।३।।
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तमभ्यतपत्तस्याभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं मुखाद्वाग् वाचोऽग्निर्नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्यां प्राणः प्राणाद्वायुरक्षिणी निरभिद्येतामक्षिभ्यां चक्षुश्चक्षुष आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां कर्णाभ्यां श्रौत्रं श्रोत्राद्दिशस्त्वङ् निरभिद्यत त्वचो लोमानि लोमभ्य ओषधिवनस्पतयो हृदयं निरभिद्यत् हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा नाभिर्निरभिद्यत नाभ्या अपानोऽपानान्मृत्युः शिश्नं निरभिद्यत शिश्नाद्रेतो रेतस आपः ।। ४।।
अन्वय :
तं अभ्यतपत् तस्य अभितप्तस्य मुखं निरभिद्यत यथाण्डं अण्डं, मुखात् वाक्, वाचः अग्निः नासिके निरभिद्येतां नासिकाभ्यां प्राणः, प्राणात् वायुः अक्षिणी निरभिद्येतां, अक्षिभ्यां चक्षुः चक्षुषः आदित्यः कर्णौ निरभिद्येतां, कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्रात् दिशः त्वक् निरभिद्यत, त्वचः लोमानि, लोमभ्यः ओषधिवनस्पतयः हृदयं निरभिद्यत हृदयात् मनः, मनसः चन्द्रमा, नाभिः निरभिद्यत, नाभ्या अपानः अपानात् मृत्युः शिश्नं निरभिद्यत, शिश्नात् रेतः रेतसः आपः ।।३।।
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* यहाँ 'आसीत्' पद से उसी एकमेव अक्षर पुरुषोत्तम परमात्मा का परोक्षतः संकेत है जिससे काल का उद्भव हुआ क्योंकि काल परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है और काल की अभिव्यक्ति होने पर ही उस काल को भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य-काल के रूप में कल्पित किया जाता है । इस प्रकार से, अतीत, भूत-काल एवं आगामी भविष्य-काल इसी प्रस्तुत अर्थात् वर्तमान, सद्य और नित्य, शाश्वत्, अचल, अविनाशी अक्षर काल के ही कल्पित रूप मात्र हैं, न कि वास्तविकता।
इसे ही शिव-अथर्वशीर्ष में :
अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते...
से वर्णित किया गया है। यह काल (और स्थान -Time and Space) दोनों ही व्यापक और अन्योन्याश्रित हैं।
उपनिषद् में वर्णित आकाश पञ्चमहाभूतों में से एक है और यह स्थूल आकाश भौतिक पदार्थ (material-space) है, - न कि वह सूक्ष्म आकाश (subtle cosmic space), जो भू, भुवः तथा स्वः इन तीन रूपों में स्थूल जगत्, मनो-जगत्, और जीव-जगत् है। जीव-जगत् ही चित्ताकाश है, जबकि वह चैतन्य (चित्) जो कि परमेश्वर परमात्मा है, चिदाकाश (चित्-आकाश) है । वह चिदाकाश ही परमात्मा का नित्यधाम है इसलिए उसे और उसके धाम को काशी कहा जाता है।
ऐतरेय उपनिषद् में इसलिए सृष्टि-क्रम और क्रम-सृष्टि को काल के अन्तर्गत पुनः पुनः अव्यक्त से व्यक्त, और व्यक्त से अव्यक्त होते रहनेवाली गतिविधि के रूप में, औपचारिक रूप से ही सत्य मानते हुए यहाँ 'आसीत्' क्रियापद का प्रयोग किया गया है।
'सृज्' (विसर्गे) धातु को दिवादिगण तथा तुदादिगण की धातु के रूप में, अपने भीतर से पूर्व-विद्यमान किसी पदार्थ के उत्सर्जन (विकिरण, radiation) के अर्थ में प्रयोग किए जाने के सन्दर्भ में भी यही स्पष्ट होता है, कि उसी एक तत्व को जो कि काल से अबाधित है, काल के रूप में ग्रहण किए जाने पर, व्यक्त स्वरूप में सृष्टि का रूप ग्रहण करता है।
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