कथावस्तु ऐतरेय उपनिषद् की ।
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पिछले पोस्ट में ऐतरेय उपनिषद् का शान्तिपाठ और उसका सरल अर्थ प्रस्तुत किया। इस पोस्ट में कथावस्तु प्रस्तुत है।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।२८।।
(श्रीमदभगवद्गीता, अध्याय २)
सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च
वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः ।।
चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च
पटः प्रकाशोऽप्यभवत्स एकः ।।१।।
(भगवान् श्री रमण महर्षि कृत सद्दर्शनम्)
अस्तित्व और सत् यद्यपि एकमेव वास्तविकता है, किन्तु यह वास्तविकता जो चित्-स्वरूप अर्थात् चैतन्य-हृदय भी है, यही सत् तथा चित् ही, अव्यक्त तथा व्यक्त के रूप में नित्य स्पन्दित हो रहे हैं। जब सत् व्यक्त रूप ग्रहण करता है, तो एक ही अपार शक्ति जगत्, जीव तथा परमात्मा के रूप में प्रकट और प्रतीत होती है। चूँकि आभासी रूप से ये तीनों ही तत्व (elements) अन्योन्याश्रित सत्यताएँ हैं, इसलिए उनमें से किसी एक का भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता।
वही तत्व जो अव्यक्त है, व्यक्त होने पर जगत्, जीव तथा ईश्वर के रूप में तीन प्रकार से देखा जाता है।
इस प्रकार तीनों की सत्ता स्वीकार किए जाने पर यद्यपि जीव और जगत् के नियन्ता ईश्वर को ही व्यक्त जगत् के तथा जीव के भी अस्तित्व का एकमात्र कारण और अधिष्ठान कहा जाता है, किन्तु यह लौकिक तथा औपचारिक सत्य है, न कि पारमार्थिक सत्य।
ऐतरेय उपनिषद् की कथावस्तु इसी आधार पर अव्यक्त से व्यक्त के उद्भव का वर्णन है। जगत् जड सत्ता है, जीव उसकी अपेक्षा चेतन शक्ति है। वही चेतन शक्ति, जो कि किसी शरीर-विशेष से संबद्ध और सीमित होने, तथा जड बुद्धि से अपना संयोग होने से अपने आपको जन्म-मृत्यु से युक्त कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता एवं स्वामी की मान्यता से बद्ध होकर स्वतंत्र जीव की तरह व्यक्त रूप लेती है, मनुष्य का सीमित अहंकार है। अहंकार यद्यपि सत्-असत् से विलक्षण है, फिर भी अधिष्ठान की सत्ता के बल पर एक सतत अस्तित्वमान व्यक्ति का रूप ग्रहण कर लेता है।
जगत् और जीव (अहंकार) की सृष्टि ही ऐतरेय उपनिषद् की कथावस्तु का विषय है।
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