निष्ठा और आत्मज्ञान
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जब सत्संग, भक्ति आदि किसी भी तरीके से चित्त की शुद्धि हो जाती है, तो मनुष्य के मन में नित्य-अनित्य की जिज्ञासा जागृत होती है। यह जिज्ञासा तीव्र होने पर उसका ध्यान उस तत्व की ओर जाता है, जिसे वह ऐसी वस्तु की तरह स्वीकार कर सकता है, जो अवश्य ही नित्य और अविकारी भी है।
इस प्रकार की संशयरहित निष्ठा उत्पन्न होने पर उसमें वह परोक्ष या अप्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है जो आत्म-ज्ञान का प्रारंभ है।
जब यह निष्ठा दृढ हो जाती है तो उसे उस वस्तु के अस्तित्व पर भी उसे इतना ही दृढ विश्वास हो जाता है।
यह वही वस्तु अर्थात् आत्मतत्व है, जिसे न तो अग्नि जला सकता है, न जल भिगो सकता है, न वायु सुखा सकता है, और न शस्त्र काट या नष्ट कर सकता है, जो मन और बुद्धि के लिए अचिन्त्य है ।
इस वस्तु को अपरोक्षतः अर्थात् प्रत्यक्षतः जान लेने पर ही मृत्यु का भय भी मिट जाता है।
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