Sunday, 14 February 2021

अपाम सोमममृता ...

अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ....

(शिवाथर्वशीर्षम् ३)

--

लगभग ५ वर्ष पहले फेसबुक पर मेरी एक बहुत अच्छी मित्र थी, जिसका नाम था , -वंदना सिंह। 

उसने मुझसे कहा था कि मैं 'अपाम' के बारे में कुछ लिखूँ। 

उन दिनों मैं प्रायः गणपति, शिव, देवी, -इन तीनों अथर्वशीर्ष का पाठ किया करता था।  

अपनी अंतःप्रेरणा से प्राप्त मेरी सदा से यह निष्ठा रही है कि वेद तथा अन्य तत्संबंधित पवित्र ग्रन्थों आदि का यथासंभव शुद्ध उच्चारण-पूर्वक पाठ ही उन्हें समझने का सर्वोत्तम तरीका है।

इसी निष्ठा से प्रेरित होने से, मैं न तो भावना के, और न ही तर्क के माध्यम से कभी इन ग्रन्थों के अर्थ को समझने की धृष्टता किया करता था। 

चूँकि संस्कृत सदैव से ही मेरा अत्यन्त प्रिय अध्ययन का क्षेत्र रहा है इसलिए संस्कृत व्याकरण के आधार पर इन रचनाओं का सरल शाब्दिक तात्पर्य क्या है, इस कौतूहल से प्रेरित होकर मैं कभी कभी इन ग्रन्थों के किसी अंश को समझने का प्रयास भी किया करता था। 

वंदना मुझे "दादा" कहती थी। 

संयोगवश, वर्षों बाद वंदना नाम की ही किसी दूसरी मित्र ने मुझसे शिव-अथर्वशीर्ष पढ़ना चाहा तो मैंने तदनुसार इसका यथासंभव शुद्ध तात्पर्य जानना चाहा, और 

"अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्"

के बारे में मुझे अपनी समझ पर शंका थी। 

इसके दो कारण थे :

"पा" धातु "रक्षा करने" और "पीने" इन दो अर्थों में आवश्यकता के अनुसार प्रयुक्त हो सकती है । कल और आज सुबह तक इसी आधार पर समझने की चेष्टा करते हुए जब इस पर ध्यान गया कि यहाँ "पीने" के अर्थ में लुङ् लकार, उत्तम पुरुष बहुवचन में इस धातु का प्रयोग ग्राह्य है तो 

"अभूम आगन्म ज्योतिः अविदाम" 

का तात्पर्य भी तुरंत स्पष्ट हो गया। 

--

सोचा, यह रोचक है कि किस प्रकार कोई सूत्रधार हमारे जीवन के मार्ग पर हमें समय समय पर दिशा-निर्देश देता रहता है,  जिनका महत्व हमें समय आने पर ही पता चलता है। 

-- 


No comments:

Post a Comment