कठोपनिषद् के माध्यम से यम ने नचिकेता से संवाद करते हुए परब्रह्म परमात्मा का पूर्ण सत्य कह दिया किंतु नचिकेता के मन में यह प्रश्न बना ही रहा कि जब ब्रह्मज्ञ ब्रह्मा के लोक में प्रविष्ट होते हैं तो वह क्या उपदेश शेष रह जाता है जो ब्रह्मा से उन्हें प्राप्त होता है, और तब उन्हें नित्य और सद्योमुक्ति मिलती है?
शायद वह कुछ इस प्रकार का होता होगा :
"अहं ब्रह्मास्मि" के अनुभव के बाद भी "ब्रह्मैवाहम्" पर ध्यान न जाने से वैयक्तिक अहंवृत्ति के रूप में दृग्-दृश्य का भेद बना ही रहता है, इसलिए वस्तुतः ब्रह्म को जानकर मनुष्य ब्रह्मवित् तो हो जाता है किन्तु "अयमात्मा ब्रह्मेति" का भान उसे नहीं हो पाता।
वैसे तो यह शाब्दिक और बौद्धिक प्रश्न है, किन्तु इस दृष्टि से महत्वपूर्ण भी है कि आत्मा की अभेदता में दृग्दृश्य भेद का कोई स्थान नहीं होता।
महर्षि श्री रमण के शब्दों में :
"न वेद्म्यहं मामुत वेद्म्यहं मा
मिति प्रवादो मनुजस्य हास्यः।
दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा
स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदाः।।"
(सद्दर्शनम्)
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