शाम को प्रायः घर के आसपास टहलता हूँ ।
अचानक एक विचार आया :
"मुझे एक मोबाइल चाहिए।"
ध्यान था कि किस प्रकार, वस्तुतः किसी विचारकर्ता के अभाव में भी, किसी विचार के उठते ही, तत्काल ही "मैं" का विचार भी उसकी छाया की तरह उठ खड़ा होता है, और फिर काँटे में बिंधी हुई छटपटाती, तड़पती मछली की तरह उसके साथ साथ स्वतंत्र "मैं" की तरह अस्तित्वमान प्रतीत होता है।
"कौन मैं?"
एक प्रश्न भी तत्काल उठ खड़ा हुआ।
तब इस मूर्खता पर हँसी आई कि किस प्रकार प्रमादवश (because of inattention of being inattentive) विचारकर्ता की सत्यता पर इस प्रकार ध्यान न दिए जाने से ही मन अपने ही जाल में फँस जाता है।
यह मन, जो न विचार है, -न विचारकर्ता, किस प्रकार से इस कोरी बौद्धिक मान्यता से ग्रस्त हो जाता है।
क्या विचार अथवा विचार का उपजात (by-product) 'विचारकर्ता' कभी मन को जान सकते हैं ? या कि मन ही उन्हें जानता है, और उनका नित्य चेतन, आधारभूत मूल स्रोत है?
"मुझे मोबाइल चाहिए।"
इस विचार के उठते ही जो "मैं" अस्तित्वमान प्रतीत हुआ, क्या वह विचार, विचारकर्ता या वह "मन" हो सकता है, जिन्हें वैचारिक घटनाक्रम की तरह या उनके मूल अधिष्ठान "मन" की तरह जाना जाता है?
"क्या द्वैत सत्य है?"
भी ऐसा ही प्रश्न है।
प्रश्न को यदि सुधारा जाए तो उसका रूप कुछ इस प्रकार हो सकता है :
"क्या द्वैत प्रतीति ही नहीं है?
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