Thursday, 18 February 2021

मूर्धा और मस्तिष्क

 ... और "हृदय"

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कल रात्रि में शिव-अथर्वशीर्ष का 'अध्ययन' करते समय प्रश्न उठा कि 'मूर्धा' और 'मस्तिष्क' तथा 'हृदय' का क्या तात्पर्य है?

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत्। 

मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः ।

तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः। 

रात्रि में अग्निदेव के अन्तर्धान हो जाने से, उनकी प्रेरणा से कार्य करनेवाले वाणी अर्थात् ध्वनि और तात्पर्यरूपी शब्द भी दृष्टि से ओझल थे। 

कल उस विषय में वहीं विराम लग गया। 

सुबह अभी दस-पन्द्रह मिनट पूर्व अग्निदेवता (सूर्य के साथ) जाग्रत हुए तो बुद्धि ने उनसे प्रेरित होकर उपरोक्त मंत्रों का भावार्थ प्रकट किया। 

'अक्' प्रत्यय (उपसर्ग) -पूर्वक 'नि' प्रत्यय (अनुसर्ग) के साथ बना शब्द 'अग्नि' के भावार्थ का वाचक है। इसलिए वाणी और शब्द का उद्भव अग्नि से और तात्पर्य का उद्भव बुद्धि से होता है। इसी से मनुष्यमात्र की भाषा का उद्भव हुआ करता है, जिसे श्रीदेवी अथर्वशीर्ष के परिप्रेक्ष्य में समझें तो स्पष्ट होगा कि देवों /देवताओं की भाषा 'संस्कृत' क्यों और कैसे लौकिक भाषाओं से कुछ भिन्न है।

व्याकरण का उद्भव बाद में हुआ।  अतः व्याकरण भाषा को सुसंगत, शुद्ध और त्रुटिरहित करने में सहायक अवश्य है किन्तु उसकी भूमिका गौण है। इसलिए मूल शब्दों (या वर्णों) और उनके संयोग, संहिता, संधि, तथा समुच्चय आदि से बने शब्दों का अर्थ उन उन शब्दों में पूर्व से ही शाश्वत रूप से विद्यमान है। 

पंडित जगन्नाथ नामक एक विद्वान के इस मत को समझने में श्री जे. कृष्णमूर्ति को बहुत कठिनाई होती थी कि किसी शब्द में उसका 'अर्थ' पहले ही से कैसे विद्यमान हो सकता है? 

बहुत से दूसरे लोगों की तरह श्री जे. कृष्णमूर्ति भी शायद यही  समझते रहे होंगे कि 'अर्थ' तो शब्द के पैदा होने के बाद उससे संबद्ध किया जाता है!  लौकिक दृष्टि से भी यही प्रतीत होता है, किन्तु यह सिर्फ लौकिक भाषाओं के ही संबंध में ही सत्य हो सकता है न कि संस्कृत के संबंध में। 

श्री जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षा दीक्षा जिन शिक्षकों के मार्गदर्शन में हुई वे स्वयं भारतीय और वैदिक संस्कृति से कितने संबद्ध थे इस पर ध्यान दिए जाते ही यह समझा जा सकता है कि श्री जे. कृष्णमूर्ति को इस प्रकार की कठिनाई क्यों रही होगी। 

केवल प्रसंगवश ही यहाँ यह संदर्भ लिखा जा रहा है। 

मेरी अपनी संस्कृत यात्रा केवल "ग्रन्थपाठ" की परंपरा से प्रारंभ हुई और यद्यपि अपने ज्ञान को शुद्ध और दोषरहित करने के लिए मैंने व्याकरण का यत्किञ्चित अध्ययन भी किया किन्तु व्याकरण का मेरे लिए गौण महत्व रहा । 

व्युत्पत्तिशास्त्र, अर्थात् व्याकरण से शब्द की उत्पत्ति कैसे होती है, इस दृष्टि से देखें तो हमें पंडित जगन्नाथ की उस दृष्टि का महत्व समझना सरल होगा कि किसी शब्द में उसका 'अर्थ' किस प्रकार से पहले ही से अप्रकट होता है।

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अब शिव-अथर्वशीर्ष के मंत्रों पर ध्यान दें तो यह कुछ इस प्रकार से है सकता है :

म्-अस्-तिः-कः से 'मस्तिष्क',

म्-उर्/ऊर्-धा से 'मूर्धा',

का तात्पर्य उद्घाटित / प्रकट होता है। 

अर्थात् यह, कि ये शब्द उस भाव के द्योतक हैं 

"उज्झ" धातु, "सृज्" अर्थात् "त्यज" के अर्थ की ही समानार्थी है। 

किंतु रूढ अर्थ में प्रायः यह समझा जाने लगा है कि "सृज्" का अर्थ है "रचना" ।

इसी प्रकार, "संहार" का अर्थ है संहरण /समवेत करना किन्तु रूढ अर्थ में उसे "नाश करने" का समानार्थी समझा जाता है। 

"हृदयं" हृत-अयम् के अर्थ में उसी "चेतना" का द्योतक है जिसे गीता के अध्याय १० में :

"भूतानामस्मि चेतना"

से व्यक्त किया गया है, न कि वह हृदय जिसे anatomy में physical heart organ कहा जाता है। 

सबसे रोचक, सरल तथा गूढ तात्पर्य है 

"अथर्वा" या "अथर्वणः" का, 

जो एक दृष्टि से ऋषि का,  तो दूसरी दृष्टि से आत्मा तथा रुद्र या परमात्मा का भी द्योतक है। 

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