Tuesday, 23 February 2021

चार महावाक्य

ब्रह्मवित्, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मविद्वरीय, ब्रह्मविद्वरिष्ठ 

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मौनं व्याख्याप्रकटितं परब्रह्मतत्वं युवानम् 

वर्षिष्ठान्ते वसदृषिगणैरावृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।

आचार्येन्द्रं करकलितचिन्मुद्रमानन्दरूपम् 

स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे  ।।

जब परमगुरु श्रीदक्षिणामूर्ति मौन से परब्रह्म तत्व की व्याख्या कर उसे प्रकट कर चुके, तो सभी ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानियों में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि उपरोक्त शिक्षा अपेक्षतया कम परिपक्व साधकों के हित के लिए शब्दों के माध्यम से किस प्रकार से व्यक्त की जा सकती  है? 

उन चारों में से एक ब्रह्मनिष्ठ ने कहा :

"अयमात्मा ब्रह्म ।"

दूसरे ब्रह्मनिष्ठ ने कहा :

"तत्वमसि ।"

तीसरे ब्रह्मनिष्ठ ने कहा :

"अहं ब्रह्मास्मि ।"

और चौथे ब्रह्मनिष्ठ ने कहा :

"प्रज्ञानं ब्रह्म ।"

तब सभा विसर्जित हो गई ।

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।। नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये।। 

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Consciousness and Intelligence.

The consciousness of the Material-world is senses. 

The consciousness of the Senses is the Mind. 

The consciousness of the mind is the Intellect.

The consciousness of the Intellect is the Intelligence. 

Intelligence is its own consciousness.

In Intelligence, distinction between the Knower and the Known ceases to exist.

In a way, the Identity remains but the identification is no more.

Life is this One Whole where all distinctions cease.

A distinction could be any one of the following :

Limited within itself / oneself (स्वगत),

Example : the different body-parts of the same body are of different kinds. 

Limited within one's own class / category (स्वजातीय),

Example : Man and woman, 

And :

Differentiated in terms of different classes category (विजातीय).

Example : man and animals,  birds and fish,  trees and plants.

ब्रह्मन् / Brahman, Self (Atman)

Are the one Whole Reality beyond all the above mentioned types of distinctions.

Therefore the Supreme Reality (Brahman) and the Self (Atman) are one and same Unique Principle.

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Monday, 22 February 2021

"What IS?" and "Why?"

Intellect & Intelligence.

The brain functions in two ways:

Feelings and Emotions. 

Feelings are what comes from without. 

Emotions are what comes from within. 

Basically the two are neural perception and response only.

So the activity of brain could be said :

Neural Fireworks or Neural Pyrotechnics.

All Thought is thus reduced to the kind of verbal activity that takes place in the brain, while the feelings and responses are psychosomatic experiences of the kind. 

The attempts at understanding the 

"Reality"

Begins with the enquiry into :

What IS? 

and Why? 

The first takes the way to (Self)-Realization,

The another to Science.

As soon as the question :

"What IS?" arises in consciousness (Which is neither the mind nor the brain, and of course not limited to body as well),

A Questioner appears to exist.

This Questioner has an assumed time-bound  identity of its own, which at once is ignored and as a consequence, the consciousness splits into two, namely 'me' / 'I' and the world around this 'me'.

There is no individual "SELF",

Nor any,  the collective "SELF".

Of course, there is the consciousness that is "Totality" / "Whole", but as it is unique in the sense that it is rather "INDIVISIBLE" and not "INDIVIDUAL", the word "SELF" doesn't apply to it.

So,  the Realization consists in understanding this Reality. 

The Science on the other hand assumes the existence of "Causes" and thus, in this very moment, projects what I'd names "TIME".

"Looking for the causes" is not the same as :

"the Reasoning".

"Reasoning" comes from the Sanskrit word-root 

'ऋष्', - ऋष्यते, ऋषि, 

Which has given us rise, raise, and "reisen" in Deutsche. 

The words rich in English, 'रईस' in Urdu stands for the same.

Intellect deals into the Question of "Why?".

Intelligence seeks "What IS?".

The search / exploration into "Reality" in terms of "What is?" takes the attention towards the "consciousness" which is the only unique primordial fact. 

The search / exploration into "Reality" in terms of "Why?" scatters the attention onto and into the myriad paths of science without an end. 

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Thursday, 18 February 2021

मूर्धा और मस्तिष्क

 ... और "हृदय"

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कल रात्रि में शिव-अथर्वशीर्ष का 'अध्ययन' करते समय प्रश्न उठा कि 'मूर्धा' और 'मस्तिष्क' तथा 'हृदय' का क्या तात्पर्य है?

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत्। 

मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः ।

तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः। 

रात्रि में अग्निदेव के अन्तर्धान हो जाने से, उनकी प्रेरणा से कार्य करनेवाले वाणी अर्थात् ध्वनि और तात्पर्यरूपी शब्द भी दृष्टि से ओझल थे। 

कल उस विषय में वहीं विराम लग गया। 

सुबह अभी दस-पन्द्रह मिनट पूर्व अग्निदेवता (सूर्य के साथ) जाग्रत हुए तो बुद्धि ने उनसे प्रेरित होकर उपरोक्त मंत्रों का भावार्थ प्रकट किया। 

'अक्' प्रत्यय (उपसर्ग) -पूर्वक 'नि' प्रत्यय (अनुसर्ग) के साथ बना शब्द 'अग्नि' के भावार्थ का वाचक है। इसलिए वाणी और शब्द का उद्भव अग्नि से और तात्पर्य का उद्भव बुद्धि से होता है। इसी से मनुष्यमात्र की भाषा का उद्भव हुआ करता है, जिसे श्रीदेवी अथर्वशीर्ष के परिप्रेक्ष्य में समझें तो स्पष्ट होगा कि देवों /देवताओं की भाषा 'संस्कृत' क्यों और कैसे लौकिक भाषाओं से कुछ भिन्न है।

व्याकरण का उद्भव बाद में हुआ।  अतः व्याकरण भाषा को सुसंगत, शुद्ध और त्रुटिरहित करने में सहायक अवश्य है किन्तु उसकी भूमिका गौण है। इसलिए मूल शब्दों (या वर्णों) और उनके संयोग, संहिता, संधि, तथा समुच्चय आदि से बने शब्दों का अर्थ उन उन शब्दों में पूर्व से ही शाश्वत रूप से विद्यमान है। 

पंडित जगन्नाथ नामक एक विद्वान के इस मत को समझने में श्री जे. कृष्णमूर्ति को बहुत कठिनाई होती थी कि किसी शब्द में उसका 'अर्थ' पहले ही से कैसे विद्यमान हो सकता है? 

बहुत से दूसरे लोगों की तरह श्री जे. कृष्णमूर्ति भी शायद यही  समझते रहे होंगे कि 'अर्थ' तो शब्द के पैदा होने के बाद उससे संबद्ध किया जाता है!  लौकिक दृष्टि से भी यही प्रतीत होता है, किन्तु यह सिर्फ लौकिक भाषाओं के ही संबंध में ही सत्य हो सकता है न कि संस्कृत के संबंध में। 

श्री जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षा दीक्षा जिन शिक्षकों के मार्गदर्शन में हुई वे स्वयं भारतीय और वैदिक संस्कृति से कितने संबद्ध थे इस पर ध्यान दिए जाते ही यह समझा जा सकता है कि श्री जे. कृष्णमूर्ति को इस प्रकार की कठिनाई क्यों रही होगी। 

केवल प्रसंगवश ही यहाँ यह संदर्भ लिखा जा रहा है। 

मेरी अपनी संस्कृत यात्रा केवल "ग्रन्थपाठ" की परंपरा से प्रारंभ हुई और यद्यपि अपने ज्ञान को शुद्ध और दोषरहित करने के लिए मैंने व्याकरण का यत्किञ्चित अध्ययन भी किया किन्तु व्याकरण का मेरे लिए गौण महत्व रहा । 

व्युत्पत्तिशास्त्र, अर्थात् व्याकरण से शब्द की उत्पत्ति कैसे होती है, इस दृष्टि से देखें तो हमें पंडित जगन्नाथ की उस दृष्टि का महत्व समझना सरल होगा कि किसी शब्द में उसका 'अर्थ' किस प्रकार से पहले ही से अप्रकट होता है।

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अब शिव-अथर्वशीर्ष के मंत्रों पर ध्यान दें तो यह कुछ इस प्रकार से है सकता है :

म्-अस्-तिः-कः से 'मस्तिष्क',

म्-उर्/ऊर्-धा से 'मूर्धा',

का तात्पर्य उद्घाटित / प्रकट होता है। 

अर्थात् यह, कि ये शब्द उस भाव के द्योतक हैं 

"उज्झ" धातु, "सृज्" अर्थात् "त्यज" के अर्थ की ही समानार्थी है। 

किंतु रूढ अर्थ में प्रायः यह समझा जाने लगा है कि "सृज्" का अर्थ है "रचना" ।

इसी प्रकार, "संहार" का अर्थ है संहरण /समवेत करना किन्तु रूढ अर्थ में उसे "नाश करने" का समानार्थी समझा जाता है। 

"हृदयं" हृत-अयम् के अर्थ में उसी "चेतना" का द्योतक है जिसे गीता के अध्याय १० में :

"भूतानामस्मि चेतना"

से व्यक्त किया गया है, न कि वह हृदय जिसे anatomy में physical heart organ कहा जाता है। 

सबसे रोचक, सरल तथा गूढ तात्पर्य है 

"अथर्वा" या "अथर्वणः" का, 

जो एक दृष्टि से ऋषि का,  तो दूसरी दृष्टि से आत्मा तथा रुद्र या परमात्मा का भी द्योतक है। 

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Wednesday, 17 February 2021

The Power.

 ... of Indecision.

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Connectivity is subject to Communication. 

Communication takes place when there is urgency. 

Urgency, or rather the sense of urgency springs up from a situation and how you deal with it. 

You can take it as a challenge, or as the need of the moment.

But really "WHO" decides? 

The body and the world are inseparable, interdependent entities.

The mind (if it is said "my mind") and the world as is grasped through mind is again but a situation only. 

Though "my mind" appears as an independent one, it is the conditions and the accumulated past and conditioning, that moulds it and brings up the resultant mind in this very moment. 

This "mind" which is neither "your" is split into the one who says "my mind", and the sum total if the past conditioning,  -say "memory" only. 

Here you ARE! 

The question sums up in :

Exactly, 

"WHO", or "WHAT" "YOU-ARE" !

Don't you see you are neither the "mind", nor the body, and not at all the "world" that is seen in the "consciousness", - which is again mistakenly assumed and claimed as "my" or "mine".

So you could hereby probably understand only, that this "consciousness" or rather "the AWARENESS" has no role what-so-ever in deciding the fate of the world, the body, or the "mind" (which is but movement of thought only), nor of the person you assume you are! 

Understanding this carefully is the only freedom from the past, future and the imagined present. 

Though this "TIMELESS" present has neither beginning, nor end, the "assumed" past, present and future seem to appear and disappear in the "AWARENESS" where-in a sense of the individual keeps arising up and fading away each and every moment.

There is really "no-one" who could be said to have assumed this "self" which is supposed to have been "born" and shall possibly "die" some day.

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Sunday, 14 February 2021

अपाम सोमममृता ...

अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ....

(शिवाथर्वशीर्षम् ३)

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लगभग ५ वर्ष पहले फेसबुक पर मेरी एक बहुत अच्छी मित्र थी, जिसका नाम था , -वंदना सिंह। 

उसने मुझसे कहा था कि मैं 'अपाम' के बारे में कुछ लिखूँ। 

उन दिनों मैं प्रायः गणपति, शिव, देवी, -इन तीनों अथर्वशीर्ष का पाठ किया करता था।  

अपनी अंतःप्रेरणा से प्राप्त मेरी सदा से यह निष्ठा रही है कि वेद तथा अन्य तत्संबंधित पवित्र ग्रन्थों आदि का यथासंभव शुद्ध उच्चारण-पूर्वक पाठ ही उन्हें समझने का सर्वोत्तम तरीका है।

इसी निष्ठा से प्रेरित होने से, मैं न तो भावना के, और न ही तर्क के माध्यम से कभी इन ग्रन्थों के अर्थ को समझने की धृष्टता किया करता था। 

चूँकि संस्कृत सदैव से ही मेरा अत्यन्त प्रिय अध्ययन का क्षेत्र रहा है इसलिए संस्कृत व्याकरण के आधार पर इन रचनाओं का सरल शाब्दिक तात्पर्य क्या है, इस कौतूहल से प्रेरित होकर मैं कभी कभी इन ग्रन्थों के किसी अंश को समझने का प्रयास भी किया करता था। 

वंदना मुझे "दादा" कहती थी। 

संयोगवश, वर्षों बाद वंदना नाम की ही किसी दूसरी मित्र ने मुझसे शिव-अथर्वशीर्ष पढ़ना चाहा तो मैंने तदनुसार इसका यथासंभव शुद्ध तात्पर्य जानना चाहा, और 

"अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्"

के बारे में मुझे अपनी समझ पर शंका थी। 

इसके दो कारण थे :

"पा" धातु "रक्षा करने" और "पीने" इन दो अर्थों में आवश्यकता के अनुसार प्रयुक्त हो सकती है । कल और आज सुबह तक इसी आधार पर समझने की चेष्टा करते हुए जब इस पर ध्यान गया कि यहाँ "पीने" के अर्थ में लुङ् लकार, उत्तम पुरुष बहुवचन में इस धातु का प्रयोग ग्राह्य है तो 

"अभूम आगन्म ज्योतिः अविदाम" 

का तात्पर्य भी तुरंत स्पष्ट हो गया। 

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सोचा, यह रोचक है कि किस प्रकार कोई सूत्रधार हमारे जीवन के मार्ग पर हमें समय समय पर दिशा-निर्देश देता रहता है,  जिनका महत्व हमें समय आने पर ही पता चलता है। 

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Saturday, 13 February 2021

क्या द्वैत सत्य है?

शाम को प्रायः घर के आसपास टहलता हूँ ।

अचानक एक विचार आया :

"मुझे एक मोबाइल चाहिए।" 

ध्यान था कि किस प्रकार, वस्तुतः किसी विचारकर्ता के अभाव में भी, किसी विचार के उठते ही, तत्काल ही "मैं" का विचार भी उसकी छाया की तरह उठ खड़ा होता है, और फिर काँटे में बिंधी हुई छटपटाती, तड़पती मछली की तरह उसके साथ साथ स्वतंत्र "मैं" की तरह अस्तित्वमान प्रतीत होता है। 

"कौन मैं?"

एक प्रश्न भी तत्काल उठ खड़ा हुआ।

तब इस मूर्खता पर हँसी आई कि किस प्रकार प्रमादवश (because of inattention of being inattentive) विचारकर्ता की सत्यता पर इस प्रकार ध्यान न दिए जाने से ही मन अपने ही जाल में फँस जाता है। 

यह मन,  जो न विचार है,  -न विचारकर्ता, किस प्रकार से इस कोरी बौद्धिक मान्यता से ग्रस्त हो जाता है। 

क्या विचार अथवा विचार का उपजात (by-product) 'विचारकर्ता' कभी मन को जान सकते हैं ? या कि मन ही उन्हें जानता है, और उनका नित्य चेतन, आधारभूत मूल स्रोत है? 

"मुझे मोबाइल चाहिए।"

इस विचार के उठते ही जो "मैं" अस्तित्वमान प्रतीत हुआ, क्या वह विचार, विचारकर्ता या वह "मन" हो सकता है, जिन्हें वैचारिक घटनाक्रम की तरह या उनके मूल अधिष्ठान "मन" की तरह जाना जाता है? 

"क्या द्वैत सत्य है?"

भी ऐसा ही प्रश्न है। 

प्रश्न को यदि सुधारा जाए तो उसका रूप कुछ इस प्रकार  हो सकता है :

"क्या द्वैत प्रतीति ही नहीं है? 

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Friday, 12 February 2021

द्वैत

द्वैत पाप है ... ... ...

पाप न भी हो, तो अज्ञान है,

अज्ञान न भी हो, तो भ्रम है,

भ्रम न भी हो, तो भूल है,

भूल न भी हो तो दुःख तो है ही।

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इसीलिए जब तक द्वैत है, 

तब तक दुःख का अन्त नहीं हो सकता। 

द्वैत का अन्त आत्म-ज्ञान है,

और आत्म-ज्ञान ही दुःख का अन्त है। 

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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत । 

सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ।। 

(श्रीमदभगवद्गीता ७/२७)

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Tuesday, 9 February 2021

क्या आत्मा "अकर्ता" है?

Does the observed exist apart from the observer? Could the observed be said to have its own independent existence apart from the observer?

This implies,  the observed is but the extension of the observer only. 

So could be inferred that the self / Self is the all-doer and not the one non-doer. 

"स्वतन्त्रः कर्ता।।"

पाणिनी अष्टाध्यायी १/४/५४

से भी इसकी पुष्टि होती है। 

इस प्रकार जीव से अन्य, किन्तु अभिन्न एक कर्ता का अस्तित्व स्वीकार्य है। 

किन्तु उससे द्वैतसिद्धि नहीं हो सकती, न किसी ऐसे ईश्वर की सत्यता जिसकी उपासना या आराधना की जा सके। 

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अहंकार-चतुष्टय

 अन्तःकरण-चतुष्टय

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Kevin Hartnett / Quantamagazine 

में 

Undergraduate Mathematics 

के ब्लॉग में एक रोचक पोस्ट पढ़ते हुए ध्यान आया कि अपने  स्कूल के दिनों में मैंने एक प्रमेय (theorem) लिखा था। 

उसे लिखे हुए 50 वर्ष बीत रहे हैं 

अब मैं उसकी समानता / तुलना (analogy), आध्यात्मिक अनुसंधान के संदर्भ में अहंकार-चतुष्टय से कर सकता  हूँ,  और पुनः अहंकार-चतुष्टय की आत्म-चतुष्टय से भी। 

जैसे संपूर्ण अभिव्यक्त जगत् तीन आयामों ( within 3 dimensions) में सीमित है, और तीन आयामों से सीमित जगत् को भी षट्फलक में सीमित की तरह समझा जा सकता है (तीन उसके भीतर से, तथा तीन उसके बाहर से) जिनका एक ही अन्तःकेन्द्र) एक बिन्दुमात्र है, उसी प्रकार आत्म-चतुष्टय भी छः फलकों वाली रचना (figure) है, जिसे अहंकार-चतुष्टय रूपी केन्द्र का प्रतिरूप (analogues) समझा जा सकता है।

इस आत्म-चतुष्टय अर्थात् अहंकार-चतुष्टय के चार फलक क्रमशः 

ज्ञातृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व तथा स्वामित्व कहे जा सकते हैं। 

ये चारों पुनः अन्योन्याश्रित होने से परस्पर अविभाज्य भी हैं। 

इस प्रकार आत्म-तत्व 

एकमेव-अद्वितीय वास्तविकता 

( The only Unique Reality)

है। 

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Monday, 8 February 2021

वैराग्य और विवेक

 निष्ठा और आत्मज्ञान 

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जब सत्संग, भक्ति आदि किसी भी तरीके से चित्त की शुद्धि हो जाती है, तो मनुष्य के मन में नित्य-अनित्य की जिज्ञासा जागृत होती है। यह जिज्ञासा तीव्र होने पर उसका ध्यान उस तत्व की ओर जाता है, जिसे वह ऐसी वस्तु की तरह स्वीकार कर सकता है, जो अवश्य ही नित्य और अविकारी भी है। 

इस प्रकार की संशयरहित निष्ठा उत्पन्न होने पर उसमें वह परोक्ष या अप्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है जो आत्म-ज्ञान का प्रारंभ है। 

जब यह निष्ठा दृढ हो जाती है तो उसे उस वस्तु के अस्तित्व पर भी उसे इतना ही दृढ विश्वास हो जाता है।

यह वही वस्तु अर्थात् आत्मतत्व है, जिसे न तो अग्नि जला सकता है, न जल भिगो सकता है, न वायु सुखा सकता है, और न शस्त्र काट या नष्ट कर सकता है, जो मन और बुद्धि के लिए अचिन्त्य है ।

इस वस्तु को अपरोक्षतः अर्थात् प्रत्यक्षतः जान लेने पर ही मृत्यु का भय भी मिट जाता है। 

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Friday, 5 February 2021

नचिकेता और ब्रह्मलोक

कठोपनिषद् के माध्यम से यम ने नचिकेता से संवाद करते हुए परब्रह्म परमात्मा का पूर्ण सत्य कह दिया किंतु नचिकेता के मन में यह प्रश्न बना ही रहा कि जब ब्रह्मज्ञ ब्रह्मा के लोक में प्रविष्ट होते हैं तो वह क्या उपदेश शेष रह जाता है जो ब्रह्मा से उन्हें प्राप्त होता है, और तब उन्हें नित्य और सद्योमुक्ति मिलती है? 

शायद वह कुछ इस प्रकार का होता होगा :

"अहं ब्रह्मास्मि" के अनुभव के बाद भी "ब्रह्मैवाहम्" पर ध्यान न जाने से वैयक्तिक अहंवृत्ति के रूप में दृग्-दृश्य का भेद बना ही रहता है, इसलिए वस्तुतः ब्रह्म को जानकर मनुष्य ब्रह्मवित् तो हो जाता है किन्तु "अयमात्मा ब्रह्मेति" का भान उसे नहीं हो पाता। 

वैसे तो यह शाब्दिक और बौद्धिक प्रश्न है, किन्तु इस दृष्टि से महत्वपूर्ण भी है कि आत्मा की अभेदता में दृग्दृश्य भेद का कोई स्थान नहीं होता। 

महर्षि श्री रमण के शब्दों में :

"न वेद्म्यहं मामुत वेद्म्यहं मा

मिति प्रवादो मनुजस्य हास्यः। 

दृग्दृश्यभेदात्किमयं द्विधात्मा 

स्वात्मैकतायां हि धियां न भेदाः।।"

(सद्दर्शनम्)

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Tuesday, 2 February 2021

Four Continents.

 When the God of Creation, the Cosmic Mind (ब्रह्मा) did तपस् to propitiate the Lord Supreme, the Lord pleased and ब्रह्मा was bestowed upon the power for creating the universe. 

He created Galaxies, solar systems, planets,  black-holes and warm-holes, comets, stars and moons and finally the Earth.

This whole creation was extremely fantastic but there was no one who could appreciate and admire all this. 

So ब्रह्मा called upon the Goddess सरस्वती, the Goddess of Art and asked Her to paint a picture of someone who could appreciate and admire His all this creation.

She asked Him for the canvas and the colors to paint the picture.

ब्रह्मा, after a bit deliberation, gave Her Four colors and the Earth where She could paint Her picture of imagination.

There were only Four continents on Earth at the time. She sought help from गणेश who told Her that even if She wanted to paint many continents,  these Four colors are sufficient enough.

O. K.  She said. 

She took the brush and painted the first one in the color of Earth. This was yellow, symbolic of Gold. Then She painted the second in blue, symbolic of Water and Sky. Then She painted the third in the color red, symbolic of Fire. Then She stopped painting and let the fourth colorless, symbolic of Air. 

ब्रह्मा was very happy indeed.

He named the continents as :

Delugia,

Amnesia,

Intelligentsia,

And 

Bemusia,

Respectively. 

But then the last two split into :

Enthusia and Confusia, respectively.

The Cosmic Mind (ब्रह्मा) had two daughters namely :

सरस्वती and शारदा.

These two were born from His Head (मूर्द्धा), and not really the biological because He was the beginning of the manifestation where the sentient and insentient forms were yet to appear in His Consciousness.

The continents however spread over the face of Earth and the whole globe. 

The people who came to life there lived and in the coming millennia the continents became 7 in number.

ब्रह्मा however couldn't  understand what is this all all about. 

He knew what the world of His creation was, 

He was father to 10 प्रजापति, who in their turn fathered all the 84000 species on earth.

He also knew the three realms namely :

The Physical, the mental and the spiritual, yet he failed to fully understand their significance and purpose any. 

He was given Veda which comprised of all knowledge,  and He begot this from Saraswati  while begot Vedanta from Sharada.

The two twin sisters (His own daughters indeed, but not the biological) had their role in the world,  and the 7 colors of rainbow were the plaything and pass time for the two.

He too played with them though couldn't understand what all this phenomena really meant.

He had 5 faces namely :

The mind (where feelings dwelt) 

The intellect (where the logic dwelt)

The mood (where the attention dwelt)

And, finally,

The Ego (who always changed form from one to another).

He could see all and any three of the four are but mutually dependent, but invariably have to depend upon the support of ego only. 

Interestingly, ego had no form of its own whereby it could be understood. 

But even more, a question arose in His mind, exactly "Who" know the existence of "ego"?

Is there yet another "ego" who knows?

Could "ego" be two or many? 

Isn't it really one and unique?

The moment this question appeared before Him, He at once went into kind of trance, where all duality ceased to exist. 

The "Knowing" and the "Being" merged into "One", and this One  knew no "Other".

Yet it was not "darkness" (ignorance), nor movement of the kind.

After along while He came to His present awareness and realized:

All ignorance has to cease for knowledge to come, and all knowledge has to cease for the wisdom to come.

He was drowned in the Bliss,

 Eternal, timeless, Absolute and Supreme.

He might never know His Creation  still follows Him and would go on in this way for all the coming times.

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Next post :

ब्रह्मलोक 

(the abode if Brahma-deva, 

- the Cosmic Mind.)

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